[पुनः तपस्या और देवताओं में हलचल]रानी कयाधू गर्भवती हैं, इस समाचार को सुनकर दैत्यराज ने अपने आचार्यचरण शुक्राचार्यजी से प्रार्थना की कि आप इस बालक के यथोचित पुंसवनादि संस्कार यथा समय करावें और मेरे लिये कोई ऐसा यात्रा का सुन्दर मुहूर्त बतलावें कि जिससे मैं सफलता के साथ लौट कर आ सकूँ। दैत्यराज की प्रार्थना सुनकर दैत्याचार्य चुप रह गये। आचार्यचरण के मौनावलम्बन को देखकर दैत्यराज ने कहा कि “भगवन्! आप मौन क्यों हो रहे हैं? मैंने जो प्रार्थना की है उसके सम्बन्ध में आपने कुछ आज्ञा नहीं दी ?
शुक्राचार्य– “दैत्यराज! हम चुप इस कारण हो गये कि आपने न तो यही बतलाया कि आपकी यात्रा किस दिशा की ओर होगी और न यही बतलाया कि किस कार्य के लिये होगी? और जबतक आप यह विवरण नहीं बतलाते, तब तक ठीक-ठीक मुहूर्त बतलाना सम्भव नहीं।”
हिरण्यकश्यपु– “भगवन्! मेरी यात्रा तपोभूमि की ओर उत्तर दिशा को होगी और मेरी यात्रा का उद्देश्य तपस्या द्वारा अपूर्व वर प्राप्त करना होगा।”
शुक्राचार्य– “हे कश्यपपुत्र! आपके समान इस समय कोई भी भाग्यवान् नहीं। आपको ईश्वर ने दूध-पूत से भरा-पूरा कर रक्खा है। आपका प्रताप सारे जगत् में फैला हुआ है। हमको तो आपमें किसी बात की कमी नहीं प्रतीत होती। फिर आप किस अभिप्राय से राजपाट के इस दुर्लभ सुख को छोड़कर तपस्या करने के लिये जाना चाहते हैं? हम तो आपसे यही कहेंगे कि, आप राजकाज देखें और तपस्या का विचार त्याग दें।”
हिरण्यकश्यपु– “आचार्यचरण! आपने मेरे हित के विचार से जो उपदेश मुझे दिया है वह यथार्थ में मेरे लिये हितकारक नहीं है। आप जानते हैं कि, मेरे सौतेले बन्धुगण मेरे विरुद्ध कैसे-कैसे षड्यन्त्र रचा करते हैं।
'एक तो तितलौकी दूसरे नीम चढ़ी' की कहावत के अनुसार उनको विष्णु सहायक मिल गये हैं। ऐसी दशा में मैं, अपनी वर्तमान शक्तियों से उनका सामना करने में अपने आपको पूर्णतया समर्थ नहीं पाता। अतएव यदि तपस्या द्वारा देवताओं से अभय हो जाऊँ तो मैं अपने असुर-समुदाय को अधिक लाभ पहुँचा सकूँगा तथा अपने प्राण प्रिय भाई के वध का समुचित बदला ले सकूँगा। भगवन्! आप सत्य मानिये, जब से प्यारे भाई हिरण्याक्ष को इन धूर्तों ने धोखे में डाल पाताल में ले जाकर वाराह रूपधारी विष्णु द्वारा मरवा डाला है, तब से मुझे रात-दिन निद्रा नहीं आती और ईर्ष्या ,द्वेष एवं क्रोध से मेरा शरीर जल रहा है। जब तक मैं अपने शत्रुओं को उनकी गति को नहीं पहुँचा देता और अपने भाई का बदला नहीं ले लेता, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिल सकती। अतएव आप अब मुझे रोकें नहीं प्रत्युत आज्ञा दें और शुभ मुहूर्त बतलाकर आशीर्वाद दें कि, जिससे मैं अपने मनोरथ को प्राप्त कर दैत्यकुल का उद्धार करूँ।” शुक्राचार्यजी महाराज हिरण्यकश्यपु का समुचित हठ देख उसको आशीर्वादपूर्वक तपोभूमि की यात्रा का उत्तम मुहूर्त बतलाकर अपने आश्रम को गये और इधर दैत्यराज