.......और एक दिन Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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.......और एक दिन

आज वह अत्यन्त प्रसन्न थी। प्रातः समय से पूर्व उठ गयी। दैनिक कार्यों को कर समय से काफी पहले तैयार होकर बाहर निकल गयी। सड़क पर आॅटो वाले को हाथ देकर रोका और कार्यालय पहुँच गयी। कार्यालय के गेट के भीतर कदम रखते समय थोड़ी-सी असहज हुई, इस असहजता का कारण आज कार्यालय में उसका प्रथम दिन होना था। कुछ ही देर में इस क्षणिक असहजता को विराम देते हुए आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ गयी। इसी कार्यालय में उसे आज नौकरी ज्वाइन करनी है।

उसने कार्यालय में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। प्रथम दिन कार्यालय में उसे अच्छा लगा। आज कुछ विशेष काम नही था। सहयोगियों ने बताया कि काम के लिए अधीर होने की आवश्यकता नही है। शनै-शनै सब आ जायेगा। शाम को कार्यालय से बाहर निकलने के पश्चात् वह संतुष्टि व आत्मविश्वास के साथ आॅटो में बैठ कर हास्टल की ओर चल दी। संतुष्टि इसलिए कि कई दिनों से वह संशय की स्थिति में थी, कि कार्यालय कैसे जायेगी?......वहाँ के कार्य ठीक से कर पायेगी या नही ? आदि....आदि अनेक प्रश्न उसे व्याकुल कर रहे थे। यहाँ आकर उसे लगा कि वह नाहक ही संशय की स्थिति में थी। कार्यालय के कार्य वह कर सकती है। अतः इस समय आत्मविश्वास की कमी भी उसमें नही थी।

हास्टल के कक्ष में पहुँच कर उसने अपने लिए काॅफी बनाई। खिड़की के समीप खड़ी होकर बाहर का दृश्य देखते हुए शनै-शनै काॅफी पीने लगी। आज उसका मन प्रसन्न था। सर्वाधिक प्रसन्न। किन्तु वह जानती है कि आज भी अधिक देर तक प्रसन्न वह नही रह पायेगी? विगत् दिनों की स्मृतियाँ आज भी उसकी प्रसन्नता में समाहित होकर उसे व्याकुल देंगी। इन स्मृतियों को वह स्वंय से विलग कर देना चाहती है, विस्मृत कर देना चाहती है, किन्तु ये स्मृतियाँ उसके समक्ष चली ही आती हैं। उस त्रासद पूर्ण घटना के चिन्ह यद्यपि उसके मन-मस्तिष्क पर धुँधले हो चुके हैं किन्तु उसका प्रभाव उसके जीवन पर अमिट है। ये चिन्ह धुँधले तो हो सकते हैं किन्तु उनका मिटना असम्भव है....

वह पुनः उन स्मृतियों की गिरफ्त में आने लगी है। ..... धुँधला-धुघला सा ही सही, उसे स्मरण है जब उसके बदहवास माता-पिता उस दिन एक बड़े शहर के अस्पताल में लेकर उसे आये थे। गाँव में या अपने किसी भी नाते-रिश्तेदार को बताये बिना चुपचाप उसे ले आये थे। कदाचित् वह एक बड़े शहर का मेडिकल कोलेज था। उस समय वह समझ नही पायी थी कि उसकी माई व बाबू अपने दोनों हाथ जोड़े क्यों उस डाॅक्टर के समक्ष गिड़गिड़ा रहे थे। वह माई का आँचल पकड़े हुए खड़ी सब कुछ देख रही थी, किन्तु समझ नही पा रही थी क्या हो रहा है?

वह अस्वस्थ थी। इतनी अस्वस्थ कि कुछ भी सुनना व समझना उसके लिए सम्भव नही था। किन्तु उसकी अस्वस्थता उसके माई-बाबू की परेशानी का कारण क्यों बन गया? अब से पहले भी तो कई बार वह अस्वस्थ हुई है किन्तु माई-बाबू इतने निरीह तो कभी नही हुए। उसका मन-मस्तिष्क व शरीर सब कुछ दुर्बलता के कारण सुन्न हो रहा था। अस्पताल के लोग उसे चलती-फिरती परछाँइयों की भाँति दिख रहे थे।

उसे उस बड़े-से अस्पताल के एक कक्ष में रख दिया गयाा था, जहाँ उसके माई-बाबू व डाक्टर के अतिरिक्त कोई भी आता-जाता नही था। उप्फ्! कितनी कष्टप्रद स्मृतियाँ हैं उन दिनों की, वह उन्हें विस्मृत करे भी तो कैसे करे? स्मृतियाँ किसी चलचित्र की भाँति जब उसके समक्ष आने लगती हैं। तो उसे प्रतीत होता है कैसे अपने विगत् से पृथक होकर इस जन्म में जीवन व्यतीत कर पायेगी? उसके लिए असम्भव है, बिलकुल असम्भव।

धुँधली-सी स्मृतियाँ शेष हैं उन दिनों की किन्तु यह घुँधली स्मृतियाँ इतनी कष्टप्रद हैं कि जीवन के किसी वातायन से आते प्रकाश को धुँधला कर देती हैं। उसके जीवन में वह घटना उस समय घटी थी जब वह बच्ची थी। लगभग बारह-तेरह वर्ष की उम्र रही होगी उसकी उस समय। अपने छोटे-से गाँव में तीन बहनों व दो भाईयों के साथ रहती थी। बाबू दिहाड़ी मजदूरी व माई खेतों में काम करती थी। वह अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थी तथा उसी गाँव के प्राथमिक विद्यालय में छठी कक्षा में पढ़ती थी।

