कालवाची की बात सुनकर कौत्रेय बोला...
"कालवाची!इतनी उदास मत हो,कदाचित यही तुम्हारा भाग्य और समय की नियति है,मैं तो स्वयं एक कठफोड़वा था,किन्तु तुम्हारे कारण मैं ये मानव रूप लेकर तुमसे वार्तालाप कर पा रहा हूँ,सभी को यहाँ सबकुछ अपनी इच्छा अनुसार नहीं मिलता,संसार में हमें जीवन जीने के लिए कोई ना कोई समझौता करना ही पड़ता है,"
"कदाचित तुम सत्य कह रहे हो कौत्रेय!"कालवाची बोली....
"अच्छा अब ये सब छोड़ो एवं ये बताओ कि तुम इसी वृक्ष पर रहना चाहोगी या हम दोनों कहीं और चलें" ,कौत्रेय ने पूछा....
तब कालवाची बोली...
"नहीं! कौत्रेय!मैं यहाँ कदापि नहीं रहना चाहूँगी,यदि मैं इस वृक्ष पर रही तो मुझे महाराज कुशाग्रसेन का मेरे संग किया गया वो घृणित व्यवहार याद आएगा और मैं यही सोच सोचकर दुःखी होती रहूँगी,इसलिए हम ये स्थान त्यागकर कहीं और चलते हैं"
"मैं भी यही सोच रहा था क्योंकि बारह वर्षों से मैं भी इसी वृक्ष पर निवास कर करके उकता गया हूँ" कौत्रेय बोला....
"तो चलो,बिलम्ब किस बात का?अभी इसी समय हम यहाँ से चलते हैं,हमें तो ऐसे स्थान पर चलना चाहिए,जहाँ मुझे अपने भोजन हेतु मानव हृदय मिल सकें"कालवाची बोली....
"तो चलो,मेरा रूप बदल दो,इसके उपरान्त हम दोनों साथ उड़ते हैं"कौत्रेय बोला....
"हाँ! आज मैं भी एक कठफोड़वी का रूप धर लेती हूँ,दोनों एक जैसे दिखेगें तो अच्छा लगेगा,कितना आनन्द आएगा है ना!"कालवाची बोली....
"हाँ!,यही उचित रहेगा",कौत्रेय बोला...
इसके पश्चात कालवाची ने कौत्रेय एवं स्वयं को कठफोड़वे और कठफोड़वी में परिवर्तित कर दिया,इसके उपरान्त दोनों बिलम्ब ना करते हुए किसी और स्थान पर उड़ चले,वें दोनों उड़ते चले जा रहे थे....बस उड़ते चले जा रहे थे,रात्रि का घना अंधकार छाया था,किन्तु दोनों को कोई भय ना था ,दोनों आनन्दपूर्वक वार्तालाप करते हुए अपनी यात्रा पूर्ण कर रहे थे,उन्हें उड़ते उड़ते रात्रि का दूसरा पहर व्यतीत हो चुका था,इसलिए दोनों ने विश्राम करने का सोचा,तभी उन्होंने दूर से देखा जहाँ कदाचित कोई गाँव था एवं वहाँ कहीं कहीं पर प्रकाश दिखाई दे रहा था,प्रकाश देखकर कौत्रेय बोला....
"कालवाची!कदाचित!वहाँ कोई गाँव है तभी घरों से प्रकाश दिखाई दे रहा है"
"हाँ!मुझे भी ऐसा ही प्रतीत होता है",कालवाची बोली....
तभी कौत्रेय की दृष्टि उस गाँव से बाहर बने एक घर पर पड़ी और उसने कालवाची से कहा...
"कालवाची!ये घर उस गाँव के समीप क्यों नहीं है?क्या कारण है जो इस घर के निवासी उस गाँव से दूर रह रहे हैं"
"क्या पता?ना जाने क्या कारण है कि इस घर के निवासी गाँव से इतने दूर रह रहे हैं?"कालवाची बोली....
"कालवाची!तो क्यों ना हम दोनों उस वृक्ष पर रात्रि भर विश्राम कर लें जो उस घर के समीप है,उनका घर भी उसी वृक्ष के तले है,यदि उस घर में कोई वार्तालाप या क्रियाकलाप होगा तो हमें ज्ञात हो जाएगा",कौत्रेय बोला...
" तो चलो !उसी वृक्ष पर विश्राम करते हैं"कालवाची बोली.....
और दोनों उस वृक्ष पर विश्राम करने पहुँचे,तब उन्होंने घर से आते हुए वार्तालाप को सुना जो कुछ इस प्रकार था....
त्रिलोचना....ओ...त्रिलोचना! सो गई क्या ? किसी पुरूष ने पुकारा....
तभी किसी युवती का स्वर सुनाई दिया वो बोली....
"क्या है भूतेश्वर भ्राता?तुम मुझे सोने भी नहीं देते,देखो तो कदाचित रात्रि का दूसरा पहर बीतने को है तुम्हें निंद्रा नहीं आ रही क्या?,ऊपर से तुम मुझे भी निंद्रा से जगा रहे हो"
तभी पुरूष बोला,कदाचित जिसका नाम भूतेश्वर था....
"त्रिलोचना!ना जाने क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरे आस-पास कोई प्रेत या प्रेतनी है,इसलिए मेरी निंद्रा टूट गई"....
तब युवती बोली,कदाचित जिसका नाम त्रिलोचना था.....
