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पवहारी बाबा


परमहंस रामकृष्ण के तिरोधान के पश्चात् विवेकानन्द का मन बहुत अशान्त हो गया था। अपने जीवन काल में रामकृष्ण देव बराबर उनका मार्ग दर्शन करते थे। अब वह सहारा नहीं रहा। फलतः जब स्वामी विवेकानन्द जी का मन उखड़ता तब वे आश्रम से कहीं चले जाते थे। जाते समय गुरु भाइयों से कहते–“अब आश्रम में वापस नहीं आऊँगा। यही आखिरी है।” लेकिन उनका यह निश्चय खण्डित हो जाता था। कुछ दिन इधर-उधर बिताकर पुनः वापस आ जाते थे।

सन् १८८८ ई० के दिनों उन्होंने निश्चय किया कि बेकार इधर-उधर समय नष्ट करने की अपेक्षा तीर्थाटन करूँ तीर्थाटन के बारे में उन्होंने लिखा है— “भारत में जो लोग ब्रह्मचर्य अवलम्बन कर धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग आमतौर पर भारत के विभिन्न प्रदेशों में घूमते हुए विभिन्न तीर्थों का दर्शन करते हैं। देव मन्दिरों का दर्शन करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं। जिस प्रकार किसी वस्तु को बराबर हिलाते-डुलाते रहने पर उसमें जंग नहीं लगता, उनका कहना है कि इस प्रकार भ्रमण करने पर उनमें मलिनता प्रवेश नहीं करती। इससे एक और उपकार होता है, वे लोग द्वार द्वार पर धर्म वहन कर ले जाते हैं। जो लोग गृहस्थी त्याग चुके हैं, उनके लिए यह आवश्यक है कि भारत के चारों तीर्थों का दर्शन करें।”
स्वामी विवेकानन्द ने अपने इस कथन को चरितार्थ किया था। विभिन्न तीर्थों का दर्शन करते हुए वे सन् १८६० ई० में गाजीपुर आये। यहाँ अफीम विभाग के अफसर गगन तथा बचपन के मित्र सतीश बाबू के यहाँ ठहरे। गाजीपुर के लोग रामकृष्ण देव के मानस पुत्र स्वामी विवेकानन्द को पाकर खुशी से फूले नहीं समाये।
बातचीत के सिलसिले में स्वामी विवेकानन्द ने कहा— “यहाँ पवहारी बाबा नामक एक योगी पुरुष रहते हैं। मैं उनका दर्शन करने के लिए आया हूँ। अगर आप लोग प्रबन्ध कर दें तो कृपा होगी। मैं इसी उद्देश्य से यहाँ आया हूँ।”
गगन बाबू ने कहा— “पवहारी बाबा नगर में नहीं रहते। वे यहाँ से कुछ दूर कुर्ता गाँव में रहते हैं। वहाँ जमीन के भीतर एक गुफा बनाकर उसी में निवास करते हैं। पहले जब आश्रम में रहते थे तब उनका दर्शन हो जाता था। अब गुफा में रहने के कारण उनका दर्शन कठिन हो गया है।”
गगन बाबू के साथ विवेकानन्द जी कुर्त्ता गाँव स्थित पवहारी बाबा के आश्रम में आये तो देखा कि वास्तव में गगन बाबू का कथन ठीक है। स्थानीय भक्तों से ज्ञात हुआ कि बाबा हमेशा गुफा के भीतर रहते हैं। कब बाहर निकलेंगे, कहा नहीं जा सकता। स्वामी विवेकानन्द जी ने सोचा कि नगर में रहते हुए बाबा से सत्संग नहीं किया जा सकता। यहीं कहीं रहना होगा। उपयुक्त स्थान की तलाश में चारों ओर घूम-फिरकर देखने लगे। पास ही नींबू का एक बड़ा बाग था। विवेकानन्द जी ने मन ही मन निश्चय किया कि वे यहीं आकर रहेंगे। यहाँ रहने पर बाबा से मुलाकात कभी न कभी अवश्य होगी।
इस निश्चय के बाद स्वामीजी नीबू के बाग में आकर रहने लगे। कई दिनों के प्रयत्न के बाद स्वामीजी की मुलाकात पवहारी बाबा से हुई। वह भी साक्षात् दर्शन नहीं हुआ। विवेकानन्द जी को गुफा के भीतर जाने का आदेश नहीं मिला। मुहाने के पास खड़े होकर बातचीत करते रहे। लगातार कई दिनों तक उपदेश ग्रहण करने के बाद स्वामीजी को अपार ज्ञान मिला। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है—
‘‘ज्ञान ही विस्मय-राज्य के द्वार को खोल देता है। जो ज्ञान मुझे उस वस्तु के निकट ले जाता है, जिसे जान लेने पर सभी को जाना जा सकता है (मुण्डकोपनिषद् १।१।३), जो सभी प्रकार के ज्ञान का केन्द्र है, जिसके स्पन्दन से सभी प्रकार के विज्ञान जीवन्त हो उठते हैं, वही धर्म-विज्ञान निश्चय ही श्रेष्ठ है, क्योंकि वही केवल मनुष्य के सम्पूर्ण ध्यानमय जीवन को समर्थ बनाता है। धन्य है वह देश, जो देश इसे पराविद्या कहता है।”
लगातार कई दिनों के उपदेशों के बाद एक दिन पवहारी बाबा ने कहा-"जन साधन, तन सिद्धि। गुरु के घर में हमेशा गौ की तरह पड़े रहो।"
