इधर शीशमहल में कालवाची और कौत्रेय,कालवाची के कक्ष में बैठकर आपस में वार्तालाप कर रहे थे,जो कुछ इस प्रकार था....
कालवाची!कहीं ऐसा तो नहीं कि महाराज को हम दोनों पर संदेह हो गया हो,कौत्रेय बोला...
मुझे तो कुछ भी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ,मुझे सब सामान्य सा लगा,कालवाची बोली....
तुम्हें सब सामान्य क्यों लगा?कौत्रेय ने पूछा...
ऐसे ही,राजनर्तकी की हत्या हुई है तो महाराज एवं सेनापति का चिन्तित होना एक सामान्य सी बात है,किसी भी राज्य का राजा ऐसा ही व्यवहार करता ,जो महाराज कर रहे थे,कालवाची बोली....
यदि ये सामान्य सी बात थी तो महाराज ने इतना पहरा क्यों लगा रखा है शीशमहल पर?,कौत्रेय ने पूछा....
ये भी साधारण सी बात है कि यदि शीशमहल में किसी की हत्या हुई है तो राजा का कर्तव्य है कि वो उस हत्यारे को बंदी बनाने का प्रयास करे,इसमें कुछ भी संदेह जैसा करने योग्य नहीं है,कालवाची बोली....
कालवाची!तुम मूर्ख हो,विवेकशून्य हो,मूढ़ात्मा हो,तुम्हें ये तनिक सी बात समझ नहीं आ रही कि महाराज ने हत्यारे हेतु इतना कड़ा पहरा लगा रखा है और वो हत्यारिन तुम हो,यदि उन्हें ये ज्ञात हो गया कि उन सभी हत्याओं में भी तुम्हारा ही हाथ था तो इसका परिणाम क्या हो सकता है ?ये सोचा है कभी,कौत्रेय बोला...
ये तो मैनें सोचा ही नहीं,कालवाची बोली...
अब तक ये सब नहीं सोचा तो सोचो,ये समझ लो कि अब तुम्हारे प्राण संकट में हैं,कौत्रेय बोला...
तो अब इसका निवारण कैसें होगा?कालवाची ने पूछा...
अभी इस समय तुम कोई भी प्रतिक्रिया मत दो,ना ही शीशमहल के बाहर जाओ,नहीं तो उन सभी का संदेह विश्वास में बदल जाएगा कि तुम ही वो हत्यारिन हो,कौत्रेय बोला....
किन्तु मैं शीशमहल के बाहर ना गई तो अपना भोजन ग्रहण नहीं कर सकूँगीं,कालवाची बोली....
उसकी चिन्ता तुम मत करो,मैं तुम्हारे भोजन का प्रबन्ध करने का प्रयत्न करूँगा,कौत्रेय बोला...
यदि तुम भी शीशमहल के बाहर गए तो वें सब तुम्हें देख लेगें,यदि उन्होंने तुम्हें कोई दण्ड दे दिया तो,कालवाची बोली....
कालवाची!तुम्हें स्मरण नहीं क्या कि मैं एक कठफोड़वा हूँ एवं मैं कठफोड़वा बनकर शीशमहल के बाहर गया तो कोई भी नहीं जान सकेगा,कौत्रेय बोला....
ये उचित रहेगा,मैं कितनी भाग्यशाली हूँ ,जो मुझे तुम जैसा मित्र मिला ,जो मेरी इतनी चिन्ता करता है एवं अपने प्राण भी संकट में डाल सकता है,कालवाची बोली....
अब तुमसे मित्रता की है तो निभानी तो होगी,कौत्रेय बोला....
कौत्रेय!तुम कभी भी मेरा संग मत छोड़ना,कालवाची बोली...
तुम चिन्ता मत करो,मैं सदैव तुम्हारे संग रहूँगा,मेरी प्रिए सखी!,कौत्रेय बोला....
कौत्रेय की बात सुनकर कालवाची का मन द्रवित हो उठा और वो बोली....
तुम्हें ज्ञात है कौत्रेय!परिवार क्या होता है ये तो मुझे ज्ञात ही नहीं था,परन्तु जब से तुम मिले हो तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे मेरा अपना कोई मिल गया है,जिसे मैं अपने सारे दुख बाँट सकती हूँ,अपनी चिन्ताएँ बता सकती हूँ एवं यदि कोई प्रसन्नता की बात है तो वो भी तुम्हें बता सकती हूँ,तुमसे मिलने के पश्चात मेरे जीवन में जो रिक्त स्थान था वो भर गया है,तुम संग होते हो तो मैं निश्चिन्त रहती हूँ,क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि कोई समस्या आई तो तुम सदैव ही मेरे मार्गदर्शक बनकर मुझे उस समस्या से उबार दोगें,मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है.....
कालवाची की बात सुनकर कौत्रेय बोला.....
