कोलेज कैंपस में प्रथम दिन। इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण करने के पश्चात् मन में एक नयी उमंग नये कोलेज में जाने का। इस छोटे-से शहर में जहाँ मैं रहती हूँ, यहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मात्र एक ही कोलेज है। इसमें भी सहशिक्षा प्रणाली लागू है। शहर में बालिकाओं के लिए इण्टर तक के दो-तीन कोलेज हैं। किन्तु इण्टर के पश्चात् उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए बालिकाओं के लिए अलग से डिग्री कोलेज नही है। अतः लड़कियाँ आगे की पढ़ाई लड़कों के साथ सहशिक्षा वाले इस कोलेज में करती हैं।
मन में घबराहट, संकोच व कुछ-कुछ डर भी कि लड़कों के साथ पढ़ना है। सच कहूँ तो एक छवि पूर्वाग्रह से ग्रस्त कि लड़के अच्छे नही होते, लड़कियों के प्रति अच्छी दृष्टि नही रखते....आदि....आदि। मन में कुछ इसी प्रकार की धारणा लेकर जैसे ही कैंपस में दाखिल हुई स्थान-स्थान पर लड़कों के झुण्ड दिखने लगे।
मैं अपनी सहपाठी सौम्या के साथ थी, फिर भी चलते समय अपनी दृष्टि जमीन में गड़ाये चुपचाप छात्राओं के लिए बने कक्ष की ओर बढ़ रही थी। कमोवेश यही स्थिति मेरे साथ चल रही सौम्या की थी। उसकी भी दृष्टि नीचे की ओर झुकी थी। उसके चेहरे पर भी संकोच के भाव थे। हम शीघ्रता से छात्राओं के कक्ष में पहुँच जाना चाह रही थीं। अतः हम शीघ्रता से चल रही थीं। किन्तु हमाारे व छात्राओं के कक्ष के मध्य यह लम्बा गलियारानुमा बरामदा था। किसी प्रकार हिलते-घबराते हम दोनों छात्राओं के कक्ष तक पहुँच ही गये।
छात्राओं के कक्ष में पहुँच कर हमने अपनी दृष्टि ऊपर की ओर उठाईं तथा एक-दूसरे को देख कर मुस्करा पड़ी। इस कक्ष में आकर संकोच का लबादा उतार कर हम भी लड़कियों के साथ बातचीत-शोरगुल में शामिल हो गयीं। कुछ ही देर में मैं भूल गयीं कि कोलेज के गेट से यहाँ तक आते-आते मैं और सौम्या कितनी सहमी हुई थीं। कुछ देर में हमारी कक्षाओं का समय हो गया और हम अपनी कक्षाओं की ओर जाने लगीं।
हमें नोटिस बोर्ड से अपने -अपने विषय के पीरियड और कक्ष संख्या भी नोट करना था। अतः हम नोटिस बोर्ड की ओर बढ़ गये। नोटिस बोर्ड के पास लड़कांेे की भीड़ थी। सबने बोर्ड घेर रखा था। कारण कोलेज खुलने का यह प्रथम सप्ताह था। सभी शीघ्रतया-शीघ्र अपने-अपने विषयों का समय-चक्र व कक्ष संख्या जान लेना चाह रहे थे। मैं और सौम्या लड़को की भीड़ देखकर पीछे हटकर खड़े हो गये। कुछ देर तक हम यूँ ही खड़े रहे। जब भीड़ कुछ कम हुई तब जाकर हम अपने-अपने विषय की समय-सारिणी और कक्ष संख्या नोट कर पाये।
शनै-शनै दिन व्यतीत होने लगे। कोलेज में आते-जाते समय के साथ धीरे-धीरे लड़कों के प्रति मेरी झिझक व संकोच कम होती जा रही थी। उनके प्रति मेरी ये धारणा कि वे बुरे होते हैं, अब कम होने लगी थी। अब मैं अपनी कक्षा के पढ़ने में रूचि रखने वाले लड़कों से बातचीत भी कर लेती। यदि कभी किसी दिन कोलेज नही जा पाती उस दिन का छूटा हुआ काम उनसे पूछ लेती...... काॅपियां भी मांग लेती। कुछ लड़के स्वंय पढ़ने में मेधावी तो थे ही.... साथ ही किसी की सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते। वे कोलेज की सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहतेे। मात्र पुस्तकीय शिक्षा में ही नही। ऐसे लड़कों को मैं पहचानने लगी थी।
धीरे-धीरे लड़कों से मैं घुलने-मिलने लगी। कितने अच्छे दिन थे वे। कोलेज के वे दिन वसंत ऋतु की भाँति मादक-मनमोहक थे, तो रातें शरद की रातों की भाँति तारों भरी। कोलेज में पढ़ाई के साथ ही साथ मैं सांस्कृतिक गतिविधियों में भी बराबर हिस्सा लेती। मैं गाने में रूचि रखती थी। मेरी मित्र कहा करती थीं कि मैं अच्छा गा लेती हूँ। मुझे गज़लें गाना बहुत पसन्द था। प्रेम रस में भीगी गज़लें व सूफी गाने मैं कोलेज के कार्यक्रमों में मंच पर गा देती। तालियों की गड़गड़ाहट से मुझे ऐसा लगता कदाचित् मैंने अच्छा गाया है।