ज्यों-ज्यों सत्संग का क्रम बढ़ने लगा त्यों-त्यों स्वामी विवेकानन्द का आकर्षण उनके प्रति बढ़ने लगा। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि पवहारी बाबा उच्चकोटि के योगी पुरुष हैं। हठयोग और राजयोग दोनों को सिद्ध कर चुके हैं। स्थानीय लोग इन्हें ठीक से
समझ नहीं सके हैं। सम्भव है, बाबा ने अपनी शक्ति को कभी प्रकट नहीं किया है। अन्त में एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि योग मार्ग सिद्धि प्राप्त करने के लिए वे पवहारी बाबा से दीक्षा लेंगे।
एक दिन उन्होंने पवहारी बाबा से निवेदन किया। बाबा त्रिकालदर्शी थे। उन्हें यह ज्ञात था कि किसी भी व्यक्ति को निर्दिष्ट व्यक्ति ही दीक्षा देता है, दूसरे किसी का अधिकार नहीं होता। उन्होंने कहा—“पहले तुम अपने पूर्व गुरु से अनुमति प्राप्त कर लो।”
स्वामीजी ने सोचा कि पवहारी बाबा मुझे योग की शिक्षा देना नहीं चाहते। शायद इसीलिए टालना चाहते हैं। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा—" मेरा विश्वास है कि मुझे अनुमति मिल जायेगीं। आप अपनी स्वीकृति देने की कृपा करें।"
पवहारी बाबा सम्भवतः मुस्कराये। उन्होंने 'एवमस्तु' कहकर विवेकानन्द स्वामी को-बिदा दी। स्वामीजी प्रसन्न चित्त से नीबू-बाग में वापस आये। रात को सोने के पूर्व स्वामीजी ने देखा—सहसा घनघोर अन्धकार में प्रकाश उद्भासित हुआ और उस प्रकाश में स्वयं भगवान् रामकृष्ण प्रकट हुए। उनकी दोनों आँखें बन्द थीं। आँखों में आँसू थे।
स्नेहसिक इस मूर्ति को देखते ही स्वामीजी व्याकुल स्वर में कह उठे “नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा रामकृष्ण के अलावा इस हृदय पर और किसी का अधिकार कदापि नहीं होगा जय रामकृष्ण, जय रामकृष्ण”
लेकिन मन की शंका दूर नहीं हुई। दीक्षा लेने के एक दिन पूर्व उन्होंने निश्चय किया— यह मेरे मन का भ्रम था। इस प्रकार के योगी इस पृथ्वी पर कभी-कभी आते हैं। मुझे पवहारी बाबा से ज्ञान ले लेना चाहिए।
इस निश्चय के बाद वे अपने हृदय पर रामकृष्ण के स्थान पर पवहारी बाबा को स्थापित करने लगे। लेकिन इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिली। उस ज्योतिर्मय पुरुष ने स्वामीजी के प्रयासों को विफल कर दिया। स्वामीजी समझ गये कि मेरा तन-मन उन पावन चरणों में सदा के लिए अर्पित हो चुका है जहाँ अन्य किसी के लिए कोई स्थान नहीं है।
स्वामीजी को मुकरते देख पवहारी बाबा सम्भवतः मन ही मन मुस्कराये। इसके बाद ज्ञान की बातें चलने लगीं। अब तक स्वामीजी का मन शान्त हो चुका था शायद इसीलिए उन्होंने लिखा— “हम लोगों में अधिकतर भावमय जीवन के साथ कर्म का सामंजस्य नहीं रख पाते। कुछ महात्मागण ऐसा कर पाते हैं। हम लोगों में शायद अधिकतर गम्भीर रूप में चिन्तन करने पर कार्यशक्ति को खो देते हैं। इसी वजह से अनेक महामनस्वी जितने उच्च आदशों को अपने जीवन में प्राप्त करते हैं, उसे जगत् में, कार्यरूप में परिणत करने की जिम्मेदारी काल के हाथ सौंप जाते हैं। जब तक अपेक्षाकृत क्रियाशील मस्तिष्क आकर उन आदर्शों को कार्यरूप में परिणत नहीं कर लेता तब तक उनकी चिन्ताराशि को इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इन बातों को लिखते समय हम अपने दिव्यचक्षु से उक्त पार्थसारथी को देख रहे हैं— मानो वे दोनों विरोधी सैन्यदल के बीच रथ पर खड़े होकर बायें हाथ से दृप्त अश्व को संयत कर रहे हैं। वर्मधारण योद्धा वेष में प्रखर दृष्टिरत से समवेत सेनाओं का निरीक्षण कर रहे हैं और स्वाभाविक ज्ञान के द्वारा दोनों पक्षों की सैन्य-सज्जा की राई-रत्ती को देख रहे हैं। दूसरी ओर हम यह भी देख रहे हैं कि भयभीत अर्जुन को चौंकाकर वे अपने श्रीमुख से कर्म के अद्भुत रहस्यों को प्रकट कर रहे हैं। जो कर्म के भीतर अकर्म अर्थात् विश्राम या शान्ति तथा अकर्म अर्थात् विश्राम के भीतर कर्म को देखते हैं, मानवों में वे ही बुद्धिमान् हैं, वे ही योगी हैं, वे ही सभी प्रकार के कर्म करते हैं—
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्त्रकर्मकृत्॥ (गीता ४।१८)
