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समय के पन्नों पर

राममूर्ति जी आज कार्यालय आये तो, आते ही उन्हे उनके स्थानान्तण की सूचना मिली। आज से कार्यालय में उन्हें दूसरी नयी जगह.....नयी मेज पर बैठना पडे़गा। अपनी पुरानी मेज को देख कर वे सोचने लगे ’’ ......देखते.....देखते जीवन कहाँ से कहाँ पहुँच गया। कार्यालय के इस बड़े हालॅनुमा कक्ष की दीवारें, पुरानी मेज-कुर्सी, समीप रखी लोहे की जंग लगी वही आलमारी जिसमें वह कार्यालय के कागजात इत्यादि रखते हैं सब कुछ ज्यों का त्यों है। इस अंतराल पर आलमारी में लगे जंग का घेरा कुछ अधिक बढ़ गया है।

अन्य कोई विशेष परिवर्तन नही हुआ है। हाँ, परिवर्तन के नाम पर कुछ साथी-सहकर्मी सेवानिवृत्त होते गये हैं, तो कुछ नये, युवा सहकर्मी आ गये हैं। एक मुख्य परिवर्तन भी उन्हें आज दिखाई दे रहा है वो यह है कि कार्यालय के इस बड़े से हाल की कई मेजों पर से स्थानान्तरित होते-होते, वे आज पुनः उसी पुरानी व पहली वाली मेज पर, उसी स्थान पर आ गये हैं जहाँ प्रथम नियुक्ति के पश्चात् प्रथम बार यहाँ आयें थे। ’’ उन्हें स्मरण आने लगे हैं अपने पुराने दिन। किन्तु अधिक देर तक वे विगत् दिनों की स्मृतियों में नही रह पाये। काम में उन्हें जुटना पड़ा। मेज भले ही पुरानी थी, किन्तु काम नया था। नये काम को समझना था। अतः स्मृतियों को दरकिनार करते हुए वे काम में व्यस्त हो गये।

आज पूरा दिन काम में व्यस्त रहे। बमुश्किल दोपहर चाय पीने का समय निकाल सके। काम समझने में अधिक कठिनाई नही हुई। प्रतिदिन की भाँति समय से कार्यालय से घर के लिए निकल पड़े। अन्यथा बहुधा स्थानान्तरण के प्रथम दिन कार्यलय से घर के लिए निकलने में विलम्ब हो ही जाती है। घर आ कर स्कूटर गेट के अन्दर खड़ा कर दरवाजे की घंटी बजा दी।

’’ आयी। ’’ अन्दर से रागेश्वरी की आवाज आयी।

वे जानते हैं कि इधर कुछ दिनों से रागेश्वरी को चलने में परेशानी होने लगी है। अतः वह धीरे-धीरे चलती है। कुछ ही देर में रागेश्वरी ने दरवाजा खोल दिया। सदैव की भाँति वह मुस्कुराती हुई सामने खड़ी थी। रागेश्वरी का यही स्वभाव उन्हें सम्बल देता है कि प्रत्येक परिस्थिति में वह मुस्कराती रहती है। हृदय में उपजी पीड़ा के चिन्ह वह चेहरे पर प्रत्यक्ष नही होने देती। रागेश्वरी उनसे उम्र में चार वर्ष छोटी है।

उन्हें लगता है कि रागेश्वरी पर उम्र ने शीघ्र ही अपना प्रभाव डाल दिया है। विगत् कुछ महीनों से वह अस्वस्थ रहने लगी है। जबकि कुछ समय पूर्व तक घर के सभी कार्य वह स्वंय करती थी उसके पश्चात् भी दिन भर ऊर्जा व स्फूर्ति से भरी रहती थी। उसने मुझे कभी भी कार्य की अधिकता से थक जाने का उलाहना नही दिया। अब कुछ समय से उसके घुटनों में पीड़ा रहने लगी है। कई चिकित्सकों को दिखाया किन्तु स्थाई लाभ नही हो पा रहा है। दवा लेने से कुछ समय के लिए आराम हो जाता है, समस्या पुनः ज्यों की त्यों हो जाती है।

