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बाबा नीब करौरी

फरूखाबाद का रेलवे स्टेशन एक गाड़ी खड़ी थी। लोग गाड़ी पर चढ़-उतर रहे थे। इन्हीं यात्रियों में कम्बल लपेटे एक बाबा प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सवार हो गये। अगले स्टेशन पर एक एंग्लो इंडियन टिकट चेकर आया प्रथम श्रेणी के डिब्बे में एक नेटिव साधु को देखकर वह क्रोध से जल उठा। वह यह जानता था कि भारत के अधिकांश साधु बिना टिकट रेल में सफर करते हैं। उसने ऐसे अनेक साधुओं को पकड़ा था लेकिन इस साधु की यह मजाल जो प्रथम श्रेणी में आकर बैठ गया?
ब्रिटिश शासन काल था टिकट है या नहीं, बिना पूछे अगले स्टेशन पर उसने बाबा को डिब्बे से बाहर निकाल दिया। बिना प्रतिवाद किये बाबाजी चुपचाप गाड़ी से उतरकर स्टेशन की एक बेंच पर बैठ गये। गाड़ी छूटने का समय हो गया जानकर स्टेशन के कर्मचारी ने घण्टी बजाई गार्ड ने हरी झण्डी दिखाई। गाड़ी छोड़ने के कागजात दे दिये गये। इंजन की सीटी बज उठी। लेकिन गाड़ी अपनी जगह से नहीं हिली ड्राइवर-खलासी गाड़ी और इंजन की जाँच करने लगे। गाड़ी के न छूटने पर स्टेशन के कर्मचारी और गार्ड आकर ड्राइवर से कारण पूछने लगे।
ड्राइवर ने कहा “इंजन में कोई खराबी नहीं है। पूरी गाड़ी चेक कर चुका। माजरा क्या है, समझ में नहीं आ रहा है?” धीरे-धीरे दो घण्टे बीत गये। गाड़ी जहाँ की तहाँ खड़ी रही। सभी लोग परेशान थे। यात्रियों में एक युवक ने विनोद के रूप में बाबाजी से कहा “बाबा, कोई मंतर-वंतर फूंकिये तो गाड़ी चले। सभी परेशान हो रहे हैं।"
बाबा ने कहा “तो हम क्या करें। एक तो हमें गाड़ी से उतार दिया और दूसरे हमसे गाड़ी चलाने के लिए मंतर फूंकने को कह रहे हो।”
बाबा की शिकायत सुनने पर उस युवक ने कहा “आपके पास टिकट नहीं होगा।” बाबा ने तुरंत एक नहीं, कई टिकट प्रथम श्रेणी के दिखाये। यह देखकर उपस्थित ‍सभी लोगों को विस्मय हुआ टिकट रहते क्यों मुसाफिर को उतारा गया? क्या फर्स्ट क्लास में केवल अंग्रेज ही सफर कर सकते हैं? ब्रजभूमि में संतों को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। लोग उस चेकर को खोजने लगे जिसने बाबा को उतार दिया था।
लोगों में उत्तेजना फैलते देख टिकट चेकर स्टेशन मास्टर के कमरे में जाकर बैठ गया। इसके बाद कुछ लोगों ने आदर के साथ बाबा को डिब्बे के भीतर बैठाया।
बाहर खड़े किसी व्यक्ति ने कहा “बाबा, अब तो गाड़ी चलाइये।”
बाबा ने गाड़ी को थपथपाते हुए कहा “चल भाई।”
इतना कहना था कि बिना सीटी के गाड़ी चल पड़ी। अब लोगों को समझते देर नहीं लगी कि बाबाजी के कारण ही गाड़ी रुकी हुई थी। इस घटना का प्रचार उस क्षेत्र में तेजी से हो गया। अगले स्टेशन पर बाबा उतरे जिसका नाम था 'नीब करौरी।'