यही पूर्ण आदर्श है। लेकिन इस आदर्श तक बहुत कम लोग पहुंच पाते हैं। अतएव जैसा है, हमें वैसा ही लेना होगा तथा विभिन्न व्यक्तियों में प्रकाशित विभिन्न चरित्र के वैशिष्ट्‌यों को एक में पिरोकर सन्तोष करना पड़ेगा। धार्मिक लोगों के भीतर हम तीव्र चिन्ताशील (ज्ञानयोगी), लोकहित के लिए प्रवल कर्मानुष्ठानकारी (कर्मयोगी), साहस के साथ आत्मसाक्षात्कार के लिए अग्रसर होने वाले (राजयोगी) तथा शान्त एवं विनयी (भक्तियोगी), इन चार प्रकारों के साधकों को देखते हैं।”
उपर्युक्त विचार स्वामीजी ने अपने परमगुरु रामकृष्ण और पवहारी बाबा का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद विचार व्यक्त किया है। लगातार पाँच-छ: दिनों तक वे पवहारी बाबा से योग शिक्षा ग्रहण के लिए गये, पर अन्त में विचार छोड़ दिया।
लेकिन पवहारी बाबा के उपदेशों का उन पर व्यापक प्रभाव पड़ा था। फलस्वरूप उन्हें पवहारी बाबा के बारे में अपना संस्मरण लिखना पड़ा।
यहाँ तक कि यहाँ से मित्रों के नाम पत्र भेजते हुए उन्होंने एक पत्र में लिखा—
“बड़े भाग्य से पवहारी बाबा से साक्षात्कार हुआ वास्तव में वे एक महापुरुष हैं। इस नास्तिकता के युग में भक्ति एवं योग की आश्चर्यजनक क्षमता के वे अद्भुत प्रतीक हैं। मैं उनकी शरण में गया और उन्होंने मुझे आश्वासन दिया है, जो हर एक के भाग्य में नहीं ऐसे महापुरुषों का साक्षात्कार बिना शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास के नहीं होता।”
यह पत्र ४ फरवरी १८६० को लिखा गया था और इसे लिखने के ठीक तीन दिन बाद ७ फरवरी को अपने एक मित्र के पत्र में वे लिखते हैं "पवहारी बाबा देखने में वैष्णव प्रतीत होते हैं। उन्हें योग, भक्ति एवं विनय की प्रतिमा कहना चाहिए। उनकी कुटी के चारों ओर दीवारें हैं। दरवाजे बहुत थोड़े हैं। परकोटे के भीतर एक सुरंग है जहाँ वे समाधिस्थ पड़े रहते हैं। सुरंग से बाहर आने पर ही वे दूसरों से बातें करते हैं। किसी को यह नहीं मालूम कि वे क्या खाते-पीते हैं। इसीलिए लोग उन्हें 'पवहारी बाबा' कहते हैं। एक बार वे पाँच साल तक सुरंग से बाहर नहीं निकले तब लोगों ने सोचा कि उन्होंने शरीर त्याग दिया है। किन्तु वे जीवित बाहर निकले।


जिला जौनपुर का प्रेमापुर गाँव जहाँ कुछ सरयूपारी ब्राह्मणों का निवास है। इसी गाँव में तिवारीजी रहते थे। आपके दो पुत्र हुए— सर्वश्री लक्ष्मीनारायण और अयोध्याप्रसाद। जवानी के समय बड़े भाई लक्ष्मीनारायण एकाएक घर से गायब हो गये।
चारों ओर इष्ट मित्रों के यहाँ खोज की गई; कहीं पता नहीं चला। जब उनके बारे में पता चला तब तक उनके माता-पिता का देहान्त हो चुका था और अयोध्याप्रसाद दो बच्चों के पिता बन चुके थे।
लक्ष्मीनारायणजी घर से पलायित होकर कई स्थानों का चक्कर काटने के बाद गाजीपुर जिले के कुर्त्ता गाँव स्थित एक संन्यासी के आश्रम में ठहर गये। यहाँ उनका मन रम गया। इस आश्रम के किनारे गंगा नदी, शान्त वातावरण, गाँव के सरल प्रकृति के लोगों ने उनका मन मोह लिया। संन्यासीजी उच्चकोटि के योगी पुरुष थे। उपयुक्त आधार समझकर उन्होंने लक्ष्मीनारायण को शिष्य बना लिया। इस प्रकार लक्ष्मी-नारायणजी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी बन गये। घर से लक्ष्मीनारायण का नाता टूट चुका था, परन्तु बड़े भाई को आदर-सम्मान देने के लिए अयोध्याप्रसाद अक्सर यहाँ आते रहे। कभी-कभी साथ में उनके दोनों लड़के आते थे।
भारत में संन्यासियों के चार सम्प्रदाय हैं— संन्यासी, योगी, बैरागी और पन्थी जिन्हें संन्यासी कहा जाता है, वे शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवादी हैं। गिरि, पुरी, भारती, आश्रम आदि दस उपाधियाँ हैं। योगी भी अद्वैतवादी हैं, पर इनकी साधना योग के माध्यम से होने के कारण इन्हें स्वतन्त्र माना गया है। इस सम्प्रदाय के लोग योग को ही श्रेष्ठ समझते हैं और इसी के माध्यम से सिद्धि प्राप्त करते हैं।
बैरागी रामानुज या श्री सम्प्रदाय के अनुयायी होते हैं। अधिकतर द्वैतवादी होते हैं।
