घर छोडने के पश्चात जब किरण मथुरा और वृन्दावन में भी प्रसन्न नहीं रह सकी और जब उसको अपने पिता की मृत्यु का शोक अधिक व्याकुल करने लगा, तो दीपक मन बहलाने के लिए उसे नैनीताल ले आया। पहाड़ी इलाके पर कुमाऊँ की प्रसिद्ध पर्वती घाटियों में। भारत की सुन्दर प्राकृतिक पर्वती छटाओं के सहारे उसने किरण का दु:खी मन बहलाने का अथक प्रयत्न किया। यही सोचकर कि समय के गुजरते ही यहां किरण कुछ हद तक बहुत कुछ भूल जायेगी। फिर हुआ भी ऐसा ही। वह नैनीताल की विश्व-प्रसिद्ध झील को देखकर स्वत: ही प्रसन्न हो गयी। हर तरफ ऊँचे-ऊंचे पहाड़- पहाडों पर भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य ! सुन्दर मनोरम झील- झील की अथाह गहराइयों को पाकर किरण क्षण भर के लिए अपना दु:ख-भरा अतीत भूल बैठी। यहां के शांति भरे वातावरण ने दिल की गहराइयों से उसे समझाना चाहा- झील की सुन्दरता ने उसे जी भरके प्यार दिया। हरेक यात्री, पर्यटक ने उसको प्रेम-पूर्वक निहारा। चीड़ के वृक्षों ने उसके दर्द को बाँटकर पहाड़ी बर्फीली हवाओं में परिणत कर दिया। प्रत्येक पत्थर के टुकड़े ने जैसे उसके दर्द को पूछा और समझा भी था। ऐसे दिल-भरे वातावरण को पाकर किरण मुस्कुराये बिना ना रह सकी। यहां आकर वह भूल गयी कि उसके पिता ने उसको सदा के लिए छोड भी दिया था। वह भूल गयी थी कि वह अब सारी दुनिया में नितान्त अकेली है। एक अनाथ लडकी के समान जीवन गुजार रही है। दीपक ने भी उसके दु:ख-ददों को समझ और दिल से महसूस करके उसको समझाया ही था। जीवन-जीने के उपदेश दिये थे। घंटों बैठकर उसको प्यार दिया था और फिर ये उसके इस परिश्रम का ही फल था कि किरण के चेहरे पर विलीन हुई मुस्कुराहट पुन: वापस आ गयी थी।
दीपक ने उसे नैनीताल का चप्पा-चप्पा घुमा दिया। प्रतिदिन किरण उसके साथ बैठकर नौका-विहार करती और फिर सारे दिन घूमने-फिरने के पश्चात् जब रात्रि का साया बढने लगता, तो वह होटल में आ जाती-आ जाती तो दीपक उसे प्यार-भरी बातों में लगा लेता। यही सोचकर कि न किरण अकेलापन महसूस करेगी और ना ही वह पुन: उदास होगी.