उसका परिवार निर्धन था, किन्तु निर्धनता में रहते हुए भी वह अपने गाँव के उन्मुक्त प्राकृतिक वातावरण व गाँव के हम उम्र बच्चों के साथ खेलते हुए प्रसन्न रहती थी। चारों ओर फैले हरे-भरे खेतों की पगडडियों पर दौड़ना व तितलियाँ पकड़ना उसका मन-पसन्द खेल हुआ करता था। शौच के लिए उन सबको खेतों में जाना पड़ता था। उस गाँव में किसी के घर में शौचालय नही था। वह शौच के लिए माई के साथ प्रातः ही खेतों की ओर निकल पड़ती। यदि किसी कारणवश माई उसके साथ नही जा पाती तो वह अपनी छोटी बहनों में से किसी को साथ ले लेती।

माई उसे अकेले कभी नही जाने देती। उसे स्मरण है वो दिन......गर्मियों के दिन थे। जेठ माह की दोपहरी। लू भरी हवायें चल रही थीं। गाँव की गलियों, दालानों, चैबारों में सूनापन व्याप्त हो चुका था। उसे शौच जाने की आवश्यकता आ पड़ी। माई काम पर गयी थी। बाबू मजदूरी करने। वह छोटी बहन को साथ लेकर खेतों की ओर चली गयी। दोपहर के सन्नाटे में खाली पड़े खेतों में पशु-पक्षी, मनुष्य कुछ भी दिखायी नही दे रहे थे। वह खेतों की पगडडियों के किनारे उगे सरकंडे की झाड़ियों के पीछे बैठ गयी।

उसकी छोटी बहन धूप के कारण कुछ दूर एक वृक्ष की छाँव में खड़ी होकर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वहीं झाड़ियों में उसके गाँव का एक आदमी बैठा था जिसे वह चचा कहती थी। उस चचा ने उसके शरीर के साथ जो कुछ किया उससे वह उस छोटी-सी उम्र में समझ गयी थी कि घृणित था। तथाकथित चचा इन्सान नही दानव था। जो कुछ भी उसने उसके साथ किया उसे वह ठीक से समझ नही पायी, किन्तु उस दुष्कर्म की मानसिक व शारीरिक पीड़ा तीन-चार दिनों तक अनुभव करती रही।

उस दिन वह वहाँ से चुपचाप घर चली आयी थी। उससे चन्द कदम दूर खड़ी उसकी छोटी बहन भी कदाचित् नही समझ पायी होगी कि उसकी दीदी के साथ आज जो कुछ भी हुआ है उसका दुष्परिणाम उसकी दीदी तो उम्र भर भोगेगी ही उसका पूरा परिवार भी इसकी सजा भोगेगा। आज उम्र के इस पड़ाव पर आकर वह इस तथ्य से परिचित हो पायी है कि स्त्रियों के प्रति हमारा समाज कितना क्रूर है। वह उसको कामेच्छा की पूर्ति का साधन और मात्र भोग्या समझता है।

उस दिन घर आकर भी उसने किसी से कुछ भी नही बताया। कारण, चन्द मिनटों में घटी वो घटना उसकी समझ व स्मृतियों से बाहर थी। इस घटना की भयावहता के दूरगामी दुष्परिणाम का अनुमान भी उसे न था। एक-दो दिनों में उस नरपिचाश द्वारा किए दुष्कर्म को विस्मृत कर हमउम्र बच्चों संग खेलकूद, बागों में फूलों, तितलियों संग खेलने में रम गयी। दो माह भी न व्यतीत हुए कि उसे चक्कर आने लगे। उल्टियाँ व शारीरिक दुर्बलता की शिकार होने लगी।

वह समझ नही पा रही थी कि उसे बार-बार उल्टियाँ क्यों हो रही हैं? दुर्बलता क्यों लग रही है? कभी विद्यालय में उल्टियाँ, तो कभी घर में। वह माई से कहती, ’’ माई मुझे इतनी उल्टियाँ क्यों हो रही हैं? ’’ माई कुछ न कहती। माई का बदहवास चेहरा देख कर भी वह समझ नही पायी थी कि उसे क्या हुआ है? ज्यों-ज्यों एक-एक दिन व्यतीत होते जा रहे थे माई के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें क्यों गहरी होती जा रही थीं? मेरे साथ ही वह भी क्यों पीली पड़ती जा रही थी?

माई व बाबू दालान में पड़ी ढीली चारपाई पर बैठ कर घंटों न जाने क्या सोचते रहते। उसकी समझ में नही आ रहा था कि उसे क्या हो गया है? कौन-सा रोग लग गया है उसे जो माई सहमी हुई बिना कुछ बोले बस उसका मँुह ताकती रहती। वह सोचती कि इतनी अधिक अस्वस्थता पर माई गाँव के डाक्टर के यहाँ से उसके लिए दवाई क्यों नही लाती? इससे पूर्व तो थोड़ी-सी भी अस्वस्थता पर माई व्याकुल होकर उसके लिए दवाइयाँ लेने गाँव के डाॅक्टर के पास चली जाती। इस बार माई को क्या हो गया है?

