एक रूह की आत्मकथा - 49 Ranjana Jaiswal द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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एक रूह की आत्मकथा - 49

"स्त्री जब तक गुलाम बनी रहती है तब तक पुरूष की प्रिय रहती है पर जब वह अपनी बुद्धि,तर्क के सहारे अपने वजूद को साबित करती है ,अपने होने को दिखाती है तो पुरूष उसका दुश्मन हो जाता है |कारण साफ है कि स्त्री के इस कदम से उसकी सत्ता खतरे में पड़ जाती है ।वह उस स्त्री का तिरस्कार करने लगता है ।उसे पीड़ा पहुँचकर आनंद का अनुभव करने लगता है |परपीड़क तो पुरूष हमेशा से रहा है और इससे वह कभी ग्लानि का अनुभव भी नहीं करता। पुरूष अपनी अक्षमता ,निकम्मेपन और तर्कहीनता को क्रूरता के आवरण में छिपाता है |समाज की हर वस्तु पर उसका ही कब्जा है |पुरूष होने का अहंकार उस पर इतना हावी है कि वह अपनी स्त्री –विरोधी हर काम को न्यायोचित ठहराता है |
यदि कोई स्त्री अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना चाहती है तो उसमें कोई गलत बात तो नहीं ।वह भी तो ऐसा करता है और उसकी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में स्त्री सहायक भी बनती है पर यदि स्त्री उसकी मदद लेती है तो वह उसकी कीमत वसूल करता है |यदि इस यात्रा में स्त्री असफल होती है तो सारा दोष उसी के सिर जाता है कि उसने सफल होने के लिए छोटा रास्ता क्यों चुना ?गलत रास्ते पर स्त्री को ले जाने वाला भी कोई पुरूष ही होता है पर वह बेदाग अलग खड़ा रहता है |
विज्ञान भी यह मानता है कि जिन पुरूषों में स्त्री-गुण ज्यादा हैं ,वही भावना-प्रधान हो सकते हैं |पुरूष प्रधानता उनको दैहिक रूप से बलिष्ठ तो बनाती है,पर हृदय की कोमलता को खत्म कर देती है |आज की स्त्री को स्त्री गुणों वाले पुरूष ज्यादा पसंद आ रहे हैं |सदियों से स्त्री को बुद्धिहीन और पुरूष को बुद्धिमान बताने का परिणाम यह निकला था कि स्त्री स्वयं को ऐसा ही मानने लगी थी|वह हर निर्णय के लिए पुरूष का मुंह ताकती थी |अगर किसी स्त्री को बुद्धिमती होने का भान होता भी था तो उसे किसी कालीदास जैसे मूर्ख से बांध कर दबाने का प्रयास किया जाता था|विडम्बना यह कि कालीदास जैसा मूर्ख भी अपनी स्त्री द्वारा मूर्ख कहा जाना सहन नहीं कर पाया |तुलसीदास पत्नी द्वारा ज्ञान देने पर इस कदर आहत हुए कि जीते-जी उसका मुंह देखना नहीं चाहा इतना ही नहीं उन्होंने स्त्री विरोधी कितने ही दोहे रच डाले।वे भूल गए कि वे स्त्रियाँ ही थीं जिनके कारण कालीदास और वे खुद दोनों ही कविशिरोमणि हुए।दोनों ने कभी इसका श्रेय अपनी पत्नियों को नहीं दिया |पुरूष की उपेक्षा और तिरस्कार को स्त्री अपना भाग्य मान लेती रही |वह उसके गढ़े नियमों की कसौटी पर खरा दिखाने के प्रयास में अपनी सारी विचारशीलता खो देती रही ,जबकि स्त्री को अपनी भावनाओं,अपने सम्मान और अपनी मुक्ति के प्रति सचेत रहना चाहिए |पर आज की नयी स्त्री जागृत है उसे अपनी भावनाओं,सम्मान और मुक्ति की परवाह है ओर यह न्यायोचित है।"
अखबार में उमा के इस लेख को पढ़कर स्वतंत्र बौखला उठा।वह अखबार को हाथ में लिए हुए घर में घुसा।उमा अपनी छोटी बेटी रूचि के बाल बना रही थी।
"सुनो,जरा कमरे में आना।तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।"
"थोड़ी देर रुकिए।रूचि की स्कूल बस आ रही होगी।इसे तैयार कर दूँ।"
उमा रूचि को तैयार करने में लगी रही।बड़ी बेटी सुरुचि स्कूल जाने के लिए तैयार हो चुकी थी।
दोनों बच्चियों को स्कूल बस में बिठाकर उमा लौटी तो देखा कि स्वतंत्र अपनी माँ को उसका लेख पढ़कर सुना रहा है।
दोनों का मूड बहुत खराब है। वह चुपचाप रसोईघर की ओर चली।
"सुनो....ये सब क्या है?मेरे खिलाफ़ लेख लिखे जा रहे हैं, वो भी अखबार में ताकि लोग मेरा मज़ाक उड़ाया सकें।"
स्वतंत्र ने चिल्लाते हुए कहा।
"आपको भरम है यह किसी एक पुरुष के लिए नहीं है।"
उमा ने शांति से जवाब दिया।
"नारी जागरण का भूत सवार हो गया है क्या?इस भूत को झाड़ना मुझे आता है।"
कहते हुए स्वतंत्र उमा की तरफ लपका।
"ख़बरदार!जो मुझ पर हाथ उठाया।घरेलू हिंसा के चार्ज में अंदर करवा दूंगी।"
उमा ने भी तेज स्वरों में कहा।
नंदा देवी बीच- बचाव करने लगी।
"ये घर है कि मछली -बाज़ार,जब देखो चीख -चिल्लाहट!ये भी नहीं सोचते कि इस झगड़े का प्रभाव बच्चियों पर क्या पड़ेगा?"
