एक रूह की आत्मकथा - 43 Ranjana Jaiswal द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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एक रूह की आत्मकथा - 43

आज मेरे बंगले पर बड़ी गहमागहमी है।सभी रिश्तेदार आ गए हैं।एक- एक कर मित्र भी आ रहे हैं।मेरी सास राजेश्वरी देवी पूजा पर बैठी हैं।मेरी माँ नन्दा देवी भी उनके पास ही बैठी हैं।मेरी आत्मा की शांति का आयोजन है।आज मेरी आत्मा सारे मोह -माया से मुक्त हो जाएगी और फिर यहाँ लौटकर कभी नहीं आ पाएगी। मेरी बेटी अमृता बहुत उदास है।इस बंगले में उसने मेरे साथ बहुत ही सुंदर और सुखद दिन गुजारे हैं।यह पहला अवसर है जब वह अकेली है। उसे विश्वास है कि मेरी आत्मा यहीं कहीं भटक रही होगी।मेरी आत्मा आज भर यहाँ रहेगी फिर हमेशा के चली जाएगी। फिर तो सिर्फ उसकी यादों में रहेगी।
बेटी ने श्रद्धांजलि सभा में समर को भी बुलाया है,ये बात और कोई नहीं जानता।मेरे वकील भी सभा में आएंगे और मुझे श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद मेरी वसीयत पढ़कर सुनाएंगे।रिश्तेदार और मित्रों और मीडिया की उपस्थिति में मेरी एकमात्र वसीयत पढ़ने का यह लाभ होगा कि कोई उससे इनकार न कर सकेगा।सबको वसीयत में लिखी बातों को स्वीकार करना होगा।समर भी वसीयत की बातों को मना न कर सकेगा।
मेरी वसीयत से विस्फोट तो होगा पर कोई कुछ कह न सकेगा।बस जो होना है वह हो जाए फिर मैं चली जाऊँगी। अमृता का फ्यूचर सिक्योर करके ही निश्चिंत जा सकूँगी।मेरी वसीयत से मेरे समर को भी जीने का एक बहाना मिल जाएगा।
मेरी श्रद्धांजलि का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी ने मेरी तस्वीर पर फूल- मालाएं चढ़ाई ।फिर सभी मेरी प्रशंसा में अपने उद्गार व्यक्त करने लगे ।वे लोग भी मुझे सिर्फ अच्छा-अच्छा कह रहे थे,जो मुझे पसंद नहीं करते थे।मैं हैरान थी। कार्यक्रम के बीच में समर आया।उसको देखकर सारे रिश्तेदारों के मुँह बन गए,पर कुछ कहने का यह अवसर नहीं था।समर ने मेरी तस्वीर पर गुलाब के फूलों की माला चढ़ाई और हाथ जोड़कर सामने की कुर्सी पर बैठ गया।उसने मेरे बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।क्या कहता,जो उसकी हर साँस में बसती है,उसके बारे में वह क्या कहता?सभा विसर्जित होने से ठीक पहले वकील साहब आए ।उन्होंने मेरी तस्वीर को पुष्प अर्पित करके अपने हाथ जोड़े और फिर माइक के सामने आकर खड़े हो गए। उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से कुछ दस्तावेज़ निकाले।
फिर उन्होंने सभा को सम्बोधित किया।
"मित्रों,मैं कामिनी देवी का वकील उनको प्रणाम करने के बाद उनकी वसीयत को पढ़ने की इजाज़त चाहता हूँ।"
"वसीयत!ये कब बनवाया था उसने।"राजेश्वरी देवी कुर्सी से उठ खड़ी हुईं।उन्हें झटका लगा था।
"अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुझसे यह वसीयत तैयार करने को कहा था और इसे गुप्त रखने को कहा था।"वकील साहब ने रहस्य खोला।
"हम नहीं मानते इस वसीयत को,यह फ्राड हो सकता है।"राजेश्वरी देवी जोर से चीखी।
"यह कानूनी है कोई फ्राड नहीं इसमें।अगर ऐसा कुछ होता तो मैं मीडिया के सामने इसे नहीं ले आता।"वकील ने सफाई दी।
"सबके सामने वसीयत को पढ़ने का क्या मतलब?हम अकेले में इसे सुनेंगे।पहले सभी मेहमान और मित्र चले जाएं।"नंदा देवी ने भी मामले में हस्तक्षेप किया।