जिन्दगी की गाड़ी इसी प्रकार चल रही थी। किरण दीपक का साथ पाकर उसके प्यार में डूब चुकी थी, परन्तु दीपक अब स्वयं को एक कशमकश में फंसा हुआ महसूस करने लगा था। किरण को वह न अकेला छोड़ सकता था और ना ही वह उसके साथ सदा के लिए बँध सकता था। उसकी परिस्थिति और हालात ही कुछ ऐसे थे। ठीक पर्वती वातावरण के समान ही। नैनीताल में कभी पानी बरसता था, तो कभी धूप खिल आती थी। बादल सदैव उनके ऊपर और आस-पास आवारागर्दी करते रहते थे। शायद बेमतलब ही। कभी वे बरसकर भाग जाते थे, तो कभी रिमझिम वर्षा की फुहारें ही छोड़ देते थे।
नैनीताल आये हुए दीपक को आठ दिन से अधिक व्यतीत हो चुके थे।
उसकी छुट्टियाँ भी समाप्त हो रही थीं। घर लौटना भी अत्यन्त आवश्यक था।
और जब दीपक ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह होटल के कमरे के बाहर, कुर्सी डालकर इन्हीं सारी बातों पर विचार कर रहा था। किरण नहा रही थी। झील के जल पर दो-एक नावें ही तैर रही थीं। बाकी सब-की सब किनारे पर खड़ी हुई यात्रियों के आने की बाट जोह रही थीं। झील के ऐसे ही दिल-भरे और लुभावने वातावरण को देखकर दीपक अपने विचारों में लीन हो गया था। गंभीर, सोचो में तल्लीन। केवल अपने और किरण के भावी जीवन के विषय में सोचे जा रहा था। एक अजीब ही स्थिति उसके समक्ष आ गयी थी। ऐसी समस्या उसके सामने थी कि इस विषय में वह न किसी से कुछ कह सकता था और ना ही किसी से सलाह-मशविरा से सकता था। किरण ने अपने सारे जीवन की आशायें अब उसी से लगा रखी थीं। वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य के विषय में सोच भी नहीं रही थी। फिर सोच भी कैसे सकती थी? उसका प्लूटो अब रहा नहीं था और दीपक को वह अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी थी। इन परिस्थितियों में बहुत ही स्वाभाविक था कि वह दीपक को ही चाहती। उससे अपना नाता जोड़ती। इसी कारण वह ऐसा कर भी रही थी। उसी को अपने शेष जीवन का माँझी मानकर अपना ठिकाना समझ चुकी थी, परन्तु दीपक? वह यही हालात देखकर चिंतित हो गया था- चिंतित होना भी बहुत आवश्यक था। प्यार और वासना के उफान में बहकर, उसने कितना बड़ा छल किरण के साथ खेला था। उसको अपने प्यार का विश्वास दिलाकर उसके साथ रंगरलियाँ मनाता आ रहा था। प्यार-मुहब्बत के इन चन्द लम्हों में बहककर, वह ये भी भूल गया था कि वह एक विवाहित पुरुष है। वह किसी का पति भी है। अपने तीन बच्चों का पिता है- एक जिम्मेदारी निभाने का वह मालिक है। ऐसी दशा में उसने एक अबोध और सीधी, भोली-भाली लड़की की जिन्दगी के साथ खेलकर पाप नहीं किया था, तो फिर ये सब क्या किया था? जीवन के पिछले कई सारे दिनों में वह किरण को एक झूठी तसल्ली की आस पर रखे हुए था। उसके जीवन से खेल चुका था। क्या उसको ऐसा करना चाहिए था? कभी भी नहीं। मानवता के दायरे तो यही कहते है, परन्तु यह एक समझदार युवक होकर पल-दो-पल प्यार के क्षण पाकर सब कुछ भूल बैठा था। अब, जबकि ये परिस्थिति उसके समक्ष थी, तो वह क्या करे? क्या करे और क्या नहीं? किरण को जब ज्ञात होगा कि वह एक विवाहित है, उसके प्रेमी की पत्नी है, बच्चे हैं। तब उस पर क्या बीतेगी? सुनकर जान नहीं निकल जायेगी उसकी। फूट-फूटकर रोना तो दूर रहा, सिर नहीं फ़ोड़ बैठेगी वह अपना। क्या पता प्यार का इतना बड़ा सदमा, टूटे हुए दिल का ऐसा आघात वह सहन भी कर सकेगी अथवा नहीं? हो सकता है कि जीवन से आत्मग्लानि होकर वह आत्महत्या ही कर बैठे? अपने जीने की रही-बची आस ही खो बैठे? झील के जल पर तैरती-फिसलती लापरवाह नावों को देखता हुआ दीपक इन्हीं उपरोक्त विचारों में जैसे खो-सा गया था। आकाश पर इतनी ही देर में फिर से बादलों के काफिले आ गये थे। बादल के कुछेक टुकड़े झील के जल को झुक-झुककर प्यार कर रहे थे, तो कुछेक दूर से ही जैसे सज़दे में झुक गये थे। मानो सुबह की किरणों के उदय होने की प्रतीक्षा में अभिवादन कर रहे हों। पर्यटकों की भीड़ अब बढ़ती जा रही थी। चीड़ एकदम शान्त-से थे, परन्तु वातावरण में यात्रियों का शोरगुल, उनकी बातों की गुन-गुनाहट प्रतिपल बढ़ती जा रही थी… ।
"दीपक !" अचानक-से किरण ने उसको पास आकर पुकारा तो उसके विचारों की श्रृंखला टूट गयी। अपने खयालों से दूर हटकर उसने किरण को निहारा तो किरण स्वयं ही मुस्कुरा पड़ी। झील के रंग की मिलती-जुलती हरी-नीली-सी साड़ी में उसका रूप और भी अधिक निखर आया था। दीपक कुछ कहता, इससे पहले ही किरण बोल बैठी,
"अरे! तुम तो तैयार भी नहीं हुए? "चायना पीक' की चोटी दिखाने नहीं ले चलोगे क्या?"