कोलेज की गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण कोलेज के छात्र-छात्राएँ व अध्यापक मुझे मेरे नाम से जानने लगे थे। इन गतिविधियों के कारण मैं भीड़ से कुछ अलग थी इस बात की अनुभूति मुझे तब होती जब कोई सहपाठी मुझे मेरे नाम से पुकार कर विषय से सम्बन्धित कोई जानकारी लेना चाहता जब कि मैं उसे नही पहचानती। उन दिनों की स्मृतियाँ अब भी मेरे मन-मस्तिष्क में चलचित्र की भाँति यदा-कदा घूम जाती। सपनों के संसार में रची गयी किसी प्रेम कहानी-सा सुखद आकर्षक व बहुरंगी चित्र-सा।
कोलेज के दिनों की स्मृतियाँ समक्ष हों और और वो मुझे विस्मृत हो जाये? ये भला कैसे हो सकता है? वो मेरे ही साथ पढ़ता था। दुबला-पतला, गेहुँये रंग का आकर्षक-सा वो लम्बा लड़का सीधा व देखने में साधारण-सा था। अन्य लड़कों की अपेक्षा वह कुछ गम्भीर-सा रहता। कक्षा के कुछ मेधावी छात्रों में था वह। मैं उसकी ओर कभी ध्यान न देती यदि कक्षा में बहुधा उसे अपनी ओर देखते हुए न पाती। कभी -कभी यह देखने के लिए कि कहीं वो मेरी ओर देख तो नही रहा मैं उसकी ओर देखती और उसे अपनी ओर देखते हुए पा कर मेरी दृष्टि उससे टकरा जाती। मैं शीघ्रता से अपनी दृष्टि नीचे झुका लेती या दूसरी ओर घुमा लेती। मैं समझने का प्रयत्न करती कि आखिर वो मेरी ओर क्यों देखता रहता है?
एक दिन कोलेज से मैं घर जा रही कि सहसा पीछे से किसी ने आवाज दी....’आकांक्षा... , मैंने पलट कर देखा मुझे आवाज देने वाला वही लड़का था। मैं रूक गयी। मेरे साथ सौम्या व एक अन्य लड़की भी थी।
’’ हाँ..बताओ। ’’ मैने तत्काल उससे कहा।
’’ आप अपनी केमेस्ट्री की काॅपी मुझे दे सकती हैं? ’’ उसने मेरी ओर देखते हुए कहा।
’’ हाँ.....हाँ....ले लो। ’’ कह कर मैं अपने बैग से कापी निकालने लगी। मुझे ऐसा लगा जैसे इस बीच वह ध्यान से मेरी ओर देख रहा है।
काॅपी निकाल कर उसको देकर शीघ्रता से मैं आगे बढ़ गयी। यह सब इतनी शीघ्रता से हुआ कि दो कदम आगे बढ़ने पर उसके थैंक्स कहने की आवाज मुझे सुनायी दी। मैं पीछे देखे बिना चली आयी। दूसरे दिन क्लास में थैंक्स के साथ काॅपी उसने वापस कर दी। काॅपी उससे ले कर मैं उसके पन्ने पलटने लगी। मैंने सुना था कि लड़के पढ़ने के बहाने लड़कियों से काॅपियाँ लेकर उसमें प्रेम पत्र रख देते हैं। इसी आशंका से मैं अपनी काॅपी का निरीक्षण करने लगी। काॅपी में किसी अवांछित वस्तु को न पा कर मैं संतुष्ट हो गयी। धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते जा रहे थे। समय-चक्र के अनुसार ऋतुयें भी बदलती रहीं। एक वर्ष व्यतीत हो गये सत्र समाप्ति की ओर अग्रसर हो गया।
मार्च महीना प्रारम्भ हो गया था। वार्षिक परीक्षायें होने वाली थीं। सत्र के समापन में कोलेज में फेयरवेल पार्टी का आयोजन किया गया था। सभी छात्र उत्साह पूर्वक पार्टी की तैयारियों में जुट गये थे। कोलेज के बड़े मैदान में मंच बनाया गया था। छात्र सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अपनी रूचि के अनुसार गायन, वादन, नृत्य चुटकुले, नाटिकाओं इत्यादि की तैयारियों में लगे थे। इस अवसर के लिए मैंने भी के सूफीयाना गीत तैयार किया था।
वो कोलेज के फेयरवेल की शाम थी। कार्यक्रम का समय शाम पाँच बजे से आठ बजे तक का था। वो शाम अत्यन्त खूबसूरत थी। यूँ भी मार्च माह की शाम अत्यन्त खूबसूरत होती है। उस पर युवावस्था व कोलेज की दिनों की शाम। सब कुछ अच्छा लग रहा था। कार्यक्रम में भाग लेने वाली लड़कियाँ तैयार हो कर मंच के पीछे बैठकर अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थीं। मैं भी मंच के पीछे बैठ कर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी।
