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स्वामी प्रभुपाद जी

अभय चरणारविन्द वेदान्त (स्वामी प्रभुुुुपाद, भक्तिवेदान्त स्वामी)

संसार में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ एक से एक महामानव उत्पन्न हुए जिन्होंने संसार को शान्ति का संदेश दिया। अतृप्त व्याकुल मानव को सही मार्ग दिखाया। पथभ्रष्ट लोगों के जीवन में क्रान्ति उत्पन्न की बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गोरखनाथ, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, रैदास जैसे रत्न यहीं पैदा हुए इन लोगों ने तलवार के बल पर अपना संदेश नहीं फैलाया न जुल्म ढाये और न कोई प्रलोभन दिया। फलतः ज्ञान पिपासु और शान्ति की खोज में भटकने वाले लोग इन संतों की शरण में आकर तृप्त हो गये।

आधुनिक युग में परमहंस रामकृष्ण के अनन्य शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम को अपना संदेश सुनाया। वह धर्म परिवर्तन का निमंत्रण या आकर्षण मंत्र नहीं था। लाखों-करोड़ों लोगों के अशान्त हृदय को ठंडक पहुँचाने तथा दिक भ्रमितों को अध्यात्न का मार्ग बताने गये थे। यही वजह है कि महर्षि रोम्या रोलॉ से लेकर सिस्टर निवेदिता तक सभी प्रभावित हुए।

बाद में स्वामी रामतीर्थ, स्वामी अभेदानन्द आदि पश्चिम को पूर्व के अध्यात्म-चिन्तन का संदेश देने गये। इन लोगों की भावधारा से प्रभावित होकर वहाँ के लोगों ने आश्रम स्थापित किये और इन संतों के उपदेशों का प्रचार किया।

इसी उद्देश्य से संपूर्ण पश्चिमी देशों को कृष्ण नाम की महिमा बताने के लिए अभय चरणारविन्द वेदान्त स्वामी गये थे।
कलकत्ता के हरिसन रोड पर स्थित एक भवन में गौरमोहन दे रहते थे। संपूर्ण बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का आज भी व्यापक रूप से प्रभाव है। नवद्वीप से राधाकृष्ण का नाम संगीत भारत के कोने-कोने में गूँजता रहता है जो ब्रज भूमि में जाकर एकाकार हो जाता है। इनके परिवार के लोग राधाकृष्ण के अनन्य पुजारी थे। शुद्ध वैष्णव बंगाली होते हुए भी मत्सभोजी नहीं थे। इसी परिवार में 1 सितम्बर, सन् 1896 ई० को एक बालक ने जन्म लिया। पिता ने बालक का नाम रखा अभयचरण। पिता कपड़े का व्यवसाय करते थे। खाली समय में कृष्ण नाम के संकीर्तन में मशगूल रहते थे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥
यही मंत्र इनके परिवार का इष्ट था। खाली समय में वे चैतन्य चरितामृत पढ़ते थे। यहाँ तक कि गौरमोहन ने अपने लड़के को भी कृष्ण भक्त बना दिया। गौरमोहन चाहते थे कि उनका पुत्र कृष्ण भक्त बने, पर माँ चाहती थी कि मेरा बेटा बैरिस्टर बने पत्नी की इच्छा सुनकर गौरमोहन असंतुष्ट हो गये। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा "बैरिस्टरी पढ़ने के लिए लन्दन जाना पड़ेगा। वहाँ लड़कियाँ इसे फाँस लेंगी‌। लड़का वहाँ जाकर शराब पीने लगेगा। मुझसे यह अधःपतन देखा नहीं जायगा।"

गौरमोहन की पत्नी रजनी देवी के मन में यह बात बैठ गयी। उन्होंने सोचा—पति का अंदेशा सही है। अब गौरमोहन ने अपने पुत्र को कीर्तन में लगा दिया। उसे मृदंग बजाने की शिक्षा दिलाने लगे। अभय की माँ बच्चे के जन्म के समय से ही बायें हाथ से भोजन करने लगी थी ताकि अभय रोग, संकट, अकालमृत्यु से सुरक्षित रहे। जिस दिन बालक बायें हाथ से भोजन करने का कारण अपनी इच्छा से पूछेगा, उसी दिन यह प्रतिज्ञा भंग करेगी।

अभय बचपन से नटखट रहे। हर काम में जिद करना उनका स्वभाव था। लेकिन माँ इस जिद्द के आगे हार स्वीकार नहीं करती थी। अपने दृढ संकल्प से उसे झुका देती थी। फलस्वरूप अभय को विवश हो जाना पड़ता था।

अभय कृष्ण भक्त बन गये थे। खासकर रथयात्रा मेला, रासलीला बड़ी श्रद्धा से देखते थे। घर के समीप एक मंदिर में जाकर घंटों मुग्ध भाव से राधाकृष्ण के विग्रह को देखते। इससे उन्हें अपार आनन्द की अनुभूति होती। अपने बचपन की इन अनुभूतियों का उल्लेख उन्होंने किया है।

पुरी के उत्सव की भाँति बचपन में अपनी छोटी बहन के सहयोग से रथयात्रा उत्सव मनाते रहे। एक छोटे से रथपर कृष्ण, सुभद्रा और बलराम की मूर्तिया बैठाकर अपने मित्रों के साथ खींचते थे। पड़ोसी इस बाल सुलभ रथयात्रा के लिए भोग का प्रबंध करते थे।
इसी प्रकार दिन गुजरते गये जिन दिनों वे कालेज में अध्ययन करते थे, उन्हीं दिनों उनका विवाह हो गया। इनके साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी पढ़ते थे जो एक क्लास
सीनियर छात्र थे। सुभाषचन्द्र अपने अध्ययनकाल से ही अपने हमजोलियों को स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के लिए आह्वान करते थे जिसका प्रभाव अभयचरण पर पड़ता था।

जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड के सिलसिले में गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन छेड़ा। गौरमोहन अपने लड़के को राष्ट्रीयधारा में जुड़ते देख चिन्तित हो उठे। प्रत्यक्ष रूप से वे विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावजूद अभय ने डिप्लोमा नहीं लिया। पिता ने अपने एक मित्र से चर्चा की। वे दवाओं के निर्माता थे। उन्होंने अपनी कम्पनी में अभय को मैनेजर के पद पर नियुक्त कर दिया।
कुछ दिन सामान्य ढंग से गुजर गये। अभय राष्ट्रीयधारा से नहीं जुड़ सके। इनकी कृष्ण-भक्ति देखकर अभय के एक मित्र एक दिन इन्हें गौड़ीय मठ में ले आये जहाँ इनकी मुलाकात भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से हुई।

भक्तिसिद्धान्त के समीप प्रणाम कर ज्योंही दोनों युवक बैठे त्योंही उन्होंने कहा "तुम लोग शिक्षित तरुण हो, क्यों नहीं आम जनता में कृष्ण-नाम प्रचारित करते। महाप्रभु चैतन्य समस्त भारत में यह कार्य करते रहे।"

भक्तिसिद्धान्त की बातें अभय के दिल को लग गयी। उन्हें लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति इस कार्य को करने के लिए उन्हें प्रेरित कर रही है। इसके बाद अभय की भक्तिसिद्धान्त से कृष्ण नाम के बारे में देर तक बातें होती रही। उनके निश्छल और उदार भाव से अभय प्रभावित हुए बिना रह नहीं सके। इन दिनों उनकी उम्र 26 साल की थी। मन ही मन उन्होंने निश्चय किया कि भविष्य में इनसे दीक्षा लूँगा।

भक्तिसिद्धान्त से मिलने के बाद से अभय अब बराबर गौड़ीय मठ में जाने लगे। मठ के शिष्यों और भक्तों से उनका सम्पर्क बढ़ने लगा। यहाँ उन्हें पढ़ने के लिए पुस्तकें प्राप्त हुई और इस प्रकार वे चैतन्य महाप्रभु के चरित्र को अच्छी तरह समझने में सफल हुए।

सन् 1932 में अपने व्यवसायिक कार्य के सिलसिले में इलाहाबाद आये। यहीं उन्हें भक्तिसिद्धान्त सरस्वती से दीक्षा प्राप्त हुई। गुरु ने इनसे कहा "केवल भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में तुम्हें कृष्ण भावना का प्रचार करना है। आज का विश्व पथभ्रष्ट हो गया है, इसीलिए असंतोष की अग्नि में जल रहा है। कृष्ण नाम विस्मरण करने के कारण आज उसकी यह दुर्दशा है।"

इस घटना के बाद से उन्हें अपने दैनिक जीवन में दो कार्य करना पड़ता था। जीविका चलाने के लिए व्यवसाय की देखरेख और दूसरी ओर गुरु द्वारा बताये मार्ग पर चलना पड़ता था। दीक्षा के तीन वर्ष बाद गुरुदेव ने अभय से कहा "कुछ पुस्तकें छपवाने की मेरी इच्छा थी। अगर कभी तुम अर्थ संग्रह कर सको तो यह कार्य करना ।"

अपने निधन के एक माह पूर्व भक्तिसिद्धान्तजी ने अभय के नाम एक पत्र लिखा "जो लोग बंगला या हिन्दी नहीं जानते, ऐसे लोगों के निकट तुम अंग्रेजी में हमारे सिद्धान्तों, चिन्तन तथा भावधारा को तर्क सहित उपस्थित करना मेरा आशीर्वाद है, तुम्हें सफलता मिलेगी और तुम एक महान् धर्म प्रचारक बन सकोगे।"

सन् 1936 में भक्तिसिद्धान्त का तिरोधान हो गया। गुरु की आज्ञा अभय के जीवन का कर्तव्य बन गया। ठीक इन्हीं दिनों द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हुआ। वहीं अभय ने 'बैक दु गाडहेड' नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया।

आर्थिक संकट के कारण पत्रिका का प्रकाशन नियमित रूप से नहीं हो रहा था। इसके बावजूद कृष्ण नाम प्रचार बन्द नहीं हुआ और न उनकी लेखनी ने विश्राम लिया। ठीक इन्हीं दिनों आप श्रीमद्भागवत का अंग्रेजी में अनुवाद करने लगे। धीरे-धीरे वे लेखन कार्य में इस कदर डूब गये कि उनका व्यवसाय समाप्त हो गया। इलाहाबाद वाले मकान में चोरी हो जाने के कारण वे पूर्णतः फकीर बन गये।

अभय का परिवार कलकत्ते में रहता था। ये वहाँ आये। यहाँ एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण उन्होंने पत्नी से अलग हो जाना उचित समझा। भागवत कथा की पाण्डुलिपि बेचकर पत्नी ने बिस्किट खरीदा था। इस घटना से उन्हें गहरी चोट पहुँची। वे कलकत्ता से दिल्ली चले आये। उन्हें विश्वास था कि दानदाताओं के पास जाने पर उन्हें प्रकाशन कार्य के लिए मदद मिलेगी। लेकिन उनकी यह धारणा निर्मूल प्रमाणित हुई। अपनी पत्रिका में लेख लिखते प्रूफ देखते और उसे घर-घर बेचते थे। उन दिनों आपके पास पहनने लायक वस्त्र भी नहीं थे। चाय की दुकानों, होटलों, धर्मशालाओं में जाकर अपनी पत्रिका का प्रचार करते थे। एक प्रकार से वे जिन कठिनाइयों से गुजर रहे थे, उसका वर्णन करना कठिन कार्य है।

दिल्ली में रहना जब असहनीय हो उठा। तब आप वृन्दावन चले आये। नित्य सुबह की गाड़ी से दिल्ली जाकर पत्रिका बेचते और दान माँगते थे। शाम को वृन्दावन वापस आ जाते थे।

वृन्दावन के निवासकाल में एक रात को उन्होंने अदभुत स्वप्न देखा उनके गुरुदेव भक्तिसिद्धान्तजी ने उनसे कहा "अब वह समय आ गया है जब तुम्हें संन्यास ग्रहण करना चाहिए। मेरा आदेश है कि अब तुम शीघ्र संन्यास ले लो"

