प्रेम गली अति साँकरी - 27 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 27

27

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उत्पल वाकई बहुत अच्छा, सभ्य लड़का था और मेरा मन बार-बार उसकी ओर झुक रहा था | वैसे मैं उसे अपने से दूर रखने का प्रयास करती लेकिन मन कभी कोई बात सुनता है क्या? जितना मैं उससे दूर रहने का प्रयास करती, उतना ही मेरी आँखों के सामने उसकी तस्वीर बार-बार आ जाती | वह और दिव्य दोनों मेरी दोनों आँखों में झिलमिलाते रोशनी से चमक पैदा करते रहते | मैं समझ नहीं पा रही थी इतनी उद्विग्न क्यों रहती हूँ? हाँ, एक महत्वपूर्ण बात थी, कला-संस्थान का काम मेरे साथ मिलकर सब ही लोगों ने संभाल लिया था | अम्मा अपनी उम्र से कम और शायद मेरी चिंता से अधिक बुजुर्ग हो रही थीं, मेरे लिए परेशान रहतीं | 

एक दिन खाने की मेज़ पर अम्मा-पापा ने मुझे पकड़ लिया | शायद उस दिन वे दोनों ही मुझे घेरने की सोचकर बैठे थे | मुझे इस बात की कभी भनक भी पड़ती थी तो मैं फटाफट खाना खाकर भाग जाती थी | कोई भी बहाना हो सकता था मेरे पास, वहाँ से उठने का | 

“बेटा ! अपनी लाइफ़ के बारे में कुछ तो सोचो---” पापा ने कहा | 

“हाँ, अमी !तुम जानती हो जो हमारे सितार के नए टीचर हैं, वे हम दोनों को बहुत पसंद हैं| उनके घर में बस उनकी एक बहन हैं जिनके पति नहीं रहे | अपने समय में वो भी कत्थक की अच्छी डांसर रही हैं | कुछ दिन पहले वो संस्थान में आई थीं, हम दोनों से उनकी बातें हुईं | अपने भाई के लिए वे एक अच्छी लड़की की तलाश में हैं ---तो----”

“तो---” मेरे मुँह से भी अनजाने में निकल गया | यानि कि मैं बलि का बकरा बन जाऊँ? मन विद्रोह करता था| 

“तो –ये बेटा कि तुम ठीक समझो तो प्रमेश जी से बात की जाए ? ”

“किस बारे में ? ” मैं फिर से रुड थी | 

“जहाँ परिवार की बात है, वहाँ हमारे पास अब तुम्हारे अलावा कोई विशेष महत्वपूर्ण विषय तो है नहीं | जब से तुम्हारी दादी गईं और भाई विदेश का होकर रह गया, हमारा घर---घर कहाँ रहा---? ” पापा दुखी थे | मैं जानती थी लेकिन इतनी आसानी से उनकी हाँ में हाँ कैसे मिलाती ? आखिर मेरी अपनी ज़िंदगी थी जिसके बारे में मुझे पता ही नहीं चल रहा था क्या और कैसे जीना है मुझे ? 

मुझे बार-बार लगता ज़िंदगी इतनी आसान नहीं, इतनी क्या बिलकुल भी आसान नहीं है| कैसे-कैसे झौंके खाती रही है ज़िंदगी ! मतलब---? मतलब कहाँ है ज़िंदगी में ? मतलब होता तो मुझे न पता चलता ? भीगी लकड़ी सी क्यों बनी जा रही थी मैं? दूसरों की बातें अपने कंधे पर, सिर में भरकर मैं नाहक ही न जाने स्वयं को इतना महान दिखाने की कोशिश क्यों कर रही थी? क्या मेरी इस से दुनिया का रुख बदल जाने वाला था, या मैं दुनिया की सोच को बेहतर बना सकती थी? नहीं न ? तो फिर क्यों? दादी की बात अचानक याद आ गई;

“काजी जी !दुबले क्यों? ”

“शहर के अंदेसे से –”

‘कमाल का एक पीस हूँ मैं भी----‘न जाने कितनी बार सोचती लेकिन बस, सोचती ही रही, बस—इससे आगे कुछ नहीं—कमाल का अनोखा पीस ही तो बनी रही !!

प्रमेश बर्मन ! हाँ, यही नाम है उन सितारिस्ट का ! कई वर्षों से संस्थान में आ रहे हैं | विनम्र, अधेड़ उम्र ---! पर मैं उम्र को क्यों देख रही थी? क्या मैं अधेड़ नहीं होती जा रही थी? जब मैं उत्पल के बारे में सोचती, अपने सामने उसे बच्चा सा पाती, फिर यदि प्रमेश कुछ अधिक उम्र का था तो मुझे क्यों परेशानी होनी चाहिए थी? परेशानी शायद मुझे इस बात की थी भी नहीं, परेशानी थी कि वह पापा जैसा कहीं से भी नहीं था | मैंने पापा को कैसे खिलखिलाते देखा था ! वे जान थे पूरे घर की बल्कि आत्मा थे परिवार की | अब उस आत्मा को मुरझाते हुए देखना बहुत कष्टकर व असहनीय था| मैं उसमें यानि उनके कष्टों में इज़ाफ़ा ही कर रही थी न !!