सहसा मंच पर किसी के गिटारवादन की उद्घोषणा हाने लगी। उद्घोषक ने छात्र का नाम विलाल अहमद बताया। मैं विलाल नाम के छात्र को पहचानती नही थी। गिटार पर मन्त्रमुग्ध कर देने वाली स्वरलहरियाँ हवाओं में गूँजने लगीं। गिटार की मधुर धुन ने मुझे विवश कर दिया गिटारवादक को देखने के लिए। मुख्य मंच के नेपथ्य में खड़ी मैं परदे के कोने को सरका कर गिटरवादक को पहचानने का प्रयत्न करने लगी। ’ ओह! इतना मधुर गिटार तो मेरे साथ पढ़ने वाला वो लड़का बजा रहा है। वो जो मुझे कक्षा में छुप-छुप कर देखा करता है।......तो उसका नाम विलाल है....। ’’ मै मन ही मन बुदबुदा उठी।
बाद में मुझे विलाल का गाना भी सुनने का अवसर मिला। वो अवसर था सत्र के अन्तिम शनिवार को कोलेज में होने वाले अन्त्याक्षरी का। इस अवसर पर सबने गाने गाये। किसी ने रोमांटिक, तो किसी ने दर्द भरे गीत गाये। विलाल ने भी एक प्रेम भरा गीत गाया था। उस दिन मुझे उसकी इस खूबी का ज्ञात हुआ कि वो गाता भी अच्छा है। उसकी प्रशंसक बनते-बनते न जाने कब शनै-शनै मै उसकी ओर आकर्षित होती चली गयी। वह मुझे अच्छा लगने लगा। उसके चेहरे पर रहने वाली गम्भीरता व उदासी के भाव मुझे अच्छे लगते। क्लास में पढ़ते-पढ़ते वो मुझे देखा करता अब मेरी दृष्टि भी स्वतः उसकी ओर उठ जाती।
विलाल के घर-परिवार के विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नही था। न ही कि वो कहाँ रहता है? उसके घर में कौन-कौन है? न ही जानने की जिज्ञासा। एक दिन विलाल ने मेरी काॅपी मांगी। दूसरे दिन उसने काॅपी वापस कर दी। कुछ दिनों पश्चात् न जाने क्या ढूँढने के प्रयास में मैं उस काॅपी के पन्ने पलटने लगी।
काॅपी के पीछे के पेज पर मुझे चार पंक्तियों की एक खूबसूरत....रोमांटिक कविता लिखी हुई मिली। जिसे निश्चित रूप से विलाल ने ही लिखी थी। कविता की चारों पंक्तियाँ बेहद भावनात्मक व हृदयस्पर्शी थीं। मैंने उन्हें कई बार पढ़ा.....बार-बार पढ़ा....। मन सोच रहा था कि कहीं विलाल ने उसे मेरे लिए तो नही लिखा है। कदाचित् हाँ.....अन्यथा मेरी काॅपी के पिछले पन्ने पर लिखने का क्या औचित्य ? मन प्रफुल्लित रहने लगा था।
अगली बार विलाल ने मेरी काॅपी में एक लाल गुलाब का फूल रख दिया था। गुलाब की खूशबू से महक-महक उठा था मेरा सम्पूर्ण वजूद। विद्यार्थी जीवन के युवा दिन.....और विलाल के समीप होने की अनुभूति..... मेरे दिन-रात गुलाल के रंगों में डूबते जा रहे थे। फागुनी हवाओं की भाँति मेरे भीतर भी एक सुरूर-सा व्याप्त होता जा रहा था। कोलेज पहुँच कर मेरे नेत्र उसे ढूँढते रहते। क्लास के अतिरिक्त वह कभी-कभी मुझे क्लास के बाहर भी दिखायी देता।
कभी-कभी का उसका दिख जाना प्रतिदिन मुझे उसकी प्रतीक्षा करवाता। जब तक मुझे वो दिखाई न देता, मेरा मन उसे देखने के लिए व्याकुल रहता। विलाल मेरे लिए क्या सोचता? उसके हृदय में भी मेरे लिए क्या ऐसी ही अनुभूति थी? यह जाने बिना मैं उसकी ओर खिंचती चली जा रही थी।
क्षण-प्रतिक्षण विलाल मेरी कल्पनाओं में विचरण करने लगा था। भविष्य में विलाल मेरे साथ रहेगा या नही, वो मेरा जीवन साथी बन कर मेरा साथ निभायेगा या नही..? ये सब कुछ सोचे बिना विलाल मेरा पहला प्यार, मेरे जीवन में प्रस्फुटित् प्रेम का प्रथम अंकुर....प्रेम की प्रथम अनुभूति बन गया था। उन खूबसूरत दिनों में मेरे साथ कुछ था तो मात्र मेरा सपना कि पढ़-लिख कर प्रशासनिक अधिकारी या वकील बनना और मात्र विलाल।
दिन हवाओं के पंखों पर सवार होकर उड़ते चले जा रहे थे। देखते-देखते स्नातक के तीन वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन परीक्षाओं के पश्चात् ग्रीष्मावकाश हो गया। आगे मुझे प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी करनी थी। अतः मैंने ग्रीष्मावकाश में ही कोचिगं कक्षाओं में प्रवेश ले लिया और पुनः कोलेज नही जा पायी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हुए ही मैंने लाॅ कोलेज में प्रवेश ले लिया। दिन में लाॅ कालेज, शाम को कोचिंग। इन सब में समय का सामंजस्य बैठाते-बैठाते एक वर्ष अत्यन्त व्यस्तता में व्यतीत हुआ। इस अवधि में मुझे अपना पुराना कोलेज व विलाल बिलकुल याद नही आये।