तभी उनकी आँखें खुल गयी तो उन्होंने अपने आपको अंधेरी कोठरी में पाया। बाद में उनके किसी गुरुभाई ने उनसे कहा "तुम्हारे लिए आवश्यक है कि तुम संन्यासी बनो। बिना संन्यासी बने कोई भी व्यक्ति धर्मोपदेशक नहीं बन सकता।" गुरुभाई के इस कथन पर उन्हें आश्चर्य हुआ। लगा जैसे इनके माध्यम से गुरुदेव आदेश दे रहे हैं।

अन्त में उन्होंने विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण किया। संन्यास लेने के पश्चात् आपका नया नामकरण हुआ—अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी।

कुछ दिनों बाद एक पुस्ताकाध्यक्ष ने आपको सलाह दी कि पत्रिका प्रकाशित करने से कोई लाभ नहीं होगा। इससे अच्छा है कि आप पुस्तकें लिखें। पत्रिकाएँ पढ़कर फेंक दी जाती हैं और लोग उन सारी बातों को भूल जाते हैं। पुस्तकें स्थायी महत्व की चीजें होती हैं।

अभयजी के मन में यह बात घर कर गयी। उन्होंने निश्चय किया कि वे श्रीमद्भागवत का अनुवाद करते रहेंगे। उन्हें यह ज्ञात था कि यह कार्य सरल नहीं है। कम-से-कम पाँच-छह वर्ष इस कार्य में लग जायेंगे। एक ओर उनका अनुवाद कार्य चलता रहा, दूसरी ओर अपनी आध्यात्मिक साधना करते रहे। अब घर से कम निकलते थे। खाली समय में ध्यान, जप और पूजा करते रहे। अपने कमरे में उन्हें 'कृष्णदास कविराज' द्वारा पूजित कृष्ण मूर्ति के दर्शन होते थे। साथ ही उन्हें अनुभव होता कि उनके इस कार्य में वृन्दावन बिहारी उन पर कृपा-वर्षा कर रहे हैं। यह वह भवन था जहाँ पन्द्रहवीं शताब्दी के संत रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रघुनाथ गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि निवास करते थे। इन संतों के निवास का प्रभाव उस कक्ष में पड़ रहा था। पास ही स्थित रूप गोस्वामी की समाधि पर जाकर प्रार्थना करते कि मुझे अपने कार्य में सफलता मिले, ऐसा आशीर्वाद देने की कृपा करें।

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इतने बड़े ग्रंथ को कौन प्रकाशित करेगा। साठ खण्डों का यह बृहद ग्रंथ छापना और बेचना एक कठिन समस्या थी। प्रकाशकों के दरवाजे खटखटाने पर भी उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि वे स्वयं प्रकाशित करेंगे। इस कार्य के लिए उन्होंने दान लेना प्रारंभ किया।

जिस वक्त प्रथम खण्ड छपकर तैयार हुआ, उस वक्त वे अन्तिम खण्ड लिख रहे थे। जिस प्रकार वे अपनी पत्रिका द्वार द्वार पर जाकर बेचते थे, उसी प्रकार इसे बेचने लगे। विद्वानों ने इनकी कृति की जमकर प्रशंसा की। सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डा जाकिर हुसैन, लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथदास (राज्यपाल, उत्तर प्रदेश) ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। लेकिन पुस्तकें मंदगति से बिकती रही।

अभयजी ने हिम्मत नहीं हारी। अपने कार्य में लगे रहे। किसी प्रकार दान आदि लेकर तृतीय खण्ड उन्होंने प्रकाशित किया। इस खण्ड के प्रकाशन के साथ ही विद्वानों में इनकी चर्चा होने लगी।

इसी बीच रूप गोस्वामी की समाधि के समीप प्रार्थना करते समय उन्हें अपरोक्ष रूप से आदेश हुआ "पाश्चात्य देशों में शीघ्र जाओ और कृष्ण नाम का प्रचार करो"

यह आदेश पाते ही भागवत के प्रकाशन से दिलचस्पी हट गयी। अब वे गुरु की आज्ञा के अनुसार विदेश यात्रा के लिए तत्पर होने लगे। सम्बलहीन व्यक्ति की विदेश यात्रा करना, एक प्रकार से आसमान से तारे तोड़ लाने के बराबर था अपने परिचितों से इस बात की चर्चा बराबर करते थे। इन मित्रों में एक अग्रवाल साहब थे जिनका पुत्र पेन्सेल्वेनिया में इंजीनियर पद पर था। उन्होंने कहा कि मैं अपने लड़के को पत्र लिख रहा हूँ। वह अमेरिका में आपका जमानतदार रहेगा।

इस प्रकार वीजा, पासपोर्ट, जमानतदार की समस्याएँ हल होती गयीं। अब केवल यात्रा व्यय का प्रश्न बाकी रह गया। अभय स्वामी का प्रभाव श्रीमती सुमति मोरारजी पर था। पुस्तक बेचने के सिलसिले में उनसे परिचय हुआ था। इस उदार महिला ने पहले यात्रा के लिए निषेध किया, पर अभय स्वामी के दृढ निश्चय को देखकर उन्होंने उनकी यात्रा के लिए प्रबंध कर दिया। श्रीमती मोरारजी सिंधिया स्टीमशिप लाइन की अध्यक्षा थी और उनके जलयान संसार के सभी देशों की यात्रा करते थे।

अध्यक्षा ने 'जलदूत' जहाज को हिदायत दी थी कि स्वामीजी हमारे खास मेहमान है। शुद्ध शाकाहारी हैं। इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाय कि उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो। इनके लिए पर्याप्त फल और सब्जियां यहीं से खरीद ली जायें। उन्हें कोल्ड स्टोरेज कर दिया जाय ताकि मार्ग में कहीं भी कमी न पड़े। 'जलदूत' के कप्तान श्री अरुण पण्डया ने अपनी स्वामिनी को आश्वासन दिया कि आपके सभी निर्देशों का पालन किया जायगा। स्वामीजी हमारे अतिथि के रूप में रहेंगे।

स्वामीजी को यह ज्ञात था कि अमेरिका के निवासी क्या खाते हैं, इसलिए अपने साथ पर्याप्त मात्रा में दलिया ले जा रहे थे। साथ में एक बक्सा और छाता था। उनकी यह यात्रा
13 अगस्त, सन् 1965 ई० में प्रारंभ हुई थी।

ठीक दसवें दिन आप 'सी-सिकनेस' यानी समुद्री यात्रा की बीमारी से पीड़ित हुए सिर दर्द, चक्कर, वमन, अजीर्ण के शिकार हो गये। इसी बीच दो बार दिल का दौरा पड़ा। जहाज के कप्तान से लेकर अधिकांश कर्मचारी आपकी सेवा में लग गये। उसी रात को आपने स्वप्न देखा कि एक नाव पर वृन्दावन बिहारी श्रीकृष्ण बैठे डाँड़ चला रहे हैं। श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर उन्हें संतोष हो गया कि खतरा टल गया। अब उनकी यात्रा निर्विघ्न होगी। जिस व्यक्ति की सहायता स्वयं श्रीकृष्ण कर रहे हैं, उसे किस बात का डर?