"ओह ! अरे हाँ ! चलना तो है।" दीपक कुछ रुककर, फिर आगे बोला,
"तुम तैयार हो तो चलो फिर।"
“...?”
इस पर किरण ने दीपक को देखा- गौर से, बहुत करीब से। उसके पास आकर, उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया, फिर तुरन्त उसकी गम्भीरता को भाँप लिया। वह उसकी मनोस्थिति से अनभिज्ञ होकर पूछ बैठी,
"तुम तो, लगता है कि जैसे बहुत ही अधिक गम्भीर थे। कहीं अन्य खयालों में… मानो जैसे गुम हो गये थे ?"
"नहीं ! नहीं ! ऐसी बात नहीं है… ‘मैं तो तुम्हारे ही विषय में सोच रहा था।" दीपक ने गंभीर होकर कहा।
"मेरे विषय में… ? " किरण को तुरन्त उत्सुकता हो गयी। फिर थोड़ा थमकर, धैर्य से, उसने दीपक को टटोलना चाहा। वह आगे बोली,
"सो, क्या सोच रहे थे तुम मेरे बारे में ?"
"यही कि तुम्हें अब अपना विवाह कर लेना चाहिए।"
‘विवाह… ' यह नाम वह मन-ही-मन बुदबुदा गयी। साथ ही लजा भी गयी। पलभर में ही उसके सम्पूर्ण चेहरे पर शर्माहट झलक गयी। वह कुछ बोल नहीं सकी। केवल सोचने पर विवश हो गयी। दीपक ने उसके दिल की छिपी बात को पकड़ कर उसके सामने कर दिया था। उसके होंठों के शब्द छीनकर स्वयं उसी को भेंटस्वरूप प्रदान कर दिये थे। भविष्य की सारी प्रसन्नताओं के फूल चुन-चुनकर उसके दामन में जो भर दिये थे। जिस बात को वह स्वयं नहीं कह सकती थी, उसी को दीपक ने कह डाला था। वह तो कब से अपने विवाह के लिए सोचती आ रही थी। जिन्दगी के इतने सारे पिछले ढेरों-ढेर दिन उसने इसी एक शब्द के सोचने और सुनने की प्रतीक्षा में बिता दिये थे। ना जाने कितनी रातें उसने करवटों में काट दी थीं। इस तीन अक्षरों के शब्द में- शब्द के इस छोटे-से रूप में जीवन के कितने सारे प्रश्न कैद थे। कितनी खुशियाँ थीं। किसकदर उत्साह, उल्लास, क्षोभ, विछोह, वितृष्णा क्या कुछ नही था। 'विवाह' नाम के इस छोटे-से रूप में उसकी जिन्दगी के सारे सुख- सुखों का संसार और उसका शेष भावी जीवन सुरक्षित था।
"अरे ! तुम तो जरा-सी बात पर जाने कहाँ खो गयी ?"
