एक अमीर, एक गरीब Rk Mishra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक अमीर, एक गरीब

फटे चीथड़ों से ढका शरीर, थका-सा निर्जीव-सा घर-घर डोला करता । कोई कुछ देता तो भी आशीर्वाद न देता। सबेरे उठता, दिन भर भांगता और जब दिन भर की चहल-पहल के बाद थक कर लोग अपने घरों में मां, पत्नी एवं बच्चों के साथ दुःख भूलकर, थकावट खो कर निद्रा की गोद में बेहोश से पड़े आनन्द ले रहे होते तो वह फुटपाथ की जलती ईंटों पर लेटकर मानो जीवन के सारे अभाव जलाकर राख कर देना चाहता हो। वह लेटता तो रात को सड़क पर आने-जाने वाले लोग देखते रहते- "कैसा भाग्यशाली है। कोई चिंता नहीं, कोई परेशानी नहीं, आनन्द से सो रहा है।" लेकिन उसकी सांसें, उन सांसों के आने-जाने के साथ-साथ उठते-गिरते उसके अस्थि-पंजर, उसके थके-हारे उदास चेहरे की रेखाएं कौन पढ़ता ? किसे पढ़ने की फुर्सत थी। वह अकेला नहीं था। उसके साथ था अभावों की लपटों में झुलसता हुआ एक छोटा-सा दस वर्ष का बच्चा "मां" का सुख शायद उसने देखा नहीं। जब उसने आंखें खोलीं तो गरीब याचक पिता की बांहों में अपने को चिपटा पाया। बेटे की ममता, उसकी आशाएं उसे बुला रही थीं।उस दिन जब वह जोगेन्द्र पाठक रोड के घुमाव वाले मकान के सामने अपने बेटे को बगल में लिए खड़ा याचना की झोली बढ़ाए आशीर्वादों के माध्यम से कुछ मांग रहा था कि उसी बीच उस कोठी से एक भोला-सा सुन्दर बच्चा, जो उस गरीब के संतू जैसी आयु का रहा होगा, आकर उसकी बगल में खड़ा हो गया। निष्कलंक, निष्पाप और प्रेम भरे शब्दों में सन्तू के कंधे पर हाथ रखकर बोला- “चलो, चल कर खेलें।"
सन्तू देखता रहा । कुछ झिझका। लेकिन न जाने क्यों, उसके पीछे-पीछे चला गया।
बाबू शालिग्राम का नौकर घर की ड्योढ़ी पर खड़ा देख रहा था । भिखारी को भीख देना तो दूर रहा, वह सीढ़ियों से नीचे आया। दौड़ता हुआ गया और सन्तू का हाथ पकड़कर झटका, बिना कुछ कहे-सुने दो तमाचे उसके गाल पर जड़ दिये । सन्तू चीखता हुआ भागा अपने भिखारी बाप की ओर। निर्मल वहीं खड़ा वह पाशवी कृत्य देख रहा था ।सन्तू अब अपने बाप की गोद में था। वह कह रहा था - "यह क्या किया तुमने बेटा ! बड़ों की बगल नहीं चला करते। वे बड़े हैं, उनकी दया, उनकी खुशी हमको मिलती हो तो भी नजदीक से नहीं, सौ गज की दूरी से ही लेनी चाहिए।" और निर्मल आंसूभरी आंखों से ऐसे देख रहा था जैसे वह तमाचा सन्तू को नहीं, उसी को लगा हो। वह चाहता था कि दौड़कर सन्तू को गले लगा ले, उसे प्यार करे। उसके साथ खेले और उसे कभी दूर न जाने दे। उसे क्या पता कि अमीर और गरीब क्या होते हैं। उनमें यह दूरी क्या होती है ? वह वैसे ही खड़ा रहा बड़ी देर तक। इसी बीच सन्तू को लेकर उसका पिता जा चुका था। अपनी वेदना छिपाए मजबूरियों के आंसू बहाते। उस दिन वह कहीं मांगने नहीं गया।उस दिन की घटना ने निर्मल और सन्तु दोनों के हृदय में एक अजीब-सी संवेदना, एक ऐसा विचित्र-सा अपनापन भर दिया कि मार खाकर भी सन्तु चाहता कि उसका पिता एक बार फिर उसी द्वार पर चले और एक धनवान का बेटा निर्मल ड्योढ़ी पर खड़ा इधर-उधर देखकर सोचा करता कि क्या ही अच्छा हो, यदि एक बार वह भिखारी उस बच्चे के साथ इधर पुनः आ जाए। अगर वह अबकी बार आए तो भिखारी भले चला जाए, पर वह लड़का, उसे न जाने दूंगा।

