परिंदा sadik khan द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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परिंदा

कुछ दुआ तो कुछ बधदुआओं ने मारा

मुझे तो इस शहर की हवाओ ने मारा

 

जो कुछ रहे गया था बाकी मुझमें

वो सब हसीना की बलाओं ने मारा

 

वो देखकर अक्सर मुस्कुरा दिया करता है

कुछ तो हमें उसकी इन अदाओं ने मारा

 

 

 

 

ना है जहा में अपन घर कोई

ना है जहा को अपनी खबर कोई

 

ना है कोई पीछे रोने वाला 

ना है अपनी मौत का डर कोई

 

कहा जाना है कब जाना है क्यू जाना है

ना मंजिल हैं ना है सफर कोई

 

कभी किसी ने कहा था मुसाफिर मुझे

शायद इसे लिए नही है मेरा नगर कोई

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 इतना भी खुदगर्ज ना बना मुझको

अगर में गुनेहगार हूं तो कर दे फना मुझको

 

में तो जल के राख भी जो चुका हूं

तू तस्वीर में तो मत जला मुझको

 

और मैं तेरा आखरी खिलौना हूं

तू अपने हिसाब से चला मुझको

 

बड़ी जल्दी लोगो के दिल से उतर जाता हूं

आती हैं बस एक यही कला मुझको .

 

 

 

 

कोई बड़े दिनों बाद घर आया है

मोहब्बत से रिश्ता तोड़ कर आया है

 

तू भी चला गया था ना मुंह मोड़ कर मुझसे

फिर क्या हुआ आज जो मेरे दर आया है

 

और जिसकी सूरत भी देखना ना था कंवारा मुझे

उसी को देख आंख में दरिया भर आया है

 

भर चुका था जो कभी तेरे जाने से

मुद्दातो बाद वो ज़ख्म उभर आया है

 

 

 

 

 

 

 

न शजर हजर कोई, हम तो ना बशर कोई,

ना यहा सहारा कुछ, ना उम्मीद उधर कोई,

 

अब जो हमे खुदा भी याद नही आता 

हम गुनाहगारों का होगा बुरा ही हश्र कोई,

 

लोग गर करते नहीं अहतराम -ए- 'यजा़न' तो क्या,

हमें तो खुद भी नहीं खुद की कद्र कोई,

 

हमारी फिक्र में करेगा कौन वक्त की बरबादिया,

न- हमदम न- हमदर्द न- हमरा मुंतज़िर कोई,

 

जिस तरह सारी उमर फिरे हम तन्हा,

न भटके सहरा -बा- सहरा दर -बा- दर कोई

 

लोगों की बात अलग है कि मिल जाति है मोहब्बत,

अना के मारे हम हमें क्या चाहे गा मगर कोई,

 

बस् युं अल्फाजों को समेटने के सिवा,

कहा आता है 'यजा़न' को हुनर ​​कोई,

 

मौत लाजिम है हर किसी पे यहां,

बता जरा क्या है अमर कोई,

 

वो जो बताया करते थे खुद को खुदा,

न नामो निशा उन का ना ख़बर कोई,

 

 

By-- यजा़नTera chane wale insaan bahot hai

 tu jise na mila vo prashaan bahot hai

 

Gir gya tha meri nazro se koi barso phale

 ab use Dakhna ka armaan bahot hai

 

Idhar me hu ke mar mar k jiya ja raha hu

Udhar vo hai jaiski jaan bahot hai 

 

 

 

किन किन गलियों से गुजरता हूं अब मैं

कैसे-कैसे लोगों से मिलता हुआ अब मैं

 

कभी नजर आता हो खुद को

तो कभी खुद की नजरों से गिरता हुआ अब मैं

 

लोग शक नहीं करते जिसकी वफादारी पर

उसके जुबान से बेवफा निकलता हूं अब मैं

 

मेरे बाद उसका क्या होगा

जिसकी मुस्कान बनकर खिलता हूं अब मैं by Sadik