कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१४) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१४)

कालिन्दी का ऐसा अभिनय देखकर महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश अचम्भित थे कि ये हत्यारिन पहले तो अत्यधिक निर्मम प्रकार से निर्दोष प्राणियों की हत्या कर देती है इसके उपरान्त झूठे अश्रु बहाकर अभिनय करती है,एक ओर खड़े होकर महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश कालिन्दी का ये स्वाँग देख ही रहे थे कि अब वहाँ कौत्रेय आ पहुँचा,अब कालिन्दी यूँ रो रही थी तो कौत्रेय भी कहाँ शान्त रहने वाला था,उसने भी कालिन्दी की भाँति अपना अभिनय प्रारम्भ कर दिया....
दोनों का ये झूठा अभिनय अब महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश के लिए असहनीय था,इसलिए कुशाग्रसेन ने शीघ्र ही सैनिकों को मत्स्यगन्धा के पार्थिव शरीर को दाह-संस्कार हेतु श्मशानघाट ले जाने का आदेश दिया,किन्तु जैसे ही महाराज ने मत्स्यगन्धा के पार्थिव शरीर को श्मशानघाट ले जाने का आदेश दिया तो वैसें ही एक स्त्री वहाँ रोत हुए उपस्थित हुई और मत्स्यगन्धा के पार्थिव शरीर के समीप जाकर विलाप करते हुए बोली....
क्षमा करों सखी!मुझे आने में बिलम्ब हो गया,जैसे ही मुझे ये दुखद सूचना मिली तो मैं यहाँ तुम्हारे अन्तिम दर्शनों के लिए उपस्थित हो गई,मुझे ज्ञात नहीं था कि मेरे यहाँ ना रहने से ऐसा अनर्थ हो जाएगा,कौन है वो जिसने तुम्हें मुझसे विलग कर दिया.....?
उस स्त्री को यूँ विलाप करते हुए सेनापति व्योमकेश से देखा ना गया और वें उस स्त्री के समीप जाकर बोलें....
देवसेना!इतना विलाप मत करो, तुम्हारी सखी अब अनंत यात्रा पर चली गई है,सम्भवतः ईश्वर ने उसे इतना ही जीवन दिया था....
किन्तु!स्वामी!आप ही बताइएं मैं स्वयं को कैसे सम्भालूँ? वो मेरी प्रिय सखी थी,वो मेरे पिताश्री के राज्य की थी,उसकी माँ मेरे पिताश्री के राज्य के राजा के यहाँ राजनर्तकी थी,हम बाल्यकाल से संग ही रहे थें,साथ ही पले बढ़े थे,उसके यूँ एकाएक चले जाने से मेरे मन को अत्यन्त पीड़ा का अनुभव हो रहा है...
मैं तुम्हारे मन की पीड़ा को भलीभांँति समझ सकता हूँ देवसेना!,मत्स्यगन्धा की निर्मम हत्या से हम सभी का मन भी आहत हुआ है,सेनापति व्योमकेश बोलें....
जी!स्वामी!मैं समझ सकती हूँ आप सभी के मन की पीड़ा और चिन्ता को भी,किन्तु आपलोगों के इतने प्रयासों के पश्चात भी ,वो हत्यारा अभी तक बंदी क्यों नहीं बनाया गया,देवसेना ने अपने पति सेनापति व्योमकेश से पूछा...
तभी महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
देवी देवसेना!मुझे खेद है कि हम सभी के प्रयास बारम्बार विफल रहें,किन्तु अब उस हत्यारे ने सभी सीमाएँ लाँघ दी हैं,अब वो नहीं बच सकता...
मुझे भी आप सभी से यही आशा है महाराज!,देवसेना बोली....
महाराज की बात सुनकर कालिन्दी और कौत्रेय के मुँख पर चिन्ता के भाव उत्पन्न हुए और वें उन्हें छुपाने हेतु अपने अपने कक्ष में चले गए..
अन्ततः अब महाराज कुशाग्रसेन ने सैनिकों को पुनः आदेश दिया कि राजनर्तकी मत्स्यगन्धा के पार्थिव शरीर को ले जाया जाए,महाराज के आदेश पर सैनिक मत्स्यगन्धा के शरीर को ले चले एवं उन सैनिकों के पीछे पीछे और सभी जन भी चल पड़े,मत्स्यगन्धा का अन्तिम संस्कार, स्नान-ध्यान एवं शुद्धि करके जब महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश राजमहल पहुँचे तो वहाँ महारानी कुमुदिनी के संग सेनापति व्योमकेश की पत्नी देवसेना भी उपस्थित थी और साथ में उपस्थित थी महाराज की आठ वर्ष की पुत्री भैरवी एवं सेनापति व्योमकेश का दस वर्ष का पुत्र अचलराज,वें संग में राजमहल के प्राँगण में खेल रहे थे,जैसे ही महाराज ने अपनी पुत्री भैरवी को देखा तो प्रसन्नता के संग बोल पड़े....
मेरी पुत्री आ गई क्या?