एक दिन मेरे साथ पढ़ने वाली सौम्या मुझे मिल गयी। वह अभी उसी कॅलेज से परास्नातक की शिक्षा ले रही थी। उसे देख कर मुझे अपने पुराने कोलेज के दिनों की याद आ गयी। उसने मुझसे मेरे वर्तमान के विषय में पूछा और मैंने उससे उन सहपाठियों के विषय में पूछा जो मेरे साथ पढ़ते थे। उसने बताया कि विलाल ने थी उसी वर्ष वह कोलेज छोड़ कर कहीं और प्रवेश ले लिया था। कहाँ? किस कोलेज में उसे ज्ञात नही। मुझे जानने की उत्सुकता भी थी नही थी।
वह कदाचित् अल्हड़ उम्र का प्रथम आकर्षण था जो जितनी तीव्र गति से उत्पन्न हुआ था उससे भी तीव्र गति से हृदय की गहराईयों से उतर कर विस्मृतियों के गर्त में समा गया। लगभग तीन वर्षों के पश्चात् मेरा चयन कमर्चारी चयन आयोग के माध्यम से शिक्षा अधिकारी के पद पर हो गया। तथा दो वर्ष पूर्व तय हुआ मेरा विवाह भी सम्पन्न हो गया। विगत् दिनों और कोलेज के साथियों को विस्मृत कर वैवाहिक जीवन में आगे बढ़ने लगी।
नौकरी के साथ-साथ घर-गृहस्थी कि व्यस्तता क्या इतनी अधिक होती है कि जीवन के बीस वर्ष व्यतीत हो जायें और हमें इतनी बड़ी अवधि के गुज़र जाने का आभास तक न हो? मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ है। देखते- देखते मेरी बेटी अट्ठारह वर्ष की हो गयी और बेटा जयवर्धन सोलह वर्ष का। दोनों बच्चे अपनी शिक्षा व करियर पर ध्यान दे रहे हैं। आगे लेने वाले व्यवसायिक व तकनीकी कोर्स की चर्चा वे घर में करने लगे हैं।
नौकरी की अच्छाईयों व कठिनाईयों के साथ मेरे दिन व्यतीत हो रहे थे कि बढ़ते बच्चों के साथ नयी-नयी समस्याएँ मेरे समक्ष आने लगी थीं। इन समस्याओं के समाधान के प्रयास में मुझे मेरे कोलेज के दिन भी यदाकदा विस्मृतियों के गर्त से बाहर निकल आते। मैं इन्हें समस्या कहूँ या जीवन की चुनौतियों का स्वाभाविक हिस्सा मान लूँ....कुछ समझ में नही आता।
मैं बच्चों को ले कर माता-पिता में होने वाली चिन्ता को इस समय की स्वाभाविक प्रक्रिया मान लूँ तो ये जटिलतायें कदाचित् स्वतः सरल हो जायेंगी। किशोरवय से युवावस्था की ओर बढ़ते बच्चों के भविष्य की चिन्ता व सुरक्षा को लेकर आशंका मुझे चिन्तित कर ही देती। इसी भावना के कारण माता-पिता कभी-कभी बच्चों पर दबाव बना देते, तो कभी बच्चे भी हठ कर उनकी बात नही सुनते या नही मानते। आधुनिक शब्दावली में कहूँ तो ’’ जेनरेशन गैप ’’ की इसी समस्या से मैं जूझ रही थी। बच्चों की असुरक्षा को लेकर ये जेनरेशन गैप बढ़ता ही जा रहा था। बच्चों की असुरक्षा क्या थी? किस प्रकार की थी यह भी तो स्पष्ट नही था, जिससे एक माँ कोई सुरक्षा घेरा बच्चांे के इर्द-गिर्द बना देती।
मेरे समय के विद्यार्थी जीवन और शिक्षा पद्धति तथा आज के समय के विद्यार्थी जीवन और शिक्षा पद्धति में काफी परिवर्तन हो चुका है। कोलेज के लड़के-लड़कियों का खुला व्यवहार व पहनावा कभी-कभी मुझे अत्यन्त व्याकुल कर देता। मैं पुराने विचारों की कतई नही हूँ। शिक्षित हूँ व प्रशासनिक सेवा से सम्बद्ध हूँ। फिर भी बच्चों को ले कर चिन्तित रहने लगी हूँ।
मेरी बेटी अरून्धती गाड़ी व ड्राईवर के होते हुए भी अपनी स्कूटी से कोलेज जाती है। मेरे मना करने के पश्चात् भी स्कूटी के पीछे की सीट पर किसी न किसी सहपाठी को बैठा लेती है। पीछे बैठा सहपाठी लड़की हो या लड़का उसको फर्क़ नही पड़ता, किन्तु मुझे तो पड़ता है। समझाने पर ’’ डोंट वरी मम्मा! मैं बड़ी हो गयी हूँ। मुझे अच्छे बुरे की समझ है। ’’ कह कर लापरवाही से निकल जाती है।
