एक रूह की आत्मकथा - 45 Ranjana Jaiswal द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

एक रूह की आत्मकथा - 45

पहले तो जया इस बात को नहीं समझ पाई कि उसका पति क्यों रात को उसके करीब आने से बचता है? क्यों दिन भर उसका व्यवहार ठीक रहता है, पर शाम ढलते ही किसी न किसी बात पर लड़ना शुरु कर देता है। वह तो खुद के प्रति ही हीन-भावना से भरने लगी थी। बार-बार शीशे में अपना चेहरा देखती और रोती। एक दिन वह उससे पूछ ही बैठी-‘मुझमें क्या कमी है?’ वह अकड़ कर बोला-‘क्या चाहती है, बैठकर तुम्हारा मुँह निहारता रहूँ... इतना नामर्द नहीं हूँ।’ जया सोचती रही कि यह कैसा मर्द है, जिसकी पत्नी रात भर जल बिन मछली की तरह तड़पती रहती है। पर नयी-नवेली होने के कारण वह चुप ही रही। अपने घरवालों से भी वह यह बात नहीं बता सकती थी। ‘यौन’ के बारे में बात करना स्त्री के लिए वर्जित जो है। पर वह करती थी क्या, उन दिनों उसका शरीर एक मद्धिम आँच में तपता रहता। पति की सुगठित बाहों में खो जाने का जी चाहता पर वह..... ।
धीरे-धीरे वह सूखने लगी, ठीक उस पौधे की तरह ,जिसे समय से खाद तो दूर पानी भी न मिले। ऐसा नहीं कि जया को पति के घर दूसरे सुख भी थे। पति की बेरोजगारी का दंश उसे ही झेलना पड़ता। उसकी सास के पास मिट्टी के तेल की एजेंसी थी। उसी से रो-गाकर वह घर चलाती। खेत था, जिससे धान आ जाता। चावल की कमी नहीं होती थी, यही गनीमत थी। जया बताती है कि दाल-सब्जी ला देने के लिए रोज ही बुढ़िया की चिरौरी करती, पर वह गालियाँ सुनाती। जया डरती कि पति खाने के समय आयेगा, तो तूफान खड़ा कर देगा। उसे तो भात के साथ दाल-सब्जी भी चाहिए। किसी तरह उसकी सास सौ ग्राम मसूर की दाल लाती या फिर कोई सस्ती सब्जी। मिट्टी के चूल्हे में गन्ने के सूखे छिलके झोंककर जया खाना पकाती। सबसे पहले सास खाती फिर पतिदेव.... । पर अक्सर वह थाली पटक देता, ‘इतनी कम दाल....सब्जी नहीं.... ।’ वह सोचती-‘कितना बेशर्म आदमी है, बूढ़ी माँ पर आश्रित है और उस पर चिल्लाता है।’ घर में एक कुकर तक नहीं था। काली-सी बटुली में दाल घण्टों में पकती। उसका सारा समय खाद्य-सामग्री का इंतजार व खाना पकाने में निकल जाता। बिजली भी नहीं थी। दिये की टिमटिमाती रोशनी में जल्दी-जल्दी काम निबटाकर वह अंधेरा कर देती। वरना सास चिल्लाती कि मिट्टी का तेल ज्यादा खर्च हो रहा है। वह अपने साथ जो किताबें ले गई थी, उसे पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता था। कैसे वह बी0ए0 की फाइनल परीक्षा दे पायेगी, जिसका फार्म भरकर वह आई थी।
एक दिन उसने पति को अपनी माँ से बतियाते सुना कि-‘इसको मैके नहीं जाने देना है , बी0ए0 पास कर लेगी तो मेरे बराबर हो जायेगी। कहीं औरत मर्द बराबर होते हैं। हो सकता है इसकी माँ इसकी दूसरी शादी कर दे, क्योंकि उसकी भी दूसरी शादी हुई थी और इसका बाप बीबी के मायके में ही रहता है। मऊगा है साला, मैं तो कभी न रहूँ।