"आप अपने बेटे को समझाइए ।कोई काम- धाम तो है नहीं बस सारे समय मेरी जासूसी में गुजारते हैं।मैं दो -चार अक्षर लिख लेती हूँ,उस पर भी इन्हें एतराज है।"
उमा गुस्से से भरी हुई थी।
-"पर बेटा ,तुम ऐसा कुछ क्यों लिखती हो कि उसके मर्दानगी पर चोट लगे।"
नन्दा देवी ने उमा को समझाने वाले स्वर में कहा।
"जवाब दो,बोलती क्यों नहीं? पता नहीं इसकी बकवास रचनाएं छप कैसे जाती हैं?सम्पादकों से नजदीकियां होंगी।"
स्वतंत्र ने तंज कसा।
"जुबान को लगाम दो।मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ।मेरी रचना में दम होता है,तो ही छपती हैं ।"
उमा तिलमिला रही थी।
"रचना में दम!हा हा हा ।पुरुषों के खिलाफ़ ज़हर उगलती हैं,ये भी कोई रचना है।हाँ,इनमें जरूर दम है इसलिए छाप दी जाती हैं।हो सकता है कि इनकी कृपा दृष्टि उन बेचारों पर पड़ जाए।"
स्वतंत्र ने जहर उगला।
"गंदा आदमी हर जगह गंदगी ही देखता है।मुझे शर्म आती है कि ऐसी सोच वाला मेरा पति है।"
उमा बिलबिला उठी।
"तो दूसरा ढूंढ लो,मना किसने किया है?कौन जाने ढूँढ़ भी लिया हो।"
स्वतंत्र धूर्तता से मुस्कुराया।
"तुम्हारे जैसा पति हो तो औरत कर ही लेगी।जब बिना कुछ किए बदनाम होना है तो कर लेने में कोई बुराई नहीं ।"
उमा ने चिढ़कर जवाब दिया।
"देखा माँ,इसके दिल की बात इसकी जुबान पर आ ही गई।यह दूसरी कामिनी है और उसी के रास्ते पर चलना चाहती है।इसको भी कोई समर चाहिए।"
अब स्वतंत्र तिलमिला रहा था।
"मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा।आप जो चाहे सोच लें ,मुझे इसकी कोई परवाह नहीं ।"
उमा ने लापरवाही से उत्तर दिया।
"माँ मैं इसके साथ नहीं रह सकता।मुझे लगता है कि इसका चरित्र नष्ट हो चुका है।यह आज़ाद रहना चाहती है।खुलकर जिंदगी के मज़े लेना चाहती है।मैं इसे तलाक देना चाहता हूँ।"
स्वतंत्र ने अपनी मंशा स्पष्ट की।
"इतना आसान नहीं होगा मिस्टर स्वतंत्र,आप दो बच्चियों के पिता हैं।मेरे बगैर उनकी परवरिश कैसे करेंगे?"
उमा ने ताना मारा।
"मेरी बच्चियां हैं जैसे सम्भव होगा,वैसे पाल लूंगा।नहीं पाल पाया तो ज़हर दे दूंगा,पर तुम जैसी बदजात के साथ नहीं रहूँगा।"
उमा के जवाब से स्वतंत्र का गुस्सा बढ़ रहा था।
"मेरी बच्चियों को जहर देने की बात करते हो?मैं अपनी बेटियों को तुम्हारे पास नहीं छोड़ूंगी।उन्हें साथ ले जाऊँगी।"
उमा ने उसे चेतावनी दी।
"कोशिश करके देख लेना,नहीं ले जा पाओगी।तुम्हारे पास रहकर वे भी तुम्हारी तरह बन जाएंगी।मैं उन पर तुम्हारी छाया भी पड़ने दूंगा।तुम.....तुम...।"
गुस्से की वजह से स्वतंत्र के मुंह से झाग निकल रहा था।उमा ने उसके गुस्से की आग में घी डालना उचित नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चली गई।
उनके बीच इस तरह की लड़ाई अक्सर होती रहती थी।