हाथ-मुँह धोकर फ्रेश होने के पश्चात् उन्होंने देखा कि रागेश्वरी किसी प्रकार जाकर रसोई में खड़ी हो गयी है। इस समय वह उनके लिए चाय व रात का भोजन बनाने के उपक्रम में लग गयी है। आज कार्यालय के कार्यों ने मुझे इतना थका दिया है कि मैं भी थोड़ी देर विश्राम करना चाहता हूँ। रागेश्वरी से उसकी मदद करने की इच्छा नही हो रही है। अन्यथा प्रतिदिन कार्यालय से सांय घर आकर रसोई के कार्योंं में उसकी सहायता कर देता हूँ। भोजन बनाना तो नही आता किन्तु सामान उठा कर दे देना, यथास्थान रख देना ही उसके लिए बहुत होता है। किन्तु आज मेरी इतना भी करने की इच्छा नही हो रही है।

मैं रसोई में जाकर रागेश्वरी का हाल पूछता हूँ। वह मुस्करा कर ’’ सब ठीक है । आपकी चाय तैयार है। मैं कुछ खाने के लिए लाती हूँ। ’’’’ कह कर मुझे चाय उठा लेने के लिए संकेत करती है।

मैं चाय के दोनों प्याले लाकर डायनिंग मेज पर रख कर रागेश्वरी के आने की प्रतीक्षा करने लगता हूँ। कुछ ही क्षणें में रागेश्वरी आ गयी। उसके हाथ में प्लेट थी जिसे लेकर वह धीरे-धीरे चल रही थी। मेरे साथ चाय पीते हुए वह बताने लगी कि, ’’ रसोई में कुछ चीजें खत्म हो रही हैं। उसने उन चीजों का पर्चा बना लिया है तथा जिसे मैं कल कार्यालय से लौटते हुए कल ले आऊँ। ’’

मैंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ’’ ठीक है। कल कार्यालय के लिए निकलते समय पर्चा दे देना। ’’

वह चुपचाप चाय पीती रही। डायनिंग मेज पर पसरा सन्नाटा मुझे अच्छा नही लग रहा था। अतः उस सन्नाटे को तोड़ने के प्रयास में मैंने उससे पूछा, ’’ आयु का फोन आया था क्या आज? ’’ अपने इकलौते पुत्र आयुष्मान को हम बचपन से ही प्यार से आयु कहते हैं।

’’ नही तो मेरे पास उसका कोई फोन नही आया। ’’ रागेश्वरी ने कहा।

’’ आपके पास आया क्या उसका फोन? ’’ प्रत्युत्तर में प्रश्न करते हुए रागेश्वरी का चेहरा दीप्त हो उठा।

मैं चुप रहा। यह सोच कर कि रागेश्वरी जानती है कि आयुष्मान मुझे फोन नही करता। फिर भी रागेश्वरी मुझसे जानना चाहती है आयुष्मान के फोन के बारे में। कदाचित वह भी हम दोनों के बीच फैले सन्नाटे को तोड़ने के प्रयास में ही ऐसा कर रही है।

चाय खत्म हो चुकी थी। मैं और रागेश्वरी ड्राइंग रूम में आकर बैठ गये। मैं जानता हूँ कि रागेश्वरी पूरे दिन घर में अकेली रहती है। शाम को मेरे साथ एकाध घंटे यहाँ मेरे साथ बैठकर कुछ अपने मन की, कुछ इधर-उधर की बातंे कर लेती है। मुझे भी तो इतने बड़े घर में पसरा सन्नाटा अच्छा नही लगता।

आज ड्राइंग रूम में बैठ कर मैं व रागेश्वरी को विगत् दिनों की चार्चा कर बैठे। यह प्रथम बार नही बल्कि ऐसा अक्सर ही हम करते हैं। स्मृतियों के तीव्र झोकें ने व्यतीत दिनों के पन्ने पलटने प्रारम्भ कर दिये........

........उन दिनों मेरे भीतर युवावस्था का जोश हुआ करता था। उस समय बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में व्यायाम करना, प्रातः उठकर मित्रों के साथ भ्रमण पर निकल जाना, बैडमिंटन खेलना यही दिनचर्या हुआ करती थी उन दिनों। कोलेज के दिन या यूँ कहें कि उन दिनों जीवन किसी सुन्दर सपने की भाँति व्यतीत हो रहा था। कुछ-कुछ रंगीन फाख्ता के पंखों की भाँति। पंख तो पंख होते है। सुन्दर, हल्के, जो हवाओं के हल्के वेग संग उड़ते चले जाते हैं,.... आसमान तक। बेरोक-टोक के बस कुछ इसी प्रकार वे दिन व्यतीत होते जा रहे थे। जीवन में कुछ कर सकने के, कुछ बन सकने के सपने के साथ ही साथ आसमान तक उड़ रहीं थीं इच्छाएँ।