मेरी अस्वस्थता व दुर्बलता बढ़ती जा रही है फिर भी माई मुझे डाॅक्टर के पास लेकर क्यों नही जाती? शनैः-शनैः कई माह व्यतीत हो गये कदाचित् दो-तीन माह और। वह अत्यन्त दुर्बल हो चुकी थी।......और एक दिन माई व बाबू उसे लेकर शहर के एक बड़े अस्पताल में आ गए थे। वह वहाँ तीन माह तक पड़ी रही। एक दिन पुनः उसे उसी असहनीय पीडा से गुजरना पड़ा। मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में वह एक बच्ची की माँ बन गयी थी।

यह बात माई-बाबू व डाॅक्टरों द्वारा छुपाने पर भी उसे ज्ञात हो गयी थी। उसे भी आघात पहुँचा था। अल्प अवस्था में माई की भाँति निरन्तर सोचते रहना, कुछ भी व्यक्त न करना, न अपनी पीड़ा न अपनी भावनायें उसे भी आ गया था। अस्पताल के उस प्राइवेट कक्ष में न जाने क्या चल रहा था, वह माँ बनी ये बात उसे किसी ने भी नही बताई। माई व नर्स की गुपचुप चर्चाओं व अपनी शारीरिक पीड़ा द्वारा उसने महसूस किया था कि वह माँ ही बनी है।

माँ बनने के पश्चात् भी उसके भीतर ममता नाम की भावना जागृत नही हुयी। तेरह वर्ष की आयु, उसका गिरता स्वास्थ्य व वजन उसके प्राणों को संकट में डाल रहे थे। धीरे-धीरे उसके स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ। वह सोचती कि क्या वह सचमुच माँ बनी थी? किसी नवजात बच्चे को अपने इर्द-गिर्द उसने कभी नही देखा? किन्तु उसका पेट जो थोड़ा-सा बढ़ा था, सहसा ठीक कैसे हो गया? कहीं ये सब उसका भ्रम मात्र तो नही है? छोटी-सी उम्र में वह माँ कैसे बन सकती है? इन जटिल प्रश्नों के उत्तर ढूँढ पाना उसके लिए दुष्कर था।

अस्पताल के निजी कक्ष में रहते हुए दिन व्यतीत होते जा रहे थे। न जाने कितने दिन....कितने माह....कितने वर्ष? कदाचित एक वर्ष? माई-बाबू घर जा चुके थे। गाँव में उनका अपना घर था। टूटा-फूटा ही सही, वह उनका अपना घर था, और घर तो घर होता है। वहाँ उनके चार अन्य बच्चे भी थे। जो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। अतः उन्हंे यहाँ से जाना ही था। एक दिन उसे अस्पताल से बाहर लाया गया। माई-बाबू भी उस दिन उसके साथ उस सरकारी वैन में मौजूद थे। लगभग छः घंटे का सफर था वह। उसने अनुमान लगाया कि यह बड़ी-सी इमारत उस सरकारी अस्पताल से काफी दूर थी। पर कहाँ और कौन-सी जगह है यह, ये सब उसकी समझ से बाहर की बात थी।

गेट के भीतर आकर ज्ञात हुआ कि यहाँ इस बिल्डिंग में अनेक लड़कियाँ रह रही थीं। यह एक गल्र्स हाॅस्टल था। माई-बाबू के साथ उसे एक कक्ष में लाया गया । उसका सारा सामान का जिसमें मात्र एक थैला था और उस थैले में उसके दो-चार घिसे-पिटे पुराने कपडे़ व दो पुरानी चादरें थीं, रख दिया गया। कक्ष के मध्य में दीवार से सटी पलंग पड़ी थी जिस पर बिस्तर बिछा हुआ था। दीवार में एक आलमारी बनी थी। पास में एक कुर्सी व मेज रखी थी। बिजली, पंखा सब कुछ था यहाँ। कमरे में बिछी पलंग पर माई व बाबू बैठ गये थे। इतनी लम्बी यात्रा के पश्चात् वे थक गये थे। थकान तो उसे भी लग रही थी। वह पलंग के एक कोने में माई के पास बैठ गयी।

माई ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, ’’ बिटिया! अब तुम्हें यहीं रहना है। ’’

’’ किन्तु माई, यह बहुत बड़ा कमरा है। यह कमरा भी पक्का, साफ-सुथरा है। बिजली, पंखा सब कुछ है। यह बड़ा महंगा होगा। मैं इसमें कैसे रह सकती हूँ? तुम इतने पैसे कहाँ से लाओगी माई? ’’

माई कुछ क्षणों तक बाबू के नीचे झुके सिर को देखती रही, पुनः बोली ’’ यह सब हाकिम-सरकार की तरफ से है। हाकिम-सरकार तुम्हारा पूरा खर्च उठायेगी। तुम्हें यहाँ रहकर पढ़ना है। खूब मन लगाकर पढ़ना बिटिया। पढ़ने के बाद हाकिम की ओर से तुम्हें पक्की सरकारी नौकरी मिलेगी। सब ठीक हो जायेगा। ’’

’’ किन्तु हम गाँव कब जायेंगे माई ? ’’ यहाँ तो हम किसी को जानते नही ? अकेले कैसे रहेंगे..... किसके साथ खेलेंगे...किससे बातें करेंगे...? .आप लोग तो कह रहे हैं कि मुझे यहाँ छोड़कर चले जाओगे। हम किसके साथ रहेंगे माई? हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे माई। ’’ उसे रोना आ रहा था।

’’ नही बिटिया! तुम ऐसा न कहो। वहाँ गाँव में हमारा जीना दूभर होता जा रहा है। गाँव वालों के तानों से प्रतिदिन हमारा मन जख्मी होता है। सरकार के डर से किसी प्रकार सब चुप है। ’’ बाबू ने उसे समझाते हुए कहा।

’’ बिटियाँ यहाँ किसी से भी अपने गाँव-गिराँव, हमारे या अपने बारे में पहले की कोई बात, कोई पहचान न बताना। पुराना सब कुछ भूलकर खूब मन लगा कर पढ़ना। हम कभी-कभी यहाँ आते रहेंगे तुमसे मिलने। ’’ माई ने समझाते हुए उससे कहा।

