प्रथम बार का आक्रमण, पुरोहितों की प्रार्थना पर मुक्ति]कुछ समय के पश्चात् दैत्यराज ने अपना दूत भेज कर गुरुपुत्रों के साथ ब्रह्मचारी प्रह्लाद को बुलवाया और बड़े प्रेम के साथ उनको अपनी गोद में बिठा कर पूछा “बेटा! इतने दिन हो गये तुमने जो विद्या का सार अपने आचार्य चरणों से प्राप्त किया हो, उसको हमें सुनाओ। बेटा प्रह्लाद! तुम्हारे गुरु तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं और तुम्हारी माता तो तुम्हारे समान देव बालकों के ज्ञान को भी नहीं मानती। इस प्रकार हम बारम्बार दूसरों से तुम्हारी प्रशंसा सुनते रहे हैं, आज स्वयं तुम्हारे ही मुख से ज्ञान-चर्चा सुनना चाहते हैं, कहो।”
प्रह्लाद–“पितृचरण! सबसे प्रथम मैं आपके पूज्य चरणों में प्रणाम करता हूँ, तत्पश्चात् अपने गुरुओं के चरण कमलों में सादर प्रणाम करके आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। पिताजी
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेनवलक्षणा।क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ( श्रीमद्भागवत )अर्थात्– भगवान् की कथा वार्ता सुनना, उनके गुणानुवाद का कीर्तन करना, उन्हीं का स्मरण करना, उनकी परिचर्या करना, उन्हीं की दृढ़ विश्वासपूर्वक पूजा करना, उनके चरणकमलों में अपने समस्त सत्कर्मों का अर्पण करना, उन्हीं को अपना उद्धारकर्ता मानना, उन्हीं की वन्दना करना, उन्हीं को अपना एकमात्र परम स्वामी मानना, उन्हीं को परम प्रिय मित्र समझना और उन्हीं के शरणागति में अपने आपको अर्पण कर देना यही भगवान् की नवधा भक्ति है। यदि पुरुष इस भक्ति को उन्हीं के चरण कमलों में अर्पण करके करे तो मैं इसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ। जिस प्रकार बेची हुई गौओं के पालन-पोषण का भार विक्रेता अपने ऊपर नहीं समझता, उसी प्रकार जो आत्म-समर्पणकर्ता आत्मसमर्पण करके किसी भी बात की कोई भी चिन्ता नहीं करता, वही ज्ञानी है और इसी ज्ञान को मैंने स्वयं सर्वोत्तम ज्ञान समझा और पढ़ा है।
दैत्यराज– “हे ब्रह्मबन्धो! हे कृतघ्न गुरुपुत्रो! तुम लोगों ने हमारे पुत्र को यह क्या पढ़ा दिया है? तुम लोगों ने ब्रह्मचारी को सीधा-सादा देखकर ये असार बातें, जो हमारे विरुद्ध और हमारा अपमान करनेवाली हैं, पढ़ा कर कितनी बड़ी मूर्खता की है। अवश्य ही संसार में बहुतेरे शत्रु ऐसे होते हैं जो छिपे हुए और मित्र के रूप में रहते हैं, किन्तु जिस प्रकार समय और संयोग पाकर पापियों के पापजनित रोग प्रकट हो ही जाते हैं उसी प्रकार उन प्रच्छन्न शत्रुओं की शत्रुता भी संयोग पाकर प्रकट हो ही जाती है। आज हम देख रहे हैं कि जिन आचार्यचरण को हम अपना सर्वस्व समझते हैं, उन्हीं के सुपुत्र तुम लोगों ने हमारे उपकारों को भुलाकर हमारे ही भविष्य को बिगाड़ने के लिये एक सीधे-सादे ब्रह्मचारी को कैसी भयंकर शिक्षा दी है? क्या इस कृतघ्नता का फल तुम लोगों के लिये अच्छा होगा?"