सबेरे नींद खुली। नित्य क्रिया से खाली होने के बाद उन्होंने अनुभव किया कि उनकी सारी बीमारी दूर हो गयी है। अब वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। कप्तान को यह देखकर आश्चर्य हुआ आखिर रात को ऐसा कौन-सा चमत्कार हो गया ? उसे स्वामीजी की शक्ति के बारे में कुछ ज्ञान हुआ। "निस्सन्देह इन बाबा में कोई शक्ति है वर्ना जिसे दो बार हार्ट अटैक हुआ, वह इस वक्त अपना तेजस्वी चेहरा लिए डेकपर मधुर मुस्कान न बिखेरता।"

1 सितम्बर को स्वेज नहर में 'जलदूत' ने प्रवेश किया और पुनः आगे रवाना हुआ। 10 सितम्बर के दिन कप्तान श्री अरुण पण्डया इनके केबिन में आया और कहा "अब तक मैं संसार के कई चक्कर लगा चुका हूँ। अपने गर्व के लिए क्षमा चाहता हूँ कि कभी भी मैंने अटलांटिक सागर को इतना शान्त नहीं देखा जितना इस बार की यात्रा में देख रहा हूँ। अटलांटिक सागर के उपद्रव से हर कप्तान बुरी तरह घबरा जाता है। मेरी समझ से अपनी बीमारी की तरह आपने अवश्य इस सागर को शान्त बनाया है। यह आप ही का चमत्कार है जो जहाज निर्विघ्न रूप से अटलांटिक सागर पर चल रहा है।"

स्वामीजी अपनी मोहक मुस्कान से कप्तान को प्रभावित करते हुए बोले "कप्तान साहब, मेरे जैसे अकिंचन में यह कहाँ है ? यह तो मेरे गुरु की कृपा है जिनकी आज्ञा का पालन करने जा रहा हूँ। उस वृन्दावन बिहारी की माया है। मैं तो आप लोगों की तरह सामान्य व्यक्ति हूँ।"

जहाज के सभी कर्मचारी भी चकित थे कि आखिर अटलांटिक इस बार इतना शान्त क्यों है। श्रीमान पण्डया ने स्वामीजी से अनुरोध किया "हम सब का अनुरोध है कि जब हमारा जहाज अमेरिका से वापस आने लगे तब आप इसी 'जलदूत' से वापस आयें। आपके रहने से हमारी यात्रा निर्विघ्न होगी। इसके लिए हम कृतज्ञ रहेंगे।"

अपनी मुस्कान की सम्मोहन शक्ति से श्रीमान पण्डया को प्रभावित करते हुए स्वामीजी ने कहा था "मैं तो अमेरिका में दो माह रहने के लिए जा रहा हूँ। 'जलदूत' से वापस आ सकूँगा या नहीं, इसे मेरे प्रभु श्रीकृष्ण ही बता सकते हैं। उनकी गति-मति की जानकारी मुझे नहीं है।"

17 सितम्बर को जहाज बोस्टन पहुँच गया 19 सितम्बर को वे न्यूयार्क बन्दरगाह पर उतर गये। उस वक्त उनके पास चालीस रुपये थे। बीस डालर कप्तान को भागवत के तीन खण्ड बेचकर प्राप्त किये थे।
बन्दरगाह पर उन्हें यात्री सहायक मिला जिसके निर्देश पर वे बस की सहायता से बटलर आये। यहाँ उन्हें गोपाल अग्रवाल के यहाँ ठहरना था।

बटलर के यहाँ रहने पर उन्हें पर्याप्त अमेरिकी जीवन का ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्हें यह देखकर संतोष हुआ कि यहाँ शाकाहारी भोजन आसानी से प्राप्त हो जाता है। वे अमेरिका में किस उद्देश्य से आये हैं, इस बात का समाचार स्थानीय पत्रों में छपा जिसमें इन्हें 'भक्तियोग का राजदूत' लिखा गया था। स्वामीजी का कहना है "ईश्वर हजारों भिन्न रूपों वाले समस्त जीवों का पिता है। विकास क्रम में मानव-जीवन पूर्णता की अवस्था है। यदि हम ध्येय को ग्रहण करने से चूके तो इस प्रक्रम से पुनः गुजरना होगा।"
“भक्तिवेदान्त स्वामी गेहुएँ रंग के हैं जो गेरुए रंग का वस्त्र पहनते हैं यानी भिक्षुक की तरह रहते हैं। यहाँ अपना भोजन स्वयं पकाकर खाते हैं। पूर्ण शाकाहारी हैं। उनका कहना है कि अमेरिकी लोग अगर आध्यात्मिक जीवन की ओर ध्यान दें तो वे अधिक सुखी हो सकते हैं।"

भक्तिवेदान्त स्वामी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अमेरिका जैसे समृद्ध देश में भी अनेक असंतुष्ट युवक हैं। यहाँ के भौतिक सुख में वे घुटन अनुभव कर रहे हैं। अधिकांश लोगों पर विषाद के लक्षण हैं। वे नशे के शिकार हो गये थे। आखिर क्यों? वे क्या चाहते हैं ?

