कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१३) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१३)

कालवाची ने मत्स्यगन्धा की ग्रीवा को अत्यधिक दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था,मत्स्यगन्धा बोलने का प्रयास कर रही थी किन्तु वो चाह कर भी बोल नहीं पा रही थीं,वो निरन्तर ही स्वयं की ग्रीवा कालवाची के हाथ से छुड़ाने का प्रयास करती रही ,किन्तु सफल ना हो सकी....
कालवाची मत्स्यगन्धा की ग्रीवा पकड़े हुए यूँ ही पवन वेग से उड़कर शीशमहल के प्राँगण की वाटिका में जा पहुँची,कालवाची का बीभत्स रूप एवं अँधियारी रात्रि,आज तो मत्स्यगन्धा के प्राण जाने निश्चित थे,जब मत्स्यगन्धा की दशा अत्यधिक दयनीय हो गई एवं कालवाची को पूर्ण विश्वास हो गया कि वो अपनी सहायता हेतु किसी को पुकार नहीं पाएगी तो अन्ततः कालवाची ने मत्स्यगन्धा की ग्रीवा छोड़ी और उससे बोली....
मैं महाराज से प्रेम करती हूँ,तुझे कोई अधिकार नहीं उनसे प्रेम करने का...
मत्स्यगन्धा की अवस्था ऐसी नहीं थी कि वो कुछ बोल सके इसलिए उसने सांकेतिक भाषा में कहा कि...
वो महाराज से प्रेम नहीं करती...
मत्स्यगन्धा की प्रतिक्रिया पर कालवाची गरज के साथ बोली....
झूठ बोलती है....कालवाची से झूठ बोलती है...
मैं उनसे प्रेम नहीं करती,मत्स्यगन्धा ने दबे स्वर में कहा....
तो तू उस रात्रि उनके संग क्या कर रही थी?कालवाची ने पूछा....
हम दोनों तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे,मत्स्यगन्धा बोली....
मुझे विश्वास नहीं,कालवाची बोली...
मैं कैसें तुम्हें विश्वास दिला सकती हूँ?कोई मार्ग हो तो कहो,मत्स्यगन्धा ने कहा...
अपने प्राण देकर तुम इस बात का प्रमाण दे सकती हो कि तुम उनसे प्रेम नहीं करती,,कालवाची बोलीं...
नहीं...कालवाची!मैं निर्दोष हूँ,कृपया मेरे प्राण मत लो,मैं जीवनपर्यन्त तुम्हारी दासी बनकर रहूँगीं,ऐसा मत करो....ऐसा मत करो कालवाची,मत्स्यगन्धा गिड़गिड़ाई...
किन्तु मत्स्यगन्धा के इस प्रकार गिड़गिड़ाने पर भी कालवाची ने प्रतिशोध की बात नहीं छोड़ी एवं उसने आज मत्स्यगन्धा के प्राण हरने का विचार निश्चित कर लिया था एवं वो उससे बोली.....
अब तो तेरी हत्या करना निश्चित हो गया क्योंकि तूने मुझे मेरे प्रेतनी रूप में देख लिया है,
ऐसा मत करो....ऐसा मत करो...,मैं किसी से कुछ ना कहूँगी,मत्स्यगन्धा पुनः गिड़गिड़ाई...
परन्तु कालवाची ने उसकी एक ना सुनी,मत्स्यगन्धा धरती पर पड़ी अपने प्राणों की भीख माँग रही थी और कालवाची ने उस पर कोई दया ना दिखाते हुए अपनी प्रतिक्रिया प्रारम्भ की,वो मत्स्यगन्धा की ग्रीवा को पुनः पकड़कर वायु में उड़ी एवं मत्स्यगन्धा को आकाश से धरती पर पटक दिया,मत्स्यगन्धा कराह उठी किन्तु अभी भी वो जीवित थी,कालवाची उड़कर धरती पर आई और मत्स्यगन्धा से बोली....
ऐसा दण्ड पाकर आनन्द आ रहा है ना प्रिऐ!
किन्तु अब मत्स्यगन्धा की दशा ऐसी थी कि वो कुछ भी ना बोल सकती थी,क्योंकि उसके शरीर में अब इतना बल नहीं रह सका था कि वो बोल सके एवं कोई गतिविधि कर सके,उसकी आँखों से तो केवल अश्रु बह रहे थे ,उसका कपाल फट चुका था जहाँ से रक्त बह रहा था,मत्स्यगन्धा ने अपनी आँखों द्वारा पुनः संकेत किया कि....
कृपया मुझे छोड़ दो,मेरी हत्या मत करो,मैं तुम्हारी अपराधी नहीं...
किन्तु कालवाची कुछ भी नहीं समझना चाहती थी,कुछ भी नहीं सुनना चाहती थी,वो तो केवल मत्स्यगन्धा के प्राण हरना चाहती थी एवं उसने किया भी वही,उसने अपनी मुट्ठी बंद की और मुट्ठी की सहायता से मत्स्यगन्धा का रक्त खीचने लगी,मत्स्यगन्धा अब तड़प रही थी,उसकी आँखों,नासिका(नाक) एवं मुँख से रक्त आ रहा था,कालवाची निरन्तर उसका रक्त खीचती जा रही थी,जब कालवाची मत्स्यगन्धा का सारा रक्त खींच चुकी तो उसे उसने वायु में उछाला,मत्स्यगन्धा पुनः धरती पर आ गिरी ,तब कालवाची मत्स्यगन्धा के समीप गई और उसके शरीर से उसका हृदय निकालकर ग्रहण करने लगी,इसके पश्चात उसने अपना बीभत्स रूप बदलकर पुनः कालिन्दी में परिवर्तित कर लिया एवं अपने कक्ष की ओर बढ़ गई,कक्ष में जाकर वो अपने बिछौने पर लेटकर विश्राम करने लगी...