‘ जया जैसे आकाश से गिरी । उसकी माँ बाल-विधवा थी। पिताजी भी विधुर थे। दोनों का दूसरा विवाह हुआ था, चूंकि पिता के गांव में स्कूल नहीं था इसलिए माँ के कस्बे में ही घर बनाया गया था। वे लोग नाना-नानी के घर से काफी दूर रहते थे, फिर ये इस तरह... । छि: ,इतने गंदे विचार! इतना बड़ा छल कि परीक्षा देने नहीं जाने देंगे। जैसे उसे स्वर्ग में रख रहे हों। शायद प्यार देते तो वह सारे अभाव भूल जाती। पर वह भी शून्य, तो क्या यहाँ वह कुढ़-कुढ़कर मरती रहे। उसे लग रहा था कि यहाँ वह ज्यादा दिन जी नहीं पायेगी। वह तो अब तक इसलिए धैर्य से सब कुछ ही सह रही थी कि माँ ने बचपन से सतियों के किस्से सुना-सुनाकर उसमें सती जैसे संस्कार भर दिये थे। पर इस झूठ.... इस छल के बाद उसका मन विरक्त होने लगा था।
एक दिन उसने पति से कहा-‘परीक्षा की तिथि में दो महीने शेष रह गए हैं, मुझे माँ के घर भेज दें, ताकि मैं तैयारी कर सकूँ।’ उसकी बात सुनकर वह चिल्लाने लगा, ‘तुम्हें वहाँ नहीं जाना है। तुम्हारी माँ दुष्ट है, वह मुझे भी अपने घर रख लेगी। मैं तुम्हारे बाप की तरह नहीं हूँ।‘
अब तक वह उस पर अत्याचार करने लगा था। मुहल्ले के सारे बच्चों को बुलाकर ड्रम-थाली बजवाता और कभी खुद गाता कभी उनसे गँवाता- ‘मउगा मरद ससुरारी में।’ उसका मुहल्ला कुंजड़ो का था, ज़्यादातर सब्जी वगैरह बेचने वाले आस-पास रहते थे। वह कुंजड़िनों को घर के आँगन में बुला लेता और उसके सामने उनसे पूछता-‘तू पढे के चाहेलू।’ वे कहतीं- ‘का होई पढ़ के।’ तो कहता- ‘पर इ ता चाहेली। इनकर माई इहे संस्कार देले बाड़ी कि मरदे के बराबरी करिह .... ।’ वह कमरे में भाग जाती और खूब रोती। क्या करें, यह वह समझ नहीं पा रही थी। घर का पोस्टल एड्रेस भी पति ने बदल दिया था। माँ कोई पत्र भेजती तो उसे नहीं मिलता|एक दिन उसके पिता आये तो बाहर ही बाहर वापस भेज दिया...मिलने तक न दिया। इसी बीच उस ‘रहस्य’ से भी पर्दा उठ गया। वह वितृष्णा से भर गई। अब उसे कोई नहीं रोक सकता। उसे घिन आई कि ऐसे पति की उसने पूजा की थी, उसका चरणोदक तक लिया था । अपनी देह को छूने दिया... । पति ने उसे चक्रव्यूह में फँसा दिया था। चारों ओर नाकेबंदी थी। उसने सोच लिया कि उसे यहाँ से निकलना है अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ा होना है, किसी भी शर्त पर। सीधी अंगुली से घी नहीं निकलना था और तब 17-18 वर्ष उम्र की में वह आज इतनी बोल्ड भी नहीं थी, जानकारियाँ भी कम थीं। उसने पति के चौदह वर्ष के चचेरे भाई का सहारा लिया । वह किशोर उसकी बुरी अवस्था से दु:खी था और इधर कुछ दिनों से अपने माता-पिता के साथ उसके घर आया हुआ था। चाचा-चाची भी दु:खी थे।
उस दिन शाम को जब पति बाहर से लौटे... वह खाना पका रही थी। चूल्हे की मोटी -सी गीली लकड़ी ने बड़ी मुश्किल से आग पकड़ी थी, पर धुआँ ज्यादा दे रही थी। पति ने पूछा-‘इतनी देर से खाना ही पका रही है साली...माँ ने क्या दूसरा भतार करने की कला के सिवा कुछ नहीं सिखाया।’ वह गुस्से में बोल पड़ी-‘कृपया मेरी माँ को गाली न दें।‘
जवाब सुनकर वह उसे अपनी आदत के अनुसार मारने को आगे बढ़ा तो उसने भी चूल्हे से जलती हुई लकड़ी निकालकर उसके ऊपर तान दी। आँखों में धुंआ लगा तो वह पीछे हटा और गंदी-गंदी गाली बकने लगा। तब तक चाचा-चाची भी कमरे से निकल आये और उन्होंने उसके पति को खूब डाँटा-‘इतनी सुन्दर पढ़ी-लिखी, अच्छे घर की लड़की से इस तरह का व्यवहार!’
वह और जल-भुन गया।