प्रेम गली अति साँकरी - 18 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

श्रेणी
शेयर करे

प्रेम गली अति साँकरी - 18

18 ---

===========

काफ़ी देर हो गई थी आज, अम्मा कब की तैयार होकर कला-केंद्र यानि संस्थान चली गईं थीं| उन्होंने मुझे उठाया भी नहीं था | अब तक काफ़ी उजाला हो चुका था, अम्मा ने मुझसे कहा था कि संस्थान में चर्चा के लिए यू.के की कोई टीम आने वाली थी, मैं वहाँ की तैयारियाँ देख लूँ लेकिन कमाल था, मेरी भयंकर नींद ने मुझे न जाने कब दूसरी दुनिया में पहुँच दिया था | जिस प्रकार मैं हड़बड़ा कर उठी थी अम्मा या कोई और मुझे देखता तो ज़रूर परेशान हो जाता | मैं खुद भी चौंक उठी थी | सुबह के समय का स्वप्न ! दादी के मुँह से हमने बचपन से सुना था कि सच होता है पर वो स्वप्न भला था क्या ? न तो पूरी आँखें खुल रही थीं, न ही पूरी तरह कुछ याद आ रहा था लेकिन जो भी था, था कुछ अजीब सा ही| समझ नहीं आ रहा था, कुछ उलझाव सा –जैसे किसी घोंसले बनाती चिड़िया का स्वप्न या किसी मकड़ी को जाला बनाते हुए देखा हो मैंने, आखिर था क्या ? कुछ तो था जो बेचैन कर रहा था | 

मैं किसी अजीब सी मन:स्थिति में अपने को पा रही थी| मैं, जिसे कभी स्वप्न नहीं आते थे या आते भी थे तो कभी याद ही नहीं रहे | मेरी किशोरावस्था में भी जब घर में सब एक साथ डाइनिंग टेबल पर होते और अपने-अपने स्वप्नों की चर्चा करते तब भी मैं यही कहती ;

“पता नहीं, था तो कुछ –जंगल, पहाड़ –पता नहीं क्या ?” मैं अपने स्वप्न के बारे में सोचती ही रह जाती | 

“कमाल है ! इसे जंगल–पहाड़ ही नज़र आते हैं –”भाई खिंचाई करता | 

“अब इसमें मैं क्या करूँ ?”मैं ठुनकती | 

“मुझे तो रोज़ खूब मजेदार और बढ़िया-बढ़िया स्वप्न आते हैं –और याद भी खूब रहते हैं –”भाई मेरी बातों पर दाँत फाड़ता और मैं चिढ़ती| 

“वैसे बेटा !तुम्हें सच में सपने आते ही नहीं या छिपा जाती हो ?”दादी, अम्मा, पापा में से कोई भी लगभग इसी तरह की बात पूछ बैठते | 

“मतलब स्वप्न आने जरूरी हैं ---?”

“भाई साइंस तो कहती है कि नींद में हर आदमी को 2/3 बार स्वप्न आते ही हैं और फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिकों ने अपनी उम्र लगा दी मनोविज्ञान की, सपनों की बात करने में और हमारी बहन जी को सपने ही नहीं आते भला ---–पापा ! कहीं हमारी बहन जी एबनॉर्मल तो नहीं है ?” भाई को तो कुछ मौका चाहिए था चिढ़ाने का| 

“आपको क्या मिल जाता है सपने देखकर ?” मैं चिढ़कर उससे पूछती थी | 

“मुझे दिखाई देते हैं वर्ड की टॉपमोस्ट यूनिवर्सिटीज़ ! देखना मेरा सपना बस पूरा ही होने वाला है | तू भी सपने देखने शुरू कर, नहीं तो यूँ ही बैठी रह जाएगी –”भाई कभी भी चिढ़ाने से नहीं चूकता था | 

हमने देखा था कि भाई का सपना सच में ही पूरा हो गया था| हममें से किसी ने भी भाई के लिए न तो उसका सपना देखा था, न ही कुछ प्रयास किया था उसके लिए ---शायद कुछ तो होता है सपनों में !!