स्वामी जी निराश नहीं हुए। हिप्पी के नाम से मशहूर इन दिग्भ्रमित युवकों में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने का उन्होंने व्रत लिया। बावरी इलाके में हिप्पियों की घनी बस्ती है। यहीं से उनकी साधना प्रारंभ हुई।

दो-एक युवकों को अपना अनुगत बनाने के बाद उन्होंने होवर्ड नामक युवक से कहा "तुम अपने मित्रों को कीर्तन मण्डली में ले आओ। मैं उन्हें शान्ति दूंगा। उन्हें प्रकाश दूँगा।"

होवर्ड अपने साथियों को लेकर आया। स्वामीजी चटाई पर बैठ गये। लोगों को कई जोड़े मजीरे बाँट दिये गये। साथ ही एक-दो-तीन के साथ सभी मजीरे बजने लगे। साथ ही 'हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' की ध्वनि गूंजने लगी। स्वामीजी की मंडली जब कई बार गा चुकी तो उपस्थित लोगो से भी निवेदन किया गया कि वे भी इसे गाये। कुछ लोगों ने गाना शुरू किया और बाद में सभी गाने लगे।

ये सभी गायक साधारण नहीं, असाधारण थे। जो एल० एस० डी०, पियोट तथा अन्य नशा करते थे। स्वभाव के अत्यन्त उग्रवादी और गन्दे रहन-सहनवाले थे। ऐसे ही युवकों को लेकर भक्तिवेदान्त स्वामी ने एक नयी संस्था को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया "इस्कान'। उस समय किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि आगे चलकर 'इस्कान' अन्तरराष्ट्रीय संस्था बन जायगी। संसार के अधिकांश देशों में रामकृष्ण मिशन की तरह शाखाएँ स्थापित होंगी।

इस संस्था के सात नियम बनाये गये जिसका मुख्य उद्देश्य था आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करना। कृष्ण भावना का प्रचार करना। कीर्त्तन करना आदि। जो लोग इस धर्म में दीक्षित होते थे, उनके लिए चार नियम बनाये गये थे।
1) मांसाहार न करना।
2) अवैध यौनाचार न करना।
3) मादक द्रव्य सेवन न करना।
4)जुआ न खेलना। जबकि हिप्पी इन सभी आदतों के शिकार थे। लेकिन इसके बावजूद भक्तिवेदान्त स्वामी का प्रभाव बढ़ता गया और लोग 'इस्कान' में शामिल होकर इस धर्म का प्रचार करने लगे। यह स्वामीजी की बहुत बढ़ी उपलब्धि थी। वे भगवान् बुद्ध की तरह लोगों से कहते थे—मेरे पास आओ। मैं तुम्हें शान्ति दूंगा ज्ञान दूंगा— भक्ति और मुक्ति दूंगा।

दीक्षा के दिन वे यज्ञ करते और नये बटुकों का मुण्डन करवाते केवल शिखा रखवाते थे। बटुक काषाय वस्त्र धारण करते थे। उनका पूर्वनाम बदल जाता था। कीथ का नाम कीर्तनानन्द, स्टेव का सत्यस्वरूप, ब्रूस का ब्रह्मानन्द तथा चक का अच्युतानन्द रखा गया।

अब तक अनेक हिप्पी और अन्य लोग इस संस्था के प्रति आकर्षित नहीं हुए थे। लेकिन जब उन्होंने यह देखा कि 'हाउल' का विश्व विख्यात लेखक, 'बीट' पीढ़ी का अग्रणी व्यक्ति एलेन गिन्सबर्ग भी 'इस्कान' में प्रवेश कर रहा है तब वे अपने अनजाने आकर्षित हुए एलेन गिन्सबर्ग जिन दिनों भारत आया था, उन दिनों प्रयाग में लगे कुंभ मेले में उसने 'हरे कृष्ण' कीर्तन सुना था और उससे प्रभावित हुआ था। एलेन गिन्सबर्ग ही वह व्यक्ति था जिसने 'लोवर ईस्टसाइड' के नवयुवकों को अपने कारनामों से प्रभावित किया था। अधिकतर अमेरिकी युवक उसके मुक्त यौनाचार, मेरिजुआना तथा एल० एस० डी० के प्रति समर्थन, उसके राजनीतिक विचार, उसके द्वारा पागलपन की खोज, विद्रोह, नग्नता आदि से प्रभावित थे। आज उसे यहाँ आते देख सभी चकित रह गये।

उस दिन वह स्वामीजी के साथ कीर्त्तन में शामिल हुआ और कहा "धर्म निरपेक्ष तो है ही, किन्तु हरे कृष्ण की सानी नहीं।"

उन दिनों अमेरिका के उस क्षेत्र में खुलेआम हर तरह की नशीली चीजें बिकती थीं जिसके शिकार ये लोग थे स्वामीजी ने इन्हें बताया कि एल० एस० डी० पियोट, कोकिन, हीरोइन आदि से अधिक मादक नशा हरे कृष्ण कीर्तन में है। कुछ दिन करके देखो, स्वतः अनुभव करोगे।
शंकित युवक पूछते– “क्या यह सच है ?"
स्वामीजी ठंढ़े स्वर में कहते "हाँ यहाँ जितने शिष्य हैं, वे इसके प्रमाण हैं। उनसे पूछ लो"
वह युवक उद्भ्रांत दृष्टि से चारों ओर देखता रहा। ऐसे अशान्त नवयुवकों से उनका हमेशा सामना होता था और वे अपने शिष्यों को लेकर कीर्तन करने लगते थे।

धीरे-धीरे हरे कृष्ण कीर्तन लोकप्रिय होता गया पार्कों और सड़कों पर कीर्त्तन होने लगे। समाचार पत्रों में इस बात की चर्चा होने लगी 'हयग्रीव' पत्र ने इसे "हरे कृष्ण
विस्फोट" नाम दिया 'लोवर ईस्ट साइड' ने हिप्पी कीर्तन को "सबसे संधियुक्त घटना" कहा। आश्चर्य इस बात का था कि 'इस्कान' में सहयोग करने वाले अब नशा मुक्त होते जा रहे थे।
हरे कृष्ण कीर्त्तन उन्हें एल० एस० डी० आदि से मुक्त कराता गया। लेकिन कभी-कभी ऐसे प्रश्न उपस्थित हो जाते थे जो भारतीय परम्परा के अनुसार गुरु या श्रद्धेय व्यक्तियों से नहीं पूछा जाता था। मगर अमेरिकी संस्कृति में ये सब सामान्य बातें थीं। ऐसे प्रश्नों से भक्तिवेदान्त स्वामी संकुचित नहीं होते थे।