ने पुनः तपोभूमि के लिये यात्रा की तैयारी की। यात्रा करने के पहले दैत्यराज हिरण्यकशिपु अपनी महारानी कयाधू से मिलने के लिये अन्तःपुर में गये। महारानी कयाधू भी प्राणपति के शुभागमन का समाचार पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और ज्यों ही दैत्यराज ने अन्तःपुर में प्रवेश किया, त्यों ही उन्होंने आगे जाकर सादर एवं सप्रेम सविनय करबद्ध प्रणाम किया और ले जाकर महाराज को सुन्दर आसन पर आसीन कराया।
हिरण्यकशिपु–“हे देवि! आज हम तुम्हारे पास अधिक समय तक प्रेमालाप करने के लिये नहीं आये हैं। प्रत्युत तपोभूमि की दीर्घयात्रा के लिये विदा माँगने आये हैं। तुम हमारी गृहेश्वरी तो हो ही, किन्तु साथ ही प्राणेश्वरी भी हो। हम जानते हैं कि तुम जिस दानवकुल की दुहिता हो, उस कुल के अनुरूप ही तुममें सारे सद्गुण विद्यमान हैं। अतएव अब तुम हमारी दीर्घकालीन अनुपस्थिति में अपने पुत्रों के द्वारा शासन करना और अपने दोनों कुलों की मर्यादा का पालन करना। महारानी कयाधू ने यात्रा के समय रोकना अशुभ समझ कर साश्रुनयनों से प्राणपति की ओर करुणपूर्ण दृष्टि से देखा और कहा– “नाथ ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है किन्तु इस समय ये देवतागण बड़े ही ढीठ हो रहे हैं और आपकी उपस्थिति में भी जब ये उत्पात करने से नहीं बाज आते और समय-समय पर आक्रमण करने की तैयारियाँ किया करते हैं, तब आपकी दीर्घकालीन यात्रा का समाचार पाकर सम्भव है ये घोर उपद्रव करें। उस दशा में मैं अबला क्या कर सकूँगी।”
हिरण्यकश्यपु– ‘प्राणप्रिये! तुम ठीक कहती हो किन्तु यथासम्भव हमारी दीर्घ यात्रा का समाचार गुप्त रखना और अपने पिताजी को भी सावधान कर देना। यदि हमारी अनुपस्थिति में देवतागण कायरों और चोर डाकुओं की तरह आक्रमण करेंगे तो भगवान् तुम्हारी रक्षा करेंगे और मैं लौट कर उनको उसका मजा चखाऊँगा।"
महारानी कयाधू से विदा हो दैत्यराज हिरण्यकशिपु दरबार में आये और मन्त्रियों तथा पुत्रों को राजभार सौंपा। यात्रा के समय आचार्यगण उपस्थित थे और सभी विद्वान् ब्राह्मण यात्रा की मङ्गलकामना करते थे। इस बार दैत्यराज हिरण्यकश्यपु ने मन्दराचल की कन्दरा की ओर यात्रा की। वहाँ जाकर दैत्यराज ने ऐसा भीषण तप करना आरम्भ किया कि जैसा कभी किसी देव, दानव अथवा दैत्य ने नहीं किया था। उसकी तपस्या का समाचार धीरे-धीरे फैलते-फैलते सर्वत्र फैल गया और देवताओं में बड़ी खलबली मच गयी। सुर हों, चाहे असुर, जब तक भोगों से वैराग्य नहीं होता, तब तक स्वार्थी जगत् की चिन्ताएँ कभी दूर नहीं हो सकतीं और उनके रहते कभी कोई सुखी एवं शान्त नहीं हो सकता। यही देवताओं की दशा थी । उनको चिन्ता थी कि ऐसा न हो कि कोई ऐसी तपस्या करे, जिससे हमारे ऊपर विपत्ति आ पड़े । इसी कारण से अपने प्रबल शत्रु दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की तपस्या के समाचार से देवताओं में हाहाकार मच