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अम्मा का यू.के जाने का समय पास आता जा रहा था| सारी तैयारियाँ ज़बरदस्त चल रही थीं | उत्पल ने अम्मा का काम बड़ी खूबसूरती से किया था| अम्मा बहुत खुश थीं और उत्पल से बार-बार कहती थीं कि अम्मा-पापा के यू.के जाने के बाद उसकी ज़िम्मेदरी बढ़ने वाली है | वह मुस्कुराकर अम्मा को आश्वासन देता| दिव्य की बूआ और माँ से बात करके चुपचाप दिव्य का पासपोर्ट बनवा दिया गया था | लड़के की ज़िंदगी संवर जाएगी| जगन तो कभी उसे किसी भी बात की इजाज़त देने वाला नहीं था| क्या फिर वह ज़िंदगी भर यूँ ही अपने सपनों को चकनाचूर होते देखता रहेगा? अम्मा को पूरा भरोसा था कि उसे एक राह मिले तो वह इतना ऊँचा उठ जाएगा कि फिर जगन के हाथ आ ही नहीं सकेगा | अम्मा अपने मन के इस आश्वासन से बड़ा सुख महसूस करतीं| कुछ ऐसा हो गया था कि दिव्य के भविष्य के लिए हमारे परिवार के लोग सबही चिंता करते | पिछले कुछ दिनों से दिव्य में बदलाव दिखाई देने लगा था |
अब उस शांत दिव्य की दिव्यता भी लगभग समाप्त होने लगी थी | वह अपने पिता के आक्रोश को झेलने के लिए अपनी माँ के सामने खड़ा होने लगा था | वह दिन दूर नहीं लग रहा था जिस दिन वह अपनी माँ के साथ दुर्व्यवहार करने वाले अपने पिता का हाथ पकड़ लेता | यह कोई सुखद स्थिति नहीं होने वाली थी | इसकी चिंता दिव्य की माँ यानि रतनी मुझसे कई बार करती |
‘कमाल की औरत है !एक तरफ़ पूरी ज़िंदगी पिटते, अपमान सहते बिता रही है तो दूसरी ओर यह नहीं चाहती कि बेटा अपने पिता के साथ कोई दुर्व्यवहार करे| अब ये संस्कार नहीं थे तो क्या थे लेकिन क्या वह इन संस्कारों की खेती अपने भीतर लहलहाने के लिए ही ज़िंदा है ? ’मेरे दिमाग में ये कटु प्रश्न बार-बार कौंधते रहते| मुझे यह भी डर था कि यदि जगन को पता चल गया कि दिव्य का पासपोर्ट बन गया है और वीज़ा भी उसका टीम के साथ हो ही जाएगा तब वह न जाने क्या बबाल कर दे|
उस दिन अचानक श्यामल मौसा जी और कीर्ति मौसी आ गई थीं, हाँ बहुत दिनों बाद दोनों साथ आए थे| बहुत कम ही ऐसा होता था कि वे लोग समय निकाल पाते| नाना जी के मकान की समस्या भी अभी बीच में उलझी पड़ी थी| चीज़ें बंद पड़ी-पड़ी खराब हो ही जाती हैं| क्या मुसीबत है? पहले जोड़ो फिर उन्हें बाँटने या उनका नामोनिशान मिटाने के लिए परेशान होते फिरो| यही तो हो रहा था, हमारे यहाँ भी यही सब चल रहा था| चीजों को वाइंड-अप करना कितना कठिन है ! पूरे जीवन का श्रम, धन, समय देकर पहले जोड़ना और फिर उसे संभाल न पाना, मुझे यह देखकर भी काफ़ी परेशानी होती थी | आखिर फिर इतने सारे झंझट की ज़रूरत ही क्यों होती है हम मनुष्यों को ? ताउम्र कितना जोड़ते रहते हैं हम ! जिसकी कोई ज़रूरत ही नहीं होती| चीज़ें बाँटने में भी कोई हर्ज़ नहीं लेकिन जिसके उपयोग अथवा रुचि की चीज़ें हों, उसे ही मिलें अन्यथा आपने कबाड़ी को बेचीं अथवा किसी अयोग्य व्यक्ति को दीं, एक ही तो बात है | आप नहीं तो वह उन्हें कबाड़ी को बेच देगा|
शाम का समय था, समय की बात है अम्मा-पापा उस दिन घर पर ही थे| संस्थान में विभिन्न कक्षाएँ चल रही थीं जिन्हें अब फ़ैकल्टी लेती थी | विभिन्न विधाओं के लगभग पंद्रह गुरु संस्थान में आते-जाते रहते थे| कुल मिलाकर लगभग पंद्रह से बीस सैशन चलते थे | रविवार को दो विजिटिंग फ़ैकल्टीज़ आती थीं | वो बाहर जाने वाले ग्रुप को प्रैक्टिस कराने आती थीं| उसमें अम्मा नहीं जाती थीं, उनका काम चलता रहता | कभी ज़रूरत होती तो जातीं अन्यथा कक्षाएं लेने अब वे कम ही जाती थीं| संस्थान के और काम ही इतने होते थे कि वे उनमें फँसी रहतीं| हाँ, उन्हें कई बार मीटिंग्स करनी होतीं जिनमें सबसे चर्चा की जाती| जैसे ऊपर मैं कह चुकी हूँ कि मन करता कि पैकअप कर दिया जाए लेकिन छूटता भी तो नहीं कुछ !
