नासिक से सन् १९०१ में सावरकर जी ने मैट्रिक की परीक्षा
उत्तीर्ण कर ली । उसी वर्ष आप बीमार भी हो गये। बीमारी के दिनो में आपको चिन्ता हुई कि मैं मैट्रिक से आगे की शिक्षा कैसे प्राप्त करूंगा क्योंकि इतना पैसा पास नहीं कि कालिज का खर्चं सहन कर सके । इनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर ने कहा कि यदि तुम भाऊराव चिपलूणकर की लड़की से विवाह कर लो तो वे तुम्हारी सारी शिक्षा का व्यय उठा सकते है, फलतः सावरकर जी ने उनकी कन्या से विवाह करना स्वीकार कर लिया और उन्होंने ही इनकी शिक्षा का व्यय उठाया।
सावरकर जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये सन् १९०२ में
पूना के फर्गुसन कालिज में प्रविष्ट हुए। इस कालिज के प्रिंसिपल सर रघुनाथ परांजपे थे। ये गणित के वशेषज्ञ थे। सावरकर जी पूना आकर विशेष प्रसन्न इसलिये हुए कि उन्हें यहां अपने विचारों और कार्यों के प्रचार और विस्तार का बहुत विस्तृत क्षेत्र मिल गया था। आपने सोच लिया कि यदि कालिज के विद्यार्थियों में मैं अपने विचार भर दूंगा तो वे यहां से जा जाकर अपने-अपने नगरों में उनका प्रचार करेंगे। आपने सर्वप्रथम कालिज के विद्यार्थियों में ही अपना कार्य प्रारम्भ किया और अपनी विशेष योग्यता, वक्तृता और लेखन आदि के कारण आप अल्प-काल में ही न केवल कालिज में अपितु सारे शहर में प्रसिद्ध हो गये । इन्हें पूना में श्री लोकमान्य तिलक और श्री शिवराम महादेव परांजपे आदि मिले। उनके मिलने से इन्हें अपने कार्य में और भी अधिक उत्तेजना मिली। सायंकाल कालिज के अन्य विद्यार्थी जब खेल खेलते, मनोरंजन करते और सैर-सपाटे में समय बिताते तो सावरकर जी और उनके साथी कालिज से कुछ दूर पर एकत्र होकर अपने आन्दोलन के प्रचार के लिये भिन्न-भिन्न उपाय सोचा करते थे ।
आप प्रबन्ध कला में भी बहुत निपुण थे। कालिज के छात्रों
के भोजन की व्यवस्था के लिये कोई विद्यार्थी ही नियुक्त हुआ करता था, किन्तु जब से सावरकर जी कालिज में आये इस व्यवस्था के लिये वे ही सर्वोत्तम समझे गये। आप रात-दिन सभा-सोसाइटी तथा आन्दोलन और अपने विचारों के प्रचार में ही रहा करते थे किन्तु फिर भी व्यायाम नित्य करते थे। पहाडी पर दौड़ लगाना, दण्ड बैठक निकालना और फुटबाल आदि खेलना आपके व्यायाम के साधन थे। दिन भर तो आपको इन कार्यों से अवकाश न मिलता इस कारण आप रात में ही पढ़ने का कार्य करते थे। इनके साथी और इनके विचारों से प्रभावित होने वाले छात्र इनके कमरे में प्रायः रहा ही करते थे, इसलिये सव इनके कमरे को 'सावरकर-कैम्प' के नाम से पुकारने लगे ।
पूना के डेक्कन कालिज मे श्री खापड़े उन्ही दिनो पढ़ा करते
थे। सावरकर जी की और उनकी परस्पर मित्रता हो गई।
सावरकर जी अपने फर्गुसन कालिज के सामने एक छोटी सी पहाड़ी पर रात को मीटिंग किया करते और उसमें अपने विचारो का प्रचार और उनके प्रचार करने के उपाय सोचा करते। कभी- कभी यह मीटिंग डेक्कन कालिज मे भी हुआ करती थी। सन १९०२ मे जिस वर्ष आप कालिज मे आये उसी वर्ष आपने अपने बिचारो का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रचार करने के लिये एक हस्तलिखित मासिक पत्रिका निकाली। कालिज में जितने भी उत्सवादि होते उन सब मे सावरकर जी ही सबसे अग्रणी रहा करते थे। आपको नाटक आदि खेलने का भी बहुत शौक था। एक बार कालिज मे त्राटिका नामक नाटक खेला गया, उसमे आपने भूमिका में भाग लिया और एक बार शेक्सपीयर के अथेलो ड्रामा के अनुवाद झुंझारराव नाटक मे झुंझारराव बने थे। सावरकर जी को इतिहास में अधिक रुचि थी, इसलिये अपने कालिज के पाठ्य विषय से भी अधिक इतिहास का ज्ञान रखते थे। एक बार कालिज में इटली के इतिहास पर वाद-विवाद हुआ। उसमें सावरकर जी ने भी पूरा-पूरा भाग लिया ।