गया और उनको नींद का आना दुर्लभ हो गया, उनके लिये शान्ति की प्राप्ति असम्भव हो गयी और उन्हें चारों ओर भय दिखलायी देने लगा। इधर हिरण्यकशिपु की तपस्या भी अद्भुत थी। वह बिना अन्न-जल के आकाशमण्डल की ओर टकटकी लगाये हुए अपने बाहुओं को ऊपर की ओर उठा कर केवल एक अँगूठे पर ही खड़ा रहता था इस प्रकार के कठिन तप के प्रभाव से सारे संसार में हलचल मच गयी, देवसमाज में भय और चिन्ता छा गयी, नदी और नदियों के जल सूख गये, भूकम्प एवं ज्वालामुखी के प्रकोप बारम्बार होने लगे, जिससे बड़े-बड़े अचल पर्वत भी हिलने, डोलने तथा उड़-उड़कर दूर गिरने लगे, समुद्र मानों खौलने लगे, उल्कापात ही नहीं, बड़े-बड़े तारे भी बहुतायत से गिरने लगे और दिग्दाह से मानों दशों दिशाएँ जलने लगीं। इन उत्पातों को अपने लिये अशुभ समझकर भयभीत हो देवता लोग जगत्पिता ब्रह्माजी के शरण में गये। ब्रह्माजी ने देवताओं को सत्कारपूर्वक बिठाया। देवताओं ने जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी को सादर एवं सविनय प्रणाम करने के पश्चात् अपनी कथा सुनानी आरम्भ की। देवराज इन्द्र ने कहा– “हे सर्व जगत् के पितामह! हम लोगों को आजकल दैत्यराज हिरण्यकशिपु की तपस्या से बड़ा ही कष्ट और भविष्य के लिये भय हो रहा है। हम लोगों को पता चला है कि वह इस बार तपस्या द्वारा अमरत्व प्राप्त करना चाहता है और हम लोगों ने यह भी सुना है कि वह अमरत्व प्राप्त करने के पश्चात् हम लोगों के रक्षक भगवान् विष्णु ही को मार डालने का विचार किये हुए है। भगवन्! यदि ऐसा हुआ तो हम लोगों को तो फिर कहीं ठिकाना न रहेगा। तीनों लोक और चौदहों भुवन में तो हम लोगों को फिर कोई दूसरा आश्रयदाता न मिलेगा।”
देवताओं को आश्वासन देते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि “आप लोग भयभीत न हों। भगवान् विष्णु को मारनेवाला कोई नहीं है और ऐसा विचार करना नितान्त मूर्खता है। आप लोग शान्तचित्त से अपने-अपने स्थानों को जायँ। हम तथा भगवान् विष्णु आपकी रक्षा करेंगे, आप लोग घबड़ाइये नहीं।” देवता लोग अपने-अपने स्थान को गये, किन्तु देवराज इन्द्र को धैर्य नहीं हुआ और उन्होंने जाकर मन्दराचल में दैत्यराज को तपस्या करते हुए स्वयं देखा । उन्होंने देखा कि वह कठिन तपस्या के कारण मृतप्राय हो रहा है। उसके शरीर में न रक्त है, न मांस। वह सूख कर ठठरी हो गया है, शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयी हैं। हड्डियों पर भी चींटियों ने अपने घर बना लिये हैं। दीमकों ने चारों ओर अपना आधिपत्य जमा रक्खा है और कहीं पर कोई चेतनता के चिह्न दिखलायी नहीं पड़ते। ऐसा प्रतीत होता है मानों किसी काठ के खम्भे में दीमक लग गयी है और वह निकम्मा हो गया है। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की यह दशा देख कर, देवराज इन्द्र मन-ही-मन बड़े ही प्रसन्न हुए और कुछ और ही सोचते हुए अपने स्थान को लौट गये।