दीपक ने उसे छेड़ दिया तो वह मुस्कुराकर, अपने मन की छिपी खुशी को टाल गयी। दीपक ने महसूस किया कि किरण की इस पल-दो-पल की मुस्कान में उसके अपने जीवन के प्रति कितनी अधिक अनभिज्ञता भरी पड़ी थी । किसकदर अबोधपन था। कितना अधिक उसका दीपक के प्रति विश्वास था? कितनी भोली थी वह? कितना अधिक वह दीपक पर आँख बन्द करके विश्वास कर बैठी थी। फिर उसके इसी विश्वास को जब एक दिन ठेस पहुँचेगी तो फिर क्या होगा? क्या कुछ नहीं हो जायेगा? दीपक जीवन की इसी कड़वी वास्तविकता के बारे में सोचने-भर से ही टूट जाता था। पलभर में ही वह शिथिल-सा पड जाता था। बुझ जाता था। किरण इस बात को नहीं जानती थीं- जानने की कभी उसने चेष्टा भी नहीं की थी। फिर कर भी कैसे सकती थी? जहां विश्वास, प्यार और श्रद्धा के बल पर कोई स्त्री पुजारिन बन बैठी हो, वहाँ उसको अविश्वास बहका भी किस प्रकार सकता था। यथार्थ की प्यार-भरी भावनाओं को तोड़ भी कैसे सकता था? दीपक ने उसे चाहा था। अपनाया था। उसे विश्वास दिया था। ऐसी स्थिति में उसे प्यार के अतिरिक्त और चाहिए भी क्या था, सिवा इसके कि दीपक उसका अपना था। वह 'दीपक' की एक 'किरण' ही थी। इसके अतिरिक्त वह सोच भी क्या सकती थी? सोच लेती तो आगे वह कुछ भी नहीं होता, या जो हो गया था और जो होने जा रहा था। प्यार की इसी कमजोरी के कारण अक्सर प्रेमी चोट खा जाते हैं। किरण भी अपने प्यार के प्रति इसी तरह दुर्बल हो चुकी थी- हर दृष्टिकोण से। वह दीपक पर मर-मिट चुकी थी। उसे पाने के लिए अथवा पाकर खोने के लिए? इस बात से तो वह अभी तक अनभिज्ञ ही थी.
'चायना पीक' की चोटी पर चढ़ने के लिए कोई सीधा मार्ग तो था नहीं, केवल घोड़े और खच्चरों पर बैठकर ही उस पर कठिनाई से चढ़ा जा सकता था। पैदल चलना किरण के लिए और भी कठिन था, क्योंकि पहाड़ों की चढाई का उसे अभ्यास भी नहीं था। यही सोचकर दीपक ने खच्चर कर लिए थे। दोनों ही अलग-अलग खच्चरों पर बैठे हुए थे। अपने-अपने विचारों में खोये हुए-से। मानों स्वत: ही रूठ गये हों! पहाड़ी युवक अपने खच्चरों की लगामें थामे हुए पैदल ही चल रहा था। किरण अपने विवाह के विषय में सोच रही थीं। दीपक के साथ अपने विवाह के लिए, वह आज सुबह से ही सोचने लगी थी, तब से जब से कि दीपक ने इस प्रसंग को छेड़ दिया था। साथ-साथ दीपक स्वयं भी उसके विवाह के प्रति ही सोच रहा था, परन्तु दोनों की सोचों में जमीन-आसमान का अन्तर था। किरण जहां अपने विवाह के स्वप्न देख-देखकर मन-ही-मन सुखी और प्रसन्न होती थी- खुशियों के कारण वह आत्म-विभोर होती थी, वहीं दीपक पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता था। किरण को क्या ज्ञात था कि दीपक उसके विवाह के प्रति तो सोच रहा हैं, परन्तु अन्य किसी 'दीपक' के साथ विवाह होने के लिए- खुद उसके साथ नहीं! अपने भावी जीवन के प्रति इतनी बिषभरी, इस कदर कड़वी-कसैली वास्तविकता से अनभिज्ञ किरण अपने मन के सपने सजाने में ही लीन थी। सपनों को तरह-तरह के रंगों से भरे जा रही थी। खच्चर चले जा रहे थे। अपनी ही धुन में। उनके गलों में बँधी हुई घंटियों की टुन-टुन उसके स्वप्नों को और भी अधिक खुशियों के अम्बार दे रही थी। दीपक मौन था। किरण भी मौन थी। पहाड़ी खच्चरों का मालिक अपने कार्य और कर्तव्य के प्रति सजग था। केवल खच्चर ही अपने से लापरवाह, एक ही रपतार से, पहाड़ों के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर अटक-अटककर जैसे चढ़ते जा रहे थे। घंटियाँ बज रही थीं- टुन . . .टुन . . .टुन . . . 'किरण' और 'दीपक'- 'दीपक' और 'किरण'- प्रकृति के इस वास्तविक और बे-मेल प्रेमी युगल को जमाने की कहाँ परवाह थी। वातावरण का भी ख्याल नहीं था। उनके मध्य ना कोई आवाज थी और ना ही शब्दों का कोई भी आदान-प्रदान। खच्चरों के गलों में बँधी हुई घंटियों का मधुर-मधुर स्वर, वातावरण की समस्त खामोशी को जैसे हलके-हलके गुदगुदाता चला जा रहा था। "चायना पीक' की चोटी अभी फिर भी दूर थी, मगर खच्चर धीरे-धीरे चले जा रहे ये। साथ-साथ पहाड़ी युवक भी चल रहा था। चीड़ शान्त थे। बादल भटक रहे थे। घंटियां अपना शोर कर रही थीं- टुन . . .टुन . . .टुन . . .
