कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१६) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१६)

कौत्रेय के शीशमहल से बाहर जाते ही गुप्तचर हीरामन सुए ने कालवाची और कौत्रेय के मध्य हुई सभी बातें जाकर सेनापति व्योमकेश को बता दीं,सेनापति व्योमकेश तो इसी प्रतीक्षा में थे कि कब कालवाची का शरीर क्षीण हो एवं कौत्रेय कठफोड़वें के रूप में शीशमहल के बाहर जाएं और वें अपनी योजना को परिणाम तक पहुँचा सकें,सेनापति व्योमकेश ने एक बात को सभी से गुप्त रखा था और वो बात ये थी कि उनके तातश्री के मित्र बाबा कालभुजंग आ चुके थे,ये बात सेनापति व्योमकेश ने महाराज कुशाग्रसेन से भी गुप्त रखी थी,सेनापति व्योमकेश नहीं चाहते थे कि ये बात किसी तक भी पहुँचे कि बाबा कालभुजंग वैतालिक राज्य में प्रवेश कर चुके हैं इसलिए उन्होंने इस बात को स्वयं तक सीमित रखा.....
कौत्रेय अब शीशमहल में उपस्थित नहीं था तो सेनापति शीघ्र ही महाराज के पास गए एवं उन्हें बताया कि अब कालवाची ऐसी स्थिति में नहीं है कि वो अपनी रक्षा कर सकें,उसका शरीर अत्यधिक क्षीण हो चुका है इसलिए वो अपनी किसी भी शक्ति का उपयोग करने में असमर्थ है....
सेनापति व्योमकेश की बात सुनकर महाराज कुशाग्रसेन बोलें.....
किन्तु!जब तक बाबा कालभुजंग नहीं आ जाते तब तक तो हमें प्रतीक्षा करनी ही होगी...
महाराज!वें आ चुके हैं,सेनापति व्योमकेश बोले...
तो आपने मुझे अब तक सूचित क्यों नहीं किया?,महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा....
वो इसलिए महाराज!क्योंकि मैं अभी इस बात को स्वयं तक सीमित रखना चाहता था,सेनापति व्योमकेश बोले...
तो अब आगें की क्या योजना है?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा....
वही तो मैं आपसे कहने आया हूँ कि अब हमें बिना किसी बिलम्ब के कालवाची को दण्ड दे देना चाहिए,यदि कौत्रेय बाहर से किसी प्राणी का हृदय ले आया एवं कालवाची ने उसे ग्रहण कर लिया तो वो पुनः अपनी पूर्व स्थिति में आ जाएगी ,उसकी शक्तियों का भी उपयोग करने लगेगी और पुनः वैतालिक राज्य संकट में आ जाएगा,सेनापति व्योमकेश बोले...
सेनापति व्योमकेश!ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए,मैं अपनी प्रजा पर अब कोई भी संकट नहीं आने दूँगा,कालवाची बहुत कर चुकी निर्दोष प्राणियों की हत्या,अब समय आ गया है कि उसे उचित दण्ड मिले,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
तो आप यही शीशमहल में ठहरिए,मैं बाबा कालभुजंग को लेकर अभी यहाँ उपस्थित होता हूँ,सेनापति व्योमकेश बोले...
हाँ!मैं आपकी यहीं प्रतीक्षा करूँगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
किन्तु महाराज!इससे पहले आप सैनिकों के संग कालवाची के कक्ष में जाकर उसे बंदी बनाकर कारागृह में डाल दें,क्योंकि अभी वो ऐसी दशा में नहीं है कि अपनी रक्षा कर सके,सेनापति व्योमकेश बोले....
जी!सेनापति व्योमकेश मैं ऐसा ही करूँगा,अभी मैं सैनिकों संग कालवाची के कक्ष में जाकर उसे बंदी बनवाता हूँ,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
किन्तु!महाराज!यह कार्य आपको अत्यधिक सावधानीपूर्वक करना होगा,कालवाची शरीर से चाहे कितनी भी क्षीण हो गई हो,परन्तु वो अभी भी एक मायाविनी है,सेनापति व्योमकेश बोले...
सेनापति व्योमकेश!आप चिन्ता ना करें,मैं इस बात का ध्यान रखूँगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले.....
जी!महाराज!मैं शीघ्र ही बाबा कालभुजंग के संग यहाँ पहुँचूँगा,सेनापति व्योमकेश बोलें....
मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगा सेनापति व्योमकेश!,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
इस वार्तालाप के पश्चात सेनापति व्योमकेश बाबा कालभुजंग को लाने चले गए एवं इधर महाराज कुशाग्रसेन कुछ सैनिकों संग कालवाची के कक्ष के समक्ष पहुँचे,इसके पश्चात महाराज कुशाग्रसेन ने जैसें ही कक्ष के किवाड़ खोले तो उन्होंने देखा कि कालवाची के कक्ष में अत्यन्त अंधकार था,अंधकार देखकर महाराज कुशाग्रसेन ने एक सैनिक को अग्निशलाका लाने को कहा,कुछ समय के पश्चात वो सैनिक अग्निशलाका लेकर कालवाची के कक्ष में जा पहुँचा,अब कालवाची के कक्ष में प्रकाश विद्ममान था,किन्तु वहाँ उन्हें कालवाची दिखाई ना दी,केवल उसके बिछौने पर देखने पर ऐसा प्रतीत होता था कि वो उस पर लेटी है,इसलिए महाराज ने सैनिक को आदेश दिया कि कालवाची के बिछौने को टटोल कर देखे कि कालवाची वहाँ पर है या नहीं,सैनिक ने महाराज कुशाग्रसेन के आदेश का पालन करते हुए बिछौने को टटोला तो वहाँ पर कुछ भी ना था,कालवाची ने बड़ी सी परिसतोम(तकिया) पर वस्त्र ओढ़ाकर रखा था,जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि कोई वहाँ लेटा हुआ है....