माई-बाबू के डरे-सहमे चेहरे को देखकर वह कुछ और न पूछ सकी। कुछ देर में माई-बाबू कमरे से बाहर निकल गये। बाबू अंगोछे से पसीना पोंछते चले जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे माई आधा चेहरा घूँघट की ओट में ढँके हुए चली जा रही थी। वह उन्हंे इस अपरिचित भवन के कक्ष के चैखट पर खड़ी जाते हुए देखती रही। उनके जाने के पश्चात् भी वह बहुत देर तक चैखट पकड़े खड़ी रही। तेरह साल की ही उम्र तो थी उसकी। खड़े-खड़े थक गयी। जाकर बिस्तर पर निढाल पड़ गयी थी। बेहोशी की भाँति उस नींद आ गयी।

न जाने कब तक वह यूँ ही नींद में बिस्तर पर पड़ी रही। सहसा कमरे में किसी के आने की आहट से वह गहरी नींद से हड़बड़ा कर उठ गयी। कमरे में एक महिला को देखकर वह घबरा गयी। उस महिला के हाथों में एक बड़ा-सा थैला था। उस महिला ने उसकी मेज पर दैनिक आवश्यकता की तमाम वस्तुएँ साबुन, तेल, कंघी, ब्रश, मंजन, तौलिया आदि तथा साथ में उसके लिए कुछ जोड़े नये कपड़े रख दिए। उसके पास आकर स्नेह से उसके माथे पर फेरते हुए उन्होंने अपना नाम सरस्वती बताते हुए उसे भी उसके नये नाम से परिचित कराया। ’’ जाह्नन्वी! आज से तुम्हारा नाम जाह्नन्वी है। ’’ साथ ही उन्होने कहा, ’’ जाह्नन्वी का अर्थ होता है गंगा। तुम गंगा की भाँति पवित्र व सबको तारने वाली हो। ’’

’’ किन्तु मेरा नाम तो......’’ उसके शब्द हलक में ही रह गये। ’’

’’ आज से पहले तुम्हारा जो भी नाम रहा हो उसे स्मरण रखने की आवश्यकता नही है। तुम जाह्नन्वी हो बेटा....जाह्नन्वी... बस यही स्मरण रखना है। ’’ आज ही तुमने इस नये जीवन में प्रवेश किया है। आज यहाँ से तुम्हारा नया जीवन प्रारम्भ हो रहा है। ’’ उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

न जाने कब वो अजनबी-सी महिला सरस्वती......उसकी सरस्वती अम्मां बन गयीं। सरस्वती अम्मां ने उसे अक्षर ज्ञान दिया। उसे पढ़ना सिखाया। वह देर-देर तक उसके साथ कमरे में रहतीं। पुस्तके पढ़ातीं।

धीरे-धीरे उसने स्कूल की शिक्षा पूरी कर कोलेज जाना प्रारम्भ कर दिया। सरस्वती अम्मां अब उसके कमरे में कम रहतीं। उन्होंने उसे समझाया कि अब वह कोलेज में पहुँच गयी है। उसे अब अपने आप पढ़ना है। उसने देखा उस छात्रावास के अन्य कमरों एक से अधिक लड़कियाँ रहती थी, किन्तु अपने कक्ष में वह अकेली ही रहती। कोलेज से आ कर वह अकेली कमरे में बैठी रहती कोई उससे बातें करने वाला न था। अतः मन लगाने व स्ंवय को व्यस्त रखने के लिए वह पढ़ने बैठ जाती। अन्य कोई मार्ग भी तो नही था उसके समक्ष, अकेलेपन की नीरसता दूर करने के लिए। माई-बाबू वर्ष में एक-दो बार उससे मिलने आ जाते। सरस्वती अम्मां उसका ध्यान रखतीं। उसे पढ़ने के लिए पे्ररित करतीं।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। समय के साथ वह बड़ी होती रही। उम्र के बीसवें वर्ष में बी.ए. द्वितीय वर्ष में उसने प्रवेश ले लिया। पूर्व की भाँति अब न तो वह माई-बाबू को स्मरण करती न उनकी प्रतीक्षा। सरस्वती अम्मां की मुस्कराहटों में वह अपनी छोटी-सी दुनिया और खुशियाँ जो उस तक ही सीमित थी, पा लेती। माई-बाबू जब भी उसके पास आते व्याकुल व घबराये हुए रहते। कदाचित् वो भी औपचारिकता वश ही मेरे पास आते। उनके यह बताने पर कि उसकी दांेनो छोटी बहनों का उन्होंने व्याह कर दिया है उसे न तो प्रसन्नता हुई न ही आश्चर्य। वह क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती?.....उन्हें वह विस्मृत कर चुकी थी। विस्मृत करने के लिए समय का यह लम्बा अन्तराल पर्याप्त था।

उसे याद आता है इस छात्रावास के प्रारम्भ के वे दिन....जब वह यहाँ नयी-नयी आयी थी। उस समय उसके अवचेतन में जेठ की दुपहरी व झाड़ियों के पीछे घटी उस त्रासदपूर्ण घटना की स्मृतियाँ परछाँईयों के रूप में आती रहतीं। मुझे ये भी आभास होता कि उसके परिणाम स्वरूप उस सरकारी अस्पताल में वह माँ बनी थी। वह नवजात जीवित है या नही ये वह नही जानती। यदि कहीं जीवित है तो क्या वह भी अन्य शिशुओं की भाँति सामान्य होगा या दानव की भाँति? ये वह नही जानती तथा जानना भी नही चाहती। वो सब कुछ विस्मृतियों के गर्भ में समाहित हो चुका है। माई-बाबू अब जब भी यहाँ आते वे गाँव की कोई बात, कोई चर्चा मुझसे नही करते।

लम्बे समय के पश्चात् एक दिन माई-बाबू उससे मिलने आये। बाबू को इस छात्रावास के कार्यालय में बुलावाया गया, माई मेरे पास कक्ष में अकेली थी। उस दिन मेरे समक्ष भावनाओं का वेग न जाने कैसे फूट पड़ा माई का......