गुरुपुत्र– “दैत्यराज! आप क्रोध न करें, इस बालक की यह विरोधिनी बुद्धि न तो हम लोगों की शिक्षा का फल है, न किसी दूसरे की शिक्षा का ही फल है। यह तो इसकी स्वाभाविकी बुद्धि है। हमारी बात पर आप विश्वास करें और सन्देह हो तो स्वयं परीक्षा करके देख लें।”
दैत्यराज– “हे पुत्र! तुम्हीं सत्य-सत्य बतलाओ, तुमको बालक समझकर किसने अपने जाति, कुल एवं स्वयं पिता के शत्रु विष्णु की भक्ति सिखलायी है? बेटा ! तुमको ब्राह्मणों ने जिस प्रकार बहकाया है, इसी प्रकार बचपन में हमको भी इन लोगों ने ही बहकाया था किन्तु ज्यों-ज्यों हमारी अवस्था और बुद्धि परिपक्क हुई, त्यों-ही-त्यों हम उनकी असार बातें छोड़, अपनी पदमर्यादा के अनुसार काम करने लगे। आज तुम हमको जो तीनों लोक के स्वामी देख रहे हो, यह ब्राह्मणों की शिक्षा का फल नहीं है, हमारे पुरुषार्थ का फल है। अभी तुम इन ब्राह्मणों की माया को नहीं समझते। ये बड़े ही कृतघ्न, राजद्रोही एवं आत्माभिमानी होते हैं। भिक्षाटन करनेवाला ब्राह्मण भी अपने आपको चक्रवर्ती सम्राट् से भी ऊँचे पद का महाराज समझता है। अतएव इनके संसर्ग से तुमको अब हम दूर ही रक्खेंगे। बेटा ! यह तो बतलाओ कि तुमको पाठशाला में या बाहर, कहाँ किसने ऐसी शिक्षा दी है कि, तुम शत्रु की सेवा और भक्ति करो। यह तो एक मूर्ख भी जानता है कि यदि सर्प चूहे की भक्ति करने लगे, बिल्ली चूहों के चरण-रज को सिर चढ़ाने लगे और मोर सर्प की आवभगत करने लगे तो सर्प, बिल्ली और मोर की इज्जत मिट्टी में मिल जायगी तथा चारों ओर उनके पौरुष की निन्दा होने लगे। जो मनुष्य शत्रु की सेवा करता है उसको लोग कायर, अकर्मण्य और कुपूत कहते हैं, इसलिये बेटा! बतलाओ तो तुमको किसने राजकुमार के योग्य शिक्षा न देकर कुपूतों के योग्य शिक्षा दी है?"
प्रहलाद–“पिताजी! आप मेरे गुरुओं की बात सत्य मानें। मुझे न तो गुरुओं ने शिक्षा दी है कि विष्णुभक्ति सर्वोपरि है और न किसी अन्य ब्राह्मण ने ही। आप ब्राह्मणों पर क्रोध न करें, मुझे
जिसने शिक्षा दी है वह मेरे अन्तरात्मा में, आपके भी अन्तरात्मा में और सारे संसार के अन्तरात्माओं में बैठा है। वह एक है, अनेक है, सर्वव्यापी है और विश्वरूप है। आप उस विष्णु की भक्ति को बुरा न समझें। उसकी भक्ति से आपके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। आप अब अविलम्ब उसी की शरणागति को स्वीकार करने की कृपा करें।”
दैत्यराज: “हा दैव! यह कैसा अनर्थ है ? जिस अपने हृदय के टुकड़े को हम तथा महारानी कयाधू ने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझा था, आज उसकी दुर्बुद्धि के कारण क्या हमें उसको कोमल कमल सी कली को अपने हाथों मसलना पड़ेगा। यह हृदयविदारक कार्य विवश होकर क्या हमको करना ही पड़ेगा?