शिक्षा पूरी हो गयी। अब नौकरी की तलाश में उसी युवा जोश के साथ लग जाना था। लग गया। नौकरी तलाश्ते-तलाशते अनेक सपने धूल-धूसरित हो कर भूमि पर गिर कर बिखरने लगे। कठिन संघर्ष व जीवन के कड़े दौर से गुजरने के पश्चात्, बड़े ही सौभाग्य से इस कार्यालय में सीनियर क्लर्क की नौकरी मिली। नौकरी के पश्चात् माँ-पिताजी के सपने जागृत हुए और वे मेरे लिए सुयोग्य वधू की तलाश में जुट गये।

रागेश्वरी मेरे ही कोलेज में पढ़ती थी। वह स्नातक में थी और मैं परास्नातक में। आर्कषण कुछ ऐसा था कि न एक दूसरे से अधिक मेलजोल न बातचीत। फिर भी असीम प्रेम । रागेश्वरी के अतिरिक्त किसी और के संग जीवन व्यतीत करने के बारे में सोच भी नही सकता था। इसी प्रेम ने साहस दिया और एक दिन अपने माता-पिता से कह बैठा रागेश्वरी से अपने प्रेम और उससे विवाह की अपनी इच्छा।

रागेश्वरी मेरे जीवन में आयी। सब कुछ भला लग रहा था। दो वर्ष के पश्चात् आयुष्मान के आते ही मानो जीवन में सम्पूर्णता व्याप्त हो गयी। रगेश्वरी में सौन्दर्य और भी दीप्त हो उठा। समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा....आगे बढ़ता रहा। हमें समय ही नही मिला कि समय की इस गति का अनुभव कर सकंे।

आयुष्मान विद्यालय जाने योग्य हो गया। चार वर्ष के आयुष्मान के लिए प्रथम बार विद्यालय की ड्रेस, बैग, पेन्सिल, रंगो कर डिब्बा आदि खरीदते न जाने कितने सपने भी खरीदते गए। प्रतिदिन उसे स्कूल के लिए तैयार करना, टिफिन में आयु की पसन्द की खाने पीने की चीजें रखना, उसे गेट तक छोड़ने आना....दोपहा तक बिना कुछ खाये-पिये उसके विद्याालय से आने की प्रतीक्षा करना....रागेश्वरी तो जैसे आयुष्मान के अन्दर जीने लगी और मैं उन दोनों के।

समय की गति की तीव्रता का अहसास तो हमें उस दिन हुआ जब एक दिन आयुष्मान एक जानीमानी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में अपनी नौकरी का नियुक्ति पत्र ले कर घर आया। वह हमारे ही बताये मार्ग पर चलता रहा। सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता रहा। अब जब कि हमारी अपेक्षाओं पर वह खरा उतर चुका था, अब उसे स्वंय से दूर भेजने में रागेश्वरी प्रसन्न क्यों नही हो पा रही थी? उसका तो सपना था आयु को पढ़ा लिखा कर आत्मनिर्भर व योग्य बनाना।

सभी कहते कि आयु देखने में रागेश्वरी जैसा था लम्बा, गौरवर्ण का आर्कषक। आयु के व्यक्तित्व के अनुसार रागेश्वरी उसे किसी बड़ी कम्पनी के प्रबन्धक के रूप में देखती। उसके स्वप्न को आयु ने पूरा किया तो अब उसे नसैकरी के लिए बाहर भेजने में रागेश्वरी को क्या हो रहा है? वह क्यों उदिग्न हो रही है? रागेश्वरी अपनी व्यथा शब्दों से भले ही व्यक्त न करे उसके हृदय की पीड़ा उसके चेहरे पर परिलक्षित हो रही है।

अन्ततः उसने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए अपनी समझदारी व परिपक्व सोच का परिचय देते हुए आयु को उसके भावी जीवन की सफलता का आशीष देते हुए उन्नति के पथ पर अग्रसर किया।