.....’’बिटिया तुम्हारे यहाँ आने के पश्चात् गाँव में हमारा रहना दुष्कर हो गया था। लाख छुपाने के बाद भी गाँव में धीरे-धीरे सबको इस घटना की जानकारी हो गयी। गाँव वालों के ताने, गालियाँ तथा ऊपर से वो राक्षस तब-तब रास्ते में खड़ा घूरता व गालियाँ देता, जिसके कारण हमारा गाँव में रहना-जीना मुहाल था। हमें तो यह भी नही ज्ञात था कि वो राक्षस कौन है? उसके अपशब्दों को सुन कर हमने यह अनुमान लगाया कि वो दुष्ट यही है। किन्तु हम बदनामी के डर से हाकिम सरकार से बता नही सके थे। एक लड़की के घर वालों की यही विवशता होती है। बदनामी, जगहँसाई सरकार की सहायता पर भारी पड़ती हंै। उस राक्षस को ज्ञात हो गया था कि हाकिम सरकार ने अखबार वालों की ( मिडिया ) तथा कुछ मददगार संगठनों के आवाज उठाने की वजह से हमारी बहुत सहायता की है। और तो और तुम्हारा खर्च, पढ़ाई-लिखायी के बाद सरकारी नौकरी भी हाकिम सरकार देने वाली है, वह पगला गया।

हमने कलक्टर साहब से अपनी पीड़ा बतायी। मन में यही विचार उठ रहे थे कि हम गाँव छोड़ कर कहीं और चले जायें। वहाँ जहाँ हमें कोई जानता-पहचानता न हो। किन्तु ऐसा कहाँ सम्भव था? बच्चों को लेकर हम कहाँ दर-ब दर भटकते। बिटिया तुम्हारा कोई दोष न होने के पश्चात् भी हमने गाँव में बड़ी जिल्लत भरे दिन बिताये। ’’ वह माई की बातें सुनती रही तथा कुछ-कुछ समझती रही। बहुत सी बातें उसकी समझ से बाहर थी।

समय शनैः-शनैः आगे बढ़ता रहा। वसंत, बारिश, जाड़े की गुलाबी धूप, हवा, चिड़ियां, झील बादल मुझे भी अच्छे लगने लगे। युवा अवस्था में इन चीजों में न जाने क्यों एक विशेष आर्कषण दिखाई देने लगता है। युवा मन वाह्नय संसार से परिचित होना चाह रहा था। किन्तु अपने अतीत के भय से वाह्नय संसार से तारतम्य स्थापित करने से मैं डरती। धीरे-धीरे मैं स्वंय में सिमटती चली गयी। प्रकृति के सानिंध्य में बैठ कल्पनालोक का सृजन कर वह अनेक सुखद पलों को जी लेती तथा वापस स्वंय को अपने भीतर कैद कर लेती।

इस वर्ष वह चैबीस वर्ष की हो गयी थी। ग्रेजुएशन पूर्ण कर लिया। सरस्वती अम्मां आज अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक प्रसन्न लग रही थीं। न जाने क्या बात है? उन्हें प्रसन्न देख बरबस उसके होठों पर भी मुस्कराहट फैल गयी। वही तो हैं उसके अकेलेपन में साथ चलने वाली उसकी साथी। यदि वह न होतीं तो वह कैसे रह पाती इस दुनिया में अकेली। उनके बिना जीवित रह भी पाती या नही, नही जानती। सरस्वती अम्मां ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहा,

’’ बिटिया आज तुम्हारे लिए अत्यन्त प्रसन्न्ता का दिन है ’’। कहते हुए एक लिफाफा उन्हांेने उसे पकड़ा दिया।

’’ ये सरकार की तरफ से तुम्हारी नौकरी का नियुक्ति पत्र है बिटिया। इसी शहर के सरकारी कार्यालय में तुम्हें नौकरी मिल गयी है। ’’ वो मुस्करा रही थीं।

उसने ये जानने का प्रयत्न नही किया कि यह नौकरी कहाँ है? कैसी है? सरस्वती अम्मां प्रसन्न हैं तो उसे ये नौकरी ज्वाइन करनी है। आखिर सरस्वती अम्मां ने अपने जीवन के इतने वर्ष उस गवांर को जीने योग्य बनाने में लगा दिये हैं, तो वह उनकी खुशियों में शामिल कैसे न होती भला? नौकरी ज्वाइन कर लौटते हुए अतीत की स्मृतियों में जाना स्वाभाविक ही था। विगत् सब कुछ विस्मृत कर इस नौकरी के साथ नये जीवन में प्रवेश करना है उसे।

छात्रावास से निकलते समय सरस्वती अम्मां ने आशीष देते हुए कहा था, ’’ आज से तुम्हारा खुशियों भरा नया जीवन प्रारम्भ हो गया बेटा! सदा प्रसन्न रहो। ’’

वह नही जानती कि आगे उसका जीवन खुशियों भरा है या नही, किन्तु उसकी एक ही इच्छा है कि परिस्थितियाँ चाहें जो भी हों सरस्वती अम्मां उसके साथ रहें.... सदा ! घर्र......घर्र का स्वर और आॅटो छात्रावास के गेट पर आकर रूक गया। विगत् स्मृतियों से वह बाहर आ गई। अपने कक्ष में सरस्वती अम्मां को प्रतीक्षारत् पाया। उसे प्रसन्न देख कितनी प्रसन्न थीं सरस्वती अम्मां।