कालवाची!तुम मुझ पर पूर्णतः विश्वास कर सकती हो,मैं वचन देता हूँ कि तुम्हें संकट की घड़ी में कभी भी छोड़कर नहीं जाऊँगा,चाहें मुझे अपने प्राण ही क्यों ना देने पड़े....
सच!कौत्रेय!तुम सदैव मेरे संग रहोगे ना!कालवाची बोली...
हाँ!कालवाची!मैं सदैव तुम्हारे संग रहूँगा,अब हम दोनों दुख और सुख साथ मिलकर काटेगें,चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो,कौत्रेय बोला....
आज मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ,कालवाची बोली...
और मैं भी तुम जैसी मित्र पाकर प्रसन्न हूँ,कौत्रेय बोला....
दोनों के मध्य यूँ ही वार्तालाप चलता रहा,परन्तु उस वार्तालाप को एक गुप्तचर कक्ष के वातायन से सुन रहा था,जो एक सुआ(तोता)था, जिसे सेनापति व्योमकेश ने नियुक्त किया था,क्योंकि वो तोता बात कर सकता था और लोगों की बातें सुनकर दूसरे लोगों को बता सकता था,सेनापति व्योमकेश को ज्ञात था कि यदि किसी मनुष्य से कालवाची की गुप्तचरी करवाई तो उसके प्राण संकट में आ सकते हैं,परन्तु यदि किसी पक्षी या वन्य जीव को इस कार्य पर लगाया तो कालिन्दी को उस पर संदेह ना होगा और वो ध्यान से ये कार्य कर सकता है और सुआ निरन्तर अपना कार्य कर रहा था,उसने कौत्रेय और कालिन्दी के मध्य हुई बातों को सुना,इसके उपरान्त वो उड़कर सेनापति व्योमकेश के समीप पहुँचा और उसने जो भी बातें सुनीं थीं,वो उसने उन्हें बता दीं....
सुऐ की बातें सुनकर सेनापति व्योमकेश महाराज कुशाग्रसेन के पास पहुँचे और उनसे वो सब कहा जो कि उन्हें हीरामन सुऐ ने बताया था,अब महाराज कुशाग्रसेन ने जब ये बातें सुनी तो उन्होंने सेनापति व्योमकेश से कहा ....
सेनापति व्योमकेश अब हमें कालवाची एवं कौत्रेय दोनों पर कड़ी दृष्टि रखनी होगी...
जी!महाराज!मैं भी आपसे यही कहने वाला था,सेनापति व्योमकेश बोलें...
और उस रात्रि से कालवाची और कौत्रेय पर कड़ी दृष्टि रखी जाने लगी,महाराज कुशाग्रसेन और सेनापति व्योमकेश सदैव शीशमहल में ही रहते,वें अपने अपने निवासस्थान ना लौटते,अभी कौत्रेय कठफोड़वें के रूप में ही था,कालवाची ने उसे मानव रूप में परिवर्तित नहीं किया था,इसका कारण ये था कि वो नहीं चाहती थी कि उसकी भाँति भी कौत्रेय अपने कक्ष से बाहर निकले,वो बाहर निकलता तो राजा कुशाग्रसेन कालवाची के विषय में उससे पूछते,कालवाची का ये विचार कौत्रेय को भी उचित लगा था,इसलिए उसने भी मानव रूप में परिवर्तित होने के लिए कालवाची से हठ नहीं की,इसी प्रकार तीन दिन बीत गए और कालवाची का शरीर अब क्षीण होने लगा,सर्वप्रथम तो उसकी त्वचा संकुचित होने लगी,जिसे वो वस्त्रों से ढ़क लेती,परन्तु जब चौथे दिवस कालवाची के केशों का रंग श्वेत हो गया तो वो चिन्ता में डूबने लगी ,वो इन दिनों अपने कक्ष से बाहर भी ना निकली थी एवं पाँचवें दिवस उसक शरीर इतना क्षीण हो चुका था कि वो अपने बिछौने से उठने में भी असमर्थ थी,उसकी ऐसी अवस्था देखकर कौत्रेय को चिन्ता हुई,उसने अपने मन में सोचा कि अब तो किसी भी दशा में किसी प्राणी का हृदय कालवाची हेतु लाना आवश्यक हो गया है और यदि कौत्रेय समय पर किसी मानव का हृदय कालवाची के लिए ना ला सका तो वो क्षीण होकर अपनी सभी शक्तियांँ खो देगी एवं यदि ऐसा हुआ तो राजा कुशाग्रसेन को ये ज्ञात हो जाएगा कि कालवाची ही उनकी अपराधिनी है,यदि उनकी दृष्टि में वो अपराधिनी सिद्ध हो गई तो कालवाची के प्राण बचाना असम्भव हो जाएगा और यही सब सोचकर वो रात्रि के समय कालवाची के भोजन का प्रबन्ध करने हेतु कक्ष के वातायन से बाहर निकल गया.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....