जी!पिताश्री!मैं आ गई,अत्यधिक आनन्द आया मुझे तो अचल के मामाश्री के विवाह में एवं छोटी माँ देवसेना ने मेरा अत्यधिक ध्यान रखा,उन्हें ही सब मेरी माता समझ रहे थे और ये अचल हम दोनों का प्रेम देखकर ईर्ष्या कर रहा था,ईर्ष्यालु कहीं का, भैरवी बोली....
तभी अचलराज भागकर महाराज के समीप आकर बोला....
आप ही बताइए महाराज!यदि मेरी माँ इसे मुझसे अधिक प्रेम करेगी तो मुझे तो ईर्ष्या होगी ना!
अचल की बात भी सही है,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
पिताश्री!आप मेरे पिता हैं इसलिए आप अचल का पक्ष मत लीजिए,भैरवी रूठते हुए बोली.....
हाँ...बाबा...नहीं लूँगा अचल का पक्ष,अब रूठो मत,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
तभी सेनापति व्योमकेश अचलराज से बोले....
पुत्र!मेरे समीप आओ,इतनों दिनों से तुम्हें हृदय से नहीं लगाया,आओ मेरे समीप आओ...
अपने पिता की पुकार पर अचलराज सेनापति व्योमकेश के समीप पहुँचा तो व्योमकेश ने उसे अपने हृदय से लगा लिया.....
तब देवसेना महारानी कुमुदिनी से बोली....
अच्छा!महारानी!अब हमें जाने की अनुमति दें...
तब महारानी कुमुदिनी देवसेना से बोलीं...
ऐसी भी क्या शीघ्रता है?आज आप सभी दोपहर का भोजन हमारे संग कीजिए,इसी बहाने कुछ समय और बिता लेगें संग में...
हाँ!यही उचित रहेगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
तभी सेनापति व्योयकेश ने दोनों बालक बालिका को प्राँगण में लगे झूले में झूलने को कहा और वें दोनों झूले पर चले गए तब सेनापति व्योमकेश महाराज से बोलें....
महाराज!हम यहाँ और अधिक समय तक नहीं रूक सकते,आपका और मेरा वहाँ शीशमहल में रूकना ही उचित होगा,क्योंकि वो कालिन्दी तो यही चाहती है कि हम उसके समीप ना रहें और वों अपनी योजना में सफल हो जाएंँ,ऐसा करते हैं कि शीशमहल पर कड़ा पहरा लगवा देते हैं एवं कालिन्दी पर भी कड़ी दृष्टि रखनी होगी,प्रयास ये रहें कि रात्रि के समय वो शीशमहल से निकल ही ना पाएं,इसलिए ऐसा करते हैं कि पाँच दिनों तक राजनर्तकी मत्स्यगन्धा की आत्मा की शान्ति हेतु शान्ति पाठ करवाया जाए,जिससे शीशमहल के सभी सदस्य रात्रिभर जागेगे और कालिन्दी को किसी की हत्या करने का अवसर नहीं मिलेगा....
तभी महारानी कुमुदिनी बोली....
महाराज!सेनापति जी की योजना ही सर्वोत्तम है,यही उचित रहेगा और इससे ये भी होगा कि जब कालिन्दी को उसका भोजन नहीं मिलेगा तो उसका शरीर क्षीण होने लगेगा, तब हम सरलता से उसे बंदी बना सकते हैं...
हाँ! ये योजना ही सफल हो सकती है,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
किन्तु!ध्यान ये रखना होगा कि कौत्रेय भी शीशमहल के बाहर ना जा पाएं,यदि उसने किसी की हत्या कर उसका हृदय लाकर कालिन्दी को खिला दिया तो हमारी सारी योजना विफल हो जाएगी,सेनापति व्योमकेश बोलें....
हाँ!अब बाबा कालभुजंग के आने तक तो हमें कैसें भी करके कालिन्दी को रोकना होगा,जब वो मत्स्यगन्धा की हत्या कर सकती है तो किसी की भी हत्या कर सकती है,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
मैं आपसे सहमत हूँ महाराज!सेनापति व्योमकेश बोले....
तो हमें शीघ्रता से शीशमहल की ओर प्रस्थान करना चाहिए एवं दोनों बालक-बालिका एवं देवी देवसेना और महारानी आप सभी संग में ही रहें,कालिन्दी जैसे मायाविनी विश्वास करने योग्य नहीं है,क्या पता वो अपना क्रोध और शत्रुता कहाँ निकाले,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
हाँ!यही उचित रहेगा,ये समय कोई भी संकट उठाने का नहीं है,सभी को एकजुट रहना चाहिए,महारानी कुमुदिनी बोलीं....
आप चिन्ता ना करें महाराज!मैं और अचलराज ,महारानी के कक्ष में ही रहेगें,देवसेना बोली...
ठीक है तो हमारे जाने का समय हो गया हम दोनों चलते हैं,हम दोनों के भोजन की चिन्ता मत कीजिएगा,हम दोनों शीशमहल में ही भोजन कर लेगें और इतना कहकर महाराज कुशाग्रसेन ,सेनापति व्योमकेश के संग शीशमहल की ओर चल पड़े....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....