मोह के धागे इंसान को अपने मायाजाल में फँसाए रखते हैं जैसे कोई मकड़ी अपना जाल तैयार करती है, ऐसे ही ज़िंदगी में लगभग हर इंसान अपने लिए जाले खुद ही तैयार करता रहता है जिसमें उसका उलझना स्वाभाविक ही है|
“अक्का ! अप्पा के घर का कुछ तो करना होगा | उसे सफ़ाई करवाकर कब तक रखते रहेंगे ? ”कीर्ति मौसी ने अम्मा से कहा|
अम्मा-पापा में कई बार इस विषय पर चर्चा होती थी लेकिन केवल चर्चा ही, परिणाम अभी तक कुछ नहीं था| ऐसी समस्याओं का परिणाम निकलना आसान नहीं होता| वैसे अम्मा और मौसी--–दोनों को ही किसी प्रकार का कोई लालच तो था नहीं | वैसे नानी अपनी दक्षिण की खूबसूरत ज्वेलरी पहले ही अपनी बेटियों के बच्चों में बाँट गईं थीं | उनकी बहुमूल्य साड़ियाँ उनकी बेटियों के पास थीं | घर के रोज़ाना के जरूरी सामान के अलावा सबसे बहुमूल्य नाना जी की पुस्तकें थीं कि उनका संभाला जाना बहुत मुश्किल था| इसके लिए एक आदमी की ज़रूरत थी जो वहाँ रहकर उन पुस्तकों की देख-रेख करे | लेकिन कब तक ? प्रश्न महत्वपूर्ण था और विकट भी |
अम्मा सिर पकड़कर बैठ गईं| उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था| उनको बस एक ख्याल सा आया कि क्यों न यूनिवर्सिटी में जाकर मिला जाए, जहाँ उनकी पुस्तकों की सही सार-संभाल हो सकेगी और उनके पिता का नाम व सम्मान भी बना रहेगा | नाना जी वहाँ कितने वर्ष पढ़ाने जाते रहे थे| उनका सम्मान भी बहुत था वहाँ|
“कीर्ति ! मैं यू.के ट्रिप कर आऊँ, तब बैठकर इसका कुछ हल निकालते हैं| ” अम्मा ने कहा |
“ठीक है अक्का, फिर शायद हमें भी बिज़ी ---” अचानक वे चुप हो गईं |
“उत्पल !!” उत्पल को देखकर उनके मुँह से अचानक निकला|
“अरे ! आँटी–अंकल----–”उत्पल के चेहरे पर मुस्कान थिरक उठी | वह कमरे के बाहर से मेरे साथ संस्थान की ओर जा रहा था | अभी तक हम पीछे के लॉन में बैठे प्लान डिस्कस कर रहे थे | वह संस्थान की कोई फिल्म बनाकर लाया था और मुझे दिखाने संस्थान के ऑफ़िस ले जा रहा था कि बीच में कीर्ति मौसी की आवाज़ ने उसे रोक लिया था|
हम दोनों कमरे में पहुँच गए थे | उत्पल मौसा जी के पास पहुँच गया|
“आप लोग यहाँ ? ” उसने आश्चर्य से पूछा |
“ये ही तो हम तुमसे पूछना चाहते हैं-----| ”
“आप जानते हैं उत्पल को ? ” अम्मा ने चौंककर पूछा|
“बंगाली परिवार अधिकतर सब परिचित होते हैं न !अधिकतर पूजा के दिनों में देवी के पंडाल में तो मिलना होता ही है वैसे उत्पल तो श्यामल के परिवार को बिलौंग करता है ---लेकिन यहाँ पर कैसे ? यह तो एनीमेशन इंस्टीट्यूट में काम कर रहा था न ! ” कीर्ति मौसी हँसी|
“अब हमारे पास है उत्पल, यहाँ का सब ऑडियो, वीडियो का काम-काज उत्पल ही संभाल रहा है| ” अम्मा ने बताया |
“यह तो बहुत अच्छा है, उत्पल बहुत मेहनती और कर्मठ है –”
“चलें --? ” उत्पल ने मेरी ओर देखा फिर उन लोगों से आज्ञा लेते हुआ कहा;
“आते हैं हम लोग ---”
“क्या ऑफ़िस---? ” अम्मा ने पूछा |
“हाँ, अम्मा---ज़रा नई वाली वीडियो देखकर आती हूँ, उसमें कुछ चेंजेज़ करने होंगे| ”
हम लोग वहाँ से निकल गए थे और सब बैठे हुए परिवार की बातें करते रहे थे|
ऐसे कभी-कभी परिवार के किसी के आ जाने से अम्मा-पापा के चेहरे पर मुस्कान देखने लायक होती थी| हम वहाँ से निकल तो आए थे लेकिन मेरे दिमाग में मॉसी की अधूरी बात चिपककर रह गई थी जो वह कहने जा रही थीं और उत्पल को देखते ही उसका नाम पुकारने के चक्कर में चुप रह गई थीं| क्या कहना चाह रही होंगी वह ? ? मुझे लग रहा था शायद वे अपनी बिटिया अंतरा के बारे में ही कुछ बताना चाहती थीं जो बीच में रह गई थी |