मैं जानती हूँ कि ये छोटी-छोटी बातें हैं किन्तु माँ का हृदय न जाने क्यों आशंकित रहता है? मुझे लड़कियों के मार्डन कपड़े भी अच्छे नही लगते। मेरा मानना है कि लड़कियाँ जब तक कोलेज जा रही हैं तब तक तो उन्हें अपने वस्त्रों का ध्यान रखना चाहिए। लड़कियों के ढँके कपड़े ही अच्छे लगते हैं। मैं अपनी बेटी को यही समझाने का प्रयत्न करती हूँ किन्तु सभी बच्चे इसी वातावरण में पल-बढ़ रहे हैं तो मैं स्वंय का विवश पाती हूँ।
ऐसे में मुझे मेरे कोलेज का प्रथम दिन स्मरण आने लगता है, जब मैं सौम्या के साथ घबराती हुई कोलेज पहुँची थी। कितना परिवर्तन आ गया है उस समय और आज के समय में।
मैं आज अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इस प्रसन्नता का कारण न तो मेरा प्रमोशन है न मेरे पति का मनचाहे स्थान पर स्थानान्तरण। बल्कि इस प्रसन्नता का कारण है अरूधंती का बी0टेक0 के प्रथम सेमेस्टर में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाना है। अरूधती के परीक्षा परिणाम को देखकर मैं मन ही मन स्वंय पर हँस पड़ी कि बच्चों को लेकर मैं नाहक ही इतनी पाॅजेसिव होती हूँ। आजकल के बच्चे आधुनिकता का मात्र पहनावा ही नही पहनते बल्कि विचारों से भी आधुनिक व समझदार हैं। संतुष्ट होकर मैं घर व कार्यालय के दायित्वों का निर्वहन करने में व्यस्त हो गयी।
शनैः-शनैः दिन व्यतीत होते जा रह थे। इस वर्ष मेरे बेटे जयवर्धन ने भी प्रबन्धन में गेजुएशन करने हेतु प्रवेश ले लिया है। वह भी प्रशासनिक सेवा में जाना चाहता है। उसका अधिकांश समय तो क्लास व कोचिंग में व्यतीत हो जाता, शेष समय वह लैपटाॅप ले कर बैठ जाता। मैं जानती हूँ कि मेरे समय की पूरी शिक्षा प्रणाली पुस्तक केन्द्रित थी।
आज के बच्चे पुस्तकों से अधिक इन्टरनेट माध्यम से नवीन जानकारी प्राप्त करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में यह आवश्यक अंग बनता जा रहा है। जयवर्धन जब भी लैपटाॅप खोलता, वह वाह्नय दुनिया से बेखबर हो जाता। खाने-पीने का समय भी अव्यवस्थित हो जाता। मैं चिन्तित हो उठती यह सोच कर कि कहीं वो इस आभासी संसार के जााल में तो नही उलझ रहा है।
अतः मैं पानी पूछने या किसी अन्य बहाने से स्टडी कक्ष में जाकर जयवर्धन के इर्द-गिर्द चक्कर लगा आती। जयवर्धन किशोरवय का बच्चा है। इस उम्र में बच्चों का शरीर अवश्य बढ़ जाता है, किन्तु मन-मस्तिष्क में बाल-सुलभ अल्हड़ता विद्यमान रहती है। यद्यपि मुझे अच्छा नही लगता बच्चों के कक्ष में जाकर उनकी स्वतंत्रता में इस प्रकार चोरी-छुपे दखल देना।
समय धीरे-धीरे अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा है। इस वर्ष अरूंधती का बी0टेक0 में तीसरा वर्ष है। पहले की अपेक्षा अब वह अपने बनाव-ऋंगार व पहनावे पर अधिक ध्यान देने लगी है। मैं चुपचाप देखती हूँ उसे दपर्ण के समक्ष खड़े होकर स्वंय को निहारते हुए। मन में पुनः वही आशंका कि कहीं वह किसी लड़के की ओर आकर्षित तो नही हो रही है?
कई बार मन में यह विचार भी आता है कि उसके आधुनिक पहनावे पर प्रतिबन्ध लगा दूँ। किन्तु यह सोचकर खामोशी अख्तियार कर लेती हूँ कि मैं आधुनिक समय की माँ हूँ। कार्यालय में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करने वाली माँ हूँ। किसी समय मैं भी कोलेज जाती थी। मैंने तो अपने माता-पिता की भावनाओं को कभी चोट नही पहुँचायी। मैं दकियानुसी तो नही होती जा रही हूँ।
कभी बच्चों की फिक्र तो कभी बेफिक्री में दिन व्यतीत होते जा रहे हैं। बी0टेक0 पूरा होने में अरूधंती की अन्तिम सेमेस्टर की परीक्षा शेष थी। कैंपस सलेक्शन के लिए भी वो तैयारी कर रही थी। मेरी इच्छा यही थी कि उसका चयन इसी शहर में कहीं पर हो। बहुत से बच्चे नौकरी हेतु बाहर जाने को भी तैयार थे किन्तु मैं अरूधंती को बाहर भेजने के लिए तैयार नही थी। अरूधंती की बातों से ऐसा प्रतीत होता कि वह जाॅब के लिए बाहर जाने को उत्सुक है। आजकल जब भी वह कोलेज से घर आती दूसरे शहरों जाकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में कार्यरत बच्चों के किस्से सुनाती।