"भूतेश्वर भ्राता!जब से तुम अघोरी बाबा से सिद्धियाँ क्या प्राप्त करके आए हो तो तबसे तुम्हें सभी स्थानों पर प्रेत या प्रेतनी ही दिखाई पड़ते रहते हैंं,अपने मन से इस भ्रम को दूर करो ,स्वयं भी सोओ और मुझे भी सोने दो,कल मुझे बहुत से कार्य करने हैं,मैं पुनः सोने जा रही हूँ इसलिए मेरी निंद्रा में कोई भी अवरोध उत्पन्न मत करना,नहीं तो मुझसे बुरा कोई ना होगा"
तब युवक बोला....
"जब तेरी जैसी प्रेतनी सदैव मेरे संग रहती है तो मेरा और कोई प्रेत या प्रेतनी क्या बिगाड़ सकते हैं भला"?
"हाँ!मैं अभी तो नहीं हूँ प्रेतनी...पिशाचिनी...किन्तु यदि तुमने मुझे सोने ना दिया तो तब अवश्य प्रेतनी बन जाऊँगीं,युवती बोली...
तब युवक बोला....
"तू सो जा मेरी बहना!,तुझे प्रेतनी बनने की कोई आवश्यकता नहीं,अब तेरी निंद्रा में मैं कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करूँगा"
एवं इस प्रकार दोनों के मध्य वार्तालाप बंद हो गया,इधर कालवाची और कौत्रेय ने उस घर से आ रहे वार्तालाप को सुना तो कालवाची कुछ भयभीत होकर बोली....
"ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि इस घर में कोई सिद्ध पुरूष रहता है तभी तो उसे ये ज्ञात हो गया कि उसके आसपास कोई प्रेतनी है"
तब कौत्रेय बोला.....
"किन्तु हम सुबह तक यहाँ थोड़े ही रूकने वाले हैं"
तब कालवाची बोली.....
"किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमें यहाँ रूकना चाहिए"
"किन्तु!क्यों?कौत्रेय बोला.....
"मेरा हृदय यही कहता है"कालवाची बोली....
"जैसी तुम्हारी इच्छा"कौत्रेय बोला...
और दोनों ने उसी वृक्ष पर उस रात्रि विश्राम किया,प्रातःकाल हुई तो दोनों जाग उठे,किन्तु दोनों ही अभी तक कठफोड़वे के रुप में ही थे,कालवाची ने निर्णय लिया था कि वें अभी दोनों इसी रुप में रहेगें ताकि किसी को उन पर संदेह ना हों,कालवाची के इस निर्णय पर कौत्रेय ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया,दोनों अभी भी उसी वृक्ष पर ही थे तभी भूतेश्वर उस घर से बाहर निकला और त्रिलोचना को पुकारते हुए बोला....
"त्रिलोचना....त्रिलोचना!तनिक बाहर तो आओ"...
"आती हूँ",त्रिलोचना बोली...
कुछ ही समय के पश्चात जब त्रिलोचना बाहर आई तो भूतेश्वर ने उससे पुनः कहा....
"तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है किन्तु मेरी अन्तःशक्तियाँ कहतीं हैं कि इस स्थान पर कोई प्रेत या प्रेतनी अवश्य है"
भूतेश्वर की बात सुनकर त्रिलोचना बोली...
"तुम तो कुछ भी कहते हो,इसी प्रकार रात्रि में भी तुम पर यही भूत सवार हुआ था,लेकिन तुम्हें ज्ञात है कि तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?
"नहीं!मुझे ज्ञात नहीं,तुम ही बताओ"भूतेश्वर बोला....
तब त्रिलोचना बोली....
"तुम्हें भूत-प्रेतों का अनुभव इसलिए होता है क्योंकि तुम स्वयं ही भूत हो,तुम्हारा नाम भूतेश्वर जो है"
इतना कहकर त्रिलोचना हँसते हुए भीतर भाग गई और भूतेश्वर उसके पीछे ये कहते हुए दौड़ा....
"अभी बताता हूँ तुझे कि मैं कितना बड़ा भूत हूँ,जब देखो तब मेरी विद्या पर परिहास करती रहती हो"
दोनों बहन-भाई कि ये ठिठोलियाँ कालवाची और कौत्रेय वृक्ष पर से देख रहे थे और दोनों को इस बात पर अत्यधिक आनन्द भी आ रहा था,तब कालवाची बोली....
"कौत्रेय!अब हमें इनसे मित्रता करनी चाहिए"
कालवाची की बात सुनकर कौत्रेय बोला....
"तुम्हारा मस्तिष्क संतुलित तो हैं ना!ये कैसीं बातें कर रही हो?उसे तंत्र विद्या आती है"
"तभी तो हमें इनसे मित्रता अवश्य करनी चाहिए",कालवाची बोली....
तब कौत्रेय बोला...
"एक बार पुनः विचार कर लो,कहीं तुम्हारे प्राण संकट में ना पड़ जाएं"
तब कालवाची बोली....
"मैनें अत्यधिक विचार करने के उपरान्त ही ये निर्णय लिया है"
"तो मुझे कोई आपत्ति नहीं"कौत्रेय बोला....
और कालवाची ने वृक्ष से नीचे आकर एक सुन्दर कन्या का रूप लिया एवं कौत्रेय को भी मानव रूप में परिवर्तित कर दिया....
क्रमशः...
सरोज वर्मा....