इसके प्रवर्तक श्री रामानुजाचार्य थे। मुसलमानों के शासनकाल में जिन धर्मों का उदय हुआ, वे पन्थी कहलाये। इनमें द्वैतवादी और अद्वैतवादी दोनों हैं। पवहारी बाबा इसी सम्प्रदाय के थे। दीक्षागुरु के निधन के पश्चात् लक्ष्मीनारायण कुर्ता आश्रम के मठाधीश हुए।
लगभग चालीस वर्ष तक वे फलाहार पर रहते हुए साधना करते रहे। उनके तप और निष्ठा को देखकर स्थानीय लोग उन्हें तपस्वी बाबा कहने लगे। आगे चलकर वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। इस बीच उन्होंने अनेक शिष्य-भक्त बनाये।
सहसा वे अस्वस्थ हो गये। धीरे-धीरे उनकी हालत खराब हो गई। स्थानीय भक्तों ने सोचा कि इस घटना की सूचना छोटे भाई को देनी चाहिए। तुरत आदमी भेजा गया अयोध्याप्रसाद आकर सेवा करने लगे। बातचीत के सिलसिले में एक दिन अयोध्या-प्रसाद ने कहा— “आप घर चले चलिये यहाँ ठीक से देखरेख नहीं हो रही है। गाँव में वैद्यजी हैं इलाज भी हो जायगा।”
लक्ष्मीनारायण ने कहा— “गृहत्यागी संन्यासी को पुनः गृहस्थी में नहीं जाना चाहिए। रामजी की कृपा से ठीक हो जाऊँगा।”
बात अयोध्याप्रसाद की समझ में आ गई, अतएव उन्होंने विशेष जोर नहीं दिया। धीरे-धीरे वे स्वस्थ हो गये, पर आँखों की ज्योति कम हो गई। बिना सहारे मल-मूत्र करने में कठिनाई होने लगी। इधर एक अर्से तक भाई की सेवा में लगे रहने के कारण घर देखरेख के अभाव में नष्ट हो रहा था।
आखिर एक दिन चलते समय अयोध्याप्रसाद ने कहा "आपकी जो हालत है, इसे देखते हुए मेरी राय में आपकी सेवा के लिए एक ऐसे आदमी की जरूरत है जो अपना
हो और बराबर देखरेख करे शिष्य या भक्तों के सहारे आपका काम नहीं चल सकता। मैं सोचता हूँ कि गंगा को भेज दूं। वह इस लायक है कि आपकी सेवा ठीक से करेगा और आपको आराम भी मिलेगा।"
लक्ष्मीनारायणजी ने हँसकर कहा— “गंगा घर का बड़ा लड़का है तुम्हारा सहायक। अगर तुम किसी को भेजना चाहते हो तो हरभजन को भेज देना उसे यहाँ पढ़ा-लिखाकर लायक बना दूंगा।”
अयोध्याप्रसाद बड़े भैया की बातें सुनकर चौंक उठे हरभजन तो अभी बच्चा है, माँ का दुलारा, सभी के आँखों का तारा रात को अभी तक माँ से लिपटकर सोता है।
कहानी सुनाने के लिए जिद करता है। दस वर्ष का बालक इनकी सेवा क्या करेगा?
यहाँ आकर वह इतना उपद्रव करेगा कि भैया त्रस्त हो जायेंगे।
अयोध्या को मौन रहते देख लक्ष्मीनारायणजी ने कहा-"अयोध्या, तेरा मन न बैठ रहा हो तो जाने दे। नाहक परेशान मत हो। रामजी की जो इच्छा होगी, वही होगा।”
अयोध्याप्रसाद चुप रहे कुछ देर बाद लक्ष्मीनारायणजी ने पुनः कहा-“मगर एक बात है। रामजी की कृपा से जब मेरी इच्छा हो गई है तब हरभजन को यहाँ आना ही पड़ेगा। आज न सही, पर एक न एक दिन वह आयेगा कब तक तुम लोग उसे अपने स्नेह-पाश में बाँध रखोगे? उसे यहाँ आना है, भले ही मेरी मौत के बाद आये।”
बड़े भैया की बातें सुनकर अयोध्याप्रसाद मन ही मन सिहर उठे भैया सिद्ध पुरुष हैं। इनका वचन कभी खाली नहीं जाता। स्थानीय भकतो की जबानी अनेक घटनाओं के बारे में वे सुन चुके हैं। लेकिन उन्हें दुःख इस बात का था कि उनका लड़का साधु बनेगा। जब यही होना है तब बाधा देकर भैया के मन को क्लेश पहुँचाने से क्या लाभ? भवितव्य को स्वीकार कर लेना उचित है। बड़े भैया से विदा लेकर अयोध्याप्रसाद गाँव वापस आ गये।
सारी बातें सुनने के बाद पत्नी नाराज हो गई। कई दिनों तक पति-पत्नी में इस विषय को लेकर मनोमालिन्य रहा। अयोध्याप्रसाद को भय था कि कहीं इससे गृहस्थी का अकल्याण न हो। आखिर पत्नी को झुकना पड़ा।
हरभजन को पाकर तपस्वीजी आनन्द से विभोर हो उठे। माँगी हुई मुराद मिलने पर लगा जैसे उन्हें अपना इष्ट मिल गया है। पास बैठाकर उसके शरीर पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाये — “उपयुक्त आधार है। जैसा सोचा था, सब कुछ वही है। अति सुन्दर रामजी, तुम्हारी महिमा अपरम्पार है।” देर तक वे हरभजन के मस्तक पर हाथ फेरते रहे।
अयोध्याप्रसाद इन बातों का अर्थ नहीं समझ सके। उन्होंने केवल यही अनुमान लगाया कि हरभजन को पाकर भैया प्रसन्न हो गये हैं। कई दिन ठहरने के पश्चात् वापस वे चले गये।