नौकरी करते हुए उसे एक वर्ष होने वाले हैं। सरस्वती अम्मां ने कहा है कि उसे अब ये छात्रावास छोड़ कर किराये के मकान में अलग रहना होगा।

’’ आप मेरे साथ रहेंगी तो मैं कहीं भी रह लूँगी। ’’ उसने सरस्वती अम्मां से कह दिया।

’’ मैं तुम्हारे साथ रहूँगी या नही ये तो सरकार के बड़े लोग ही बता पाएंगे। किन्तु तुम्हारे लिए यहाँ से थोड़ी दूर एक फ्लैट में दो कमरे का मकान पसन्द कर लिया है मैंने। तुम वहाँ रहोगी। ’’ सरस्वती अम्मा उसे लेकर यहाँ आ गयीं। छात्रावास से मेरा सामान लाने, यहाँ व्यवस्थित करवाने में उन्होंने मेरी सहायता की। यह भी निश्चित हो गया कि सरस्वती अम्मां मेरे साथ यहाँ नही रहेंगी। सरकारी नियमों की वाध्यतायें रही होंगी। उनके बिना अनेक रातों, दिनों, महीनों मैं रोती रही। धीरे-धीरे विवशता में अकले जीना-रहना सीख रही हूँ। दिन भर कार्यालय में व्यस्त रहने के पश्चात् रात्रि भी किसी प्रकार कट ही जाती।

मेरी नौकरी को एक वर्ष पूरे हो गये हैं। मेरे साथ कार्यालय में काम करने वाला पल्लव कितने अपनत्व से बातें करता है मुझसे। सीधा-सादा, साधारण, किन्तु आकर्षक से दिखने वाले पल्लव से बातें करना कभी-कभी उसे भी अच्छा लगता है। पल्लव ने उससे कभी नही पूछा कि उसका घर कहाँ है? उसके परिवार... उसके माता-पिता के बारे में भी कभी नही पूछा। क्यों वह उससे बातें करता है किन्तु उसके बारे में जानना नही चाहता।

धीरे-धीरे उसकी सुबह गुलाबी व शाम सतरंगी होने लगी है। क्षितिज के सारे रंग उसके खालीपन को भरने लगे हैं। शनैः-शनैः ऋतुएँ परिवर्तित होने लगी हैं। ऋतुओं का ये परिवर्तन उसके दिन-रात के साथ ही साथ उसकी मनःस्थिति में भी परिवर्तन ले कर आया है। पल्लव उसे भी अच्छा लगने लगा है।

उसके जीवन में सरस्वती अम्मां का अभाव तो कोई नही भर सकता, किन्तु उसके हृदय की व्याकुलता कम होने लगी है। हृदय का कोई रिक्त कोना भरने लगा है। कार्यालय के कार्यों में मन लगता है। सीखने की रूचि बढ़ती जा रही है। इसका कारण कदाचित् पल्लव ही है। पल्लव की शालीनता, उसका गम्भीर व्यक्तित्व उसे प्रभावित करने लगा है। उससे बातें करना उसे अच्छा लगने लगा है। मुझसे बातें करते-करते पल्लव कभी-कभी अपने घर परिवार की बातें करने लगता है। उसकी बातों से आभास होता है कि उसका परिवार उसके हृदय के समीप है। परिवार से जुड़ा उसका व्यक्त्वि भी उसे आकर्षित करता है।

जिस दिन पल्लव अपने परिवार की बातें करता उस दिन मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से व्याकुल रहता। विगत् दिनों की स्याह परछाँइयाँ लम्बी होकर मुझे जकड़ने लगतीं। फिर कहीं भी मुझे अच्छा नही लगता। न तो पल्लव के समीप न पल्लव से दूर। मैं अपनी भावनायें छुपाने का प्रयत्न करने लगती। भय लगता कहीं मेरे चेहरे के भावों से पल्लव उन्हें पढ़ न ले।

ओह! आज मैंने ये कैसा स्वप्न देखा। एक छोटी-सी बच्ची रो-रो कर दोनों बाहें फैलाये मुझे पुकार रही है। कौन है ये? मुझे क्यों पुकार रही है? स्पष्ट तो नही किन्तु अस्फुट से स्वर कभी किसी के मेरे करनों में पड़े थे कि बलात्कार के परिणाम स्वरूप तेरह वर्ष की आयु में मैंने कदचित् एक पुत्री को जन्म दिया था, तथा ये भी कि वो मृत नही जीवित थी। जो सरकार द्वारा किसी निःसंतान दम्पत्ति को दे दी गयी थी। मैंने उसे नही देखा। मेरे हृदय में उसके लिए मातृत्व के भाव भी नही हैं। उसे जन्म देते समय मैं स्वंय तेरह वर्ष की बच्ची थी। एक बच्ची दूसरी बच्ची से मातृत्व तुल्य व्यवहार कैसे कर सकती है? वह मेरे अतीत की काली परछाँई है जो यदाकदा मुझे अपने गिरफ्त में लेती रहती है। उसकी काली परछाँई मेरे भावी जीवन को भी अन्धकार में ढँकती प्रतीत होने लगती है।