बाबा आगरा जिले के अकबरपुर गाँव के निवासी थे। इसी गाँव के एक सम्पन्न परिवार में इनका जन्म हुआ था। ये उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों की बात है। स्कूली शिक्षा सामान्य हुई थी। कभी-कभी किसी प्रश्न के उत्तर में ये कह देते थे “हम पढ़े-लिखे नहीं है।” बाबा की जन्मतिथि, माता-पिता का नाम आदि के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। बाबा इन बातों का किसी से उल्लेख भी नहीं करते थे। कहा जाता है कि इनके बचपन का नाम लक्ष्मीनारायण शर्मा था। सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात् जब ये नीब करौरी गाँव में आकर रहने लगे। तब वहाँ के लोग आपको बाबा लक्ष्मणदास वैरागी कहने लगे। यहाँ तक कि नीब करौरी गाँव से कुछ दूर जहाँ आप रहते थे, वहाँ एक हाल्ट स्टेशन बनाकर रेलवे ने उस स्टेशन का नाम रखा 'बाबा लक्ष्मणदास पुरी।'
कहा जाता है कि आप बचपन से ही सिद्ध थे। मित्रों तथा पड़ोसियों को भविष्य की सूचनाएँ देते थे। आगे चलकर वैसी घटनाएँ हो जाती थीं एक बार आपने अपने घर के लोगों से कहा कि आज रात डाका पड़ेगा। बालक समझकर किसी ने आपकी बात पर ध्यान नहीं दिया, पर आपकी भविष्यवाणी सत्य हुई। उस रात को डाका पड़ा था।
जिन दिनों आपकी उम्र ग्यारह वर्ष की थी, उन्हीं दिनों किसी अज्ञात प्रेरणावश लक्ष्मीनारायण घर से भाग गये। गुजरात के बबानियाँ गाँव में आकर रहने लगे। यह गाँव मोरवी से ४० मील दूर है। यहाँ वैष्णवों का एक प्राचीन आश्रम है। यहीं आप साधन-पूजन करने लगे। बाद में रमाबाई के आश्रम में चले आये।
संतों में एक परम्परा है। वे अपने शिष्यों को उचित समय पर बुलाकर दीक्षा देते हैं। लक्ष्मीनारायण को उनके गुरु ने आकर्षित किया और समय पर दीक्षा दी। दीक्षा के पश्चात् उनका नाम हुआ लक्षमनदास वैरागी।
बाबा लक्षमनदास में कुछ खूबियाँ थीं। वे बाह्य आडम्बर नहीं करते थे। रंगीन वस्त्र पहनना, जटा-दाढ़ी रखना, त्रिपुण्ड लगाना, माला जपना, शिष्य बनाकर दीक्षा देना या भक्तों को उपदेश देना आदि कार्य नहीं करते थे। शरीर पर केवल धोती रखते थे। आगे चलकर कम्बल ओढ़ने लगे। जाड़े के दिनों में स्वेटर जरूर पहनते थे।
बबानियाँ गाँव में बाबा लगभग सन् १९०७-८ में आये थे। स्थानीय लोगों की मदद से यहाँ स्थित तालाब के किनारे हनुमानजी का एक मंदिर बनवाया था। बबानियाँ में आप सात वर्ष तक तपस्या करने के बाद तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। विभिन्न तीर्थों का दर्शन करते हुए आप नीब करीरी गाँव में आये।
नीम करौरी के ग्रामवासियों ने इन्हें सादर अपनाया निश्छल ग्रामवासियों की आत्मीयता और मधुर व्यवहार ने आपको स्नेह-पाश में बाँध लिया। यहाँ के लोग आपके योगैश्वर्य से प्रभावित हो गये। लोगों ने साधना करने के लिए जमीन के भीतर एक गुफा बना दी। अगली बरसात के मौसम में जब गुफा नष्ट हो गयी तब पुनः ऊँचे स्थान पर दूसरी गुफा का निर्माण किया गया। आप दिन भर गुफा में साधना करते थे। शाम के समय गाँव के लोगों से मिलते थे।
नीब करौरी गाँव ब्रज का पिछड़ा इलाका था। यहाँ एक भी मंदिर नहीं था बाबा ने निश्चय किया कि हनुमानजी का मंदिर बनवाऊँगा इस गाँव में एक अर्से से रहने के कारण यहाँ के लोगों की स्थिति के बारे में जानकारी उन्हें थी गाँव के एक समृद्ध बनिये से उन्होंने कहा कि हनुमानजी का मंदिर बनवा दे। वह राजी हो गया। निश्चित स्थान पर ईंट-पत्थर ला दिये गये। इसके बाद उसने हाथ खींच लिया। बाबा समझ गये कि अब उसकी दिलचस्पी समाप्त हो गयी है। कई दिनों बाद सहसा उसकी दुकान में आग लग गयी। गाँव में आग बुझाने का कोई साधन नहीं था बाबा की योग-शक्ति से बनिया परिचित था वह दौड़ा हुआ बाबा के पास आया। उनसे प्रार्थना करने लगा।
बाबा ने कहा “तूने हनुमानजी का मंदिर बनवाने का वायदा किया, बाद में मुकर गया। जा, उनसे क्षमा माँग और मंदिर बनवा दे।”
बनिये ने कहा “मंदिर मैं बनवा दूंगा। इस वक्त तो मुझे बचाइये। वर्ना में तबाह हो जाऊँगा।”
“जा, जा हनुमान मंदिर में जा उनसे प्रार्थना करने पर सब ठीक हो जायगा।”
वह तुरंत हनुमानजी के विग्रह के पास आकर प्रार्थना करने लगा। थोड़ी देर बाद दुकान के नौकर ने आकर कहा “मालिक, दुकान की आग अपने आप बुझ गयी। सिर्फ मिर्च के दो बोरे थोड़े से जल गये हैं।”
इस घटना के बाद बनिये ने गाँव में हनुमानजी का मंदिर बनवा दिया और हवन कुण्ड भी बन गया। बाबा ने देखा मंदिर के आसपास कुआँ नहीं है। इस कार्य के लिए उन्होंने एक दूसरे बनिये को आदेश दिया।
“तू कुआँ बनवा दे तुझे पुत्र होगा।” बाबा ने कहा।
बनिया अपुत्रक था। बाबा का आदेश पाते ही उसने मंदिर के समीप एक कुआँ बनवा दिया। उसी वर्ष उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसी प्रकार बाबा गाँव के लोगों पर अपनी कृपा की वर्षा करते रहे।