आयु के जाते ही कैसा सन्नाटा पसर गया था घर के प्रत्येक कोने में। मेरा पूरा दिन तो कार्यालय में व्यतीत हो जाता। किन्तु रागेश्वरी किस प्रकार सारा दिन घर में अकेले रहती होगी? मुझे इतने वर्षों के पश्चात् आज रागेश्वरी के लिए यह सोच कर पश्चाताप हो रहा था कि पूर्ण शिक्षित होने के पश्चात् भी मैंने रागेश्वरी को नौकरी के लिए ठीक से प्रेरित क्यों नही किया? विवाह के प्रारम्भ के दिनों में एकाध जगहों पर उसने प्रयास अवश्य किया था किन्तु सफलता नही मिली। तत्पश्चात् आयु के आ जाने से उसमें ही अपनी सम्पूर्णता तलाश ली।

यह तो हम जानते थे कि भूमंडलीकरण के इस युग में बच्चों को देश-विदेश की सीमाओं में नही बाँधा जा सकता। यही क्या कम था कि आयु विदेश में न जाकर अपने देश के ही अन्य शहर में जा रहा था। फिर भी आयु का नौकरी के लिए बाहर जाना हमारे लिए खुशियों के साथ-साथ किसी आघत से कम न था। अन्तः उसे जाना ही था, चला गया। जाते समय वह भी उदास था। वह दिन में कई-कई बार माँ को फोन करता। माँ से वह भी विशेष लगाव रखता था। रागेश्वरी के स्वास्थ्य, समय पर भोजन व दवा लेने की हिदायत फोन पर देता रहता। रागेश्वरी भी उसे समय पर खाने-पीने व स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कहती रहती।

एक दिन रागेश्वरी व मेरे द्वारा बहू ढूँढने के पूर्व ही आयु ने अपनी माँ से अपनी पसन्द की लड़की से प्रेम विवाह करने की इच्छा प्रकट की। जब कि मैंने अपने मित्र की पुत्री से आयु के विवाह की बात पक्की कर ली थी। लड़की पढ़ी-लिखी, अच्छे घर की व गुणी थी। मैं उसे अपने मित्र की पुत्री के नाते काफी दिनों से देख जान रहा था। वह सीधी व सरल लड़की थी। विवाह की बात मैं चला चुका अतः मेरे व रागेश्वरी की कल्पनाओं में पुत्रवधू के रूप में वह स्थान बना चुकी थी।

आयु के प्रेम विवाह की इच्छा प्रकट करने पर मुझे अच्छा नही लगा। पता नही मैं सही था या ग़लत? अगली बार जब वह घर आया तो अपनी इच्छा से उसे अवगत् कराते हुए उसके प्रेम विवाह की इच्छा का विरोध किया मैंने। रागेश्वरी की कोई इच्छा नही थी। हम दांेनो की इच्छा में ही उसकी इच्छा थी। वह तटस्थ थी। वह और कर भी क्या सकती थी?

अपने इकलौते पुत्र की इच्छा के समक्ष मुझे झुकना पड़ा। उसका विवाह हमने धूमधाम से किया। रागेश्वरी ने विवाह के सभी रस्मों रिवाज को निभाते हुए आयु के साथ-साथ अपनी भी साध पूरी की। बहू को नये जीवन में प्रवेश कराते हुए उसका आँचल आशीष से भर दिया। बेटे-बहू को नये जीवन में सुखी रहने का आशीर्वाद तो मैंने भी दिया। आयु का विवाह हुए अब दो वर्ष हो गये हैं। उसकी पत्नी भी नौकरीपेशा है।

आयु के विवाह को लेकर उसके और मेरे बीच बढ़ी दूरियाँ अब तक कम नही हुईं हैं। कभी-कभी सोचता हूँ मैं ही ग़लत हूँ। आधुनिक समय में, आधुनिक परिवेश में पले-बढ़े बच्चे ग़लत कैसे हो सकते हैं? नये परिवेश में जीने वाले बच्चों की दृष्टि में पुरानी चीजें, पुराने विचार, पुरानी मान्यताओं संग जीने वाले बूढ़े माता-पिता ही ग़लत हो सकते हैं।

फुर्सत के पलों में रागेश्वरी आयु को स्मरण करते हुए कहती है कि, ’’ हमारे विवाह के दो वर्ष के अन्दर आयु गोद में आ गया था। आयु के विवाह को भी तो दो वर्ष हो गये हैं। अभी तक कुछ पता नही चल रहा है। आयु या बहू की तरफ से कोई संदेश नही आया है। ’’

