अब महाराज कुशाग्रसेन अत्यधिक चिन्तित थे,उन्हें शीघ्रतापूर्वक ये समाचार सेनापति व्योमकेश को देना था,किन्तु वें यदि शव को वहीं छोड़कर चले जाते तो कोई ना कोई वन्य जन्तु पुनः उस शव का भक्षण करने हेतु उस स्थान पर आ पहुँचता इसलिए महाराज कुशाग्रसेन ने इस विषय पर पुनः विचार करके राजमहल जाने की इच्छा त्याग दी और वहीं उस शव का निरीक्षण करने लगें,किन्तु वहाँ उन्हें कठिनता हो रही थी,ना वहाँ बैठने योग्य स्थान था और ना ही वृक्षों की छत्रछाया थी जिसके तले महाराज कुशाग्रसेन अपनी रात्रि काट सकते,चूँकि रात्रि का समय था एवं वहाँ अग्नि प्रज्वलित करने हेतु भी ऐसी कोई सुविधा भी नहीं थी,किन्तु महाराज कुशाग्रसेन के पास इसके अलावा और कोई मार्ग भी तो नहीं था,इसलिए वें उसी स्थान पर प्रातःकाल होने की प्रतीक्षा करने लगे.....
महाराज कुशाग्रसेन शव से कुछ दूर दूसरी झाड़ी के समीप जा बैठें,उन्हें वहाँ बैठे अब अत्यधिक समय हो चुका था,उन्हें निंद्रा आने लगी थी किन्तु उन्होंने अपनी आँखें नहीं मूँदीं, कि तभी वहाँ सेनापति व्योमकेश आ पहुँचे,उनके समीप पहुँचकर उन्होंने महाराज से पूछा....
महाराज!आप ठीक तो हैं ना!
मैं तो ठीक हूँ किन्तु आपको कैसें ज्ञात हुआ कि मैं आपको यहाँ मिलूँगा?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
जी!मुझे महारानी कुमुदिनी ने एक सैनिक द्वारा सूचनाई भिजवाई कि आप अभी तक शीशमहल से राजमहल नहीं पहुँचे,इसलिए उन्हें आपकी चिन्ता हुई,सैनिक के इतना कहने पर मैं ने शीघ्रता से शीशमहल की ओर जाने का विचार किया,मैं शीशमहल की ओर बढ़ा ही जा रहा था कि एकाएक मुझे यहाँ आप दिखे इसलिए ठहर गया,सेनापति व्योमकेश बोलें....
तब महाराज कुशाग्रसेन बोले....
मैं शीशमहल से राजमहल की ओर जा ही रहा था कि मुझे मार्ग में ये क्षत-विक्षत शव दिखा एवं कुछ शालावृक भी इसके समीप खड़े थे,मैं अपनी खड्ग से उन शालावृकों को भयभीत कर भगाया एवं स्वयं शव की रक्षा हेतु यहाँ विश्राम करने लगा...
किन्तु !शव की सुरक्षा क्यों?ऐसा क्या था इस शव में?सेनापति व्योमकेश ने पूछा....
तब महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
जब मैं शीशमहल पहुँचा तो कालिन्दी अपने कक्ष में ना थी,इसलिए मैं राजनर्तकी मत्स्यगन्धा के कक्ष की ओर बढ़ गया,हम दोनों जैसे ही शीशमहल के सन्पथ की ओर बढ़े चले जा रहे थे तो हमें वहाँ कालिन्दी दिखी जो कि बाहर से भ्रमण करके आ रही थी,उससे मैनें पूछा तो बोली कि उसे खुले वातावरण में रहने का अभ्यास है इसलिए बाहर चली गई थी,तब उसकी इस बात से मुझे संदेह हुआ कि वो भ्रमण करने नहीं किसी प्राणी का हृदय भक्षण करने गई होगी एवं जब मैनें यहाँ आकर ये शव देखा तो मेरा संदेह विश्वास में परिवर्तित हो गया,हो ना हो इस प्राणी को कालिन्दी ने ही शव का रूप दिया है....
महाराज!यदि ऐसा है तो ये अत्यधिक घातक है वैतालिक राज्य के लिए,सेनापति व्योमकेश बोलें....
वो वन में थी तब भी निर्दोष प्राणियों की हत्या कर रही थीं,उसमें अन्तर तो कोई ना था,हत्याएं तो हो ही रहीं थीं,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
हाँ!महाराज!आपकी बात भी सही है,सेनापति व्योमकेश बोलें....
तो अब क्या करें?रात्रि भर हम दोनों को यहीं रहना होगा क्या?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
ना !महाराज! जो सैनिक मुझे महारानी का समाचार देने आया था,उससे मैनें कहा है कि वो अपने साथ में और भी कुछ सैनिकों को लेकर शीशमहल के मार्ग पर पहुँचे,कदाचित वें सभी यहाँ पहुँचने वाले ही होगें, सेनापति कुशाग्रसेन बोले...