हे शंकर! इस बालक का कल्याण करो और इसकी बुद्धि को शुद्ध करो। बेटा प्रह्लाद! अब भी तुम्हारी बुद्धि ठिकाने नहीं आयी यह कितने दुःख की बात है? तुम जिस विष्णु की भक्ति करते हो वह हमारा घोर शत्रु है, देवताओं का बड़ा पक्षपाती है। उसकी जितनी ही निन्दा की जाय थोड़ी है। उसने तुम्हारे चाचा को जो हमारा परम प्रिय भ्राता था, अकारण ही पाताल में जाकर मार डाला था। क्या अपने चाचा के वध करनेवाले आततायी की भक्ति करने से संसार में तुम्हारी अपकीर्ति न होगी? तुमको लोग या तो कुलद्रोही कुपूत कहेंगे या कायर। अतएव अभी समय है, तुम उस हमारे शत्रु का नाम लेना छोड़, अपने कुल की मर्यादा के अनुसार वीर पुत्र के समान हमारी शिक्षा ग्रहण करो ।'
प्रह्लाद– “पितृचरण! संसार में न तो कोई किसी का मित्र है और न शत्रु है, जो व्यक्ति किसी को शत्रु मानकर उस पर क्रोध करते हैं वे वास्तव में अपनी ही हानि करते हैं। संसार विष्णुमय है, अतएव यह विश्व उसका शरीर है जिसे विराट् पुरुष कहते हैं। शरीर का एक अंग दूसरे अंग का शत्रु कैसे हो सकता है? आप उस निर्विकार परब्रह्म विष्णु को अपनी पक्षपातिनी बुद्धि ही से पक्षपाती, अपनी शत्रुताभरी बुद्धि से शत्रु एवं अपनी न्यायरहित बुद्धि से अन्यायी कहते और समझते हैं वास्तव में वह सर्वेश्वर न पक्षपाती है, न अन्यायी है और न आपका शत्रु है। आप मेरे जन्मदाता पिता हैं। आपकी आज्ञा मेरे लिये सर्वथा शिरोधार्य है, किन्तु कृपापूर्वक न तो उस परमपिता की भक्ति को छुड़ाने की चेष्टा करें और न आप मेरे अन्तःकरण को चोट पहुँचाने वाली उनकी निन्दा ही करें।"
प्रह्लाद की बातें सुन दैत्यराज क्रोध और पुत्रवात्सल्य के द्वन्द्व से उन्मत्त-सा हो उठा। अन्त में उसने कहा कि “हे असुरो! मैं अपने हृदय को पाषाण के समान कठोर करके तुम लोगों को आज्ञा देता हूँ, इस असुरकुल के कुलाङ्गार को ले जाओ और अपने तीक्ष्णधार शस्त्रों और अस्त्रों से इसका तुरन्त अन्त कर डालो। मेरे सामने से इसे तुरन्त हटाओ और निर्दय होकर इसका वध कर डालो। और सावधान, महारानी कयाधू इस बात को न जानने पावें, जब इसका वध हो जाय तभी उनके कानों तक यह समाचार पहुँचे।”
असुर अपने दैत्यराज की आज्ञा पाते ही न जाने कितने भयंकर भाषा और भेष से भयभीत करने की चेष्टा करते हुए एकाएक ब्रह्मचारी प्रह्लाद की ओर दौड़ पड़े और सहसा उनको उठाकर एक ऐसे निर्जन एवं भयानक स्थान पर ले गये जहाँ का दृश्य स्मशान के समान महान् भयानक था। उस विस्तृत निर्जन स्थान में असुरगण अपनी आसुरी प्रकृति की निर्दयता का परिचय देने लगे। ब्रह्मचारी प्रह्लाद पर वे अपने तीक्ष्णधार हथियारों से एक-एक करके आक्रमण करने लगे और ऐसा कोलाहल मचाने लगे कि, जिससे एक का शब्द दूसरे को सुनायी न पड़े। शस्त्रों की मार से प्रह्लाद का बाल भी बाँका न होते देख दैत्यराज की आज्ञा का स्मरण कर असुर बारम्बार खिसिया-खिसिया कर एक साथ आक्रमण करने लगे, किन्तु भगवान् के भक्त प्रह्लाद अपने अन्तरात्मा विष्णु की भक्ति में निमग्न खड़े रहे। भगवत्-कृपा से उन्हें अपने शरीर पर किये गये असुरों के शस्त्रास्त्रों के आक्रमण पुष्पवृष्टि के समान प्रतीत होते थे। उनपर जितने शस्त्रास्त्र चलाये गये, वे सभी नष्ट हो गये। एक भी काम का न रह गया। अन्त में उन असुरों ने हताश हो असुरेश्वर की राजसभा में जाकर अपने निष्फल आक्रमणों की कथा बड़ी लज्जा और बड़े आश्चर्य के साथ सुनायी। असुरेश्वर भी क्रोध और आश्चर्यवश उसी निर्जन स्थान में अपने असुर वीरों के साथ जा पहुँचे और उन्होंने वहाँ प्रह्लाद की कोमल कमल जैसी कमनीय मूर्ति को स्थिर, ध्यान मग्न, एवं स्तब्ध बैठे देखा।
हिरण्यकशिपु ने असुरों को पुनः अपने सामने प्रह्लाद पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। उन लोगों ने पुनः घोर आक्रमण किया, किन्तु इस बार भी फल कुछ भी न हुआ। सारे के सारे शस्त्रास्त्र प्रह्लाद के शरीर से टकरा-टकराकर चूर हो दूर गिर पड़े। बड़े-बड़े वज्र-समान शस्त्रास्त्रों को इस प्रकार तृण के सदृश टूटते तथा मिट्टी के समान फूटते देख, दैत्यराज के आश्चर्य की सीमा न रही। उसने ध्यानावस्थित, निस्तब्ध मूर्ति प्रह्लाद को सम्बोधित करके कहा “प्रह्लाद! प्रह्लाद! तू यह क्या बाजीगरी कर रहा है?" उत्तर कुछ नहीं मिला। प्रह्लाद ज्यों-के-त्यों निस्तब्ध ही बैठे रहे। उनका ध्यान नहीं टूटा। इस घटना को देख सारे-के-सारे असुर वीर और उनके स्वामी असुरेश्वर हिरण्यकशिपु चित्र के समान खड़े रह गये। सब पत्थर की मूर्ति से बन एक दूसरे की ओर देख रहे थे, कोई किसी से कुछ भी नहीं बोलता था। कुछ देर बाद भक्त प्रह्लाद का ध्यान टूटा और उन्होंने आँखें खोलीं तो सामने अपने पिता को असुर वीरों सहित खड़े देखा। प्रह्लाद ने पिता को सादर प्रणाम किया और मधुर स्वर से मोहित-से करते हुए कहा कि “पिताजी! क्या आज्ञा है?”