’’ कोई बात भी होगी तो इतनी दूर से हमें शीघ्र ज्ञात भी तो नही हो पाएगा। यही क्या कम है कि आयु वर्ष में दो बार होली, दीवाली जैसे प्रमुख पर्वों पर पत्नी सहित घर आ जाता है। उसके आने से इतनी खुशियाँ हम अपने हृदय में एकत्र कर लेते हैं वो उसके पुनः आने तक समाप्त नही होतीं। ’’ एक लम्बी साँस लेकर वो कह पड़ती।

जब से मैं आयु से रूष्ट हुआ हूँ वो मुझे और भी याद आता है। रागेश्वरी मेरे सामने चुप बैठी है। मैं जानता हूँ वह भी कुछ सोच रही है। जब वह कुछ नही सोचती तो बातें करती है। ’’ आप जब दो वर्ष पश्चात् जब सेवा निवृत्त हो जायेंगे तब आप के खाली समय का सदुपयोग करने के बारे में मैंने कई बातें सोची हैं। ’’ रागेश्वरी के स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गयी। मुझे चिन्तामग्न देखकर रागेश्वरी ने कई बार पूछे गये अपने प्रश्न का दोहराव किया। मैं विगत् स्मृतियों से बाहर आ गया।

’’ क्या सोचा है? ’’ प्रत्युत्तर में मैंने पूछा।

मैं जानता हूँ कि वह मुझे कोई छोटा-मोटा व्यवसाय या किसी निजी प्रतिष्ठान में कार्य कर लेने का सुझाव देगी। पूर्व की भाँति। जैसा कि वह बहुधा कहा करती है।

’’ मैंने आपके लिए यही सोचा है कि सेवानिवृत्ति के पश्चात् मिलने वाले पैसों में से कुछ पैसे आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए रख कर शेष पैसों से कोई छोटा-मोटा व्यवसाय कर लें। चाहे वह व्यवसाय छोटी दुकान के रूप में क्यों न हो। इसमें आपका समय भी व्यतीत हो जायेगा तथा कुछ आमदनी हो जाएगी सो अलग। आपको व्यस्त रखने का इससे अच्छा उपाय और क्या होगा? ’’ रागेश्वरी ने कई बार दिया गया अपना सुझाव पुनः दोहरा दिया।

’’ हाँ, यह ठीक रहेगा। किन्तु अभी मैंने इस विषय में कुछ सोचा नही है। समय आने दो, देखते हैं क्या होता है? ’’ उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैंने कहा।

मैं जानता हूँ रागेश्वरी को वाह्नय संसार की कठिनाईयों या कह सकते हैं कि ऊँच-नीच का ज्ञान नही है। वह सब कुछ सरल व सबको अच्छा समझती है। सबके लिए अच्छा सोचती है। रागेश्वरी की सरलता का अनुमान इसी बात से लगता है कि वो ये भी नही जानती कि सेवानिवृत्ति के पश्चात् इतने पैसे नही मिलते कि कोई व्यवसाय या छोटी-मोटी दुकान जैसा कुछ खोला जा सके और उसके सपने पूरे हो सकें। फिर भी मैं प्रयत्न अवश्य करूँगा रागेश्वरी के सपनों का कुछ अंश पूर्ण करने का।

’’ इस बार भी दीपावली में आयु आ रहा है। ’’ रागेश्वरी ने मुझे सूचना दी।

’’ उसका फोन आया था क्या? ’’ मैंने अधिक उत्सुकता न दिखाते हुए सामान्य बने रहने का दिखावा करते हुए पूछा। यद्यपि आयु के आने की बात सुन कर मै प्रसन्न अवश्य हो गया था।

’’ आज दोपहर में मन नही लग रहा था मेरा। मैंने ही फोन मिलाया था। उसके आने की बात जब से ज्ञात हुई है, तब से मन कुछ हल्का लग रहा है। ’’ कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् रागेश्वरी ने कहा।

मैं खामोशी से रागेश्वरी की बातें सुन रहा था। मैं जानता हूँ कि आयु के आने की बात से रागेश्वरी अभी से दीपावली की तैयारियों में व्यस्त हो जायेगी। जब कि दीपावली में अभी तीन महीने का समय शेष है। कुछ दिनों में काम पूर्ण हो जाने वाले पर्व की तैयारियाँ वह अभी से प्रारम्भ कर देगी तथा दीपावली तक व्यस्त रहेगी।