एक बात जो मुझे बड़ी आश्चर्यजनक लगती कि मौसी ऐसे तो कैसे बंगाली घर में ब्याहीं कि अब कितने ही बंगला भाषी लोग परिवार से जुडने लगे हैं ? वैसे शायद यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी लेकिन मन--–वो भी मेरा, विचारों की गठरी ही तो हुआ जा रहा था| जाने कैसे-कैसे विचार मन की गठरी में ठुँसते रहते और मैं वह गठरी खोल ही न पाती कि कुछ के उत्तर तो मिल सकें| जैसे एक-दूसरे पर पैक हुए जा रहे थे सारे प्रश्न जिनके उत्तर किसी दिशा के किसी कोने में से झाँक भी नहीं रहे थे और मेरे मन को कुंठित करते जा रहे थे | क्या एक मैं ही थी संवेदनाओं की कठपुतली सी जिसे अपने अलावा सबके बारे में चिंता करने का जैसे लाइसेंस मिला हुआ था| लेकिन मैं अम्मा-पापा की चिंता कहाँ समझ पा रही थी? वे दोनों मेरे बारे में चिंता करते अपनी वृद्धावस्था में प्रवेश करने लगे थे | उनकी अधेड़ होती बेटी उनके सामने बड़ा सा प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर खड़ी रहती थी| मैं जानती थी लेकिन न जाने कितनी अधेड़ होती जिंदगियाँ मेरे सामने थीं –जैसे शीला दीदी !उनके पास उनका प्रेम था जो न जाने कितने लंबे वर्षों में प्रतीक्षा की चौखट पर खड़ा उनकी बाट जोह रहा था ---और रतनी? जिसके दो बड़े होते जा रहे थे, वह कुचली-मसली जा रही थी लेकिन क्या उस समय वह अपने प्रेमी को याद नहीं करती होगी? 

मेरी अपनी इस सड़क पार की ‘सो कॉल्ड ऊँची’ सोसाइटी में न जाने कितने अनमने लोग थे जो मुस्कान के नीचे न जाने क्या-क्या छिपाकर बैठे थे! मुझे ये तथाकथित बड़े लोग अधिक दयनीय लगते जो अपने भावों, संवेदनाओं को भारी परदों के भीतर ही छिपाकर रखते और बाहर निकलते समय छद्म मुस्कान चेहरे पर सजा लेते | यह उनकी दिनचर्या थी | फिर जीवन के युद्ध में मैं अकेली कहाँ थी? लेकिन मेरे कारण मेरे माता-पिता को जो महसूसता, वह न्यायोचित कैसे हो सकता था ? मन को समझाना कितना कठिन है !क्या मेरा कोई कसूर है इसमें ? मुझे उलझन के अलावा कुछ भी समझ में न आता | 

रात को मेरी नींद भी न जाने क्या---- यही सब सोचती रहती और फिर वो ही अजीब से सपने—नहीं, सपने नहीं गर्द के रूप में बवंडर सा सामने गुबार बनकर उड़ने लगता | यह कोई नई बात नहीं थी, जब घर–घर लगता था और सब अपने-सपने सुनाकर एक समाँ बांध दिया करते तब भी मेरी कितनी मज़ाक बनती थी | सपनों के नाम पर मैं तब भी सपाट थी और आज भी वैसी ही हूँ | मुझे याद नहीं जिस उम्र में युवा रोमांस के सपने देखते हैं, उस उम्र में मैंने कभी श्वेत अश्व पर अपने सपनों के राजकुमार को पवन के वेग से अपनी ओर आते हुए देखा और मैं रोमांचित हो उठी हूँ | जब पापा अपनी और अम्मा के रोमांस की बातें बताते तब मैं और भाई उनसे मज़ाक खूब करते थे लेकिन जैसे सब अपने-अपने सपने साझा करते, मुझे लगता उसमें से आधे तो वे मौज-मस्ती करने के लिए ही बताते हैं| खैर---वह एक खूबसूरत मौसम तो होता ही था । आनंद का मौसम ! लेकिन धीरे-धीरे सब कैसे बदल गया? और बदलता जा रहा था, मुझे भीतर तक एकाकीपन से भर देता | 

‘बेटा!हमारे लिए कोई कुछ भी करे, उसकी सीमा होती है| वह हमारे अकेलेपन से हमें एक हद तक ही निकाल सकता है, खुद के लिए खुद को जीना पड़ता है| ’ मैं जानती हूँ, अम्मा की बाद सौ प्रतिशत सही है लेकिन---इस ‘लेकिन’ ने मुझे दोराहे/तिराहे पर लाकर खड़ा किया हुआ था और मैं----‘इधर जाऊँ या किधर जाऊँ’की गफ़लत में पड़ी हुई थी| 

रात भर बेचैनी ओढ़कर जब सुबह में किसी शोर से मेरी नींद खुलती, मैं इतनी अधिक अनमनी हो जाती लेकिन अपने कमरे की खिड़की पर टँगना न छोड़ पाती| सुबह-सवेरे लोग ईश्वर का नाम लेते हैं और ये सामने मुहल्ले वाले---खीज से मेरा दिमागभन्ना जाता | मेरे असहज होने में कोई एक कारण नहीं था, न जाने कितनी बातें मेरा पीछा कर रही होतीं और मैं उलझनों में फँसी रहती | 

शीला दीदी कोई भी कारण हो, हमेशा अपने समय से संस्थान अपनी ड्यूटी पर आ जातीं | हम सब कितना रिलैक्स हो गए थे उनके कारण| आज मैं जब तक तैयार होकर संस्थान पहुंची शीला दीदी ने अपनी रोज़ की व्यवस्था करवा ली थी | पहली क्लास शुरू हो चुकी थी | संस्थान के बड़े से हॉल में एक बड़ा सा गोल घेरे वाला लाल मखमली कालीन का स्थान कुछ इस प्रकार से सुसज्जित था जिसके चारों ओर विद्यार्थी बैठते थे और उसी वृत्त में गुरु जी के लिए एक ऊँचा आसन बना हुआ था जिस पर वे विराजते थे |