दैत्यराज– “प्रह्लाद! तुमको इन दैत्यों ने वज्र समान तीखे हथियारों से न जाने कितनी बार मारने की चेष्टा की किन्तु तुम्हारे कमल-सदृश कोमल शरीर से टकरा-टकरा कर सारे-के-सारे हथियार बेकार हो गये, पर वे तुम्हारे एक रोम को भी हानि नहीं पहुँचा सके, इसका क्या कारण है? क्या अस्त्र-शस्त्र-निवारण मन्त्र सिद्ध किया है? अथवा इसका कोई अन्य कारण है?”
प्रह्लाद– “पिताजी! इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। आप सत्य समझें, यह केवल भगवान् विष्णु की महिमा है—
विष्णुः शस्त्रेषु युष्मासु मयि चासौ यथा स्थितः।दैतेय तेन सत्येन नाक्रमन्त्यायुधानि मे॥( विष्णु० १ । १७ ।
३३ )अर्थात्– हे पिताजी! जो सर्वव्यापी विष्णुभगवान् आपके शस्त्रों में वर्तमान हैं वे ही मेरे शरीर में हैं। दोनों ही में वे मुझे समानरूप से दिखलायी देते हैं। इसी सत्य ज्ञान के कारण ये आपके हथियार मुझ पर आक्रमण नहीं करते।”
दैत्यराज– “रे मूर्ख राजकुमार! अब भी कुशल है, तू शत्रुपक्ष को छोड़ दे, हम तुझको अभय प्रदान करते हैं।“
प्रह्लाद– “भयं भयानामपहारिणि स्थिते मनस्यनन्ते माय कुत्र तिष्ठति।यस्मिन् स्मृते जन्मजरान्तकादिभयानि सर्वाण्यपयान्ति तात॥”( विष्णु० १ । १७ । ३६ )अर्थात्– हे पिताजी! जिन भगवान विष्णु के स्मरण मात्र से जन्म जरा और मृत्यु आदि के समस्त भय दूर हो जाते हैं उन सकल भयहारी अनंत के ह्रदय में स्थित रहते हुए मुझे भय कहां रह सकता है।
प्रह्लादजी की बातें सुनकर दैत्यराज पुनः क्रोध से उन्मत्त हो गया और बोला “अरे सर्पों! इस अत्यंत दुर्बुद्धि और दुराचारी को अपने विषाग्नि और संतप्त मुखो से काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो।” दैत्यराज की आज्ञा सुनते ही कुहक, अन्ध, तक्षक आदि महाविषधर सर्पों ने सहसा ब्रह्मचारी प्रह्लाद पर आक्रमण किया और उनके सारे शरीर में लिपट कर वे उन्हे काटने लगे, किन्तु भक्त प्रह्लाद के शरीर में न तो उनके विषधर दाँत गड़े और न उनके विष की ज्वाला का ही उनपर कोई प्रभाव पड़ा, प्रत्युत उन सर्पों के हृदय काँपने लगे, दाँत टूट गये, मणि फूटने लगी और फण फूटने लगे। सर्पों ने अपनी यह दशा दैत्यराज से कही, जिसे सुनकर दैत्यराज को बड़ा आश्चर्य हुआ एवं चिन्ता उत्पन्न हो गयी। उसने अपने बड़े-बड़े मतवाले दिग्गजों को आज्ञा दी कि “हे दिग्गजो! तुम लोग जिस प्रकार रण में शत्रुओं को धूल में मिला देते हो, अपने कोपानल से भस्म कर देते हो, उसी प्रकार इस राजकुमार को भी शत्रुपक्षी हो जाने के कारण तुरन्त नष्ट कर दो।” आज्ञा पाते ही पर्वत शिखर के समान ऊँचे दिग्गज चिग्घाड़ते हुए भक्त प्रह्लाद पर एकदम टूट पड़े और उन्हें पैरों से कुचलने तथा दाँतों से पीस डालने की चेष्टा करने लगे। गजराज बारम्बार प्रहार करते थे किन्तु प्रह्लाद के