इधर रागेश्वरी की अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी। चिकित्सकों को दिखाने का अनवरत् सिलसिला जारी था। वह मुझ पर अपनी अस्वस्थता तब तक प्रकट नही करती जब तक कि कार्य करने असमर्थता न होने लगे। बेटे और बहू के आने पर प्रसन्नता मुझे भी तो होती है किन्तु मैं अपनी भावनाएँ तब से हृदय में रखता हूँ, जब से उसने अपने विवाह को लेकर मेरी बात नही मानी थी। समय ही घाव देता है तो समय ही उन घावों को भरने का मरहम बन जाता है। आयु का घर बसे हुए दो वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। उसके प्रति मेरी नाराजगी दूर हो चुकी है। आखिर मैं अपने इकलौते पुत्र से नाराज हो कर जाऊँगा कहाँ? रागेश्वरी व आयु में ही तो मेरी दुनिया बसी है।

समय किसी के रोकने से नही रूका है। वह अपनी ही चाल से निरन्तर चलता रहता है। दो माह शेष बचे हैं दीपावली के आने में। ओह! मुझे ये क्या हो रहा है? मैं क्यों दीपावली आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ? वो तो एक पर्व है समय पर आयेगा और चला जायेगा।

आज कार्यालय से घर पहुँचा, स्कूटर खड़ी कर ही रहा था कि उसकी आवाज से रागेश्वरी ने दरवाजा खोल दिया। ऐसा वह बहुधा करती है जब मुझे दरवाजे की घंटी बजाने की आवश्यकता नही पड़ती है। स्कूटर की घरघराहट सुनकर ही वो दरवाजा खोल देती है। रागेश्वरी दरवाजे पर खड़ी थी। आज उसके चेहरे से उसकी चिरपरिचित मुस्कान गायब थी। क्या वह आज कुछ अधिक अस्वस्थ है। मैंने घर में प्रवेश करते हुए उसके स्वास्थ्य के विषय में पूछा।

’’ हाँ....हाँ मैं बिलकुल ठीक हूँं। ’’ उसने चेहरे पर बनावटी प्रसन्नता लाते हुए कहा।

’’ तो तुम्हारा चेहार क्यों उतरा है? ’’ मेज पर लंच बाक्स और कार्यालय का बैग रखते हुए मैंने कहा।

’’ बस यूँ ही। आज मुझे कुछ अच्छा नही लग रहा है। ’’ रागेश्वरी ने कहा।

दो तरह की बात....’.मैं ठीक हूँ....आज मुझे कुछ अच्छा भी नही लग रहा है। ’ उसकी बातों में मुझे कुछ छुपा हुआ-सा लगा।

’’ जो भी हो हाथ मुँह धोकर, चाय पीकर पूछता हूँ। वैसे भी मुझे फालतू झमेलों से दूर रखने के लिए वह अनेक बातें अपने तक रखती है। इसमें उसकी मंशा मात्र यह होती है कि मैं परेशान न होऊँ। ’’ अतः जब तक कोई गम्भीर बात न होगी इतनी शीघ्रता से मुझे नही बतायेगी। मेरे चाय पीने तक वह चुप ही रही।

’’ क्या हुआ आज पैरों में तकलीफ ज्यादा है क्या? ’’ उसकी चुप्पी को तोड़ने के प्रयास में मैंने पूछा।

’’ नही, पैर तो आजकल ठीक हैं। घुटनों की पीडा़ भी कम है। ’’ कह कर वह पुनः खामोश हो गयी।

’’ तो चुप क्यों हो? कुछ बालो तो? तुम्हारे घुटनों की पीड़ा कम है तो चेहरे पर पीड़ा क्यो? ’’ मैंने पुनः पूछा।

’’ आज दोपहर में आयु का फोन आया था। कार्यालय से ही फोन किया था उसने। ’’ वह धीरे-धीरे अपने मन की परतें खोल रही थी। मैं समझ गया कि कुछ न कुछ ऐसा है जिसे वह मुझसे सीधे व स्पष्ट कहना नही चाहती। जब भी कोई गम्भीर बात होती है तो वह उस बात का प्रभाव कम करने के उद्देश्य से इसी प्रकार बात को टुकड़े-टुकड़े कर के बताती है।

’’ अरे वाह ! तुम्हारे फोन किये बिना उसका फोन आया? ये तो अच्छी बात है। ’’ मैंने बातों में हास्य का पुट घोलते हुए कहा।