"नहीं इसे सबके सामने पढ़ना जरूरी है।"वकील साहब अडिग थे।
"तो पढ़िए।"स्वतंत्र ने व्यंग्य से कहा।
"इसमें इतने शोर -गुल की क्या जरूरत है? वकील साहब माँ की इच्छा का ही सम्मान कर रहे हैं।आप सभी लोग बैठ जाइए।वकील अंकल आप वसीयत पढ़िए।"-अमृता ने पहली बार हस्तक्षेप किया।
वकील साहब ने वसीयत पढ़ना शुरू किया--
"मैं कामिनी देवी अपने पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह वसीयत लिख रही हूँ।मेरी मृत्यु के बाद मेरी सारी चल और अचल संपत्ति की एकमात्र अधिकारी मेरी बेटी अमृता होगी। जब तक मैं जिंदा हूँ,वह मेरे संरक्षण में रहेगी।पर यदि मुझे कुछ तो जाता है तो उसके संरक्षक मिस्टर समर होंगे।अमृता के बालिग होने तक मेरी सम्पत्ति की देखभाल मिस्टर समर ही करेंगे।वे उसके लीगल गार्जियन होंगे।अमृता के बालिग होने के बाद भी उसके गार्जियन बने रहेंगे।
मिस्टर समर एक ईमानदार और भरोसेमंद इंसान हैं।वे अमृता को पुत्री समझते हैं।
मुझे विश्वास है कि वे मेरी बेटी अमृता के जीवन में मेरी कमी को महसूस नहीं होने देंगे।बेटी अमृता को भी उन्हें पिता जैसा सम्मान देते हुए उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए।
मैं चाहती हूं कि अमृता अपनी आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाए और बालिग होने के बाद ही लौटे।"

सभी लोग सांस रोके हुए मेरी वसीयत को सुन रहे थे।वकील साहब के चुप होते ही मेरी श्रद्धांजलि सभा मच्छी बाज़ार में बदल गई थी ।धीरे -धीरे लोग जाने लगे।पहले दूर के रिश्तेदार और मीडिया के लोग गए फिर दूर- दराज के रिश्तेदार।सिर्फ खास रिश्तेदार बच गए।वही खास रिश्तेदार ,जो मेरी संपत्ति पर नज़र गड़ाए बैठे थे।
समर और अमृता मेरी तस्वीर के सामने चुपचाप बैठे मुझे ही देख रहे थे।शायद दोनों इस नई स्थिति के लिए खुद को तैयार कर रहे थे।दोनों ही मुझे इतना प्यार करते थे कि मेरी आखिरी इच्छा का मान रखने के लिए कुछ भी कर सकते थे।
तभी मेरी सास राजेश्वरी देवी पैर पटकती हुई आईं और अमृता को कंधे से झकझोरती हुई बोलीं-"तो अब हम सब जाएं न,अब तो हमारा कोई काम नहीं।तुम्हारा मतलब निकल गया।अब तुम मेरे साथ तो जाओगी नहीं ।"
"आप बच्ची के साथ कैसा व्यवहार कर रही हैं।"समर ने गुस्से से राजेश्वरी देवी को घूरा।
"ओहो,बड़ा दर्द हो रहा है तुम्हें,कौन हो तुम इसके?बाप हो?"
"हाँ, पिता हूँ मैं इसका ।बायोलॉजिकल नहीं तो क्या,मानसिक रूप से अपनी पूरी भावना के साथ इसका पिता हूँ।"समर ने अमृता की ओर देखा।
"हाँ,क्यों नहीं?सारी सम्पत्ति जो तुम्हारे हाथ में आ गई।"नन्दा देवी ने तंज कसा।
"माफ़ कीजिएगा यह सारी सम्पत्ति मेरी बेटी की है और रहेगी ।मैं सिर्फ इसका रखवाला हूँ।हर बुरी निगाह से इसे बचाकर रखूँगा।"समर ने दृढ़ स्वर में कहा।
"बेटा ,मैं चलता हूँ।कल आऊंगा तो आगे का कार्यक्रम तय करेंगे।"समर ने अमृता के सिर पर हाथ फेरा।अमृता को लगा जैसे माँ ने उसे छुआ हो।उसकी आँखों में आँसू आ गए।
समर ने राजेश्वरी देवी से कहा--"आप लोग कुछ दिन यहाँ रुकिए।बच्ची अकेला फील न करे। कम से कम आज रात तो रूक ही जाइयेगा।"
"तुम्हारी आज्ञा की जरूरत नहीं।हम लोग इसके अपने हैं कोई पराए नहीं।हमें पता है कि रूकना कि नहीं।आप निश्चिंत होकर जाइए।"नंदा देवी ने बेरूखी से जवाब दिया।
समर बंगले से निकला तो उसके साथ मैं भी निकली। कुछ दूर तक उसके साथ चली और फिर ऊपर और ऊपर उठती चली गई।