अर्द्धरात्रि बीत चुकी थी,अब महाराज कुशाग्रसेन ने सेनापति व्योमकेश के संग शीशमहल की ओर प्रस्थान किया,कुछ ही समय में दोनों शीशमहल पहुँच गए एवं शीशमहल के मुख्य द्वार पर दोनों ने कुछ विचार विमर्श किया ,तब सेनापति व्योमकेश बोले....
महाराज!क्यों ना हम शीशमहल के प्राँगण के उस ओर चले,जहाँ से कालिन्दी के कक्ष का वातायन दिखता है,हम वातायन से देख सकते हैं कि कालिन्दी अपने बिछौने पर है या नहीं...
ये ठीक कहा आपने,मुझे भी ऐसा प्रतीत होता है ,किन्तु हमें कालिन्दी के कक्ष के उस ओर जाने के लिए शीशमहल के प्राँगण से होकर जाना होगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
कोई बात नहीं महाराज!कुछ समय लगेगा,परन्तु ये तो निश्चित हो जाएगा ना कि कालिन्दी अपने कक्ष में है या नहीं,सेनापति व्योमकेश बोलें....
आपका कहना भी उचित है,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
तो बिलम्ब किस बात का महाराज!चलिए प्राँगण की ओर चलते हैं,सेनापति व्योमकेश बोलें....
हाँ!यही उचित रहेगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
अन्ततः दोनों शीमहल के प्राँगण की ओर चल पड़े,अभी दोनों प्राँगण में पहुँचे ही थे कि उन्हें कोई धरती पर लेटा हुआ दिखा,दोनों उसके समीप गए, चूँकि अँधियारा था क्योंकि वहाँ सभी अग्निशलाकाओं को कालिन्दी बुझाकर गई थी,इसलिए उन्हें ठीक से ना दिख सका कि वो कौन है?
दोनों सोच में पड़ गए कि ये कौन है?सेनापति व्योमकेश ने उसकी नाड़ी जाँची तो ज्ञात हुआ वो जीवित नहीं है,अब सेनापति व्योमकेश बोले....
महाराज! ऐसा प्रतीत होता है कि आज कालिन्दी ने पुनः किसी की हत्या की है,इस शरीर की नाड़ी टटोलने पर मुझे अनुभव हुआ कि इसके शरीर में केवल अस्थियाँ हीं बचीं हैं,ऐसा लगता है कि इस शरीर का माँस एवं रक्त चूस लिया गया है,मैं इस मृत शरीर के समीप बैठता हूँ,यदि आप यहाँ रूके तो ऐसा ना हो कि आप पर कोई संकट आ जाएं,इसलिए ऐसा कीजिए कि आप मुख्य द्वार पर जाकर द्वार पर लगी अग्निशलाका ले आइए,किन्तु द्वारपालो से कुछ मत कहिएगा, मैं तब तक इस मृत शरीर के समीप रूककर इसकी रक्षा करता हूँ....
मैं बैठ जाता हूँ ना मृत शरीर के समीप,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
ना!महाराज! मैं इतना संकट नहीं उठा सकता,आपके प्राण अनमोल हैं,ये कार्य आप मुझे ही करने दीजिए,सेनापति व्योमकेश बोले...
अब महाराज कुशाग्रसेन के पास तर्क-वितर्क करने का समय नहीं था,इसलिए वें शीघ्रतापूर्वक शीशमहल के मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए एवं एक अग्निशलाका लेकर शीघ्रता से लौट भी आएं,उस अग्निशलाका के प्रकाश में जब सेनापति व्योमकेश एवं महाराज कुशाग्रसेन ने उस मृत शरीर का मुँख देखा तो ज्ञात हुआ कि वो तो मत्स्यगन्धा है एवं दोनों सोचने लगे कि उसकी ये दुर्दशा की किसने?
तब महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
सेनापति जी!मुझे कालिन्दी ने उस रात्रि मत्स्यगन्धा के संग देखा था,कदाचित ऐसा दण्ड कालिन्दी ने ही मत्स्यगन्धा को दिया है....
महाराज!अब निश्चित हो गया कि वो कालिन्दी ही है,सेनापति व्योमकेश बोलें....
सेनापति व्योमकेश !आप यहीं ठहरें,मैं अभी द्वारपालों से कहकर आता हूँ कि सैनिकों को बुलाकर शीशमहल की सैन्य नाकाबंदी करवा दें,यहाँ की सुरक्षा और अधिक कड़ी कर दी जाएं ताकि कोई भी भीतर से बाहर और बाहर से भीतर ना जा पाएं और इतना कहकर महाराज कुशाग्रसेन चले गए....
कुछ ही समय में शीशमहल को सैनिकों ने घेर लिया एवं महाराज कुशाग्रसेन ने सभी शीशमहल वासिओं को सूचित करवा दिया कि राजनर्तकी मत्स्यगन्धा की निर्मम हत्या हो गई है,इसलिए कोई भी शीशमहल के बाहर नहीं जाएगा....
ये सूचना कालिन्दी तक भी पहुँची और वो विलाप करते हुए मत्स्यगन्धा के पार्थिव शरीर के समीप आ बैठी....
ये क्या हो गया सखी?किसने तुम्हारी ऐसी दशा की?कौन है वो पापी?

क्रमशः....
सरोज वर्मा....