लगभग आधे घण्टे की यात्रा के पश्चात "चायना पीक' की चोटी आ गयी। बढ़ती हुई ऊँचाइयों का प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर किरण खुशियों के अम्बार में प्रफुल्लित हो गयी। कलियों समान चटकने लगी। चिड़ियों की तरह चहक गयी- पलभर में ही उसे महसूस होने लगा कि संसार का जैसे सारा सुख उसके आँचल में स्वत: ही आ गया है। वह संसार की सबसे अधिक सुखी युवती है, और ऐसा होना बहुत स्वाभाविक भी था। सब कुछ तो उसके पास ही था। दीपक-उसका प्यार- उसका हमसफर। जिन्दगी की नाव का माँझी- उसका हमदम. एकान्त मौन वातावरण- पहाडों की खामोशी- कुदरत की खुबसूरती मानो, उसके कदमों को चूम लेना चाहती थी। ऐसे में फिर उसे किसकी परवाह होती। वह क्यों चिंतित होती? प्रसन्न होना और मुरुकुराना- पल-पल में चेहरे की मधुर मुस्कान में एक रंगत आना। आभा का सशक्त होना स्वाभाविक ही नहीं बहुत आवश्यक भी था। अपने पर जब वह काबू नहीं कर पायी तो स्वयं ही दीपक का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले आयी। खुशियों में, वह तीव्रता से एक ओर भागने लगी। दीपक भी आश्चर्य करता हुआ उसका हाथ थामे साथ-साथ भागने लगा। फिर अचानक ही जब दीपक से नहीं रहा गया तो वह पूछ ही बैठा,
"ये कहाँ लिए जा रही हो मुझे?"
"बहुत अच्छी वस्तु दिखाने ।" किरण ने भागते में ही कहा।
फिर कुछेक क्षणों के पश्चात वह एक पहाड़ी की ढलान पर आते ही थम गयी। नीचे घाटी और भी गहरी और वीरान होती चली गयी थी। कहीं-कहीं पर पर्वती जल की धाराएँ पत्थरों से फिसलती हुई घाटी के गर्भ में समाती जा रही थीं। कुछेक स्थानों में बादलों के लिहाफ नीचे घाटी में झांक रहे ये।
“वह देखो-यहाँ से नैनीताल की झील का दृश्य, कितना सुन्दर प्रतीत होता है।" किरण ने हाँफते हुए कहा।
"हां ! अतिप्रिय ! " दीपक ने उसका अनुसरण कर दिया।
"चलो यहीं बैठते हैं, थोडी देर ! " ये कहकर किरण ने दीपक को वहीं एक स्यान पर बैठा लिया और फिर उसके साथ बातें करने लगी। प्यार-भरी- दिलभरी! अपने दिल की हसरतों पर, प्यारभरी इस नैनीताल की स्मृतियों को जैसे अंकित करने का प्रयास करने लगी।
- क्रमश: