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जिस वक्त रेत पर हमारी कुर्सियां लगायी गयी हैं बारह बज रहे हैं। अचानक अंजलि ने वेटर को बुलवाया है और एक पैकेट सिगरेट और लाइटर लाने के लिए कहा है। हमम। मैं मुस्कुराता हूं - इसी की बस कमी थी।
अंधेरे में अंजलि सामने विशाल समंदर की बार बार पास आती और सिर पटक कर लौट जाती लहरों की तरफ देख रही हैं। जैसे खुद को अपनी कहानी सुनाने के लिए तैयार कर रही हैं। सिगरेट मंगवाना भी उसी तैयारी का हिस्सा है। उन्होंने सिगरेट सुलगायी है और पहला कश लगाया है - 17 बरस की थी जब देसराज के घर से मेरे लिए रिश्ता आया था। देसराज मेरे पति का नाम है। इस नाम ने और इस नाम के शख्स ने कभी मेरे कानों में घंटियां नहीं बजायीं। तुमने तालस्ताय का उपन्यास अन्ना केरेनिन्ना पढ़ा होगा। उस महान उपन्यास में अन्ना पहले ही पेज पर कहती है कि लोग अपने पार्टनर को उसकी सारी खराबियों के बावजूद प्यार करते हैं लेकिन मेरी तकलीफ ये है कि मैं अपने पति को उसकी सारी अच्छाइयों के बावजूद प्यार नहीं कर पाती।
- समीर मेरी भी यही तकलीफ है। मैं कभी देसराज को प्यार नहीं कर पायी और न ही मुझे ही उस शख्स का प्यार मिला। तो मैं अपनी शादी का किस्सा बता रही थी। मैं नाबालिग थी लेकिन इतनी समझ ज़रूर थी कि इतनी कम उम्र में शादी नहीं करनी चाहिये लेकिन मेरे माता पिता के सामने कुछ ऐसी मज़बूरी आन पड़ी थी कि वे चाह कर भी इस रिश्ते को ठुकरा नहीं सकते थे। मेरे पापा कस्बे के हाई स्कूल के हेडमास्टर थे। हमारा घर भी कस्बे और गांव के बीच सी किसी जगह में था।
- कुछ दिन ही पहले हमारे घर में एक बहुत बड़ा हादसा हो गया था जिसकी वजह से देसराज जी के घर से आए शादी के प्रस्ताव को किसी भी कीमत पर ठुकराया नहीं जा सकता था। मेरे इकलौते मामा की हत्या कर दी गई थी और मेरी मामी अपने दो बच्चों के साथ हमारे ही घर पर आने को मज़बूर हो गयी थी।
- इतने अच्छे घर बार से आया रिश्ता देख कर मम्मी पापा ने अपने सिर जोड़े थे और तय किया था कि बिना दूल्हे को देखे होने वाली शादी को स्वीकार कर लिया जाए। इस गणित से बहुत सारे समीकरण हल होते थे। अच्छा खासा घर बार था। दहेज की कोई मांग भी नहीं थी और शादी का सारा खर्चा लड़के वाले करने वाले थे। हंसी आती है समीर कि हमारे यहां दूल्हा हमेशा लड़का ही रहता है। ये बात मुझसे छुपा ली गयी थी कि ये लड़का देसराज जो जिससे मैं ब्याही जा रही थी, 31 बरस का था और मुझसे 14 बरस बड़ा था। मैं सत्रह बरस की भी नहीं थी और ग्यारहवीं में पढ़ रही थी। मेरी एक भी नहीं सुनी गयी थी और मेरी शादी कर दी गयी थी। मेरी ससुराल वालों ने मेरे बहुत जोर देने पर इतना वादा जरूर किया था कि मुझे पढ़ाई जारी रखने देंगे।
- और हम ब्याह दिये गये थे। इस विवाह से दो अपराध एक साथ हुए थे। एक तो बाल विवाह और दूसरे मेरे नाबालिग होने के कारण देसराज का मुझसे शारीरिक संबंध। नाबालिग लड़की से शारीरिक संबंध, चाहे वह आपकी पत्नी जो न हो बलात्कार ही तो कहलायेगा। सुहागरात के समय ही मैंने देसराज को देखा था। न तो इस शादी में ऐसा कुछ था जो मुझे पसंद आता और न ही देसराज में ही ऐसा कुछ था जो मुझे बांधता।
- मेरा भरा पूरा ससुराल था। सास ससुर, दो जेठ जेठानियां,ननदें। बड़ी जेठानी की घर में चलती थी क्योंकि उनका एक बेटा था। मुझसे बड़ी जेठानी की दो लड़कियां थी। संयुक्त घर और संयुक्त खानदानी कारोबार। मेरा बहुत अच्छे से स्वागत हुआ था। बेहद सुंदर जो थी मैं। पता चला था कि मुझसे पहले देसराज कम से कम 50 लड़कियां रिजेक्ट कर चुका था। मेरा बस चलता तो हर बार मैं ही उसे 50 बार रिजेक्ट करती। घर में सबसे छोटी होने के कारण सबकी सेवा करने का अनकहा भार मुझ पर आ पड़ा था। अपने घर में काम करने की आदत थी तो निभ जाता था।
- तभी मेरे साथ दूसरा हादसा हुआ था। अपने अठारहवें जन्मदिन से एक दिन पहले मेरा मिसकैरिज हुआ था। पूरे परिवार को लकवा मार गया था। सबसे बड़ी जेठानी का इकलौता बेटा आवारा था और मुझसे बड़ी जेठानी की दो लड़कियां थीं और अब दोनों ही और बच्चे पैदा करने की उम्र लगभग पार कर चुकी थीं। परिवार की सारी उम्मीदें मुझ पर थीं और...।
तभी अंजलि ने पीछे मुड़ कर देखा है। थोड़ी दूर अंधेरे में एक वेटर एक ट्रे हाथ में लिये खड़ा है - पता नहीं किस चीज की जरूरत पड़ जाये।
अंजलि ने बेहद स्नेह से मुझसे कहा है - यार उससे कहो कि हमें कुछ नहीं चाहिये। यहां इस तरह से ड्यूटी बजाने की ज़रूरत नहीं है। बेशक जाने से पहले एक शॉल दे जाये। एक काम और करना समीर। उसे या किसी और को लाने के लिए मत कहना। खुद जा कर मेरे लिए व्हिस्की का एक एक्स्ट्रा लार्ज पैग नाइंटी एमएल विद सोडा लेते आओ प्लीज। और सुनो, अपने लिए मत लाना। तुम्हारी लिमिट मेरी लिमिट से कम है। डोंट टार्चर यूअर सेल्फ। बहुत प्यास लगी है डीयर। करोगे ना मेरा इतना सा काम।
मैं उठा हूं। इस समय अंजलि मुझे बेहद खूबसूरत, मासूम और निरीह बच्ची लग रही है जिसे आँचल में छुपा लिया जाना चाहिये। मैं उसका कंधा थपथपाता हूं। इट्स ओके। अभी लाता हूं।
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मैंने अंजलि को अच्छी तरह से शॉल ओढ़ा दी है। उन्होंने व्हिस्की का गिलास थामते हुए मुझे अपनी कुर्सी उसकी कुर्सी के नज़दीक करने का इशारा किया है। अपना हाथ बढ़ाया है। मेरा हाथ थामने के लिए। मेरा हाथ उन्होंने अपनी गोद में रखकर अपने हाथ में थाम लिया है। एक लम्बा घूँट ले कर अंजलि ने कहना शुरू किया है - ऐसे कठिन समय में मुझे अपने पति की तरफ से हर तरह के मानसिक और भावनात्मक संबल की ज़रूरत थी और वही मुझसे दूर जा कर खड़ा हो गया था। यहां तक कि उसने मुझसे बात तक करनी बंद कर दी थी जैसे मिसकैरिज करके मैंने उसके खानदान के प्रति कोई अपराध कर दिया हो। वह जानबूझ कर काम के सिलसिले में टूअर पर जाने लगा था। पागल था। दूसरा बच्चा होने के लिए तो उसे मेरे पास आना और सोना ही था। वह कई दिन ये दोनों काम टालता रहा। मेरे लिए भी अच्छा रहा कि मेरी सेहत इस बीच ठीक हो गयी थी। बेशक सब का मेरे प्रति व्यवहार चुभने की हद तक खराब हो चुका था।
- अब मेरा एक ही काम रह गया था। मैं दिन भर घर में दिन भर अकेली छटपटाती रोती रहती और सास के ताने सुनती रहती। वहां कोई मेरे आंसू पोंछने वाला नहीं था। कुल मिलाकर १८ बरस की उम्र और ग्यारहवीं पास अकेली लड़की कर ही क्या सकती थी।