......और एक दिन इन बदलती ऋतुओं के सम्मोहक वातावरण में पल्लव का बिना लाग-लपेट के यह कहना कि ’’ मै तुमसे प्रेम करता हूँ और तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। तुम्हंे जीवन साथी बनाने के लिए तुम्हारे परिवार से मिल कर तुम्हें मांगना चाहता हूँ। ’’ मैं काँप उठी पल्लव की बातें सुनकर। मन आशंकित हो उठा यह सोच कर कि यदि पल्लव को मेरे अतीत के बारे में ज्ञात हुआ तो.....? मेरे हृदय में आशंकाओं के बवंडर उठ रहे हैं। मेरे दिन-रात उहापोह और डर की स्थिति में व्यतीत हो रहे हैं। मेरे परिवार से पल्लव मिलना चाहता है? किन्तु वो मेरे किस परिवार से मिलना चहता है? मेरा व मेरे परिवार का तिरस्कार करने वाले गाँव के लोगों से? बलात्कारी से....उसके परिवार से? सरकारी सहानुभूति से नौकरी प्राप्त कर किसी अज्ञात स्थान पर अपनी पहचान छुपाते हुए जीविकोपार्जन कर दिन व्यतीत करने वाली लड़की के अकेलेपन से? मेरे इतने सारे परिवार हैं। मैं अपने किस-किस परिवार से पल्लव को मिलवाऊँगी? ये सभी परिवार मेरे भीतर रहते हैं, जीते हैं। उन्हें मैं किस प्रकार पल्लव से मिलवाऊँगी? मेरे इन परिवारों से मिलकर पल्लव प्रसन्न होगा क्या? क्यों प्रसन्न होगा? वह कोई देवदूत तो नही हैं? सबको सुख देना तो उसका कार्य नही? स्वंय के लिए सुख प्राप्त करना उसका भी अधिकार है।

मुझसे पल्लव को किस प्रकार का सुख प्राप्त होगा? मुझे स्पर्श करते समय मेरे समीप से उसे उस बलात्कारी की दुर्गन्ध नही आयेगी? मैं उससे छल कर, अपनी सत्यता छुपाकर विवाह नही कर सकती? मैं अपने प्रेम की शुचिता का अपमान कैसे कर सकती हूँ? यदि मैं ऐसा करती हूँ तो मुझमें और उस बलात्कारी में फ़र्क क्या रह जायेगा? मैं पल्लव के चेहरे पर पीड़ा और उदासी नही देख सकती अतः सत्य बताने का साहस भी मुझमें नही है।

सरस्वती अम्मां आज मुझे बहुत याद आ रही हैं। मेरे पास पंख होते तो मैं किसी परिंदे की भाँति उड़ कर उनके पास पहुँच जाती। मेरे हृदय की व्याकुलता किस प्रकार कम होगी मैं नही जानती। पल्लव मेरे जीवन के प्रत्येक ऋतु में समाहित हो चुका है। किन्तु अपने मैं जीवन से घृणा करती हूँ। जी चाहता है अपने शरीर के उस हिस्से को काटकर फेंक दूँ। जो कापुरूषों की दृष्टि में स्त्री की परिभाषा बन चुके हैं। मैं इस समाज पुरूषों से घृणा करती हूँ। पुरूषों से ही नही बल्कि उनसे अधिक इस समाज की स्त्रियों से घृणा करती हूँ।

बलात्कार के पश्चात् बलात्कारी ने नही बल्कि मेरे गाँव की स्त्रियों के तानों, गालियों, अपशब्दों ने मुझे व मेरे परिवार को वहाँ रहने नही दिया। सुना है बाद में मेरे परिवार वाले अपना पुश्तैनी मकान बेंच कर कहीं अन्यत्र रहने चले गये थे, कहाँ? मुझे नही ज्ञात। ज्ञात है तो मात्र इतना कि मेरी माँ के साथ मेरे पिता आते थे मुझसे मिलने। अब वो नही आते। वो अब इस दुनिया में नही रहे। यदा-कदा मेरी माँ आती हैं मुझसे मिलने। बूढ़ी, जर्जर, कमर से झुकी माँ कब तक मुझसे मिलने आ पायेंगी? ये मैं नही जानती। एक दिन मुझे ज्ञात भी नही हो पायेगा और उनका आना बन्द हो जायेगा। यूँ भी उनकी धूसर, पथरायी आँखों में वात्सल्य कम और विवशता अधिक भरी रहती है।

कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि अपने जीवन के इन टेढ़ी-मेढ़ी, अन्धकारपूर्ण गलियों में पल्लव रूपी ज्योतिपुन्ज को ले जाकर कहीं उसका दुरूपयोग तो नही करूंगी? मेरे साथ अन्धेरी गलियों में चलते-चलते एक दिन उसका प्रकाश भी तो क्षीण नही हो जायेगा? और एक दिन शनै-शनै वह भी इन अन्धेरों में विलीन हो जायेगा। अपने हृदय में रह रहे इन परिवारों से मैं पल्लव को मिलने से कब तक बचाकर रख पाऊँगी? मैं इतनी निकृष्ट, स्वार्थी नही हो सकती। पल्लव मेरा प्रेम है और अपने प्रेम को मैं छल नही सकती।

’’ तुम्हारी बातों का उत्तर फिर कभी दूँगी। ’’ मैं पल्लव के पास से चली आयी। उत्तर की प्रतीक्षा में पल्लव मेरी ओर देखता रह गया। मैं जानती हूँ पल्लव के पास मेरा कुछ छूट गया है, जिसे मैं कभी वापस नही ला सकती।

अपने प्रेम को बचा लेने का एक मार्ग मुझे दिखाई देने लगा है। मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है उस मार्ग पर चलने का। तेरह वर्ष की अल्पायु में जब मैं उस अज्ञात शहर के अज्ञात अस्पताल में लायी गयी थी उस समय कभी-कभी रविवार के अवकाश के दिनों में सरस्वती अम्मां मुझे ले कर चर्च जाया करती थीं। उनके साथ ही प्रथम बार मैंने चर्च देखा था। वो कहतीं ’’ मेरे साथ चलो! प्रभु के चरणों में तुम्हे असीम शान्ति मिलेगी। ’’ मैं उनके साथ चल पड़ती।