शरीर पर उनका तनिक भी आघात नहीं होता था उलटे दिग्गजों के दाँत टूट गये, उनके पैर बेकार हो गये और उनकी सारी मस्ती बात की बात में उतर गयी। लाचार होकर दिग्गजों ने भी जाकर दैत्यराज से अपनी दुर्दशा का वर्णन करते हुए अपने घावों को दिखलाया। दिग्गजों की दुर्दशा देख दैत्यराज ने पुनः प्रह्लाद को बुला कर पूछा कि “रे हठी प्रह्लाद! तेरी यह क्या बाजीगरी है? अब भी कुशल है, तू हठ छोड़कर अपने जीवन को सफल कर।” पिता के वचनों को सुनकर प्रह्लाद ने पिता को सादर प्रणाम किया और कहा
दन्ता गजानां कुलिशाग्रनिष्ठुराःशीर्णा यदेते न बलं ममैतत् ।महाविपत्तापविनाशनोऽयंजनार्दनानुस्मरणानुभावः( विष्णु ० १ । १७ । ४४ )अर्थात्– “पिताजी! यह जो हाथियों के वज्र के समान कठोर दांत टूट गए हैं इसमें मेरा कोई बल नहीं है यह तो श्री जनार्दन भगवान के महाविपत्ति और क्लेशों के नष्ट करने वाले स्मरण का ही प्रभाव है।”
पुत्र की दृढ़ता और अपने उद्योगों की असफलता देख, दैत्यराज के क्रोधाग्नि में मानों घृत की आहुति पड़ने लगी। दैत्यराज ने असुरों को आदेश दिया कि, “इस राजद्रोही राजकुमार को काष्ठ की महाचिता बनाकर उसमें फूँक दो।” असुरों ने दैत्यराज की आज्ञानुसार एक महाचिता की रचना कर उसमें आग लगा दी। जब महापवन की प्रेरणा से आग धधक उठी तब उन लोगों ने प्रह्लाद को उसमें झोंक दिया। असुरगण चारों ओर घेरे खड़े थे और यह देख रहे थे कि प्रह्लाद की एक हड्डी भी अब न बचेगी किन्तु जब आग शान्त हुई और उसकी लपटें निकलनी बन्द हो गयीं तब देखा कि अग्नि के बीच में प्रह्लाद भगवान् के ध्यान में मग्न खड़े हैं। उनके शरीर पर और उनके किसी वस्त्र पर अग्नि का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है। वे ऐसे विराजमान हैं मानों शीतल कमल की लाल-लाल पखुड़ीयों के बीच में उसका फलपुञ्ज शोभायमान हो।
इसी प्रसङ्ग में यह कथा भी प्रचलित है कि ढुण्ढा नाम की एक राक्षसी थी, जो दैत्यराज की बहिन कही जाती थी। उसको यह सिद्धि थी कि वह जिसको गोद में लेकर आग की चिता में बैठ जाय, वह जल जाय, किन्तु वह राक्षसी स्वयं न जले। प्रह्लाद को जलाने के लिये भी वह बुलायी गयी और ज्यों ही वह प्रह्लाद को गोद में लेकर चिता में बैठी और चिता में आग लगायी गयी, त्यों ही ढुण्ढा तो भस्म हो गयी, परन्तु प्रह्लादजी नहीं जले। ढुण्ढा ने अपनी प्रकृति की दुष्टता से न जाने कितने बालकों को जलाया था, अतएव बाल समाज उसका घोर शत्रु था। इसलिये ज्यों ही ढुण्ढा भस्म हो गयी त्यों ही बालकों में आनन्द छा गया और सब लोगों ने जाकर अग्नि की पूजा की तथा उसकी चिता-भस्म सिर में लगायी। वह दिन फाल्गुनी पूर्णिमा का और वार्षिक अग्न्याधान का था। अतएव उस दिन को लोग पवित्र तथा बालघातिनी ढुण्ढा के नाश का स्मारक समझ ढुण्ढेरी के नाम से मनाने लगे, जिसका शुद्ध नाम 'टुण्ढारी' कहा जाता है। बात कुछ भी हो किन्तु प्रबल पवनप्रेरित महाचिता में भी जब प्रह्लाद नहीं जले, तब उन्होंने दैत्यराज से हाथ जोड़कर