यदि ऐसा है तो अन्ततः चिन्ता की कोई बात नहीं है,आप और मैं उन सैनिकों की प्रतीक्षा करते हैं,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
एवं दोनों कुछ समय तक सैनिकों की प्रतीक्षा करते रहे,कुछ समय के पश्चात वहाँ सैनिक आ पहुँचे एवं महाराज उन सभी को उस शव को राजमहल के विच्छेदनगृह में ले जाने का आदेश देकर सेनापति व्योमकेश के साथ राजमहल चले आएं,जैसे ही वो शव राजमहल के विच्छेदन गृह पहुँचा तो महाराज ने शीघ्रता से राजवैद्य को उस शव का परीक्षण करने हेतु बुलवाया ,राजवैद्य ने शव का परीक्षण करते हुए कहा कि....
महाराज!ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने पहले इस शव का रक्त खींच लिया ,इसके पश्चात इसका हृदय निकाल लिया,इसके अलावा इस शव की ऐसी दशा वन्यजीवों ने की है....
राजवैद्य का कथन,महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश को सत्य लगा एवं उन्होंने राजवैद्य को जाने की अनुमति दी एवं साथ में ये भी कहा कि इस शव के विषय में वो किसी से कुछ ना कहे,महाराज के आदेश का पालन करते हुए राजवैद्य ने राजमहल के विच्छेदन गृह से प्रस्थान किया....
अब महाराज कुशाग्रसेन एवं सेनापति व्योमकेश ने कुछ समय तक विचार विमर्श-किया एवं इस परिणाम तक पहुँचे कि कालिन्दी ही वो मायाविनी है,जब तक कालभुजंग बाबा यहांँ उपस्थित नहीं हो जाते तो तब तक हमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना होगा कि कालिन्दी को हमारी योजना ज्ञात हो जाए,तब कुशाग्रसेन बोले.....
किन्तु!ये आए दिन जो हत्याएं हो रहीं हैं,उन्हें कैसें रोकें? क्योंकि जब भी कालिन्दी को भोजन की आवश्यकता होगी तो एक ना एक हत्या तो निश्चित है...
आपकी बात भी सही है महाराज!व्योमकेश बोले....
मुझे तो कोई मार्ग नहीं सूझता,कुशाग्रसेन चिन्तित होकर बोले...
चिन्ता ना करें महाराज!मैं कुछ सोचकर आपको प्रातः तक बताता हूँ,कदाचित कोई समाधान निकल आएं,सेनापति व्योमकेश बोले...
जी!सेनापति!मैं आपसे कुछ ऐसी ही आशा रखता हूँ,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
ठीक है महाराज!तो आप अब विश्राम कीजिए,अब आपसे प्रातः आकर भेट करता हूँ और इतना कहकर सेनापति व्योमकेश राजमहल से चले गए.....
महाराज भी अपने कक्ष में विश्राम करने हेतु चले गए,रानी कुमुदिनी ने महाराज को देखा तो उनके प्राण में प्राण आए,वें उनकी ही प्रतीक्षा कर रही थीं,अन्ततः महाराज ने रानी कुमुदिनी को सारा वृतान्त कह सुनाया,कुछ समय तक वार्तालाप करने के पश्चात दोनों विश्राम करने लगे, प्रातःकाल हुई एवं सभी का सम्पूर्ण दिन ऐसे ही बीता क्योंकि सेनापति व्योमकेश को अभी भी कोई उपाय ना सूझा था,जैसे ही सायंकाल हुई तो रात्रि के आने से सभी भय से ग्रसित होने लगे,किन्तु महाराज कुशाग्रसेन का शीशमहल जाना तो आवश्यक था,तभी सेनापति व्योमकेश बोलें...
महाराज!आज आप अर्द्धरात्रि के पश्चात ही शीशमहल हेतु प्रस्थान करें,आज मैं भी आपके साथ शीशमहल चलूँगा,आप शीशमहल के भीतर चले जाइएगा एवं मैं बाहर ही निरीक्षण करूँगा....
ठीक है जैसा आप उचित समझें और इतना कहकर महाराज कुशाग्रसेन अर्द्धरात्रि बीत जाने की प्रतीक्षा करने लगें.....
एवं उधर शीशमहल में रात्रि होने के पश्चात सर्वत्र वैतालिक राज्य निंद्रा में डूब चुका था,शीशमहल के भी सभी सदस्य निंद्रा में डूब चुके थे,एकाएक कालवाची अपने बिछौने से उठी एवं अपने कक्ष से बाहर निकलकर शीशमहल के सन्पथ(गलियारे)में पहुँची एवं उसने एक एक करके सन्पथ की सभी अग्निशलाकाओं(मशाल) को बुझाना प्रारम्भ किया,अन्ततः वो सभी अग्निशलाकाओं को बुझाते हुए मत्स्यगन्धा के कक्ष के समक्ष पहुँची एवं उसे पुकारा.....
मत्स्यगन्धा.....राजनर्तकी मत्स्यगन्धा !तनिक किवाड़ तो खोलो....
मत्स्यगन्धा ने जैसे ही कक्ष के किवाड़ खोले तो कालवाची ने अपने प्रेतनी रूप में आकर मत्स्यगन्धा की ग्रीवा(गरदन) पकड़ते हुए कहा.....
तू महाराज से प्रेम करेगी.....मेरे महाराज से प्रेम करेगी.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा.....