'इस्कान' के अटार्नी स्टेवे गोल्डस्मिथ ने एक दिन प्रश्न किया की संभोग संबंध में आपका क्या मत है ?"
स्वामीजी ने कहा— "संभोग केवल अपनी पत्नी के साथ करना चाहिए और वह भी संयम के साथ संभोग तो कृष्ण भक्त सन्तान चलाने के लिए है। मेरे गुरु कहा करते थे कि कृष्ण भक्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए मैं सैकड़ों बार संभोग करने को तैयार हूँ। किन्तु इस युग में यह कठिन है, इसलिए वे ब्रह्मचारी रहे।"
गोल्डस्मिथ ने पूछा— "काम वासना तो प्रवल शक्ति है। स्त्री के लिए मनुष्य जैसा अनुभव करता है, उसे इनकार नहीं किया जा सकता।"
स्वामीजी ने कहा— "इसीलिए तो प्रत्येक संस्कृति में विवाह का विधान है। आप अपना विवाह करके एक स्त्री के साथ शान्तिपूर्वक रह सकते हैं, किन्तु इन्द्रिय-तृप्ति के लिए पत्नी का उपयोग किसी मशीन की तरह नहीं होना चाहिए। संभोग मास में केवल एक बार किया जाय और वह सन्तानोत्पत्ति के लिए।"
गोल्डस्मिथ ने कहा— "तब तो इसे भुला दिया जाय"
स्वामीजी ने हँसकर कहा— "यह अच्छी बात है। सबसे अच्छा है कि इस विषय पर सोचा न जाय और हरे कृष्ण का जप किया जाय।" इतना कहने के पश्चात् वे माला फेरने लगे।

स्वामीजी ने भारतीय परम्परा निबाहने के लिए यह निश्चय किया कि प्रीतिभोज का आयोजन किया जाय। वे अपने शिष्यों को भोजन बनाना सिखाते थे। हलवा, दाल, सब्जियाँ,
भात, पूरियाँ, समोसे, पोलाव, सेव की चटनी, गुलाब जामुन बनाने की तरकीब बताते थे। प्रीतीभोज में लोग चटखारे लेकर खाते रहे। खासकर गुलाब जामुन में उन्हें अपूर्व स्वाद मिलता।

स्वामीजी की एक अर्से से इच्छा थी कि वे जिस पत्रिका का संपादन-प्रकाशन करते थे, उसका प्रारंभ यहाँ से किया जाय। यहाँ अर्थ और कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी। 'बैक टू गाडहेड' के प्रकाशन-संपादन का भार दो शिष्यों को देकर वे श्रीमद्भागवत के अनुवाद में व्यस्त हो गये। एक बार जब उन्होंने न्यूयार्क से सैनफ्रांसिस्को जाने का निश्चय किया तो उनके शिष्यों में हलचल मच गयी। गुरुदेव हमें छोड़कर एक अनजाने स्थान में जा रहे हैं।

भक्तिवेदान्त स्वामी ने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं तुम लोगों को छोड़कर नहीं जा रहा हूँ। मैं यहाँ जिस उद्देश्य को लेकर आया हूँ, उसे पूरा करना है। तुम लोग इस मठ का कार्य
आसानी से चला सकते हो। फिर मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा। वृक्ष मैने लगा दिया है और अब उसे जीवित रखना तुम्हारा कार्य है।

जब वे सैनफ्रांसिस्को के हवाई अड्डे पर उतरे तब यहाँ आये संवाददाताओं ने उन्हें घेर लिया। तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे। एक ने पूछा "आपके आन्दोलन का सदस्य बनने के लिए क्या-क्या करना होता है ?"
स्वामीजी— “चार नियम है। मैं अपने शिष्यों को कुमारी मित्र बनाने की अनुमति नहीं देता मैं सभी प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन, इनमें काफी, चाय, सिगरेट भी शामिल है, वर्जित है। मैं शिष्यों को मांसाहार करने नहीं देता और जुआ खेलने से रोकता हूँ।"

स्वामीजी के यहाँ आने का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि उस रात को उनके आगमन का दृश्य वहाँ के टेलीविजन पर दिखाया गया। दूसरे दिन 'एक्जामिनर' नामक पत्र ने छापा 'हिप्पियों का स्वामीजी को निमंत्रण' सैनफ्रांसिस्को के सबसे बड़े दैनिक 'क्रोनिकल' ने छापा 'हिप्पी प्रदेश में स्वामी— पवित्रात्मा द्वारा सैनफ्रांसिस्को मंदिर का उद्घाटन।'

यहाँ भी उनका कीर्तन समारोह प्रारंभ हो गया। एलेन गिन्सबर्ग अपने तमाम साथियों को लेकर आया था। स्वामीजी को यह देखकर हर्ष हुआ कि भले ही सभी नशीली दवा खाये
हुए हैं, पर वे कीर्तन में रम गये हैं। न्यूयार्क में भी यही स्थिति थी। धीरे-धीरे वहाँ सुधार हुआ था।

एक अर्से तक कीर्तन तथा जप की शिक्षा देने के बाद स्थानीय लोगों ने स्वामीजी से आग्रह किया कि अब हमें दीक्षा देकर 'इस्कान' का स्थायी सदस्य बना लें। स्वामीजी अभी दीक्षा देना नहीं चाहते थे। उसे स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार न कर उन्होंने एक दिन प्रार्थना सभा में कहा "दीक्षा लेने पर शिष्य को मोक्ष प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए गुरु उत्तरदायी रहता है, इसीलिए महाप्रभु चैतन्य ने आगाह किया है कि गुरु को चाहिए कि वे अधिक शिष्य न बनायें।"

इस घटना के कुछ दिनों बाद एक पुरुष ने पूछा "क्या मैं दीक्षित हो सकता हूँ।"
इस प्रश्न पर शिष्य उससे कुछ कहते, उसके पहले ही स्वामीजी ने कहा "क्यों नहीं। लेकिन मेरे प्रश्नों का उत्तर पहले दो। बताओ, कृष्ण कौन है ?
"कृष्ण ईश्वर है।"
स्वामीजी ने कहा "ठीक। तुम कौन हो?"
उस व्यक्ति ने कहा "मैं ईश्वर का दास हूँ।"
तब स्वामीजी ने कहा "बहुत अच्छे कल तुम दीक्षित हो सकते हो।"