बाबा के बढ़ते प्रभाव को देखकर गांव के कुछ ब्राह्मण स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उनके दरबार में आते थे। एक बार एक सेठ चाँदी की थाली में सोने के कुछ सिक्के लेकर भेंट देने आया। बाबा ने उसे ग्रहण नहीं किया। सेठ भेंट लेकर वापस चला गया। बाबा के इस व्यवहार से ब्राह्मणों का दल नाराज हो गया। वे इस रकम को बाबा के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे। लेकिन उनकी आशाओं पर पानी फिर गया उनका कहना था कि बाबा को जरूरत नहीं थी तो उसे लेकर हम ब्राह्मणों को बाँट देते। उन लोगों ने बदला लेने की सोची। इसके लिए मौका ढूँढ़ने लगे।
प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी बाबा यज्ञ कराने वाले थे। तैयारियाँ चल रही थीं। इस यज्ञ के लिए एक सेठ तीस टीन घी लेकर आया उस समय बाबा गाँव में नहीं थे। गंगा नहाने फरूखाबाद गये थे। मौका पाकर ब्राह्मणों ने बदला ले लिया। सेठ को बताया गया कि कुछ कारणों से इस वर्ष यज्ञ नहीं होगा। यह समाचार सुनकर सेठ घी के टीनों को लेकर वापस चला गया। गंगा स्नान से वापस आने के बाद बाबा को सारी बातें मालूम हुई। उन्होंने स्थानीय ब्राह्मणों को खूब फटकारा। यह एक ऐसी घटना थी जिसके कारण बाबा का मन इस गाँव से उचट गया। उनके अन्दर की घुमक्कड़ प्रवृत्ति जाग उठी। उन्होंने इस गाँव को हमेशा के लिए छोड़ दिया। लेकिन गाँव ने इन्हें नहीं छोड़ा। वे सर्वत्र 'नीब करौरी के बाबा' के नाम से आजीवन प्रसिद्ध रहे।
यहाँ से बाबा फतेहगढ़ आये। फतेहगढ़ से कई स्थानों का चक्कर काटते हुए अकबरपुर आये। यहाँ अपने घर न जाकर डाक बंगले में रुक गये। आपके आगमन का समाचार पाकर कुछ भक्त दर्शन करने चले आये।
बाबा सभी को 'तू' या 'तुम' कहते थे और अपने बारे में 'हम' शब्द का प्रयोग करते थे। एक दिन उपस्थित लोगों से बातचीत करते हुए सहसा पास बैठे श्यामसुन्दर शर्मा से उन्होंने कहा "तू बगिया चला जा अभी कोई नीब करौरी के बाबा को खोजता हुआ आयेगा उसके साथ एक गूंगा-बहरा लड़का होगा। उनसे कहना कि यहाँ कोई आबा बाबा नहीं है। जा, तेरा गूँगा-बहरा लड़का ठीक हो जायगा। इसके अलावा और जो मन में आये कह देना।”
शर्माजी तुरंत बाहर आये। फाटक के पास पहुँचते ही एक कार आकर डाक बंगले के पास रुक गयी। उसमें से एक सज्जन उतरे और कहा “मैं फिरोजाबाद का सिविल सर्जन डॉ० बेग हूँ। पता चला है कि इस बंगले में नीब करौरी के बाबा ठहरे हैं। उनसे मिलना चाहता हूँ। मेरा यह लड़का पैदाइशी गूँगा-बहरा है। काफी इलाज किया गया, पर ठीक नहीं हुआ। बाबा का आशीर्वाद मिल जाय तो ठीक हो जाय।”
शर्माजी ने बाबा के निर्देशानुसार सारी बातें कहने के बाद अज्ञातवश लड़के की ओर देखते हुए पूछा “क्या नाम है तुम्हारा?” डॉ० बेग कुछ कहते, उसके पहले ही लड़के ने अस्पष्ट स्वर में अपना नाम बताया। डॉ० बेग चौंक उठे।
शर्माजी ने कहा “आपका लड़का बोलता तो है और सुन भी लेता है। घबराने की जरूरत नहीं जल्द ठीक हो जायगा।”
अकबरपुर से बाबा आगरा आये। यहाँ भी बाबा के अनेक भक्त थे। वे एक भक्त के यहाँ ठहर गये। बाबा का दर्शन करने के लिए इनके भक्त डॉक्टर लक्ष्मीचन्द्र के साथ डॉक्टर सुरेशचन्द्र मेहरोत्रा भी आये थे। इनकी शक्ल देखते ही बाबा ने कहा “खाली हाथ क्या आया है, मिठाई खिला, हम मिठाई खायेंगे।” तुरंत बाजार से मिठाई मँगवायी गयी एक टुकड़ा खाने के बाद बाबा ने सारी मिठाई लोगों में बैटवा दी।
डॉ० मेहरोत्रा ने पूछा “बाबा, किस खुशी में मिठाई बैटवायी गयी?”
बाबा ने कहा “तू बाप बन गया है, इस खुशी में।”
यह बात सुनकर डॉ० मेहरोत्रा विस्मित हुए। उनकी पत्नी गर्भवती थी और प्रसव के सिलसिले में इन दिनों मायका गयी हुई हैं। बच्चा पैदा होने की सूचना अभी तक उन्हें नहीं मिली है। ऊहापोह स्थिति में वे घर वापस आये तो इस आशय का तार प्राप्त हुआ कि उनकी पत्नी को लड़का हुआ है।