’’ हाँ ! उसी का फोन आया और वह दीपावली में नही आ पायेगा। ’’ लगभग रूँआसी होते हुए रागेश्वरी ने कहा।

’’ नही आयेगा? क्यों? ’’ रागेश्वरी का बातों से मुझे भी धक्का लगा।

’’ न जाने क्यों? किन्तु कह रहा था कार्यालय से अवकाश नही मिल रहा है। ’’ रागेश्वरी ने कहा।

मैं जानता हूँ कि वर्ष में एकाध महत्वपूर्ण पर्वों पर घर आने के लिए वह अपनी छुट्टियाँ बचा कर रखता है। इसलिए कार्यालय से अवकाश मिलने में उसे कोई समस्या नही होती। वर्ष में दो बार ही तो दो दिनों के लिए उसे घर आना होता है।

फिर भी रागेश्वरी का मन हल्का करनेे लिए मैंने कहा, ’’ तुम ऐसा क्यों सोचती हो? हो सकता है उसे अवकाश नही मिल पाया हो इसीलिए तो वह इस बार नही आ रहा है। ’’ मैंने रागेश्वरी को समझाते हुए कहा। मेरी बातों का रागेश्वरी पर कुछ तो प्रभाव अवश्य पड़ा। उसके चेहरे से तनाव कम हो कर एकाएक चमक-सी आ गई।

रागेश्वरी की यही विशेषता है कि वह अधिक देर तक नाराज नही रह सकती है। प्रसन्न रहने का यही स्वभाव उसके अन्दर की युवती को बचा कर रखे हुए है। लगभग पचपन की उम्र में भी रागेश्वरी चालीस-पैंतालिस की उम्र से अधिक की नही लगती है। घर के अधिकांश कार्यों को वह स्वंय करना पसन्द करती हैं। अतः उसका शारीरिक गठन सुडौल है, जब कि उसके उम्र की अधिकांश स्त्रियाँ मोटापे की शिकार हैं।

किन्तु इधर कुछ माह से उसे न जाने कैसे चलने-फिरने में कठिनाई होने लगी है। डाक्टरों को दिखाया तो उन्हांेने आर्थराइटिस बताया है। घुटनों की इस पीड़ा से उसकी सक्रियता पर प्रभाव पड़ा है। कदाचित् इसी का नाम जीवन है इसमें धूप-छाँव, सुख-दुख सब अश्वम्भावी है। यह हाड़-मांस का बना शरीर है। रोग, व्याधि, उम्र का प्रभाव इस पर पड़ता ही है।

यह तो निश्चित हो गया है कि आयुष्मान इस दीपावली पर घर नही आ रहा है। मैं यह भी जानता हूँ कि हो सकता है अगली दीपावली में वो आये और पुनः किसी अन्य दीपावली में कदाचित् न आ पाये। क्या उसके आने से ही पर्व मानाये जाएंगे.....उसके आने से ही हमारे हिस्से की खुशियाँ हम तक आ पाएंगी?

इस बात से मैं भिज्ञ हूँ कि बच्चे ही माता पिता के लिए प्रसन्न्ता का कारक होते हैं। किन्तु आज के परिवेश में जबकि बच्चे करियर के लिए......नौकरियों के लिए......जीविकोपार्जन के लिए संसार के किसी भी क्षेत्र में जा रहे हैं तो माता-पिता का भी यही दायित्व है कि उनके विकास की उड़ान में बाधा न बनें। उन्हें खुले नभ में उन्मुक्त उड़ने दें। जीवन के अनुभवों को आत्मसात करते हुए उन्हंे व्यवहारिक ज्ञान लेने दें।

समय व्यतीत होता जा रहा है। दीपावली भी समीप आती जा रही है। आज तक मैंने सेवानिवृत्ति के पश्चात् समय व्यतीत करने के लिए कुछ अतिरिक्त कार्य कर लेने के रागेश्वरी के दिये गये सुझाव को गम्भीरता से नही लिया था। किन्तु अब मैं रागेश्वरी के सुझाव पर गम्भीर होने लगा हूँ। मेरे मन में भी कुछ करने का विचार उत्पन्न होने लगा है किन्तु वह रागेश्वरी के विचार से अलग है। मेरा हृदय सशंकित है कि पता नही उसे मेरा विचार अच्छा लगेगा अथवा नही। आज कार्यालय से घर पहुँच कर उसे अपने विचारों से अवगत् कराऊँगा।