भारतीय पद्धति से खाना बनाना, कीर्त्तन करना, ध्यान करना आदि सिखाने के बाद स्वामीजी पूजा करने की पद्धति सिखाने लगे। तेल या कपूर मिला नहीं, इसलिए वे मोमबत्ती से आरती करवाने लगे। आरती की थाली जब उनके पास आयी तब उन्होंने उसकी लौ की और हाथ बढ़ाकर मस्तक को स्पर्श किया। बाद में कहा "उपस्थित सभी लोगों के पास ले जाओ। सभी लोग इस लौ को छू सके।"

पुराने शिष्य इस नियम को जानते थे हरिदास जब मोमवती वाली थाली लेकर आगे बढ़ा तो कुछ लोगों ने उसमें सिक्के डाले। यह देखकर अन्य अनजान व्यक्तियों ने ऐसा ही किया। इस प्रकार स्वामीजी क्रमशः तिलक लगाना, साष्टांग प्रणाम करना, अंगन्यास-करन्यास करना सिखाते गये। यहाँ तक भजन-पूजन के बाद प्लेटों में लोगों को प्रसाद दिये गये। प्रसाद में समोसा, हलवा, पूरी, चावल और कई तरकारियों के अलावा चटनी तथा मिठाइयाँ थीं। भक्तों ने उसे खाया। उनके लिए यह नये स्वाद की वस्तु थी।

सैनफ्रांसिस्को में 'इस्कान' की शाखा स्थापित करने के बाद एक दिन वे स्वदेश के लिए रवाना हो गये। यह 25 जुलाई सन् 1967 की घटना है। साथ में कीर्तनानन्द या जिसका सिर घुंटा हुआ था।

दिल्ली की सड़कों पर कार से गुजरते हुए स्वामीजी कीर्तनानन्द को स्थानों के बारे में बता रहे थे टैक्सी छिपीवाड़ा के एक सूनसान स्थान पर रुक गयी। रात का वक्त था। चारों ओर सघाटा था। स्वामीजी को टेंट से चालीस रुपये निकालते देख टैक्सी वाले ने झपटकर ले लिया। स्वामीजी ने प्रतिवाद किया तो उसने कहा "इतना ही किराया हुआ।"

स्वामीजी ने कहा "हवाई अड्डे से यहाँ तक के बीस से कम होते हैं।"
लेकिन सुनता कौन है? दिल्ली इस दृष्टि से काफी बदनाम शहर है। टैक्सीवाला अपनी कार लेकर चला गया। इस वक्त पुलिस की सहायता भी नहीं मिल सकती थी। पास ही
राधाकृष्ण का मंदिर था। स्वामीजी वहीं आकर ठहरे। पुनः कई दिनों बाद वृन्दावन चले आये। दिल्ली में रहते समय स्वामीजी को ब्रह्मानन्द का एक पत्र मिला था जिसमें यह सूचना दी गयी थी कि अमेरिका की सबसे बड़ी प्रकाशन संस्था 'मैकमिलन' उनकी 'भगवद्गीता' छापने को तैयार है। यह एक सुखद समाचार था। अनेक वर्षों की तपस्या अब फल देने को तैयार हो गयी है। पहले स्वामीजी की इच्छा जापान या भारत से छपाने की थी, पर इस संदेश को पाते ही वे राजी हो गये।

वृन्दावन में कुछ दिनों तक रहने के बाद स्वामीजी पुनः अमेरिका लौट आये। सैन-फ्रांसिस्को में कुछ दिन रहने के बाद लॉसएंजिल्स गये, जहाँ इनके शिष्यों ने एक मंदिर बनवाया था। वहाँ से बोस्टन गये, जहाँ 'इस्कान' की एक शाखा स्थापित हो चुकी थी। इस प्रकार अमेरिका में लगातार एक के बाद एक इस्कान की शाखाएँ स्थापित होती रहीं। यहीं पर स्वामीजी ने 'प्रभुपाद' नाम ग्रहण किया।

अमेरिका में हरे कृष्ण आन्दोलन की सफलता से स्वामीजी काफी प्रसन्न थे। अब उन्होंने निश्चय किया कि इसका प्रचार यौरोप के अन्य देशों में हो। सबसे पहले उनकी दृष्टि इंग्लैण्ड की ओर गयी। उन्होंने अपने अमेरिकन शिष्य सर्वश्री मुकुन्द और श्यामसुन्दर को लन्दन में जाकर 'इस्कान' केन्द्र स्थापित करने का आदेश दिया।

हरे कृष्ण आन्दोलन से प्रभावित होकर एक दिन हेनरी फोर्ड का नाती यहाँ आया। एक ही दिन की बातचीत से वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने प्रभुपाद से दीक्षा ले ली। उसका नाम रखा गया–'अम्बरीष दास' प्रभुपाद जिसे दीक्षा देते थे, उसके पैतृक नाम को बदल देते थे। कृष्ण भावना संघ का यह नियम था।

मुकन्द और श्यामसुन्दर लन्दन में 'इस्कान' केन्द्र स्थापित करने गये। यहाँ उन्होंने बीटल्सों के प्रमुख जार्ज हैरिसन से मुलाकात की। दरअसल इंग्लैण्ड में बीटल सम्प्रदाय का वही एक प्रकार से प्रतिष्ठाता था। उसने इन लोगों से कहा "मेरे पास हरे कृष्ण चित्रावली थी जिसमें प्रभुपाद अपने शिष्यों से हरे कृष्ण कीर्तन करा रहे थे। इसका रिकार्ड मेरे पास था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि आज से दो वर्ष पहले जब हम ग्रीस में यात्रा कर रहे थे तब हम इस रिकार्ड को बजाते रहे। तुम लोगों से मुलाकात होने के काफी पहले से मैं इस कीर्तन से परिचित रहा। मैं प्रभुपाद को भी जानता हूँ। इस सम्प्रदाय के लोगों को न्यूयार्क और लासएंजिल्स की सड़कों पर कीर्तन करते देखा है। भारत की यात्रा कर आने के कारण इनकी वेष-भूषा से भी परिचित हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि अन्य दलों की अपेक्षा ये लोग अधिक संयम बरतते हैं।"