चर्च के अनाथाश्रम में बच्चों, वृद्धों, असक्तों की सेवा करती नन का व्यक्त्वि उसे अत्यधिक प्रभावित करता। नख से शिख तक श्वेत वस्त्रों में ढँकी नन समाज से पृथक रहते हुए भी समाज के असहाय लोगों की सेवा कर रही थीं। समाज से पृथक रहकर भी समाज से सरोकार रखने का उनका यह तरीका कितना अलौकिक प्रतीत होता। वह मन्त्रमुग्ध-सी आश्रम के नन को देखा करती। नन की भाँति ही वह इस समाज में रह कर भी इससे पृथक रहना चाहती है।

अगले दिन जब वह कार्यालय गयी तो पल्लव से दूर रहने का प्रयास करने के बावजूद वह स्वंय को उसके और समीप पा रही थी। उसके समक्ष पुनः वही जटिल प्रश्न खड़ा हो रहा था कि कैसे विस्मृत कर पाएगी वह उसे? समीप न रह कर भी वह हर समय उसके समीप रहता है। शाम को घर आने से पूर्व पल्लव प्रतिदिन की भाँति उसके पास आया। वह खामोश थी। वह उसकी खामोशी का अर्थ जानना चाह रहा था। उसे अपनी खामोशी को शब्द देना ही पड़ा -

’’ पल्लव तुम मेरे परिवार से मिलना चाह रहे थे। मैं तुमसे बताना चाहती हूँ कि मेरा कोई परिवार नही है। मैं अनाथ हूँ। अकेली हूँ। मैं कल से कार्यालय नही आऊँगी। ’’ उसकी बातें सुन कर पल्लव हत्प्रभ था। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ता जा रहा था।

पल्लव को कुछ-कुछ वस्तुस्थिति तथा मेरी बात समझ में आने लगी थी।

’’तुम अनाथ नही हो तुम मेरी जीवनसंगिनी हो। तुम्हारा अतीत कुछ भी रहा हो तुम्हारा वर्तमान मेरा है। ’’ पल्ल्व ने उसके हाथों को कस कर पकड़ लिया। अब से पूर्व उसने कभी भी उसे स्पर्श नही किया था। उसके प्रथम स्पर्श की अनुभूति से उसका शरीर सिहर उठा जिस पर तत्काल उसने नियंत्रण किया।

’’ नही पल्लव ये मात्र बातें हैं। मुझे जाने दो। मैं तुमसे प्रेम नही करती। ’’ अपने हाथों को उसके हाथों से अलग करते हुए उसने कहा।

’’ कदापि नही ! तुम मुझसे प्रेम करती हो। मेरा प्रेम तुम्हारे चेहरे पर परिलक्षित होता है जाह्नन्वी। तुम्हे कहने की आवश्यकता नही है। ’’

’’ मेरा चेहरा भ्रम उत्पन्न करता है। तुम जाओ। ’’ उसने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमाते हुए कहा। उसमें इतना साहस नही था कि वो पल्लव के चेहरे की ओर देख सकती। उससे दृष्टि मिला सकती। वह जानती थी कि इस समय पल्लव का चेहरा बुझते हुए दीये की लौ के समान कान्तिहीन हो रहा होगा। उसने अपने स्याह जीवन से कुछ अन्धकार निकाल कर उसकी ओर बढा़ जो दिया था। उसे आत्मग्लानि हो रही थी। कितनी निकृष्ट हूँ वह। अपने प्रेम पर ही अपने जीवन के अन्धकार की काली परछाँई डाल दी है उसने।

’’ नही जाहन्वी ऐसा मत करो मेरे साथ। तुम जो भी हो ...जैसी भी हो...मुझे स्वीकार्य हो । तुम मेरी प्रेरणा हो......’’

तीव्र गति से वह पलट कर चल दी। पल्लव के स्वर अब भी उसके कानों से टकरा रहे थे। वह पल्लव के साथ छल नही कर सकती। अपनी ये पहचान उसे स्वीकार नही। वह समाज के वंचित, शोषित लोगों की सेवा कर अपनी पीड़ा कम कर सकती है। साथ ही उनकी भी। वह कमजोर नही है। सबल है। वह किसी से सहारा  नही लेगी बल्कि सहारा बनेगी।

वह कल ही सरस्वती अम्मां से मिलेगी। उनसे कहेगी कि जिस प्रकार वो उसकी जीवन यात्रा में अब तक मार्गदर्शक बन कर उसके साथ चली हैं, तो कुछ कदम और उन्हें उसके साथ चलना होगा। उन्हें उस चर्च के अनाथाश्रम में सेवा करने का अवसर दिलवाने हेतु उसकी उंगली पकड़ कर ले जाना होगा। अब वह नन बन कर लोगों की सेवा करना चाहती है।

सरस्वती अम्मां ने अपने इन्सानित का परिचय देते हुए उसे चर्च के अनाथाश्रम तक लाकर छोड़ दिया था। शेष यात्रा वह स्वंय तय कर लेगी। अन्ततः सरस्वती अम्मा ने उसमें इतना साहस तो भर ही दिया है कि आत्मविश्वास के साथ आगे का मार्ग वह स्वंय तय कर सके। उसने स्वंय को श्वेत वस्त्रों में ढँकते हुए अपने जीवन के अन्धकार को भी उसमें ढँक लिया है। एक दिव्य प्रकाश से उसका हृदय प्रकाशित हो उठा है।

नीरजा हेमेन्द्र