सन् १९४० के आसपास बाबा नैनीताल आये। यहाँ आकर आदत के अनुसार चारों ओर घूमते रहे। एक बार मनोरा आये तो यहाँ का वातावरण उन्हें इतना पसन्द
आया कि भविष्य में नैनीताल के भक्तों के यहाँ न रुककर इस सुनसान स्थान में चले आते थे और किसी पेड़ के नीचे रात गुजारते थे। आगे चलकर यहाँ आश्रम तथा हनुमानजी का मंदिर बनवाने के कारण इस स्थान का नाम हनुमानगढ़ हो गया।
श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जिन दिनों उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे, बाबा की ख्याति सुनकर इनके सम्पर्क में आये। नैनीताल में बाबा से इनकी मुलाकात बराबर होती थी। इन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है— “नीब करौरी के बाबा हमेशा एक कम्बल ओढ़े घूमा करते हैं वे प्राय: नैनीताल आते हैं। यहाँ हनुमानगढ़ में ठहरते हैं। यह बात कोई नहीं जानता कि वे कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं। कोई उनका वास्तविक नाम तक नहीं जानता।”
हनुमानगढ़ के बाद इस क्षेत्र में बाबा ने कई जगह आश्रम और मंदिर बनवाये। भूमियागर, काकड़ीघाट, पिथौरागढ़, धारचूला, जिसी, गर्जिला, चदरीनाथ, ऋषिकेश आदि स्थानों पर आश्रम बनवाये, पर मुख्य आश्रम कैंची रहा। नैनीताल से कुछ दूर पर यह आश्रम है। नीब करौरी के बाद कैंची आश्रम में उनका अधिकतर समय गुजरा है। गर्मियों में बाबा के दर्शन करने के लिए अनेक गणमान्य व्यक्ति आते थे। इनमें
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल सर्वश्री बी०बी० गिरि राजा भद्री (राज्यपाल), भगवान सहाय (केरल के भू०पू० राज्यपाल), उपराष्ट्रपति गोपालस्वरूप पाठक, गुलजारीलाल नन्दा, लालबहादुर शास्त्री, जगन्नाथ प्रसाद रावत जैसे राजनेता और प्रसिद्ध उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला भी थे। एक ओर जहाँ बाबा का इतना प्रभाव था कि बड़े-बड़े लोग आते थे, वहीं दूसरी
ओर अनजाने क्षेत्र में एक बार आपको संदिग्ध व्यक्ति समझकर दफा १०९ में चालान कर दिया गया और आप हवालात में बन्द हो गये। इस थाने के इंचार्ज नासिर अली थे जो किसी मामले की जाँच करने के लिए दूर कहीं गये थे। रात ग्यारह बजे वापस आकर थाने का हालचाल पूछा तो पता लगा कि एक व्यक्ति को दफा १०९ में बन्द कर दिया गया है। नासिर अली ने बन्दी बाबा को एक नजर देखा और घर चले गये।
दूसरे दिन भोर के समय थाने से सिपाही आया और भयभीत स्वर में कहा “हुजूर, कल जिस आदमी को दफा १०९ में बन्द किया गया था, लगता है वह कोई भूत-प्रेत है। बाहर से हवालात में ताला बन्द है, मगर जब देखता हूँ तब वह बाहर निकल आता है। उसके बाहर आते समय ताला अपने आप खुल जाता है और उसके भीतर जाते ही बन्द हो जाता है। थाने के सभी लोग घबढ़ाये हुए हैं। मेहरबानी करके जल्दी चलिये।”
नासिर अली समझ गये कि यह आदमी कोई ऊँचे दर्जे का फकीर है जो अपना चमत्कार दिखा रहा है। तुरंत वे थाने पर आये और सिपाहियों द्वारा की गयी बेअदबी के लिए माफी माँगी।
बाबा ने कहा “न तुझसे कोई गलती हुई है और न हमारी किसी तरह की तौहीन, फिर तू माफी क्यों माँग रहा है?”
बाबा की उदारता देखकर नासिर अली प्रसन्न हो गये। उन्होंने कहा “अगर आप मेरे यहाँ चलकर भोजन करें तो मैं समहूँगा कि आप मुझ पर खुश हैं।”
बाबा ने कहा “ऐसी बात? चल, आज तेरे यहाँ भोजन करूंगा।”
इस घटना के बाद नासिर अली जब कभी मुसीबत के वक्त बाबा को याद करते, उन्हें उससे छुटकारा मिल जाता था। ऐसे अनेक भक्त थे जिनकी समस्याएँ बाबा दूर रहकर हल कर दिया करते थे। बाबा के ऐसे चमत्कारों से कविवर सुमित्रानन्दन पन्त और श्री हरिवंश राय बच्चन भी प्रभावित हुए थे।

द्वितीय महायुद्ध की बात है। झाँसी के सिविल सर्जन बाबा के भक्त थे। उन दिनों बाबा उनके यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन भोजन के पश्चात् बाबा तख्त पर सो गये। सिविल सर्जन साहब ने बाबा के पास ही फर्श पर बिस्तर लगाया ताकि रात को अचानक बाबा को कोई जरूरत हो तो तुरंत सेवा कर सकें। रात एक बजे अचानक बाबा तड़पने लगे। सिविल सर्जन की नींद खुल गयी।
बाबा ने अपने शरीर से कम्बल उतारकर उन्हें देते हुए कहा “इसे किसी जलाशय में फेंक आ।”
सिविल सर्जन ने कहा “इतनी रात को कहाँ जाऊँगा? कल सबेरे फेंकवा दूंगा”
बाबा ने कहा “नहीं, अभी ले जा।”
बाबा की आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत सर्जन साहब को नहीं हुई। गैरेज से गाड़ी निकालकर चल दिये। जब वे लौटे तब सबेरा हो गया था। घर में प्रवेश करने पर उन्होंने देखा। बाबा प्रसन्न मुद्रा में सबसे बातचीत कर रहे हैं। बाद में उन्होंने बाबा से कम्बल बहाने का कारण पूछा।
बाबा ने कहा.....“तेरा जो लड़का फौज में है, कल वह जर्मन सैनिकों का सामना नहीं कर सका। उसकी टुकड़ी में भगदड़ मच गयी। वह स्वयं भी भागा और पहाड़ की चोटी से नीचे कूद गया। नीचे दलदली जमीन थी, उसमें फँस गया। पहाड़ पर से सैनिक गोलियों की बौछार करते रहे। बाद में उन लोगों ने सोचा कि अब तक वह मर गया होगा। जर्मन सैनिक ऊपर से ही वापस चले गये। वे सारी गोलियाँ मेरे कम्बल में आ गयी थीं। उसकी गर्मी मुझे परेशान कर रही थी जब तूने कम्बल को पानी में बहाया तब शान्ति मिली।”
बाबा इस घटना का वर्णन इस तरह कर रहे थे जैसे घटनास्थल पर स्वयं मौजूद थे। रात की नींद खराब होने के कारण सिविल सर्जन साहब असंतुष्ट होकर भीतर चले गए। उन्होंने बाबा की बातों पर विश्वास नहीं किया।
बाबा के वापस जाने के दो सप्ताह बाद लड़के ने अपनी पत्नी के नाम पत्र लिखते हुए इस घटना का जिक्र किया अन्त में लिखा, किसी दैवी शक्ति के कारण मैं उस दिन जीवित बच गया। इस पत्र को पढ़ने के बाद सिविल सर्जन साहब दंग रह गये। मन ही मन अविश्वास के अपराध के लिए बाबा से बार-बार क्षमा माँगी।