हरभजन को पाकर तपस्वीजी के जीवन में अद्भुत परिवर्तन हुआ। उन्होंने हरभजन की शिक्षा के लिए योग्य विद्वानों से अनुरोध किया और स्वयं सुबह-शाम पढ़ाने लगे। वे यह जान चुके थे कि समय कम है और इस बीच अपने इस भतीजे को इतना योग्य बना दें ताकि वह इस स्थान का भार संभाल सके।
शुभ दिन देखकर उन्होंने हरभजन के शिखा-सूत्र देकर गैरिक वसन पहनाया।
अब हरभजन ब्रह्मचारी के रूप में मन्दिर में पूजा करने लगा। आश्रम में जितना साहित्य था, उसका ज्ञान दिया जाने लगा।
इन दिनों के बारे में स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है— "इस प्रकार प्राचीनकाल के भारतीय छात्र जीवन का दैनिक कार्यों के भीतर भावी महात्मा का बाल्य जीवन व्यतीत होता गया। उनका अध्ययन के प्रति अनुराग और भाषा सीखने की दक्षता के अलावा क्रीड़ाशील जीवन रहा। उनकी गम्भीरता का पूर्वाभास पहले से ही ज्ञात हो गया था।
बचपन में हरभजन बहुत ही विनोदी थे। अपने छात्र जीवन में कभी-कभी ऐसी खुराफात करते थे जिसे देखकर सहपाठी चकित रह जाते थे। लेकिन उसी तरह वे ग्रन्थों का पाठ तेजी से करते रहे। न्याय, व्याकरण, दर्शन और अध्यात्म का ज्ञान उन्हें विद्वानों और ताऊजी से प्राप्त होता रहा।
ठीक इसी समय हरभजन के जीवन में एक ऐसी घटना हुई जिससे अध्ययनशील युवक ने सम्भवत: अपने जीवन के गम्भीर मर्म को पहली बार अनुभव किया अब तक इनका ध्यान पुस्तक तथा दैनिक ब्रह्मचर्य-जीवन की ओर लगा था, अब वहाँ से हटाकर उसे अपने मनोजगत् की ओर लगाकर पर्यवेक्षण करने लगे। पुस्तकीय ज्ञान के अलावा संसार में और कुछ है या नहीं, इस सत्य को जानने के लिए उनका हृदय व्याकुल हो उठा। ठीक इन्हीं दिनों उनके ताऊजी अर्थात् तपस्वी बाबा का निधन हो गया। अब तक वे जिनकी छत्रछाया में जीवन धारण करते आये हैं, जिनके ऊपर युवक हृदय का सम्पूर्ण प्यार निवद्ध था, आज वे चले गये। फलस्वरूप युवक हृदय का अन्त स्तल शोकाहत होकर रिक्त हो गया उस शून्यता को पूर्ण करने के लिए वे ऐसी वस्तु का अन्वेषण करने लगे जो अपरिवर्तनीय हो।
“तपस्वी बाबा की अलौकिक घटनाओं की ख्यति चारों ओर फैली थी शिष्यों के अलावा असंख्य भक्त थे। उनके तिरोधान का समाचार पाकर दल के दल लोग आने लगे सभी लोगों ने उनके सत्कार कार्य में भाग लिया भण्डारा हुआ और उसके बाद एक दिन हरभजन का कुर्ता आश्रम की गद्दी पर अभिषेक किया गया।
“सभी भक्तों को ज्ञात था कि आज से छह वर्ष पूर्व तपस्वी बावा इस ब्रह्मचारी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे इन्हें महन्त बनाने की सारी प्रक्रिया बताते रहे। अब अपने गुरु ताऊजी के निर्देशानुसार वे आश्रम का सारा कार्य करने लगे।
“कुछ दिनों बाद उनका मन कुर्त्ता आश्रम से उचाट हो गया। जिस प्रकार भगवान् बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, तैलंग स्वामी आदि सन्त योग्य गुरु की तलाश में तीर्थाटन करने निकले थे, ठीक उसी प्रकार हरभजन अपनी पिपासा शान्त करने के लिए एक दिन वहाँ से चल पड़े।”
स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है— “उनकी यात्रा के विवरण प्राप्त नहीं हैं, पर उनके सम्प्रदाय के अधिकांश ग्रन्थों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्राचीन बंगला भाषा तथा द्रविड ग्रन्थों का व्यापक परिचय उन्हें था और वे दक्षिण भारत तथा बंगाल में काफी दिनों तक थे।”
“उनके समकालीन मित्र यह जरूर बताते हैं कि जवानी के दिनों बाबा काठियावाड़ स्थित गिरनार पर्वत पर गये थे और वहीं पर्वत के शिखर पर योग साधना के रहस्यों से प्रथम बार दीक्षित हुए थे।
“यह पर्वत बौद्धों के निकट अत्यन्त पवित्र स्थान था। इसी पहाड़ के नीचे सम्राट् अशोक का शिलालेख था वर्तमान समय में बौद्ध धर्म का जो संशोधित संस्करण है, वे भी इस स्थान को अत्यन्त पवित्र समझते हैं।”
गिरनार पर्वत को अत्यन्त पवित्र इसलिए माना जाता है कि यहाँ अवधूत गुरु दत्तात्रेय रहते हैं जो भारत के अनेक सन्तों को दर्शन दे चुके हैं। कहा जाता है कि भाग्यवान् व्यक्ति ही इसके शिखर पर चढ़ पाते हैं। यहाँ आज भी अनेक सिद्ध योगी अलक्ष्य रूप में रहते हैं जिन्हें महान् पुरुष ही देख पाते हैं। कहा जाता है कि हरभजन गिरनार शिखर पर चढ़ने में सफल हो गये थे। वहाँ उन्होंने दत्तात्रेय की पादुका के दर्शन किये। वहाँ कुछ देर तक ध्यानस्थ रहने पर उनकी अतीन्द्रिय शक्ति ने सूचित किया कि
