बालक सावरकर ने ६ वर्ष की आयु में शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ कर दिया। यों तो ये इससे भी पहिले अपने माता-पिता से मौखिक शिक्षा ग्रहण करता रहे। रामायण-महाभारत की कथायें और वीर पुरुषों की गाथायें सुनता रहे किन्तु ९ सितम्बर
सन् १८८९ में इन्होंने भारत में ही गुरुमुख से विद्याध्ययन आरम्भ किया । सातवें वर्ष में बालक का मौजीबन्धन भी हो गया । सावरकर प्रतिदिन अपनी माता जी के चरण स्पर्श और उनसे आज्ञा प्राप्त करके पढ़ने जाया करते थे। एक दिन किसी बात से यह माता जी से रूठ गये इसलिये बिना चरण स्पर्श और आज्ञा
प्राप्त किये स्कूल चले गए। वहां जाकर उन्होंने सोचा कि आज मैने महान् अपराध किया जो माता जी को नमस्कार करके नही आया । यह विचार उत्पन्न होते ही सावरकर वापिस घर आये और माता जी से अपने अपराध की क्षमा याचना की। स्कूल में अपनी अनुपम बुद्धि और अद्भुत प्रतिभा के कारण सावरकर गुरुजनों का स्नेह-भाजन हो गये। सहाध्यायी इन्हे आदर से देखने लगे। दिन-दिन सावरकर विद्या में उन्नति करते गये । अपनी योग्यता, परिश्रम और बुद्धि के कारण सावरकर ने अपने को विद्या का पात्र सिद्ध कर दिया इसलिये गुरुजन भी इन्हें प्रेम से विद्या पढ़ाने लगे। क्योंकि सुपात्र में किया गया परिश्रम ही सफल होता है। जिस प्रकार अच्छी तरह जोती हुई भूमि में बोया हुआ बीज फल देता है उसी प्रकार सावरकर को दी गई विद्या भी अपना चमत्कार दिखाने लगी। स्कूल में सावरकर को पुस्तकों की शिक्षा तो गुरु देते थे और देशभक्ति तथा धर्म प्रेम की शिक्षा वह अपने माता-पिता द्वारा बचपन में सुनाई हुई कथाओं के प्रभाव से लेते थे। इनकी अध्ययनशीलता के कारण शीघ्र ही स्कूल में इनका आदर होने लगा। गुरुजन और विद्यार्थी सभी इनको विद्वान, देशभक्त तथा एक अच्छा वक्ता समझने लगे।
सन् १९०१ ई० मे सावरकर ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्णं की । कालेज की शिक्षा प्राप्त करने के लिये इन्हें पूना जाना पड़ा। वहां जाकर इन्होंने फरगूसन कालिज मे प्रवेश किया। चार वर्ष तक सावरकर पूना के इसी कालिज मे अध्ययन करते रहे।
सन् १९०५ ई० मे बी० ए० की परीक्षा होने वाली थी। सावरकर
ने इन्ही दिनो विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन बड़े
जोर से चलाया और एक बहुत बड़ी विदेशी बस्त्रो की होली भी
जलाई। इस घटना से सारे देश में सनसनी फैल गई। कई
सप्ताह तक इसी विषय पर समाचारपत्रों में आलोचन-प्रत्यालोचन होता रहा। अतः सरकार की अप्रसन्नता के भय से कालिज के अधिकारियों ने सावरकर को दण्ड देने का निश्चय किया। फल-स्वरूप उन पर १० जुर्माना हुआ और उन्हें कालिज से निकाल दिया गया। इधर बी० ए० की परीक्षा सिर पर और उधर कालिज से निष्कासन ! ईश्वर ही सवका सहायक होता है। बम्बई विश्वविद्यालय ने सावरकर को परीक्षा में बैठने की आज्ञा दे दी। जुर्माना देने के लिये इनके सनथको ने चन्दा करके आवश्यकता से अधिक रुपया इकट्ठा कर लिया | सावरकर ने जुर्माने से बचा हुआ रुपया अन्य संस्थाओं को दे दिया। अपने
आन्दोलनों के कारण सावरकर ने परीक्षा की कुछ तैयारी न की थी और परीक्षा पास थी। किसी को आशा न थी कि ये उत्तीर्ण हो जायेंगे। विरोधी इनकी असफलता की प्रतीक्षा में थे कि
अच्छा अवसर हाथ लगेगा किन्तु परमेश्वर की कृपा से सावरकर
परीक्षा मे भली भांति उत्तीर्ण हो गये और विरोधियों को मुँह
की खानी पड़ी।
श्री लोकमान्य तिलक और पं० पराजपे की कृपा से सावरकर जी को पं० श्याम जी कृष्ण वर्मा की विदेश जाकर कानून अध्ययन करने की छात्रवृत्ति प्राप्त हो गई। सावरकर जी कानून
पढ़ने के लिये इंगलैण्ड गये और वहां बड़ी योग्यता के साथ सारा पाठ्यविषय अध्ययन कर लिया। इंगलेण्ड में भी सावरकर जी के हृदय में देश प्रेम की भावनायें हिलोरें मार रही थीं और वे बहुत जोर के साथ अपने आन्दोलनचलाते रहे। सावरकर, जी की बैरिस्टरी की अवधि भी समाप्त हो गई। सभी परीक्षाओ
में सावरकर जी उतीर्ण भी हो गये। पर, अधिकारियों ने वैरिस्टरी की डिग्री देने से इनकार कर दिया और कहा कि यदि तुम क्रान्तिकारी कार्य छोड़ दो तो तुम्हें 'बार' की डिग्री मिल जायेगी । एक देशभक्त अपने मार्ग से कब विचलित हो सकता था? सावरकर जी ने स्पष्ट इनकार कर दिया और अपने कार्य
में लगे रहे। सावरकर जी को बैरिस्टरी की डिग्री न दी गई । इसके बाद सावरकर जी ने अण्डमान और रत्नागिरी की जेलों
में नजरबन्द रहकर २६ वर्षों तक निरन्तर देशभक्ति और जाति-प्रेम की अपार शिक्षा ग्रहण की।