बाबा के एक भक्त है— केहर सिंह जो उत्तर प्रदेश शासन के सचिवालय में सचिव पद पर कार्य करते थे। अब अवकाश ग्रहण कर चुके हैं और बाबा के एकनिष्ठ भक्त हैं। लखनऊ आने पर बाबा ज्यादातर इन्हीं के घर ठहरते थे। इनका लड़का २ जनवरी,सन् १९५८ के दिन टेनिस खेल रहा था। अखरोट वाला गेंद उसकी आँखों से टकराया। आँखो का चश्मा फूट गया और शीशे के अनेक कण रेटिना में धँस गये। घटना की सूचना मिलते ही केहर सिंह तुरंत आये और उसे मेडिकल कालेज ले गये। जाँच के बाद डॉक्टरों ने कहा “इसका इलाज यहाँ सम्भव नहीं है। इसे यथाशीघ्र सीतापुर ले जाइये।”
आँख के इलाज के लिए सीतापुर की ख्याति समस्त उत्तर भारत में है। “लड़के की एक आँख बचपन से ही खराब थी और अब दूसरी आँख भी खराब होने जा रही है। शायद जीवन भर लड़का अंधा बनकर रहेगा?” मन में यह विचार आते ही वे रो पड़े तभी अचानक टेलीफोन की घंटी बजी। फोन उठाते ही आवाज आयी “तू रो रहा है? सुन, लड़के को सीतापुर मत ले जाना। अलीगढ़ में डॉ० मोहनलाल के यहाँ ले जा रोने की जरूरत नहीं सब ठीक हो जायगा।”
केहर सिंह इतना तो समझ गये कि यह बाबा का फोन है। वे कुछ पूछना चाहते थे, पर तभी फोन रख दिया। बाबा का फोन करने का ढंग अलग किस्म का होता है। कहीं से किसी को वे फोन कर लेते हैं जबकि दूसरा उनसे सम्पर्क नहीं कर पाता।
बैठे-बैठे वे डॉ० मोहनलाल के बारे में सोचने लगे। तभी उन्हें याद आया कि चिकित्सा विभाग सचिव श्री विनोद चन्द्र शर्मा की डॉ० मोहनलाल से घनिष्ठता है। तुरंत केहर सिंह ने शर्माजी को सारी घटना बताते हुए कहा कि आप डॉ० मोहनलाल से सम्पर्क करके मुझे सूचना दें।
थोड़ी देर बाद विनोद चन्द्र शर्मा ने फोन करते हुए कहा “ठाकुर साहब, आप मुझसे मजाक करते हैं? डॉ० मोहनलाल को फोन करने पर ज्ञात हुआ कि तीन दिन हुए तुमने वहाँ एक कमरा रिजर्व करवाया है। बहरहाल मैंने उनसे कह दिया है। कल तुम लड़के को लेकर चले जाओ।”
केहर सिंह समझ गये कि यह घटना होने वाली है जानकर बाबा ने सारा प्रबंध पहले से कर रखा है, इसीलिए सीतापुर की जगह अलीगढ़ जाने का निर्देश मिला है। दूसरे दिन केहर सिंह की पत्नी बच्चे को लेकर अलीगढ़ गयी स्टेशन पर स्वागत के लिए डॉ० मोहनलाल उपस्थित थे। लड़के की आँख का ऑपरेशन हुआ, फिर भी उसमें २०-२२ कण रह गये। उन्हें निकाला नहीं जा सका। घर वापस आने के आठ-दस दिन बाद उसकी आँखों की पट्टी खोली गयी तो एक नयी समस्या उत्पन्न हो गयी। शीशे के शेष कणों के कारण उसे अनेक बल्ब, तारे, चाँद दिखाई देने लगे वह ४-५ फीट दूर की वस्तु देख नहीं पाता था। डॉक्टरों से शिकायत करने पर जवाब मिला “यह तो होगा ही, अब कोई उपाय नहीं है।”
केहर सिंह मन मसोस कर रह गये लड़का लोगों की दृष्टि में दया का पात्र बन गया। फरवरी, १९४८ ई० को कानपुर से सहसा बाबा का फोन आया। उस समय केहर सिंह सचिवालय जाने की तैयारी कर रहे थे। बाबा ने फोन पर आदेश दिया “फौरन कानपुर में पं० कामता प्रसाद दीक्षित के घर चले आओ।”
सिंह साहब को समझते देर नहीं लगी कि कोई महत्त्वपूर्ण कार्य होगा। वे अपनी कार से कानपुर रवाना हो गये। अज्ञात प्रेरणावश लड़के को भी साथ ले लिया। दीक्षितजी के घर आकर केहर सिंह ने बाबा के चरण स्पर्श किया। बाबा ने बालक के हाथ को पकड़कर अपनी गोद में बैठाया और उसकी आँखों पर हाथ फेरने लगे। बाबा ने प्यार करते हुए बालक से कहा “तेरे लिए केहर सिंह को यहाँ बुलाया।”
थोड़ी देर बाद बाबा ने पुनः कहा “केहर सिंह, अब तुम वापस अपने कार्यालय जा सकते हो।”
इस घटना के सातवें दिन बालक ने अपने पिता से कहा “पिताजी, मेरी आँखें बिलकुल ठीक हो गयी है। अब में बिना चश्मे का सब कुछ देख पा रहा हूँ।”
इस सुखद समाचार को सुनकर केहर सिंह खुशी से उछल पड़े। डॉक्टर के पास जाकर उन्होंने लड़के की आंखें दिखाई। डॉक्टर ने जाँच करने के बाद कहा
“चिकित्सा जगत् की यह अद्भुत घटना है। डॉक्टर ऐसा चमत्कार नहीं कर सकते।”
केहर सिंह बाबा के प्रिय भक्तों में अन्यतम है। इस घटना के दो वर्ष बाद बाबा घूमते हुए लखनऊ आये। बाबा के आगमन की सूचना पाते ही केहर सिंह उनका दर्शन करने गये। बाबा को रात का भोजन करने का निमंत्रण दिया। बाबा ने कहा “आज नहीं, कल शाम को तेरे यहाँ आयेंगे।”
दूसरे दिन केहर सिंह ने अपनी पत्नी से दो आदमियों के लायक भोजन बनाने को कहा। पत्नी को यह बात मालूम हो गयी थी कि आज बाबा अपने यहाँ आने वाले है। शाम को सब्जी बनाकर वे आटा गूंथने लगीं। सिंह साहब बाजार से मिठाई लाने के बाद पत्नी से बोले...“मैं बाबा को लेने जा रहा हूँ उनके आने पर पूरी तलना गरम-गरम पूरी वे पसन्द करते हैं।”
वापस आते समय बाबा के साथ आठ आदमी और चले आये। केहर सिंह ने सोचा बाबा जहाँ जाते हैं, वहाँ कुछ भक्त उनके पीछे-पीछे लगे रहते हैं। सिंह साहब एक थाली सजाकर ले आये। बाबा ने कहा “इन लोगों को भी थाली परोस दो।”
इस आदेश को सुनते ही केहर सिंह स्तंभित रह गये। सिंह साहब असमर्थ नहीं थे, पर सभी लोगों के लिए भोजन बनाने में नये सिरे से प्रबंध करना पड़ेगा। तुरंत रसोईघर में जाकर पत्नी से परामर्श करने लगे। पति की बातें सुनकर पत्नी झल्लाकर बाहर चली गयी। इस स्थिति को सम्हालने के लिए केहर सिंह को नौकरों की सहायता लेनी पड़ी। वे सब मदद देने लगे और सिंह साहब थालियाँ सजाकर आगन्तुकों को परोसने लगे।
आश्चर्य की बात यह हुई कि सभी लोगों को भरपेट भोजन कराने के बाद भी सामग्रियाँ बच गयीं।
सिंह साहब समझ गये कि बाबा की योग-शक्ति के कारण आज उनकी इज्जत बच गयी। दरअसल किसी वस्तु का उत्पादन वृद्धि या रूपान्तर कर देना योगियों के लिए सामान्य बात है। भले ही उसे लौकिक दृष्टि से चमत्कार समझा जाय।