मैं जानती थी कि वह मुझे मानसिक रूप से तैयार करना चाहती है। ताकि यदि उसे जाॅब के लिए बाहर भेजना पड़े तो मैं भेज दूँ। बच्चों के प्रति कभी सख्त तो कभी नरम मेरे स्वभाव से वह परिचित है। एक दिन अरूधती कोलेज नही गयी कारण पूछने पर उसे बताया कि उसके सभी कोर्स अध्यापकों द्वारा पूरे करा दिये गये हैं। परीक्षा की तैयारियाँ घर पर रह कर भी पूरी कर जा सकती हैं। उसका सोचना सही था। वह घर में रह कर परीक्षा की तैयारी करने लगी। एक शाम मैं कार्यालय से घर आयी तो घर के गेट पर एक गाड़ी खड़ी मिली। गाड़ी अपरिचित लगी। घर के अन्दर गयी तो देखा ड्राइंगरूम में एक सोफे पर जयवर्धन के साथ एक और लड़का बैठा है। मुझे देखते ही वह हाथ जोड़कर नमस्ते करता हुआ खड़ा हो गया।
’’ बैठो! ’’ मैंने तत्काल उसे बैठने का संकेत करते हुए कहा।
’’ मम्मा! ये दिव्यांश भैया हैं। ’’ जयवर्धन ने उसका का परिचय मुझसे करते हुए कहा।
’’ अच्छा.....अच्छा...। ’’ मैंने कहा। मैंने दिव्यांश को इससे पहले कभी भी अपने घर नही देखा था। जब कि जयवर्धन के मित्रों से मैं परिचित थी।
’’ दीदी के साथ पढ़ते हैं। ’’ उसने आगे कहा।
यह सुनकर मैंने दिव्यांश को कुछ-कुछ इग्नोर किया और अन्दर आ गयी। अरूधंती किचन में कुछ कर रही थी। मुझे देखते ही वह बोल पड़ी, ’’ मम्मा दिव्यांश की इच्छा काॅफी पीने की हो रही थी । ’’
’’ ठीक है। ’’ कह कर वहाँ से मैं अपने कमरे में चली आयी।
कमरे में चेंज करते समय मैं सोचती रही कि दिव्यांश से अरूधंती की मित्रता के क्या अर्थ हैं? मन में आशंका उठ रही थी कि कहीं अरूधंती किसी ग़लत लड़के के सम्पर्क में तो नही है? सोच-सोच कर व्याकुल होती रही। मैं ड्राइंग रूम में जाकर दिव्यांश से उसके यहाँ आने का कारण पूछना चाहती थी कि तब तक गेट से गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज आयी। मैं समझ गयी कि दिव्यांश जा रहा है। अरूधंती ने आकर काॅफी पीने के लिए मुझसे पूछा। मेरी स्वीकारोक्ति पाकर काॅफी का प्याला मेरे कक्ष में रख कर चली गयी। मैंने देखा वो अपनी काॅफी का प्याला पकड़े हुए कुछ पढ़ रही थी। कदाचित् अपनी विषय से सम्बन्धित कोई पुस्तक।
शाम को अभय ( मेरे पति ) के कार्यलय से घर आने पर मैंने उनको दिव्यांश के आने की घटना से अवगत् करा दिया। आखिरकार वो घटना मेरे लिए महत्वपूर्ण जो थी। अभय ने पूरी घटना सुनने के पश्चात् जो कुछ कहा उसने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि कहीं मेरी सोच आज के समय से पीछे तो नही है।
’’ तो क्या हो गया दिव्यांश नाम का लड़का घर में आ गया तो? आज के बच्चे लड़के-लड़कियाँ सब एक साथ पढ़ते हैं, एक-दूसरे से मित्रवत् रहते हैं। ये कहाँ की पुरानी बातें ले कर बैठ गयी तुम! अपने समय और उस समय की बातों को भूल जाओ। ’’ मैं अभय कर बातें आश्चर्य से सुनकर रही थी।
’’ उस समय लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे की ओर देखते तक नही थे। बातें करना तो दूर की बात थी। ’’ अभय ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।
मैं दकियानुसी नही हूँ। मैं अभय की बात से भी सहमत नही हूँ। किन्तु बात मेरे बच्चों से जुड़ी है, अतः मैं चुप रही।
समय आगे बढ़ता रहा। अरूंधती का कैम्पस चयन पूरा हुआ। जिस बात की आशंका थी वही बात हुई। अरूंधती को शहर से बाहर बहुराष्ट्रीय कम्पनी में जाॅब मिला। बाहर न जाने की बात उसने बड़ी मुश्किल से मानी। मेरे बात मानते हुए उसने बैंकिगं की तैयारी प्रारम्भ कर दी। एक वर्ष के अन्दर उसका चयन बैंक में हो गया। मैं प्रसन्न थी कि अरूंधती समझदार लड़की है। उसने मेरी बात मानी।
अपनी माँ पर उसका विश्वास मुझे बहुत अच्छा लगा। ट्रेनिंग के लिए अरूधती को बाहर जाना था। इस नौकरी के लिए उसे बाहर भेजने में मुझे कोई आपत्ति न थी। क्यों कि यह भविष्य के लिए सुरक्षित नौकरी थी। अरूंधति टेªनिंग पर जाने की तैयारियों में लग गयी। हम भी माता-पिता का उत्तरदायित्व निभाने की तैयारी में भी थे। उसके लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश मैंने व अभय ने अपने-अपने स्तर पर प्रारम्भ कर दी थी। दिव्यांश यदाकदा घर आता रहता। जयवर्धन से उसने अच्छी खासी मित्रता कर ली थी।
