[ संसार से विदाई ] रामानुजन की लगातार बीमारी के कारण घर के सभी सदस्य बहुत चिंतित थे। जैसा कि ऐसे समय पर बहुधा होता है, दुःखी मन ओषधि के साथ-साथ ज्योतिष से भी समाधान ढूँढ़ता है। मार्च 1920 में उनकी माँ श्री नारायण स्वामी अय्यर, जो गणितज्ञ शेषु अय्यर के पूर्व विद्यार्थी के अतिरिक्त एक प्रसिद्ध ज्योतिषी भी थे, से मिलीं।
नारायण स्वामी अय्यर ने जन्म कुंडली माँगी तो माँ, जो स्वयं ज्योतिष में पारंगत थीं, ने स्मृति से ही पूरी ग्रह-स्थिति उन्हें बता दी। कुछ समय तक उसका अध्ययन करने के बाद नारायण स्वामी ने कुछ इस प्रकार बताया “यह व्यक्ति या तो विश्व प्रसिद्ध होकर अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर ही मृत्यु को प्राप्त होगा या फिर लंबा जीवन जीकर विस्मृति के गर्त में खो जाएगा।” ऐसा बताने के पश्चात् उन्होंने पूछा “यह व्यक्ति है कौन? इसका नाम क्या है?”
माता कोमलताम्मल की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा कि यह कुंडली रामानुजन की है और स्वयं मेरा भी यही मत है।
कहते हैं, नारायण स्वामी ने यह जानकर अपनी ओर से कही अशुभ बात को कुछ सँभालने का प्रयास करते हुए कहा “मैंने कुछ जल्दी में यह सब कह दिया है, कृपया उसके किसी निकट संबंधी को न बताना।" इस पर कोमलताम्मल का उत्तर था, "मैं रामानुजन की माँ हूँ।”
नारायण स्वामी ने झेंपते हुए कहा कि अगली बार आप उसकी पत्नी की कुंडली लेकर आना। परंतु अगली बार की आवश्यकता नहीं थी, माँ ने तुरंत वहीं जानकी की कुंडली निकालकर दे दी। नारायण स्वामी ने देर तक दोनों कुंडलियों को साथ-साथ रखकर विचार किया और कुछ मार्ग निकालने के विचार से सुझाया “रामानुजन और जानकी को कुछ समय के लिए अलग-अलग रहना शुभकर लगता है।”
यही बात माता के मन में भी थी, परंतु उनके मुख से निकला, “यह तो वह सुनना तक नहीं चाहेगा।”
रामानुजन बहुत दुर्बल हो गए थे। वह कृशकाय ही नहीं, मात्र अस्थिपंजर होकर रह गए थे। उनकी पत्नी ने बाद में बताया कि रामानुजन के पेट एवं पैरों में दर्द रहता था। इस दर्द से वह कराह उठते। पत्नी गरम पानी से उनके पैरों तथा वक्ष को सेंकती थी, परंतु ज्वर और दर्द से उन्हें कभी छुटकारा नहीं मिला। कभी-कभी तो रात-रात भर जागकर वह उनकी सेवा करती थी। बाद में उनकी पत्नी ने यह भी बताया कि वह उनके प्रति सदा बहुत ही सहृदय रहे। अपनी बातों से वह उन्हें प्रसन्न करने के लिए हँसाने का प्रयत्न करते थे। अपने इंग्लैंड-प्रवास के अनुभव एवं कहानी-किस्से सुनाया करते थे। कैंब्रिज में अपने अंग्रेज मित्रों को दक्षिण भारत का अपना बनाया भोजन देने पर मिर्च चबा जाने पर उनकी क्या दशा होती थी, आदि। अपनी मृत्यु निकट देखकर वह अपनी पत्नी के भावी जीवन-निर्वाह को लेकर भी चिंतित रहते थे।
उनके चिकित्सकों तथा कई मित्रों का यह कहना है कि उनमें जिजीविषा,जीने की चाह, नहीं रही थी। वह सदा उदास एवं उद्विग्न ही रहते थे। हाँ, अपनी मृत्यु के चार दिन पूर्व तक वह स्लेट एवं कागजों पर गणित कार्य करते रहे। स्थिति गंभीर बन चुकी थी। चिकित्सकों ने बतला दिया था कि ओषधि के स्थान पर अब उनका जीवन केवल दैवीय शक्ति के भरोसे ही है।
26 अप्रैल, 1920 को बहुत प्रातः ही वह अचेत हो गए। दो घंटे तक उनके समीप बैठकर उनकी पत्नी उन्हेंं चम्मच से थोड़ा-थोड़ा दूध उनके मुख में डालती रहीं। फिर मध्याह्न से पूर्व ही वह इस संसार से प्रयाण कर गए। उस समय उनके निकट ही उनकी पत्नी जानकी, माता कोमलताम्मल, पिता श्रीनिवास आयंगर (जो दृष्टिहीन हो चुके थे), दोनों भाई (लक्ष्मी नरसिंहा एवं तिरुनारायणन) और कुछ अन्य मित्र उपस्थित थे।
श्री रामचंद्र राव ने अपने दामाद श्री सी. एस. रामाराव तथा उनके बाल्यकाल के मित्र श्री राजगोपालाचारी की सहायता से उसी दिन अपराह्न में उनके पार्थिव शरीर के दाह संस्कार का प्रबंध कर दिया। एक महान् विभूति की जीवन-लीला का इस प्रकार असमय ही अंत हो गया।