- माँ बाप ने तो अपना फर्ज पूरा कर दिया था। उन पर दोबारा बोझ डालने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। सास सामने पड़ती तो उसकी गालियाँ सुनती और पति के सामने पड़ती तो उनकी गालियाँ हिस्से में आतीं। मेरी जेठानी बेशक मेरी तरफदारी करती थी। वह अपनी बच्ची की तरह प्यार करती। मैं हर तरफ से बिल्कुल अकेली हो गयी थी। कोई भी तो नहीं था पास मेरे जिससे अपने मन की बात कह पाती। एक दो बार मन में आया जान ही दे दूं। क्या रखा था जीने में। १८ बरस की उमर में ही सारे दुःख और सुख देख लिये थे।
- घर के पिछवाड़े जामुन का एक पेड़ था। उसके तले बैठ कर रोना मुझे बहुत राहत देता था। एक दिन मैंने देखा कि पीछे के घर से हमारे आँगन में खुलने वाली खिड़की में एक युवक मुझे देख रहा है। मैं घबरा कर अंदर आ गयी थी। उसके बाद कई बार ऐसा हुआ। जब भी आंगन में जाती, वही युवक हाथ में कोई किताब लिए अपनी खिड़की में नजर आता। मैं उसे देखते ही सहम जाती और असहज हो जाती। डर भी लगता कि अगर मेरे घर के किसी सदस्य ने इस तरह उसे मुझे देखते हुए देख लिया तो ग़ज़ब हो जायेगा।
- एक दो बार ऐसा भी हुआ कि उसने मुझे देखते ही नमस्कार किया। मैंने कोई जवाब नहीं दिया, बस एक अहसास ज़रूर हुआ कि वह कुछ कहना, कुछ सुनना चाहता है।
- एक दिन मेरा मूड बहुत खराब था। सुबह सुबह सास ने डांटा था। पति ने उस दिन मुझ पर हाथ उठाया था और बिना नाश्ता किए घर से चले गए थे। मेरा कोई कसूर नहीं था लेकिन इस घर में सारी खामियों के लिए मुझे ही कसूरवार ठहराया जाता था। ये सबके लिए आसान भी था और सबको इसमें सुभीता भी रहता था। कसूरवार ठहराया जाना तो खैर रोज़ का काम था लेकिन पति का मुझ पर बिना वज़ह हाथ उठाना मुझे बुरी तरह से तोड़ गया था। उस दिन सचमुच मेरी इच्छा मर जाने की हुई लेकिन मरा कैसे जाये। ज़हर खाना ही आसान लगा। लेकिन ज़हर किससे मंगवाती।
- तभी मुझे याद आया कि खिड़की वाले लड़़के से कहकर जहर मंगवाया जा सकता है। मुझे नहीं पता था कि आत्महत्या करने के लिए कौन सा ज़हर खाया जाता है, कहां से और कितने में मिलता है। मेरे पास 50 रुपए रखे थे। मैंने वही लिए और एक काग़ज़ पर लिखा - मुझे मरने के लिए ज़हर चाहिये। ला दीजिये। मैंने अपना नाम नहीं लिखा था। ज्यों ही वह लड़का मुझे खिड़की पर दिखाई दिया, मैंने उसे रुकने का इशारा किया और मौका देख कर वह काग़ज़ और पचास का नोट उसे थमा दिया।
अंजलि रुकी हैं। एक लम्बा घूँट भरा है और सामने देख रही हैं। हवा में खुनकी बढ़ गयी है और लहरें हमारे पैरों तक आने लगी हैं।
वे आगे बता रही हैं - काग़ज़ लेने के बाद उसने खिड़की बंद कर दी थी। मैं बार बार आकर देखती लेकिन फिर खिड़की नहीं खुली थी। दो घंटे बाद हमारे घर का दरवाज़ा खुला था और उस लड़के की माँ किसी बहाने से हमारे घर आयी थी। कुछ देर तक मेरी सास और जेठानी से बात करने के बाद वह बहाने से मुझे अपने साथ अपने घर ले गयी थी।
- इतने दिनों में ये पहली बार हो रहा था कि मैं अपने घर से निकली थी। उनके घर गयी थी। उस भली औरत ने मेरे सिर पर हाथ फेरा था, मुझे नाश्ता कराया था और फिर धीरे-धीरे सारी बातें मुझसे उगलवा ही ली थीं। मुझे युवक पर गुस्सा भी आ रहा था कि छोटी-सी बात को पचा नहीं पाया और जाकर माँ को बता दिया था। अच्छा भी लगा था। मां की बातें सुन कर अब तक मरने का उत्साह भी कम हो चला था। उसकी माँ मेरी माँ जैसी थी और उन्होंने मुझे बहुत प्यार से समझाया था और बताया था कि मर जाना लड़ना नहीं होता। अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है और लड़ने के लिए जीना ज़रूरी होता है। इस सारे समय के दौरान युवक कहीं नहीं था। मुझे उसका नाम भी पता नहीं था।