टेªनिंग में जाने से एक दिन पूर्व मैंने देखा.... अरूंधती काफी देर से किसी से फोन पर बातें कर रही है। आजकल वह अक्सर ही ऐसा करती दिखती है। अभय उसे ऐसा करते देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि बच्चों को समझने का व्यवहारिक दृष्टिकोण अभय से अधिक मुझमें है। आज मैं अरूंधती से पूछ बैठी कि वह इतनी देर से किससे बातंे कर रही है? यद्यपि मैं जानती हूँ कि वह ऐसा कुछ भी नही करने वाली जिससे उसके माता-पिता को तकलीफ हो। यह भी कि वो हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप रही है। एक अच्छी बेटी है वह। मैंने पूछना आवश्यक समझा। मेरे द्वारा पूछते ही उसने ही कहा, ’’ मम्मा! दिव्यांश से बातें हो रही हैं। ’’
’’ दिव्यांश से इतनी देर तक क्यों बातें कर रही हो हैं? ’’ मैंने कहा। अरूंधती का चेहरा फीका पड़ गया। मुझे ऐसा लगा जैसे अरूंधती के प्रति मैंने कुछ कठोर रवैया अपना लिया है। किन्तु हृदय के भावों को अपने चेहरे पर नही आने दिया मैंने।
मेरी बातें सुन कर अरूंधती ने कहा कुछ नही। वह सीधे अपने कमरे में चली गयी। जाते-जाते मैंने देखा उसका चेहरा कुछ उदास हो गया था। कुछ ही देर में अभय कार्यालय से आ गये। चाय इत्यादि पीने के पश्चात् हम सब ड्राइंगरूम में बैठकर इधर -उधर की बातें करने लगे। हम अपनी बातें कम अरूंधती व जयवर्धन की बातें ज्यादा सुन रहे थे।
कुछ देर पश्चात् सहसा दरवाजे की घंटी बज उठी। अभय ने दरवाजा खोला। दिव्यांश था। उसने अत्यन्त शालीनता पूर्वक मेरा व अभय का अभिवादन किया। वह अभय से बातें करने लगा। अभय उससे पहली बार मिल रहे थे। मैं वहाँ से आकर रसोई में दिव्यांश के लिए चाय बनाने लगी। इतने में अरूधंती रसोई में मेरे पास आ गयी।
’’ दिव्यांश क्यों आया है यहाँ? मैंने तो उसे यहाँ आने और फोन करने के लिए मना किया है। ’’ उसने कुछ तल्खी भरे स्वर में कहा।
’’ मुझे नही पता। वह पापा से बातें कर रहा है। ’’ मैंने नर्म होते हुए कहा। मेरी बात सुनकर अरूधंती चली गयी।
प्लेट में खाने के लिए स्नैक्स रखते-रखते मैं सोच रही थी कि, दिव्यांश कितना शालीन और संस्कारी दिखता है। कितनी धीमी आवाज में शालीनता से बातें करता है। अरूधंती बताती है कि वो धनाढ्य परिवार का लड़का है। किन्तु उसके व्यवहार से कहीं भी इस बात का घमंड परिलक्षित नही होता। मैं चाय लेकर ड्राइंगरूम में जाने लगी। दिव्यांश के प्रति अपने विचारों को विराम देते हुए कि मुझे लेना-देेना है उसकी अच्छाइयों व कमियों से।
चाय की टेª मेज पर रख कर दिव्यांश से चाय पीने के लिए कह मैं भी सोफे पर बैठ गयी। मैंने देख अरूंधती ड्राइंगरूम में नही थी। कदाचित् वह अपने कक्ष में पैकिंग कर रही होगी। अभी पैकिंग का कुछ काम शेष था। इस समय ड्राइंगरूम में सन्नाटा पसर गया था। सभी चुपचाप बैठे थे। मैं इस सन्नाटे का अर्थ नही समझ पा रही थी। क्यों कि अभी-अभी तो दिव्यांश और अभय में इधर-उधर की खूब बातें हो रही थीं। दिव्यांश चाय पीने लगा।
’’ दिव्यांश अरूंधती से विवाह करना चाहते हैं। ’’ ड्राइंगरूम में सन्नाटा छा गया। अभय की बातें सुनकर मैं हतप्रभ-सी अभय को देख रही थी और अभय मुझे। दिव्यांश निश्चिंत होकर चाय पीते हुए हमारे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था।
’’ विवाह...? किन्तु अरूधंती ने तो नही बताया? मैंने कहा।
’’ जी आण्टी उससे पूछ लीजिये। ’’ निश्चिन्त होकर दिव्यांश ने कहा।
’’ हाँ.....हाँ...। उससे भी पूछूँगी। पहले यह बताओं कि इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले तुमने अपने माता-पिता से पूछा या स्वंय ही.......