बाबा को अतीन्द्रिय-शक्ति कितनी प्रबल थी, इसका अन्दाजा निम्न घटना से लगाया जा सकता है।
घटना सन् १९५० ई० की है। उन दिनों बाबा हल्द्वानी में एक भक्त के यहाँ ठहरे हुए थे। भक्तों के प्रश्नों का उत्तर देते-देते सहसा मौन हो गये। कुछ देर बाद पास बैठे पूरनचन्द्र जोशी से कहा “पूरन, एक चम्मच पानी पिला उन्हें बहुत तकलीफ हो रही है।” बाबा के इस कथन का क्या अर्थ है, इसे कोई समझ नहीं सका पूरन ने एक के बदले दो चम्म पानी पिलाया। थोड़ी देर बाद बाबा की आँखों से आँसू लुढ़कने लगे। लोग अवाक होकर देखते रहे।
बाबा ने कहा... “आज भारत का एक महान संत चला गया। महर्षि रमण नहीं रहे।”
जिन लोगों की बाबा पर आस्था थी, उन्हें इस कथन पर विश्वास हो गया। अन्य लोग सोचने लगे कि महर्षि रमण तो तिरुमल्लाई में हैं, बाबा को यहाँ बैठे-बैठे उनके निधन की बात कैसे मालूम हो गयी? दूसरे दिन समाचार पत्रों के जरिये लोगों को यह समाचार जब ज्ञात हुआ तब लोग दंग रह गये।

कैंची में आश्रम बनने के बाद बाबा का अधिकांश समय यही गुजरता था। लेकिन वे लोगों 'नीब करौरी के बाबा' के नाम से प्रसिद्ध थे। यहाँ उनकी अनेक योग विभूतियाँ प्रकट हुई है जिसका वर्णन 'स्मृति सुधा' में प्रकाशित है।
एक बार बाबा ने आश्रम के लोगों से कहा कि आज रातभर तुम लोग पूरी बनाओ। आदेश के अनुसार काम होने लगा। दूसरे दिन लोगों को नित्य की भाँति प्रसाद दिया गया। लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि आखिर कई मन पूरियाँ क्यों बनवायी गयीं? बाबा से पूछने का साहस किसी को नहीं हो रहा था। लोगों ने समझ लिया कि सारा सामान अन्त में फेंकना पड़ेगा।
उस दिन शाम होने के पहले एक बस आयी और आश्रम की दीवार से इस कदर टकराई कि उसके दो पहिये निकल कर खड्डे में जा गिरे। बस इस तरह खड़ी हो गयी कि रास्ता बन्द हो गया। कुछ ही देर में दोनों ओर डेढ़ सौ के लगभग कार, बस आदि की लाइनें लग गयीं अंधेरा बढ़ने लगा।
उन दिनों कैंची में केवल चाय की एक दुकान थी। आखिर इतने आदमी भोजन कहाँ करते? बाबा ने आगत सभी यात्रियों को पूरी-हलवा खिलाया। बच्चों और महिलाओं को आश्रम में तथा पुरुषों को बस में सोने का आदेश दिया। सभी लोगों को कम्बल दिये गये। यह सब देखकर आश्रमवासियों को ज्ञान हुआ कि बाबा ने कल इतनी पूरियाँ क्यों बनवायी थीं।
इसी कैंची आश्रम की घटना है। बाबा की कार का ड्राइवर हबीबुल्ला खाँ था। एक दिन उसने कहा “बाबा, गाड़ी में पेट्रोल नहीं है। अगर आपको कहीं जाना हो तो आज्ञा दें जाकर पेट्रोल भरवा लाऊँ।”
बाबा ने कहा कि उन्हें कहीं जाना नहीं है। दूसरे ही दिन रात को खाँ को बुलाकर उन्होंने कहा “गाड़ी निकाल जाना है।”
खान ने कहा “गाड़ी में पेट्रोल आपने भरवाया नहीं, गाड़ी कैसे चलेगी? इस वक्त आपको कहाँ जाना है?”
,बाबा ने कहा “अल्मोड़ा जाना है। तू गाड़ी चला।”
गाड़ी रवाना हुई। चार या पाँच किलोमीटर चलने के बाद गाड़ी रुक गयी। अब जंगल में रात गुजारनी पड़ेगी, यह समझकर खान अपनी सीट पर सो गया।
यह देखकर बाबा ने कहा “सो क्यों गया? आसपास के किसी झरने से पानी लाकर टंकी में डाल दे।”
“क्या?” हबीबुल्ला बुरी तरह चोकर बोला “पेट्रोल की जगह पानी डाल दूं? पानी डालने से गाड़ी खराब हो जायगी अब अगर यही हुक्म दोबारा देंगे तो कल ही मैं आपकी नौकरी छोड़ दूंगा।”
बाबा ने कहा “ज्यादा पानी मत डालना सिर्फ तीन कैन डालना।” टंकी में पानी डालने के बाद हबीबुल्ला गाड़ी चलाने लगा। रात भर गाड़ी चलाने के बाद सबेरे आश्रम में वापस आया। बाबा के इस चमत्कार को देखकर वह स्वयं चकित रह गया।