जार्ज ने यह भी बताया कि आजकल वह भारत के ही महेश योगी द्वारा प्रदत्त एक मंत्र का अभ्यास कर रहा है।
श्यामसुन्दर को इस बात की प्रसन्नता हुई कि लन्दन में बीटलों के एक प्रमुख व्यक्ति से उसका परिचय हुआ। उसके माध्यम से श्यामसुन्दर अपना कार्यक्रम आगे बढ़ाता गया। महेश योगी के मंत्र ने उसे वह शान्ति नहीं दी जिसकी तलाश में जार्ज परेशान था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगर जार्ज की सहायता न मिलती तो लन्दन में 'इस्कान' की शाखा खोलना और वहाँ राधाकृष्ण मन्दिर स्थापित करना कठिन हो जाता। श्यामसुन्दर ने अपने गुरु भाइयों मुकुन्द, गुरुदास, मालती, यमुना और जानकी की सहायता से लन्दन में 'इस्कान' की शाखा खोल दी।

कृष्ण भावना संघ यानी प्रभुपाद के 'इस्कान' की यह सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उन्हें लगा जैसे इस सत्कार्य के लिए भगवान् कृष्ण, महाप्रभु चैतन्य और गुरुजी सहायता कर रहे हैं। प्रभुपाद को ज्ञात था कि अमेरिका के हिप्पी बहुत उग्रवादी हैं। उन्हें वश में करना साधारण बात नहीं है। हिंसा उनके लिए साधारण बात थी। समाज के लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं और भयभीत रहते हैं। इंग्लैण्ड में भी बीटलों की यही स्थिति थी। वे विटनिक के नाम से जाने जाते थे। इन्हें प्रभु के दरबार में लाना तब सहज हो गया जब जन साधारण अपने आप आकृष्ट हुए।

प्रभुपाद ने निश्चय किया कि अब वे विश्व भ्रमण करेंगे। अशान्त, विक्षिप्त तथा समाज के उपेक्षित वर्ग को हरे कृष्ण आन्दोलन से जोड़ेंगे भारत में आकर उन्होंने बम्बई, कलकत्ता, सूरत, हैदराबाद, हरिद्वार, आसाम, बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, उड़ीसा, महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, गोवा आदि स्थानों का दौरा किया और शिष्यों के माध्यम से इन प्रान्तों में कृष्ण भावना संघ की स्थापना की।

विदेशों में उन्होंने कनाडा, इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड, इटली, आस्ट्रेलिया, हसलैण्ड, ग्रीस, स्पेन, डेनमार्क, स्वीडेन, फिनलैण्ड, पश्चिमी जर्मनी, पोर्तुगाल, नार्वे, फ्रांस, बेलजियम आस्ट्रिया, स्वीट्जरलैण्ड, न्यूजीलैण्ड, फिजी द्वीप, ब्राजील, मैक्सिको, कोलम्बिया, पेरू, अर्जेनटाइना, बोलविया, चिली, गुआना, उरुगुए, पनामा, पूर्वी द्वीप समूह, ईरान, इजरायल, थाइलैण्ड, हाँगकाँग, इण्डोनेशिया, नेपाल, जापान, घाना, नाइजेरिया, केनिया, जिम्बाबवे आदि देशों में 'इस्कान' की शाखाएँ स्थापित की केवल खाड़ी देशों तथा साम्यवादी देशों में उन्हें सफलता नहीं मिली। वस्तुतः इन देशों के नागरिक खुले दिमाग के नहीं थे।

प्रभुपाद का कहना था "ईश्वर है। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, कुछ कहते है कि वह निर्गुण या शून्य है यह बकवास है। मैं इन बेहूदों को सिखाना चाहता हूँ कि ईश्वर है। यही मेरा लक्ष्य है। कोई भी मेरे पास आये, मैं सिद्ध कर दूंगा कि ईश्वर है। यही मेरा कृष्णभावनामृत आन्दोलन है। नास्तिकों के लिए यह चुनौती है। जिस प्रकार हम एक-दूसरे के सामने हैं, अगर आप निष्ठावान है तो ईश्वर को प्रत्यक्ष देख सकते हैं।"

'इस्कान' की आय रेकर्डों की बिक्री तथा पुस्तक प्रकाशन से होती थी। केवल इंग्लैण्ड में दो दिनों के भीतर सत्तर हजार रेकर्डों की बिक्री हुई थी। अंग्रेजी में आपकी पुस्तकों की ४,३४,५०,००० प्रतियाँ बिक गयी थीं। रूसी भाषा सहित २३ भाषाओं में आपकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों की संख्या ५,५३,१४,००० थीं। भगवद्गीता के प्रकाशन के लिए ७६ रेल डिब्बों में कागज ले जाया गया था।

अमेरिका में आपके विरुद्ध उन लड़कों के माता-पिता ने मुकदमा दायर किया जो 'इस्कान' के सदस्य बनकर सड़कों पर हरे कृष्ण गाते हुए नाचते थे। आपके ऊपर दो चार्ज लगाये गये। अवैध बन्दीकरण तथा जान बूझकर अपहरण उच्चन्यायालय के जज ने अपने फैसले में लिखा—"हरे कृष्ण आन्दोलन वैध धर्म है जिसकी जड़ें भारत में हजारों वर्ष पूर्व से जमी हुई है।"

श्री अभयाचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी ने अपने जीवन में आठ बार विश्वभ्रमण करते हुए हरे कृष्ण आन्दोलन को सार्थक किया। वर्तमान युग के वे एक तरह से चैतन्य महाप्रभु के अवतार थे। विश्व में 'इस्कान' की जितनी शाखाएँ है, उतनी अन्य किसी सम्प्रदाय की नहीं है। सम्पूर्ण विश्व को हरे कृष्ण नाम से मुखरित करते हुए उन्होंने 14 नवम्बर सन् 1977 ई० को वृन्दावन धाम में अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

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