पास ही कोई योगी पुरुष रहते हैं। उनकी खोज में चक्कर काटते हुए, प्रभु की प्रेरणा से एक गुफा के मुहाने के समीप आये भीतर प्रवेश करते ही देखा कि एक योगी पद्मासन लगाये समाधिस्थ हैं। उनके शरीर से अपूर्व ज्योति प्रस्फुटित हो रही है
हरभजन ने सोचा— ऐसे ही योगी पुरुष की उन्हें तलाश थी मन हो मन इन्हें गुरुरूप में स्वीकार करके वहीं बैठ गये। काफी देर बाद योगिराज की समाधि भंग हुई। हरभजन ने साष्टांग प्रणाम किया। योगी को जब यह ज्ञात हुआ कि बालक शिष्य बनना चाहता है तब उन्होंने कहा— “मैं किसी को शिष्य नहीं बनाता कोई भी गुरु किसी को शिष्य नहीं बनाता प्रत्येक शिष्य के लिए उसका निश्चित गुरु होता है। वही दीक्षा देने का अधिकारी होता है। हर कोई ऐसा नहीं कर सकता।”
हरभजन ने बढ़े विनम्र भाव से आग्रह किया, पर वे राजी नहीं हुए। उन्होंने योग की कुछ क्रियाएँ बताकर हरभजन को विदा दे दी।
हरभजनजी अब साधना, भजन-पूजन करते रहे, पर इन महात्मा से योग की शिक्षा पाकर उन्होंने नयी शक्ति प्राप्त की। इस शक्ति को प्राप्त करते ही उन्होंने अपना अधिकांश समय योगाभ्यास की ओर लगाया उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया। केवल कुछ बेल की पत्तियाँ या नीम की पत्तियाँ खाकर दिन गुजारने लगे। आश्रम में सर्वदा शिष्य या भक्त रहते थे। यहाँ असुविधा देखकर रात के समय वे तैरकर गंगा उस पार जाकर एकान्त में योग की साधना करने लगे। इस प्रकार क्रमशः उन्नत होते गये।
हरभजन के सहपाठियों ने अनुभव किया कि इनके आचरण तथा स्वभाव में व्यापक परिवर्तन हो रहा है। यह देखकर उन्हें भय और विस्मय भी हुआ लेकिन इन लोगों के मन में यह भावना उत्पन्न नहीं हुई कि हम लोग भी इनकी तरह बन जायें।
स्वाभाविक है कि जीवन में अपने-आप उन्न होने वाले के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ जाती है। अपने सभी सहपाठियों को पीछे छोड़कर हरभजनजी साधना के पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ते गये।
कुछ दिनों बाद वे काशी आये। यहाँ गंगा तट पर अचानक एक योगी से मुलाकात हो गई। इस योगी को देखते ही हरभजनजी के हृदय में आकुलता उत्पन्न हुई और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की योगी महाराज ने उन्हें अपने पीछे-पीछे आने का इशारा किया गंगा किनारे एक गुफा में आकर योगिराज ने कहा—“आज ही वह मुहूर्त है जब मुझे तुम्हें दीक्षा देनी है। जाओ, गंगा स्नान कर आओ।"
हरभजनजी स्नान करके आये। उन्हें एक आसन पर बैठाकर योगिराज ने सविधि दीक्षा दी। उनकी भौहों के मध्य ज्योंही उन्होंने अँगुलियाँ रखीं त्योहीं तड़ित् गति से सारे शरीर में बिजली की तरह न जाने क्या दौड़ गया। इसके बाद मन्त्र देकर उन्होंने आशीर्वाद दिया।
वाराणसी से वापस कुर्त्ता आश्रम आने पर हरभजनजी ने निश्चय किया कि वे भी अपने गुरुदेव की तरह गुफा में साधना करेंगे इच्छा प्रकट करते ही आश्रम के एक ओर गुफा का निर्माण भक्तों ने कर दिया। गुरुदेव ने कहा था "योगाभ्यास के लिए गुफा से बढ़कर कोई उत्तम स्थान नहीं होता। हमारे यहाँ के अधिकांश योगी पहाड़ की कन्दराओं और गुफाओं में ही साधना करते आये हैं। यहाँ किसी प्रकार का शब्द मन को विचलित नहीं करता।”
गुरुदेव ने उन्हें योग की प्रक्रिया बताने के बाद अद्वैतवाद की शिक्षा दी थी।
दिनभर वे अपने आराध्यदेव श्रीराम की पूजा-अर्चना करते, भण्डारे के लिए भोजन स्वयं बनाते और प्रसाद के रूप में भक्तों और शिष्यों में बाँट देते थे। इन सब बातों के कारण सामान्य लोगों में उनकी ख्याति बढ़ती गई दूर-दूर से लोग हरभजन बाबा का दर्शन करने आने लगे। रोगी अपना रोग दूर करने, मुसीबतजादा अपनी मुसीवत दूर करने के लिए आशीर्वाद माँगने लगे।
इस उपद्रव से परेशान होकर अब बाबा हरभजनजी गुफा में अधिक समय तक रहने लगे। यहाँ तक कि महीनों गुफा से बाहर नहीं निकलते थे। यह देखकर लोगों को आश्चर्य होता कि आखिर बाबा खाते क्या हैं?