उत्तर प्रदेश कांग्रेसी मंत्रिमंडल के मंत्री श्री जगन प्रसाद रावत रानीखेत में आयोजित एक मीटिंग में भाग लेने आये थे। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वे बाबा का दर्शन करने आये। बाबा ने उन्हें प्रसाद खिलाने के बाद कहा “अब तू यहाँ से जल्द भाग जा।”
रावतजी जरा परेशान हुए। आखिर बाबा मुझे यहाँ से क्यों भगा रहे हैं। प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ, तुरंत नैनीताल चले आये। अपने कमरे में जाते ही उन्हें भूकम्प का सामना करना पड़ा। दूसरे दिन उन्हें पता चला कि भूमियाधार से नैनीताल के बीच अनेक नुकसान हुआ है। अब उनकी समझ में आया कि बाबा ने कल क्यों भाग जाने को कहा था।

सन् १९६६ ई० में कुंभ मेला लगा। यह प्रयाग की घटना है। बाबा का कैम्प संगम के पास उस पार लगा था। कैम्प में अनेक भक्त थे। बातचीत के दौरान एक व्यक्ति ने कहा “कड़ाके की इस सर्दी में अगर सभी को चाय मिल जाती तो कुछ आराम मिलता।”
अन्तर्यामी बाबा लोगों की इच्छा समझ गये। उन्होंने चाय बनाने का आदेश दिया। कैम्प में चाय, चीनी, बरतन आदि थे, पर दूध नहीं था ब्रह्मचारी की जबानी यह बात सुनकर बाबा ने कहा “जा, बाल्टी ले जा गंगा से दूध भरकर ले आ कह देना मैया, दूध लिए जा रहा हूँ। कल लौटा दूंगा।”
ब्रह्मचारी ने आज्ञा का पालन किया। वे गंगा से एक बाल्टी पानी ले आये। बाबा ने उसे ढक देने को कहा। कुछ देर बाद बाबा ने कहा “अब क्या बैठा है? चाय क्यों नहीं बनाता?” चूल्हे पर पानी चढ़ाने के बाद ब्रह्मचारी ने बाल्टी का ढक्कन हटाया तो देखा एक बाल्टी दूध है। सभी लोगों ने चाय पी। दूसरे दिन एक बाल्टी दूध गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।
इसी प्रकार एक बार बाबा दाढ़ी बनवाने के लिए एक नाई की दुकान पर गये। बाबा के बारे में नाई बहुत कुछ सुन चुका था। उसने विनय पूर्वक कहा “बाबा, बहुत दिन हुए मेरा लड़का घर से भाग गया है। आज तक उसका पता नहीं लगा।”
कुछ देर बाद बाबा सहसा उठकर खड़े हो गये और बोले “मुझे अभी बाहर जाना है।”
नाई ने कहा “अभी तो आधी दाढ़ी बनी है। शेष बना लेने दीजिए।” लेकिन बाबा ने ध्यान नहीं दिया। वे दुकान से बाहर निकल गये। पास ही लघुशंका करके वापस आये तब उनकी शेष दाढ़ी बनी। इसके बाद वे चले गये।
दूसरे दिन नाई का लड़का घर वापस आ गया। उसने विचित्र कहानी सुनाई। उसने कहा “यहाँ से सौ मील दूर मैं एक होटल में काम करता था। कल वहाँ एक आदमी आया जिसकी आधी दाढ़ी बनी थी और दूसरी ओर साबुन लगा था। उन्होंने मुझे पचास रुपये देकर कहा कि तुम आज ही पहली गाड़ी से घर चले जाओ।”

उन दिनों बाबाजी आश्रम से कहीं बाहर गये हुए थे। उसी समय एक सज्जन आश्रम में आये। उक्त सज्जन ने यहाँ मंदिर का निर्माण कराया था। बातचीत के सिलसिले में उन्होंने पुजारी से जाति पूछी और संस्कृत ज्ञान के बारे में प्रश्न किया उत्तर में पुजारी ने कहा “मैं ब्राह्मण नहीं, ठाकुर हूँ।” इतना सुनना था कि उक्त सज्जन क्रोधित हो उठे। ठीक इसी समय बाबा आ गये। बाबा उन्हें साथ लेकर एक बड़े हाल में आये। पुजारी के बारे में चर्चा होने लगी।
बाबा ने पुजारी से कहा “तुम तो संस्कृत जानते हो। भगवद्गीता का पाठ सुनाओ।”
पुजारी ने कहा “नहीं महाराजजी।”
बाबा बिगड़े “झूठ मत बोलो। तुम्हें गीता के अट्ठारह अध्याय कंठस्थ है।”
तभी उक्त सज्जन ने कहा “आप ग्यारहवां और बारहवाँ अध्याय सुनाइये।”
बाबा ने अपना कम्बल पुजारी के ऊपर डाल दिया। इसके बाद दो-तीन बार उसकी पीठ को थपथपाया पुजारी सस्वर गीता के श्लोकों की आवृत्ति करने लगा। उपस्थित सभी लोग मुग्ध हो गये। उक्त सज्जन बाबा के चरणों पर सिर रखकर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा।

घटना लखनऊ की है। बाबा लखनऊ आकर कभी-कभी कर्णवीर के यहाँ ठहर जाते थे। कर्णवीर बचपन से उन्हें देखता आ रहा है। अक्सर जब वह बाबा को चिढ़ाता तब घर के लोग उस पर बिगढ़ उठते थे।
एक बार बाबा इनके यहाँ आये और कर्णवीर से कहा “कर्णवीर, तू गोविन्द बल्लभ पन्त के यहाँ चला जा। उन्हें यहाँ बुला ला कहना बाबा ने बुलाया है।”
कर्णवीर ने कहा "पन्तजी अब कांग्रेसी नेता नहीं है। मुख्यमंत्री हैं। उनसे मुलाकात करना आसान नहीं है।"
बाबा ने कहा “तू उनके घर में घुसते चले जाना और कह देना कि बाबा ने बुलाया है।”
कर्णवीर ने हँसकर कहा “यह बात तब कहूँगा न, जब मुझे कोई उनके बंगले में घुसने देगा। पकड़कर जेल में बन्द कर देंगे तब मेरी जमानत देने वाला कोई नहीं मिलेगा।”
बाबा बार-बार उसे समझाते रहे कि तू एक बार यहाँ चला जा तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा। दूसरी ओर कर्णवीर बराबर इन्कार करता रहा।
अन्त में बाबा ने खिजलाकर कहा “मत जा हम उसे यहीं बुला लेंगे।”
इसके बाद बाबा कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद बोले “आओ, जय सड़क पर टहलें।”
पाँच-सात मिनट टहलने के बाद कर्णवीर ने देखा कि लालबत्ती वाली एक गाड़ी बाबा के पास आकर रुक गयी। उसमें से पं० गोविन्द बल्लभ पन्त बाहर निकलने लगे। तभी बाबा ने पंतजी से कहा “तू गाड़ी में बैठ हम तेरे साथ चलेंगे।”
इतना कहकर बाबा गाड़ी के भीतर बैठ गये। फिर बाहर झाँकते हुए कर्णवीर से बोले “देख, बुला लिया। अब हम जाते हैं।”

हठयोगी अपनी योग विभूति का प्रयोग वहीं तक करते हैं जहाँ तक उनकी सीमा होती है। इसके आगे प्रकृति के कार्य में वे हस्तक्षेप नहीं करते। योग विभूति के प्रदर्शन से साधना की क्षति होती है, इसीलिए उच्चकोटि के साधक इससे बचते हैं। उनके अनजाने या दयावश कुछ योग विभूतियाँ प्रकट हो जाती हैं।
बाबा के अधिकांश भक्तों का विश्वास था कि बाबा में अपूर्व शक्ति है। वे असंभव को संभव करते हैं। इसी विश्वास को लेकर एक महिला उनके निकट आयी।
यह घटना इलाहाबाद की है। बाबा यहाँ चर्च लेन स्थित एक भक्त के यहाँ ठहरे हुए थे।
बातचीत के सिलसिले में महिला ने कहा “मेरे बहनोई सख्त बीमार हैं, उन्हें बचा लीजिए।”
बाबा ने कहा “उसे जलोदर हुआ है।”
महिला ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा “सात लड़कियों का बाप है। उसके न रहने पर पूरा परिवार अनाथ हो जायगा उसे बचा लीजिए।”
बाबा ने कहा “हमसे झूठ मत कहलाओ। अब हम उसके लिए सिर्फ प्रार्थना कर सकते हैं।”
इसका अर्थ यह हुआ कि उसकी मृत्यु अनिवार्य है। बाबा इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इस प्रकार की कई घटनाएँ हुई हैं जिसमें बाबा ने अपनी असमर्थता प्रकट की है।

नीब करौरी के बाबा बीसवीं शताब्दी के अन्तिम महापुरुष थे। संभव है कि ऐसे अनेक बाबा भारत में है। पर वे प्रकट रूप से लोगों के बीच नहीं आये हैं। भारत में सन्तों की कमी नहीं है, पर सभी लोक कल्याण नहीं कर पाते।
हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों के अलावा बाबा ने लखनऊ, कानपुर, शिमला आदि शहरों में हनुमानजी का मंदिर बनवाया है। उनका एक अमेरिकी भक्त डॉ० रिचार्ड एल्पर्ट ने न्यू मैक्सिको स्थित यओस में एक हनुमानजी का मंदिर बनवाया है जहाँ अमेरिकी नागरिक तथा वहाँ स्थित भारतीय नित्य दर्शन करते हैं। इन्होंने बाबा के सम्बन्ध में 'मिराकेल ऑफ लव' नामक पुस्तक लिखी है।
बाबा जीवनभर यायावरों की तरह घूमते रहे। लेकिन सन् १९७३ के बाद से वे कैंची आश्रम से बाहर नहीं निकले। यह उनकी प्रवृत्ति के विरुद्ध था। सन् १९७२ में एक बार एक भक्त से पूछा था “हमें अपना शरीर कहाँ छोड़ना चाहिए।”
इस प्रश्न को सुनकर सभी भक्त बेचैन हो उठे। किसी भी महात्मा का इस तरह का प्रश्न करना अशुभ होता है। उन दिनों जो लोग उनका दर्शन करने आते, उनसे कहते— “अब हमारी मुलाकात नहीं होगी।”
९ सितम्बर, सन् १९७३ को वे अस्वस्थ हुए। भक्त लोग तुरंत उन्हें वृन्दावन के अस्पताल में ले आये। गहन चिकित्सा आरंभ हुई। ११ सितम्बर को नीब करौरी के बाबा इस धराधाम से सदा के लिए चले गये।

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