’’ ......नही....नही....आण्टी....आप बेफिक्र रहें। इस बारे में मैंने अपने माता-पिता को सब बता दिया है। ’’ मेरी बात पूरी होने से पूर्व ही दिव्यांश बोल पड़ा।
’’ ठीक है। इस बारे में हम सभी मिलजुल कर विचार कर तुम्हारे घरवालों से मिलेंगे। ’’ अभय ने दिव्यांश से कहा।
कुछ देर में दिव्यांश चला गया।
’’ क्या तुम्हे पता है दिव्यांश यहाँ क्यों आया था? ’’ मैंने अरूंधती से पूछा।
’’ जी मम्मा! दिव्यांश अच्छा लड़का है। मैं भी उससे ही विवाह करना चाहूँगी। ’’ अरूंधती का स्पष्ट उत्तर मुझे बुरा नही लगा।
मैं अपने समय और युवावस्था के बारे में सोचने लगी। हमारे समय में लड़कियों में जीवन के प्रति स्पष्ट निर्णय लेने का साहस था? कदापि नही....। तभी तो मैं अपने प्रथम आकर्षण विलाल के बारे में आगे सोच न सकी उसे व्यक्त भी न कर पायी। अब तो मुझे उसका चेहरा भी ठीक से याद नही। यदि वो अकस्मात् कहीं मिल गया तो उसे पहचान भी पाऊँगी या नही। किन्तु यह जानती हूँ कि मन का एक कोना अब भी मेरे प्रथम प्रेम के लिए रिक्त रहता है। उसका अहसास यदा-कदा हृदय में एक टीस-सा उत्पन्न करता रहता है।
जब से अरूंधती बड़़ी होने लगी थी। यही कोई नौवीं-दसवीं कक्षा में पहुँची होगी तब से ही अभय सीधे-सीधे अरूंधती से कोई बात नही करते। विशेषकर विवादास्पद मामलों में। करियर चुनने को लेकर हो या विषय और पढ़ाई चुनने को लेकर हो। उसके और अपने बीच में मुझे रखते। मैं जानती हूँ कि एक पिता बच्चो से प्यार तो बहुत करता है, किन्तु उनके और अपने बीच एक सम्मानजनक व्यवहार भी कायम रखना चाहता है।
’’ दिव्यांश किस जाति से सम्बन्ध रखता है? क्या तुम जानती हो? ’’ अरूधंती और जयवर्धन अपने-अपने कक्ष में थे। अतः अवसर देख कर अभय ने मुझसे पूछा।
’’ नही..... मैं कैसे जानूँगी? ऐसी कोई आवश्यकता ही नही पड़ी कि मैं बच्चों से पूछूँ? ’’ मैंने कहा। अभय मेरी ओर देख रहे थे।
’’ अभी अरूंधती से पूछकर बताती हूँ। ’’ ड्राइंगरूम से उठ कर मैं अन्दर आ गयी। अढंधती अपने कक्ष में थी। इस समय मैं उसके कक्ष में जाकर इस विषय पर अधिक बातचीत करना नही चाहती थी।
रसोई में अपने पास अरूध्ंाती को पाकर मैंने उससे दिव्यांश की जाति के विषय में पूछा। उसने जो बताया उसे सुनकर मैंने उस समय चुप रह जाना ही बेहतर समझा। देर शाम फुर्सत के क्षणों में मैंने अभय को दव्यांश की जाति के विषय में बताया।
’’ बताओ भला! बच्चे कैसी-कैसी समस्यायें उत्पन्नकर देते हैं। यदि हम किसी प्रकार मान भी जायें तो क्या दिव्यांश के माता-पिता यह रिश्ता स्वीकार करेंगे? ’’ अभय का सोचना बिलकुल सही था।
हमारे समाज द्वारा निर्धरित जाति व्यवस्था में दिव्यांश अत्यन्त उच्च वर्ग से आता था। दिव्यांश के घर वालों को जब अरूंधती और दिव्यांश के बीच की जाति का अन्तर ज्ञात होगा तो क्या वे इस रिश्ते को स्वीकार कर पायेंगे? यही प्रश्न अभय के मन में भी उठ रहे थे।
परिवर्तन समय का था या युवा पीढ़ी के विचारों का प्रभाव। दिव्यांश के माता-पिता भी इस रिश्ते के लिए सहर्ष तैयार थे। बल्कि उन्हें मनाने की आवश्यकता ही नही पड़ी। मैं जानती थी कि ये अरूंधती की बुद्धिमत्ता का भी प्रभाव था। ट्रेनिंग समाप्त होने तथा नौकरी ज्वाइन करने के पश्चात् मैंने अपनी पुत्री का विवाह समय से कर दिया। मेरी पुत्री का वैवाहिक जीवन सुचारू रूप से चल रहा है।
अब जब कि मेरे जीवन ने परिवर्तन के अनेक रूप देख लिए हैं। ऋतुओं के अलग-अलग रूप मेरे समक्ष आये हैं। जीवन में कभी पतझड़ का सूनापन व्याप्त हुआ तो कभी वसंत ने आकर सहसा खुशियाँ बिखेर दीं। मैं पूर्व निर्धरित पथ पर चलती रही। किसी नये पथ का सृजन मैंने नही किया। न ही प्रयास किया। पढ़-लिख कर भी बने-बनाये प्रशासनिक पद पर कार्य कर रही हूँ। मेरी सोच रूढ़िवादी रही। अपने लिए और अपने बच्चों के लिए भी। मैं नही जानती यह बदलाव सही है या नही..... जो भी है अच्छा है। बच्चे संतुष्ट हैं। मुझे नयी पीढ़ी पर पूरा भरोसा है। मैं जानती हूँ कि यदि वो मेरे समय में, मेरे स्थान पर होते तो जाति की ही नही, धर्म की भी दीवारें गिराते हुए आगे बढ़ते।
नीरजा हेमेन्द्र