किसी शिष्य ने कहा—“योगी पुरुष हैं, केवल हवा यानी पवन सेवन करते हैं।”
इसी दिन से भक्तों में 'पवनहारी बाबा' के नाम से हरभजनजी प्रसिद्ध हो गये। न तो वे कुछ खाते हैं, न प्रातःक्रिया करने जाते हैं और न किसी से कुछ बोलते हैं।
एक अर्से तक गुफा में रहने के बाद एक बार बाहर निकले और गुफा के पास बने एक घर में रहने लगे। उनका उद्देश्य था कि एक बड़ा भण्डारा किया जाय। जब ये बाहर आकर कुटिया में रहते तब मिलनेवालों से मिलते, आशीर्वाद देते, प्रसाद देते और राम-राम जपने का आदेश देते थे।
इन दिनों के बारे में स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है "भारत के अन्य अनेक महात्माओं की तरह उनमें कर्ममुखरता नहीं थी वाक्य के द्वारा नहीं, जीवन के द्वारा लोगों को शिक्षा देनी चाहिए जो लोग सत्य को धारण करने के उपयुक्त हैं, उन्हीं के जीवन में सत्य प्रतिफलित होता है। इस महापुरुष का जीवन भारतीय आदर्श का अन्यतम उदाहरण है। इस तरह के व्यक्ति जो कुछ जानते हैं, उसका प्रचार करना उन्हें पसन्द नहीं। साधना के द्वारा सत्य को पाया जा सकता है। धर्म सामाजिक कर्त्तव्य है, शक्ति नहीं है।”
स्वामी विवेकानन्द जब इनसे मिलने आये थे तब पवहारी बाबा से पूछा था “जगत् के कल्याण के लिए आप गुफा से बाहर क्यों नहीं आ जाते?”
उन्होंने विनोदी भाव से कहा— “एक बदमाश आदमी एक बार गलत कार्य करते हुए पकड़ा गया। ठीक इसी समय उसे एक व्यक्ति ने पकड़ा और दण्डस्वरूप उसके नाक को काट दिया। अब वह आदमी सोचने लगा कि कटे हुए नाक को लेकर मैं लोकालय में कैसे जाऊँ? शर्म से परेशान होकर वह जंगल की ओर भाग गया। वहाँ एक बाघ की खाल का आसन बिछाकर बैठ गया। जब लोगों को इधर-उधर से आने की आहट पाता तब आँखें बन्द कर ध्यानस्थ हो जाता उसे इस तरह ध्यान लगाकर बैठा देखने पर लोग रुक जाते। धीरे-धीरे लोग उसकी सेवा पूजा करने लगे। उसने सोचा-यह नाटक उत्तम है। कम-से-कम भोजन की चिन्ता से मुक्त हो गया। इसी तरह कई साल गुजर गये। अब लोग इस मौनी बाबा से उपदेश सुनने के लिए व्याकुल होने लगे। यहाँ तक कि एक युवक उनसे दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हो उठा। आखिर एक दिन उसने अपना मौन भंग करके कहा—“कल एक तेज चाकू लेकर आना।” युवक ने सोचा कि कल मेरी आशा पूर्ण होगी। इसी आशा से यह चाकू लेकर सबेरे जल्दी चला आया नकटा साधु उस युवक को जंगल के सुनसान इलाके में ले गया। इसके बाद एक ही झटके में उसकी नाक को काटने के बाद कहा— “हे युवक इस तरह में अपने आश्रम में दीक्षित हुआ हूँ। अब तुम भी मौका देखकर इसी प्रकार अन्य लोगों को दीक्षा देते रहना।” उस युवक ने मारे शर्म के इस दुर्घटना के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया साध्यानुसार वह नकटा साधु सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने लगा। इस प्रकार नकटा-साधु सम्प्रदाय सारे भारत में फैल गया। क्या तुम भी मुझसे ऐसा काम कराना चाहते हो?”
इसके बाद गम्भीर होकर उन्होंने कहा— “तुम क्या सोचते हो कि स्थूल शरीर से ही दूसरों का उपकार हो सकेगा? क्या देह के क्रियाशील हुए बिना केवल मन ही मन दूसरे के मन की सहायता की जा सकती है, क्या यह सम्भव नहीं है?”