इंतजार इंतजार ही रहा, ख्याल ख्याल ही रहे, वे सच्चाई का रूप न ले सके। दिन बीतते गए, सुधियां भूलती गई। निर्मल बदलता गया और आज वह अपने पिता का उत्तराधिकारी, सम्पत्ति का मालिक है। अनेक भिखारी आते हैं, चले जाते हैं। किसी को पैसा मिलता है तो किसी को गाली। लेकिन अब उसमें वह संवेदना नहीं, वह दर्द नहीं, जो इंसान को गले लगाता है, आदमी आदमी की दूरी हटाकर एक हो जाता है। और सन्तु उसका पिता एक दिन फुटपाथ पर दम तोड़ चला । शहर के मेहतरों, म्यूनिस्पैलिटी के कर्मचारियों ने उसकी लाश न जाने कहां, किस ओर ले जाकर फेंक दी, उसे पता न चल सका। भगवान के निर्मल छत्र के नीचे साधनविहीन, असहाय सा, जिसका केवल उसे छोड़कर दुनिया में और कोई नहीं। था, वह खड़ा था। आंसू भी न आते थे कि दिल का भार हल्का हो जाता। रोना चाहता पर रो नहीं पाता था। शायद इसलिए कि सन्तू का जीवन रोने के लिए नहीं बना था। वह अपने जीवन की मंजिल पर इस दुनिया के झाड़-झंखाड़ों को चीरता हुआ आगे बढ़ा। मेहनत की, मजदूरी की, भूखा रहा, कड़कड़ाती सर्दी में पेड़ के नीचे सो गया। लेकिन मानव जीवन को घिनौना बनाने वाले दुष्कृत्य उसने नहीं किए। वह पुरुष था पौरुष का धनी जिसके सामने विपदाएं हार जाती है, बाधाएं थक कर घुटने टेक देती हैं। नदी-नाले, वन-पर्वत सभी रास्ता देते हैं। इस निश्चय और स्वाभिमान ने सन्तू को एक दिन सन्तू से डॉक्टर सन्तराम बना दिया । लोग रोते हुए आते और हंसते हुए चले जाते।डॉक्टर सन्तराम के क्लिनिक की घंटी बजी। उसने फोन का चोंगा उठाया तो कोई कह रहा था -"डॉक्टर साहब ! जरा जल्दी करिए। सेठ जी की हालत खराब है। आप फौरन आ जाए। सेठ शालिग्राम की कोठी जोगिन्दर पाठक रोड पर ।-सन्तराम कारले कर कोठी पर पहुंचा तो अतीत की विस्मृत घटनाएं क्षण भर में उसकी आंखों में नाच उठी। वह अन्दर गया। सेठ जी की अन्तिम सांसें चल रही थीं। उसने देखा, दवा दी, और सांत्वना के स्वर में बोला "चिन्ता न करें। ये ठीक हो जाएंगे।" निर्मल द्वार - तक भेजने आया। उसकी आंखों में आंसू देख कर उसे बीस वर्ष पूर्व का दृश्य एक बार फिर याद आ गया। जब वह उसी द्वार पर तिरस्कृत- सा खड़ा था और निर्मल दुखित अन्तःकरण से उसे निहार रहा था।

सेठ जी अच्छे हो गए। डॉक्टर सन्तराम और निर्मल का मेल-जोल बढ़ता गया। निर्मल की विस्मृति की चादर इतनी मोटी थी कि कई वर्ष तक उसे याद न आया। पर सन्तराम की संवेदना इतनी प्रखर थी कि वह जब भी किसी को अपनी पूर्व स्थिति में देखता, उसको अपने गाल पर लगे तमाचे और गालियां याद आ जाती।

एक दिन निर्मल ने कहा "चलो, डॉक्टर खेलने चले।" "नहीं" कुछ सोचते हुए सन्तू ने जवाब दिया- 'गाल पर तमाचे कौन खाएगा भैया ? खेल ? और वह भी तुम्हारे साथ। यह नहीं होगा।"

फिर सन्तु ने अपने जीवन के सारे घटनाक्रम उसे बताए किन-किन कठिनाइयों, बाधाओं को पार कर वह अपने भिखारी बाप की तड़पती आशाओं के अनुरूप बना तो बाप साथ न रहा। उसने कहा कि मित्र तो कोई था ही नहीं। एक बनने चला, एक ने एक बार कंधे पर हाथ रखा तो तमाचे की मार से मेरा सर झन्ना उठा था। आज अनेक लोग मित्र होने का दावा करते हैं लेकिन जो वेदना, जो तिलमिलाहट, जो प्रेम और सिहरन मैंने उस दिन उस अजनबी मित्र की आंखों में देखी थी, आज तक चाह कर भी किसी की आंखों में न देख पाया
"कौन था वह ?" "मेरे सामने खड़ा सेठ निर्मल चन्द्र । *

वह बोल उठा ।

अब निर्मल को समझते देर न लगी। उसकी समझ में आ गया कि यह तो वही है जिससे मिलने के लिए वह वर्षों से इंतजार कर रहा है। दोनों एक-दूसरे के गले से लिपट गए। दोनों रोए, खूब रोए और काफी देर तक रोते ही रहे। निर्मल का अहंकार संवेदना के आंसुओं से धुल गया। सन्तू के आंसू अपने प्यारे अजनबी दोस्त को गले से लिपटा पा कर उसे स्नेह से सींच रहे थे। निर्मल की सिसकियां कह रही थीं- "मुझे माफ कर दो सत्तू ! मैंने अपराध किया है। मैं तुम्हें भूल गया। तुम्हें मेरे कारण मार पड़ी।" और सन्तु की सांसें कह रहीं थीं कि मैं तेरा उपकार नहीं भूल सकता निर्मल ! याचना अभिशाप है, मांगना, दर-दर की ठोकर खाना, पुरुषार्थ से मुंह मोड़ना कलंक है, पाप है। तुमने मुझे उससे मुक्ति दिला दी, नहीं तो मैं भिखारी का भिखारी ही रहता। लोगों की घृणा और गालियों का पात्र तुमने ही मुझे कीचड़ से निकाल कर ऊपर उठाया। तुमने ही यह लालसा जगाई कि मैं तुम्हारे आंसुओं का उत्तर दूं।