कहा कि
तातैष वह्निः पवनेरितोऽपि
न मां दहत्यत्र समन्ततोऽहम्।
पश्यामि पद्मास्तरणास्तृतानि
शीतानि सर्वाणि दिशाम्मुखानि॥
( विष्णु ० १ । १७ । ४७ )
अर्थात् “हे पिताजी! यह महापवन से प्रेरित प्रज्वलित अग्नि मुझे नहीं जलाती, मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत हो रही हैं मानों मेरे चारों ओर कमल बिछे हों।”
प्रह्लाद को अग्नि में न जलते हुए देख दैत्यराज ने असुरों को आज्ञा दी कि “इस बालक को ले जाकर बड़ी ऊँची पहाड़ की भयावनी चोटियों पर से नीचे पटक दो, जिससे इसका शरीर चूर्ण-विचूर्ण हो जाय।” असुरों ने वैसा ही किया किन्तु वहाँ भी प्रह्लाद का बाल बाँका न हुआ। वे ज्यों-के-त्यों सानन्द शान्तस्वरूप पहाड़ की चोटियों के नीचे जा खड़े हुए। जब दैत्यराज से असुरों ने वहाँ का सारा समाचार सुनाया, तब तो वह अत्यन्त क्रोध और आश्चर्य के सागर में डूबने-उतरने लगा।
दैत्यराज की चिन्ता और विकलता देख, पुरोहितों ने उसकी स्तुति करते हुए कहा कि “आप अपने इस देवतुल्य पुत्र पर क्रोध न करें और न इसके सम्बन्ध की चिन्ता करें। आपके उपाय इसके ऊपर सफल नहीं हुए, इसकी भी चिन्ता आप न करें, इससे आपका कोई अपमान नहीं है। नीति-शास्त्र में लिखा है कि ‘सर्वतो विजयं हीच्छेत् पुत्रादिच्छेत्पराभवम्।' अर्थात् बुद्धिमानों को चाहिए कि सबसे विजय की इच्छा रक्खे, किन्तु पुत्र से तो यही इच्छा रक्खे, कि वह महान् बली होकर हमको ही हरा दे। राजन्! आप प्रसन्न हों, अब हम इसको फिर अपने साथ ले जाते हैं और इस बार इसको हम लोग ऐसी शिक्षा देंगे, ऐसा तैयार करेंगे कि यह विपक्षियों का पक्षपाती न होकर शत्रुओं का दृढ़ नाश करने वाला होगा। आप इस अपने छोटे पुत्र और अपने हृदय के टुकड़े पर अब क्रोध न करें! इसमें इसका नहीं इसकी अवस्था का दोष है। बालपन में सभी दोष घेरे रहते हैं। इसी से बाल्यावस्था को नीतिकारों ने दोषों का आश्रय कहा है। बाल्यावस्था के दोषों से बचाने के लिये ही बालकों को ब्रह्मचर्यव्रत तथा सद्गुरु द्वारा शिक्षा देने का नियम चला आया है। दैत्यराज! यदि इस बार भी यह बालक हमारी शिक्षा से न सुधरेगा और श्रीविष्णु का पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करने के लिए किसी भी प्रकार न टलने वाली कृत्या उत्पन्न करेंगे जो किसी के लौटाने से भी न लौटेगी और इसको भस्म करके ही छोड़ेगी।”
पुरोहितों की प्रार्थना दैत्यराज ने स्वीकार कर ली और प्रह्लाद को पुनः पाठशाला में जाने के लिये आज्ञा दे दी। पुरोहितों के साथ प्रह्लादजी पुनः विद्यालय में पधारे और वहाँ उन्हें नीतिशास्त्र की शिक्षा दी जाने लगी।