स्वामीजी ने पूछा— “आप इतने बड़े योगी हैं, फिर शिष्यों को पहले-पहल श्री रघुनाथजी की मूर्ति पूजा, होमादि करने का उपदेश क्यों देते हैं?”
पवहारी बाबा ने कहा—“तुम यही क्यों समझ लेते हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कल्याण के लिए कर्म करता है। क्या मनुष्य दूसरों के लिए कर्म नहीं कर सकता?”
पवहारी बाबा के जीवन में अलौकिक घटनाएँ बहुत कम हुई है। कारण वे मौन रहते हुए अपने जीवन का अधिकांश भाग गुफा में व्यतीत करते रहे। उनका दर्शन करने के लिए बड़े-बड़े धनी, सन्त, महात्मा आदि आते रहे।
एक बार एक चोर ने सोचा कि जब बाबा के पास इतने बड़े-बड़े लोग आते हैं। और चढ़ावा देते हैं तब इनके पास काफी रकम होगी उस मूर्ख को यह नहीं मालूम कि बाबा सारी रकम भण्डारा में खर्च कर देते हैं। जो व्यक्ति बेलपत्तियों पर जीवित है, उन्हें संचय की क्या जरूरत? चोरी करते हुए वह उस ओर आया जिधर बाबा ध्यानस्थ बैठे थे। उन्हें देखते ही वह हड़बड़ाकर भागने लगा आहट पाते ही बाबा का ध्यान भंग हुआ ये चोर की गठरी लेकर उसके पीछे-पीछे दौड़े। चोर ने समझा कि बाबा पकड़ने आ रहे हैं। इधर उससे भी तेज गति से दौड़कर बाबा ने उसे पकड़ लिया। इसके बाद बोले— “बेटा, यह तुम्हारा सामान है। कृपया इसे ग्रहण करो। इसके लिए मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा मैं अपनी खुशी से तुम्हें दे रहा हूँ।”
चोर पर बाबा की इन बातों का व्यापक प्रभाव पड़ा। तुरत उनके पैरों पर गिरकर बोला “महाराज, मुझे क्षमा कीजिए। अब आज से यह काम नहीं करूंगा।” कहा जाता है कि उक्त चोर आगे चलकर बाबा का भक्त बन गया और चोरी करना छोड़ दिया। इसी प्रकार एक बार एक पागल आकर आश्रम में उपद्रव करने लगा। बात बाबा के पास पहुँची। वे गुफा के बाहर निकलकर उसकी ओर एकटक देखने लगे। धीरे-धीरे उसका उपद्रव शान्त होने लगा। कुछ देर बाद उसका सारा पागलपन दूर हो गया।
एक बार बाबा को एक विषधर सर्प ने काट लिया, इससे भक्त और शिष्य शोकाकुल होकर रोने लगे। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि अब बाबा समाधि से कभी नहीं उठेंगे। ठीक पाँच घण्टे बाद बाबा ने आँखें खोलीं। व्याकुल भक्तों से कहा— “घबराने की बात नहीं है। सर्प देवता तो मेरे भगवान् के पाहन थे।”
बाहर जीवन के अन्तिम दिनों में वे किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। जब गुफा आते तब लोगों से बातें जरूर करते थे। शेष समय गुफा में रहते थे। गुफा के भीतर से जब धुआँ बाहर आता तब लोग समझ लेते थे कि बाबा होम कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द से उन्होंने कहा था—“हे राजा, भगवान् अकिंचनों के धन हैं। जो व्यक्ति किसी भी वस्तु को, यहाँ तक कि अपनी आत्मा को भी 'मेरा है' समझना छोड़ चुका है, वे उसी के हैं।” बाबा में यही भाव था।
वे एक चक्षु के थे। वास्तविक उम्र से कम लगते थे। उनका स्वर बहुत ही मीठा था। प्रत्यक्ष रूप से वे उपदेश नहीं देते थे। उनका विचार था कि ऐसा करने पर स्वयं को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना पड़ेगा और ऊँचे आसन पर बैठना पड़ेगा। अगर हृदय का प्रस्रवण खुल जाय तो ज्ञानवारि स्वतः प्रकट होने लगता है।
जब वे गुफा के भीतर रहते तब लोग अक्सर गुफा के मुहाने पर आलू और मक्खन रख देते थे। अगर वे समाधि में नहीं रहते तो उसे ग्रहण कर लेते थे, वरना उसी प्रकार पड़ा रह जाता था।
एक दिन गुफा के द्वार से काफी धुआँ बाहर निकलने लगा। आमतौर पर सुगन्धित धुआँ निकलता था, पर इस धुएँ में मांस जलने का दुर्गन्ध पाकर लोग घबरा उठे। अन्त में गुफा का दरवाजा तोड़ा गया। भीतर जाकर लोगों ने देखा बाबा होमाग्नि में अपने को आहुति दे रहे हैं। देखते-ही-देखते सब कुछ राख हो गया।

इस प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश का ही नहीं, बल्कि भारत का एक सन्त सदा के लिए चला गया जिन्होंने परमहंस रामकृष्ण के पट्टशिष्य स्वामी विवेकानन्दजी को ज्ञान देकर प्रभावित किया था।

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