जब कालवाची के बिछौने पर कोई नहीं दिखा तो महाराज आश्चर्यचकित हो गए एवं विचार करने लगे कि अन्ततः कालिन्दी ऐसे दयनीय अवस्था में कहाँ जा सकती है,उसके पास शक्तियांँ तो थी किन्तु वह उनका उपयोग नहीं कर सकती थी,तभी एकाएक एक सैनिक की दृष्टि कक्ष के पटल(छत) पर पड़ी और उस दृश्य को देखकर उसके मुँख से दीर्घ चित्कार(चीख) निकल गई,उसकी चित्कार सुनकर सभी की दृष्टि उस ओर गई एवं सभी ने देखा कि वहाँ कक्ष की पटल पर कालवाची किसी गोधिका(छिपकली)की भाँति चिपकी हुई है,
महाराज कुशाग्रसेन ने देखा कि अब कालवाची का रूप-लावण्य लुप्त हो चुका था,उसकी त्वचा शुष्क एवं निष्प्राण हो चुकी थी,उसके घने सुन्दर काले केश अब श्वेत हो चुके थे,वो अत्यधिक वृद्ध हो चुकी थी,तब महाराज कुशाग्रसेन ने मन में सोचा कि अब कालवाची असहाय हो चुकी है,अब इसे सरलता से बंदी बनाया जा सकता है,किन्तु ऐसा दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी सैनिक भयभीत हो गए थे,भयभीत तो महाराज कुशाग्रसेन भी हो रहे थे किन्तु उन्होंने अपना संयम बनाए रखा एवं अपनी बुद्धि का प्रयोग करके महाराज कुशाग्रसेन ने विचार किया कि अब कालवाची को कक्ष के पटल से नीचे उतारने के लिए अभिनय करना होगा,हो सकता है भावनात्मक वार्तालाप से कालवाची का हृदय पिघल जाएं एवं वो मेरी बातों से भावों में बहकर कक्ष के पटल से नीचे आ जाएं....
तभी महाराज कुशाग्रसेन को एक उपाय सूझा और उन्होंने कालवाची से कहा....
कालिन्दी!हम सभी को ज्ञात हो चुका है कि तुम ही कालवाची हो एवं उन सभी हत्याओं की उत्तरदायी भी तुम ही हो,किन्तु तुम यदि स्वयं ही अपना अपराध स्वीकार कर लो तुम्हें मैं कड़ा दण्ड नहीं दूँगा,तुमने मेरे संग कपट किया है,मैं तुमसे प्रेम करता रहा और तुम मुझसे छल करती रही है,मुझे तुमसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी कालिन्दी!तुमने मेरे हृदय को आहत किया है,इसका तात्पर्य है कि तुम मुझसे प्रेम करती ही नहीं था,तुमने मेरे संग केवल प्रेम का अभिनय किया,मेरे अनमोल प्रेम का परिहास उड़ाया तुमने,मुझे तुमसे ऐसी आशा कदापि नहीं थी,मैं तुम्हें हृदयतल से प्रेम करता था और तुम मेरे संग विश्वासघात कर रही थी.....
महाराज कुशाग्रसेन के इस ये कथन ने कालवाची के हृदय को अत्यधिक विचलित कर दिया,वो एक बिन जल की मीन(मछली) की भाँति तड़प उठी,महाराज कुशाग्रसेन की बात सुनकर कालवाची इतनी दुखी हो उठी कि उसने महाराज से कहा....
महाराज!मैनें आपके संग कोई कपट नहीं किया,मैं सच मैं आपसे प्रेम करती थी और अब भी करती हूँ और जब तक जीवित रहूँगीं तो आपसे ही प्रेम करती रहूँगीं....
मैं तुम्हारी बात का विश्वास कैसें कर लूँ?,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
मैं ऐसा क्या करूँ जिससे आपको मुझ पर विश्वास हो जाए कि मैं आपसे प्रेम करती हूँ,कालवाची बोली....
तुम बस कक्ष के पटल से नीचे आ जाओ,मुझे विश्वास हो जाएगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
मैं नीचे आई तो आप मुझे दण्ड देगें,कालवाची बोली....
तुम यदि नीचे आई तो कदाचित तुम्हारा अपराध क्षमा हो जाएं,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
सच!महाराज!,कालवाची ने पूछा....
प्रयास तो यही रहेगा,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
मैं आप पर कैसें विश्वास कर लूँ महाराज?कालवाची बोली....
यदि तुमने मुझसे सच्चा प्रेम किया है तो तुम्हें मुझपर विश्वास करना ही होगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
अब कालवाची को महाराज कुशाग्रसेन की भावनात्मक बातों पर विश्वास हो गया एवं वो अपने कक्ष के पटल से नींचे आने लगी.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....