अरुण- डूबता सूरज!! Munish Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अरुण- डूबता सूरज!!

अरुण- डूबता सूरज!!
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----भाग एक- गांव छोड़ना----
अरूणः मां मैं कल सुबह खोड़ा जीजी जीजाजी के पास जाऊंगा। कुछ भिजवा हो तो झोले में रख दियो। पापा से कुछ पैसे भी दिला दियो मेरी प्यारी मां। शाम को दोस्तों के पास जा रहा अरूण गेट तक जाते-जाते यह बाते कहते-कहते जा रहा था। आठवीं तक पढ़ा अरूण अपनी नई दुनिया के बारे-बारे में सोच-सोच कर बहुत खुश था। गांव के बंबे पर खड़े दोस्तों के पास जाकर चिल्लाकर बोला कि गाजियाबाद में जाकर नौकरी करेगा और खूब पैसे कमाएगा। हा हा हा... वह अपनी खुशी को रोकना नहीं चाहता था। दोस्तों से सब कुछ कहता ही जा रहा था।
राजू(अरूण का दोस्त): साले गाजियाबाद जाकर हमे भूल तो नहीं जाएगा? गांव तो आया करेगा या वहीं शादी कर बस जाएगा?
अरूणः पागल है क्या राजू तू। अबे साले नौकरी करने जा रहा हूं। बसने नहीं। हफ्ते में छुट्टी होने पर आऊंगा गांव। साले तुम लोगों और मां पापा को कभी नहीं छोड़ सकता। करीब घंटेभर मस्ती और हंसी ठिठौली करने के बाद अरूण घर पहुंचा।
मांः तेरे पापा ने 20 रुपये ही दिए हैं। तेरे झोले में कुछ सामान रख दे रही हूं। पहले अपनी अनीता(अरूण की दूसरे नंबर की बहन) के घर ही जाना सीधे। कहीं बहू के घर रूक जाए। झोले में एक साड़ी रखी है। अनीता के लिए ली थी। पैसे देकर गई थी। मैंने लेकर रखी हुई ‌थी।
अरूण ने खाना खाया और खुले आसमान के नीचे पड़ी खाट पर जाकर ले गया। आसमान की ओर देखकर खुली आंख से नई दुनिया के सपने बुनने लगा। बीच-बीच में खुद ही मंद मंद मुस्कुरा रहा था अरूण। हसंते-हंसते कब उसकी आखं लगी। उसको खुद भी पता ही नहीं चला। शायद उस रात अरूण सबसे गहरी नींद सोया हो।
--------अगली सुबह--------
तड़के चिड़ियों की चहचहाहट के साथ ही अरूण सो कर उठ गया। अजीब सी खुशी के सा‌थ खेतों पर टहलने गया। गांव की आबोहवा में कुछ अलग सी बात लग रही थी, आज अरूण को। उसकी चाल भी अलग थी। वह जल्दी ‌घर लौटकर आया और खुद ही नल चलाकर नहा‌ लिया। मां पर राजा महाराजा की तरह हुकम चलाते हुए तैयार हो गया।
मांः ले पानी के हाथ की रोटी खा ले। वहां ना मिलने वाली तुझे यह रोटी।
अरूणः जा जा मां। वहां होटल हैं। बोलो बाद में सामने मनचाहा खाना आ जाता है। हा हा हा ठहाके लगाकर अरूण ने खाना शुरू कर दिया। अरूण ने आज खुशी में खाना भी कम खाया।
मांः प्यार से चिल्लाते हुए खा ले पागल। रास्ते में भूख लगेगी। फिर क्या खायेगा। चल तेरे लिए चार-पांच रोटी बांध दूं।
अरूणः ना मां ना। चार पांच घंटे में पहुंच जाऊगा। फिर जीजी के घर खा लूंगा।
इतने में अरूण के पापा भी खेतों से आ गए।
पापाः वहां जाके उत्ती के बजा लियो। वहां भी हांडता फिरे जावे। मेहमान के आगे ज्यादा ना बोलियो। जो कैबे बात मान लियो। नौकरी लग जाएगी तो जीवन बन जाएगा। वरना कोई ना पूछे।
अरूणः इन बातों को सुनकर और गांव को छोड़ने की बैचेनी अरूण की खुशी पर रंग चढ़ाने लगी। अरूण कुछ-कुछ भावुक होने लगा। थोड़ी देर चुप रहकर बोला हा हा ठीक है। थोड़ी देर बाद मां और पापा से जाने बात कहकर घर से निकल पड़ा। घर से अड्डे तक अरूण के जहन में बड़ा आदमी बनने के हिलोरे मारने लगे। इसी बीच अरूण की आंखों से कुछ आंसू भी निकल पड़े। शायद उसको भी गांव छोड़ने का दुख हो लेकिन गांव की एक जैसी जिंदगी से अरूण ऊब चुका था। गाजियाबाद जाने की खुुशी गांव छोड़ने से भी बड़ी थी। इसलिए अरूण अपने कदमों को नहीं रोक पा रहा था।
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मुनीश