- नितिन की मां से मिल कर जब मैं अपने घर लौटी थी तो मेरी हिम्मत बढ़ी थी। मुझे नितिन की माँ में अपनी मां मिल गयी थी। अब मेरा उनके घर आना-जाना हो गया था। नितिन से मेरी नाराज़गी भी दूर हो गयी थी। अब हम अच्छे दोस्त बन गए थे। अपनी मां के कहने पर उसने मेरे लिए पहला काम ये किया था कि मेरे लिए प्राइवेट इंटर करने के लिए फार्म ला कर दिया था और अपनी पुरानी किताबें और सारे नोट्स मुझे दे दिये थे। उसी से पता चला था कि वह बीए कर रहा था। अपना जेब खर्च पूरा करने के लिए दिन भर ट्यूशंस पढ़ाता था।
- अब मुझे एक बेहतरीन दोस्त मिल गया था। मैं उससे अपने मन की बात कह सकती थी। मैं अब रोती नहीं थी। नितिन ने मेरी आंखों में आंसुओं की जगह खूबसूरत सपने भर दिये थे। प्यार भरी ज़िंदगी का सपना, अपने पैरों पर खड़े होने का सपना, पढ़ने का सपना। ये सपना और वो सपना। अब किताबों की संगत में मेरा समय अच्छी तरह गुजर जाता। उसने मेरी हिम्मत बढ़ायी थी उसने और घर वालों की जली कटी सुनने और उनका मुकाबला करने का हौसला दिया था। मैं अब घर वालों की परवाह नहीं करती थी। मुझे नितिन ने ही बताया था कि आप सबकी परवाह कर के किसी को भी खुश नहीं कर सकते। सबसे बड़ी खुशी अपनी होती है। अगर खुद को खुश करना सीख लें तो आप दुनिया को फतह कर सकती हैं। कितना सयाना था और कितना बुद्धू भी नितिन।
- अब मेरा सारा ध्यान पढ़ाई की तरफ था। ठान लिया था कि कुछ करना है। सत्रह और अठारह बरस की उम्र में जो खोया था, बेशक उसे वापिस नहीं पा सकी थी लेकिन ये तो कर ही सकती थी कि चाहे कुछ भी हो जाये, और नहीं खोना है। नितिन और उसकी मां मुझे बिल्कुल कमज़ोर न पड़ने देते।
- मैंने बारहवीं का एक्जाम दिया था और अब पूरी तरह से खाली थी फिर भी नितिन की कोशिश रहती कि मैं बिलकुल भी वक्त बरबाद न करूं। कुछ न कुछ पढ़ती रहूं। उसी की मदद से एक अच्छी लाइब्रेरी की मेम्बरशिप मिल गयी थी और इस बहाने मुझे घर से बाहर निकलने का मौका मिल गया था। देसराज और सास कुढ़ते रहते। ताने मारते और मेरे चरित्र पर उंगलियां उठाते लेकिन अब मैं इस सबसे बहुत दूर आ चुकी थी। अब मैं और नितिन बाहर ही मिलते और एक बार तो मैंने हिम्मत करके उसके साथ एक फिल्म भी देख डाली थी। अभी तक न तो नितिन ने और न ही मैंने ही ये कहा था कि हम दोनों के बीच कौन-सा नाता है। मुझे नहीं पता था,मैं पूछ भी नहीं सकती थी कि वह ये सब मेरे लिए क्यूँ करता है।
- मैं घर वालों के विरोध के बावजूद नितिन की और सिर्फ नितिन की बात मानती थी। तब मैं कहां जानती थी कि प्यार क्या होता है। देसराज मुझसे चौदह बरस बड़ा था। उसे भी कहां पता था कि प्यार क्या होता है। पता होता तो मुझे ज़हर मंगाने के लिए नितिन की मदद क्यों लेनी पड़ती और क्यों मेरी ज़िंदगी ही बदल जाती। मैं उसे अपना बेहतरीन दोस्त मानती थी। वह मेरे लिए फ्रेंड, फिलास्फर और गाइड था। वह हर वक्त मेरी मदद के लिए एक पैर पर खड़ा रहता। उसे पता था कि उसे मेरे घर वाले बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। एक जवान पड़ोसी का इस तरह से जवान और किस्मत से खूबसूरत बहू से मिलना कौन बर्दाश्त कर सकता था इसलिए हमने बाहर मिलना शुरू कर दिया था। उसकी मदद के बिना मैं एकदम अधूरी थी।