वाद-विवाद के प्रधान प्रिंसिपल राजपांडे थे। सावरकर जी ने अपने भाषण में इटली की पूर्वकालीन और वर्तमानकालीन राजनीति की बड़े ओजस्वी शब्दों में युक्ति और तर्कपूर्ण तुलना की थी। आपका भाषण सुनकर प्रिंसिपल साहब हैरान रह गये कि सावरकर को इतना ज्ञान कैसे ? इतिहास का इतना ज्ञान तो हमें भी नहीं है । प्रिंसिपल राजपाड़े ने सावरकर जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनसे प्रश्न किया कि तुम्हें इतना ज्ञान कहां से हुआ ? सावरकर जी बोलें मेरा रात दिन काम ही यही है। मैं इतिहास और राजनीति पढ़ता हूँ उनपर मनन करता हूँ
और अपने विचारों का प्रचार करता हूँ। कालिज के विद्यार्थियों
में समय-समय पर भाषण, वाद-विवाद और निबन्ध आदि में प्रतियोगिताये भी होती रहती थी, उनमें सावरकर जी विजयी होते और पारितोषिक प्राप्त किया करते थे। सावरकर जी अपने लेख और कवितायें महाराष्ट्र के काल, केसरी, भाला, युगान्तर, बिहारी और सन्ध्या आदि पत्रों में प्रकाशनार्थ भेजा करते थे। आप मेजिनी और गेरीवाल्डी के समान ही भारत में भी क्रांति करने के उपाय सोचा करते थे। अपने विचारों का प्रचार करने के लिये सावरकर जी इधर-उधर के ग्रामों और नगरों में भी समय-समय पर जाते रहते थे।
सन् १९०३ में पूना मे बड़ी भारी प्लेग फैली। उसमें आपने निर्भीक भाव से रोगियों की सेवा की । सन् १९०५ और १९०६ में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन बड़े वेग से चला। इस आन्दोलन में सावरकर-पार्टी ने अवर्णनीय परिश्रम और कार्य किया। जिसका उल्लेख हम पहिले भी कर आये हैं। पूना, नासिक तथा अन्य स्थानो में इन लोगों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्य इतने जोर से किया कि सरकार को भी इस पार्टी से भय साळुम होने लगा। सावरकर ने विदेशी वस्तुओं की एक होली जलाने का विचार प्रकट किया। सभी लोगों ने यहां तक कि लोकमान्य तिलक "महाराज ने भी इस कार्य की सफलता मे अविश्वास प्रकट किया। परन्तु सावरकर जी और उनके साथी कब मानने वाले थे। धीर मनुष्यो की यही पहिचान हैं, वे जो बात एक बार निश्चय कर लेते है उससे कभी विचलित नही हुआ करते। इन लोगो ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का निश्चय कर ही लिया। भारत में सबसे प्रथम यही होली थी, इससे पूर्व कभी भी नही जलाई गई। पूना में दो सभायें करने के बाद सावरकर जी ने बड़े मार्मिक और ओजस्वी शब्दो में जनता से विदेशी वस्त्र जलाने के लिये फेंक देने का आग्रह किया । उनके शब्दो ने जादू -सा प्रभाव दिखाया और देखते ही देखते सैकड़ो मनुष्यो ने अपने-अपने विदेशी वस्त्र, कोट, कमीज और टोपी आदि फेंकना आरम्भ कर दिया। थोड़े ही समय में विदेशी वस्त्रों का एक बड़ा ढेर लग गया और वे सारे कपड़े कार पर लादकर शहर से बाहर ले जाये गये। श्री तिलक जी महाराज, जिन्हें इस होली की सफलता पर सन्देह था, उन्ही के नेतृत्व में उन विदेशी कपड़ों की यह होली जलाई गई ।तदुपरान्त कुछ लोगों के व्याख्यान हुए। सावरकर जी का भी एक व्याख्यान हुआ जो अत्यन्त प्रभावशाली था।
इस घटना से सारे देश में सनसनी फैल जाना स्वाभाविक ही था । समाचारपत्रों में कई सप्ताहों तक इसी विषय पर विचार-विमर्श होते रहे, आलोचनाये और प्रत्यालोचनायें निकलती रही। इधर जनता के हृदयों में तो उत्साह और जोश था, वह अपने एक होनहार युवक नेता को पाकर प्रसन्न थी, किन्तु उधर कालिज के अधिकारियों के हृदयों में सरकार के भय ने स्थान कर लिया। परिणाम यह हुआ कि अधिकारियों ने सावरकर जी को कालिज से निकालने का निश्चय कर लिया और उसी के अनुसार उन पर १० रुपये का जुर्माना हुआ और उन्हें कालिज से निकाल दिया गया। सावरकर जी के हृदय में इससे कुछ भी