शाम को घर पहुँचा हूँ। रागेश्वरी मुस्कराती हुई मेरे समक्ष थी। उसके चेहरे पर अभी भी युवतियों सी चंचलता है। उसकी यही चंचलता मेरी सक्रियता और ऊर्जा है।

शाम की चाय पी कर मैंने बातें प्रारम्भ कीं- ’’ तुम सदैव सेवानिवृत्ति के पश्चात् मुझे कुछ अतिरिक्त कार्य कर लेने की सलाह देती रहती हो। तुम्हारी बात मानते हुए मैंने भी कुछ सोचा है। कहो तो बताऊँ? ’’ मैंने बातचीत में अच्छे वातावरण का सृजन करते हुए रागेश्वरी से पूछा।

’’ हाँ...हाँ...क्यों नही ? शीघ्र बताइये। ’’ रागेश्वरी के स्वर में प्रसन्नता के साथ ही साथ उतावलापन भी स्पष्ट था।

’’ हमारा यह घर दो लोगों के लिए कुछ बड़ा है। आगे के दानों बड़े कक्ष तो बन्द ही रहते हैं। ’’ कह कर मैं चुप हो गया। अपनी बातचीत को मैं धीरे-धीरे रागेश्वरी के समक्ष उसे समझाते हुए रखना चाह रहा था। रागेश्वरी मनोयोग से मेरी बात सुन रही थी।

विवाह से पूर्व तुम्हारी नौकरी करने की इच्छा थी। अपनी उस इच्छा का तुमने त्याग घर सँवारने में कर दिया। क्यों न तुम अपनी उस इच्छा को पुनर्जीवित करो? मैं चाहता हूँ कि आगे के बन्द पड़े इन दोनों कमरों में हम एक स्कूल खोलेें। ऐसे निर्धन बच्चे जिन्हें पैसों व समय के अभाव में निर्धन मजदूर माता-पिता विद्यालय नही भेज पाते, हम उन्हें पढ़ायेंगे। ज्ञान के संबल से उनकी बुनियाद मजबूत करेंगे। ’’ रागेश्वरी प्रसन्न्ता से चहक उठी।

’’ हाँ......हाँ....और इसके लिए हमें कोई अतिरिक्त पैसे भी व्यय नही करने पड़ेंगे। ’’

’’ हाँ, और तुम्हारी शिक्षा का सही अर्थों में सदुपयोग भी होगा। हम अपनी नई दुनिया में व्यस्त भी रहेंगे और यह अकेलापन बच्चों की चहचहाहटों से गुँजायमान हो जायेगा। ’’ मैंने उसे समझाते हुए कहा।

’’ अरे वाह! इतना अच्छा विचार आपने मुझसे छुपा कर रखा था। ’’ रागेश्वरी ने मेरी बातों का समर्थन करते हुए कहा।

धनतेरस के दिन रागेश्वरी पूरे दिन दोनों बाहरी कक्षों को रंगीन झालरों व पुष्पों से सजाने में व्यस्त रही। आज लगभग दो दर्जन बच्चों का नामांकन होना था। रागेश्वरी ने आसपास के निर्धन घरों में सम्पर्क कर बच्चों को पढ़ाने का उत्तरदायित्व ले लिया था। नन्हें -मुन्ने बच्चों के प्रशिक्षण के केन्द्र का नाम उसने बेटे आयुष्मान के नाम पर रखा- ’’ आयुष्मान प्ले स्कूल ’’ । पढ़ने आने वाले बच्चों में बेटियों की अधिक संख्या देख कर मुझे प्रसन्नता हो रही थी। हमारा एक ही पुत्र है। बेटी नही है। रागेश्वरी ने अधिक संख्या में बेटियों का नामांकन कर इस घर में बेटी की कमी को पूरा कर दिया था।

इस दीपावली मेरा घर बच्चों की बाल-सुलभ किलकारियों के प्रकाश में नहा रहा था। रागेश्वरी की प्रसन्नता देखते बन रही थी। उसे तो मेरी तरफ देखने का समय नही था, किन्तु मैं उसे ही देख रहा था। उसकी चाल सही हो गयी थी। घुटनांे का दर्द अतीत का परछाँइयों की भाँति कहीं दूर चला गया था।

नीरजा हेमेन्द्र

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