यादों के कारवां में - भाग 10 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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यादों के कारवां में - भाग 10

अध्याय 10


28.साधना


भागदौड़ और शोरगुल से तंग आकर

कभी,मन होता है

पीछा छुड़ाकर इन सबसे

चले जाएं एकांत में,

हिमालय की किसी गुफा-कंदरा में बैठकर,

लीन हो जाएं ध्यान की अतल गहराइयों में,

और

प्राप्त कर लें उत्तर,नए संदर्भों में उन प्रश्नों के,

जिनमें मानवता का हित है,

पर तभी याद आते हैं,

आकाश में श्वेत बादलों की पृष्ठभूमि में

पंक्तिबद्ध होकर उड़ते,

बगुलों के पंखों के समान सफेद वर्दी पहने हुए हार्नविहीन गाड़ियों के निर्माण में देरी और प्रचलन तक,

चौराहे पर दिन भर खड़े यातायात पुलिस के सिपाही,

कानफोडू आवाजों के बीच भी

कर्मरत हैं,शांत और मौन अनवरत,

फिर याद आते हैं,

चिमनियों से निकलते,

गाढ़े काले धुएं के कारण

आकाश में उड़ते बगुलों के, काले पड़ चुके पंखों

के लिए ज़िम्मेदार कारखानों के भीतर,

मशीनों की कानफोडू आवाजों और 50 डिग्री सेल्सियस के तापमान में भी

खटते,काम करते मजदूर,श्रमवीर

कर्मरत हैं, शांत और मौन अनवरत,

जिनके जीवन में पसरी है ,

गाढ़े, काले,जहरीले धुओं से

मीलों तक फैली हुई

गहरी,गाढ़ी,और साबुन के हजार बट्टों से भी

न धोई जा सकने वाली कालिमा,

और,

तब जाना कि

समाज में स्वार्थ,ईर्ष्या, द्वेष, छल,कपट की

कानफोडू आवाजों के बीच भी

प्रिय की संवेदना

और

कभी एक क्षण की सुनी और

आत्मसमाहित प्रेम की ध्वनि के सहारे,

शांत और मौन,चिर कर्तव्यरत रहने में है

हिमालय से भी बड़ी एकांत साधना।



29 .प्रेम के उस लोक में


प्रेम में

कभी रैना नहीं बीतती,

क्योंकि,इश्क में

भेद मिट जाता है,

दिन और रात का

और ख्वाब- हकीकत हो जाते हैं

आपस में गड्डमड्ड

क्योंकि,

प्रेम की दुनिया

इस धरती से ऊपर अलग होती है

जहां होता है

बस निष्कपट,निःस्वार्थ प्रेम

जहां न कोई छोटा है,न बड़ा है

न कोई अहम है,न कोई त्याग का दिखावा है

न कोई अभिव्यक्ति है,न कोई स्वीकृति है

न कुछ 'और' पाना है न 'कुछ' खो देने का डर है

न सदियों का इंतजार है,

न घड़ी भर मिलन की आस में छटपटाता मन है

न आत्मा पर किसी एहसान का बोझ है,

न किसी को कुछ देने का गुमान है,

न नजदीकी है,न बिछड़ने का गम है

उस आनंद लोक में सब कुछ संतुलित है

जहां,

शोर के बीच भी है

सुन लेना मौन ध्वनि

जहां,

कभी हजारों मील की दूरी भी है

दोनों के बीच बने

अदृश्य प्रेम सेतु के कारण

इतने निकट

कि

हाथ बढ़ाकर

थाम सकें इक दूसरे का हाथ

और

प्रिय की खुशी को तत्क्षण महसूस कर

ह्रदय में झूम सकें,

जहां,

प्रिय की आंखों में कष्ट की किसी बदली

से झरती पहली बूंद

को महसूस कर

व्याकुल हृदय उड़कर जा पहुंचे तत्क्षण वहां

कि कालिदास के मेघदूत के संदेसे में

हो जाए न देर

और

यही प्रेमलोक है,

जहां इश्क का भरम भी

है इश्क की पाकीज़गी से कम नहीं

इसीलिए,

है यह

ईश्वर के आनंद लोक का प्रवेश द्वार।


30. संदेसा


प्रिय,

उस दिन होगा क्या,

जिस दिन तुम्हारा संदेश नहीं पहुंचेगा

और

आंखें तकती रहेंगी,

पढ़ने तुम्हारा संदेश,

तब,मुझे सीखना होगा,

हवाओं में बिखरा तुम्हारा संदेश पढ़ पाना

और

पतझड़ में झरते पत्तों को देखकर

यह उम्मीद संजोए रखना

कि फिर आते हैं

नये पत्ते,कभी न कभी

और कोई प्रतीक्षा अंतहीन नहीं होती……..


31. उम्मीदी और ना उम्मीदी में फर्क


उम्मीदी और ना-उम्मीदी में होता है

फ़र्क बस ज़रा सा,

जैसे, बिना लड़े हथियार डाल देने वाले योद्धा के स्थान पर योद्धा संघर्ष करता है आखिरी समय तक, और पलट देता है बाजी,

जैसे, असंभव मान चुकी किसी उपलब्धि को

कुछ लोग बना देते हैं संभव,

अपने परिश्रम,आत्मविश्वास, और पुरुषार्थ से,

जैसे, सबके द्वारा झूठा ठहरा देने पर भी कोई चलता रहता है अपनी राह और एक दिन साबित हो जाता है कि सच क्या है,

जैसे मंझधार में डूब रही कश्ती को अपने बाजुओं के दम पर पार निकाल लेता है कोई,

इसीलिए,हारी बाजी को जीतने,

असंभव को संभव बनाने,

झूठ को सच बना देने,

उम्मीदी और ना-उम्मीदी में होता है

फ़र्क बस ज़रा सा।

डॉ. योगेंद्र ©