घबराहट न उत्पन्न हुई; यदि कुछ हुआ तो इतना ही कि उस समय B.A की परीक्षा निकट थी। अधिकारियो को ऐसे समय कालिज से निकालना न चाहिये था । जुर्माना क्या, उससे भी अधिक रुपया जनता ने एकत्र कर दिया और सावरकर जी ने जुर्माने से बचा हुआ रुपया विभिन्न संस्थाओं को दे दिया। इधर ईश्वर ने भी उनकी सहायता की और बम्बई की यूनिवर्सिटी ने उन्हें परीक्षा में बैठने की आज्ञा दे दी। कालिज के छात्रावास से निकाल दिये जाने पर सावरकर जी अपने सम्बन्धियों के पास रहने लगे थे। परीक्षा पास है किन्तु सावरकर जी की तैयारी कुछ नहीं। अपने विचारों के प्रचार के कारण इतना समय न मिल सका कि पाठ्यक्रम का भलीभांति अध्ययन कर सकते। इनके पास होने मे सबको सन्देह था, किन्तु परमात्मा की कृपा से उत्तीर्ण हो गये।
जिन प्रिंसिपल पराजपे ने सावरकर जी को कालिज से
निकाला था, उन्ही ने बाद में उनकी ६०वी वर्षगांठ पर उनको भेंट की जाने वाली दो लाख रुपये की थैली में एक सौ रुपये की राशि भेंट की | मानो यह जुर्माने के दस रुपये दस गुणे होकर वापिस आये हो ।
सन् १९०५ मे सावरकर जी ने बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्णं
कर ली। तत्पश्चात् तुरन्त ही उन्होंने भिन्न-भिन्न स्थानों पर
स्थापित की हुई अपनी सब संस्थाओं को एक सूत्र मे पिरोकर संगठित करने के लिये एक गुप्त सभा बुलाई। सारे महाराष्ट्र से लगभग दो सौ सज्जन उस सभा में सम्मिलित हुए थे। इन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिये इस कार्य का प्रचार सम्पूर्ण देश में करने का निश्चय किया इसलिये उन्होंने अपनी इस संस्था का नाम 'अभिनव भारत' रखा। इसके अनन्तर सावरकर जी ने स्थान स्थान पर जाकर व्याख्यान देने और प्रचार करने का कार्यक्रम बनाया । सव स्थानों का कार्यक्रम सावरकर जी के बनाये हुए तथा अन्य वीरतापूर्ण गानों के साथ प्रारम्भ हुआ। परिणाम जो होना था वही हुआ। सारे महाराष्ट्र में धूम मच गई और एक प्रकार की अग्नि प्रज्वलित हो उठी ।
ब्रिटिश सरकार की भी आंख पलट गईं । सावरकर जी को
क्रांतिकारी राजद्रोही समझ लिया गया और इनके गिरफ्तार
करने का विचार होने लगा ।
इधर सरकार यह विचार कर ही रही थी कि उधर तिलक
जी महाराज और पं० परांजपे की कृपा से, सावरकर जी को
पं० श्यामजी कृष्ण वर्मा की विदेश जाकर कानून अध्ययन
करने की छात्रवृत्ति प्राप्त हो गई। सरकार ने भी सोचा कि
इंगलैण्ड जाकर सावरकर जी का मस्तिष्क ठीक हो जायेगा, इसलिये उनकी गिरफ्तारी का विचार सरकार ने छोड़ दिया। किन्तु जिसके हृदय में एक आग लग चुकी है क्या वह शान्त हो सकती थी ? बम्बई में जिस समय सावरकर जी अपनी इंगलैंड जाने की तैयारी कर रहे थे, उस समय भी उन्होंने बम्बई में 'अभिनव भारत' का एक केन्द्र स्थापित कर दिया। बम्बई के विल्सन, एलफिन्स्टन तथा अन्य कालिजों से बहुत से विद्यार्थियों की इस संस्था में भरती कर दी। इंगलैण्ड जाने से पहिले सावरकर जी ने ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि जिससे उनके चले जाने पर भी 'अभिनव भारत' उसी प्रकार उन्नति करता रहा।
इंगलैण्ड जाने के लिये सावरकर जी को उनके श्वसुर श्री
भाऊराय ने दो हजार रुपये दिये थे। जब सावरकर जी बम्बई से रवाना हुए तो उनकी बिदाई के उपलक्ष में बम्बई, पूना और नासिक आदि स्थानों पर विराट सभायें की गई। ९ जून सन् १९०६ को आप बम्बई से 'परशिया वोट' नामक जहाज पर बैठक़र इंगलैण्ड के लिये रवाना हुए। इंगलैण्ड जाने से पहिले पूना में आपकी अगम्य गुरु से भेंट हुई जो इंगलैण्ड से लौटकर आये थे | आपने उनसे इंगलैण्ड के विषय में अनेक ज्ञातव्य बातें मालूम कीं और 'इण्डिया हाउस' जहां जाकर उन्हें निवास करना था, के विषय में भी बहुत सी बातें मालूम कर ली थी ।