’क्या सचमुच मैं सपने नहीं देखती तो मेरे जीवन में कभी कुछ नहीं होगा ?’ मैं खुद से न जाने क्यों बार-बार पूछने लगी थी| शायद कभी-कभी परेशान भी हो जाती थी | 

पापा अपने उन दिनों के सपनों में से ही नहीं निकल पाते थे जिनमें अम्मा की और उनकी कोर्टशिप शुरू हुई थी | वे कोई न कोई कहानी सुनानी शुरू कर देते थे और अम्मा के चेहरे पर शर्मीली मुस्कान सजी रहती | 

“क्या यार कालिंदी !तुम कभी अपना सपना नहीं बताती---” पापा की चुहलबाजीं और अम्मा की मीठी सरल, सुंदर मुस्कान सबका, खासकर दादी का मन मोह लेती | 

“ये काली के सपने ही तो हैं सब—और इसका सबसे बड़ा सपना तो ये बैठा है ---” दादी हँसकर पूरे परिवार की ओर इशारा करतीं और फिर पापा की तरफ़ --

हमारा परिवार था यह, इसमें हँसने के कारण ढूँढने नहीं पड़ते थे | जहाँ हम सब मिलकर बैठते थे, वहीं सबके चेहरे खिल जाते| दादी की अनुपस्थिति ने जैसे एक बहुत बड़ी खाई पैदा कर दी थी हमारी हँसी में !

आज मुझे दुबारा सोने पर क्या और क्यों दिखाई दिया था ? जो सब कुछ धुंधला सा ही था | 

‘शायद सामने की सड़क का ही तो कुछ नहीं था ?’मैंने अपने सिर को कई बार झटका दिया, शायद याद ही आ जाए लेकिन कुछ स्पष्ट नहीं था इससे मैं और भी असहज होने लगी थी| 

मैंने उठकर परदे खोले, घनी धूप मेरे कमरे में प्रवेश कर गई जैसे किसी रेलगाड़ी में ट्रेन के रुकते ही बाहर से यात्री कम्पार्टमेंट में घुसने के लिए होड़ सी लगा लेते हैं जबकि अंदर के यात्रियों को पहले उतरने देने की ज़रूरत होती है| मुझे हँसी आती थी, ए.सी कम्पार्टमैंट्स में बुकिंग होने के बावज़ूद भी प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हुए यात्रियों को इस तरह की हरकतें करते हुए जब देखती थी | और ऐसा भी नहीं था कि गाड़ी चलने का समय हो रहा हो | समय भी शेष होता था और उन यात्रियों की सीट्स भी बुक होती थीं फिर भी --

और बसों का तो बुरा ही हाल था, मेरे कमरे की पिछली खिड़की के ठीक सामने बस-स्टॉप था जिसमें लोग ऐसे ही ठुँसे हुए जाते थे | अब तो खैर शीला दीदी हमारे साथ काम करने आ गईं थीं, पहले मैंने कई बार उनको धक्का-मुक्की में बस में चढ़ते हुए देखा था | दिव्य भी तो बस में ही चलता था | हाँ, उसकी छोटी बहन का स्कूल पास ही था | पहले तो दोनों बच्चे बुआ के स्कूल में उनके साथ ही जाते थे, बाद में ये सब बदलाव आए थे | बच्चे बड़े भी तो हो गए थे | 

“कौन ? आ जाओ, रतनी हो न ---?”एक खासे समय तक साथ रहने के बाद सबकी पदचाप, दरवाज़े पर दस्तक देने का तरीका समझ में आने लगता है और हम पहचानने लगते हैं कि यह फलां फलां होगा | ठीक पहचाना था मैंने, रतनी ही थीं | 

“दीदी !आपको अम्मा बुला रही हैं ---” वहाँ सब लोग ही माँ को हमारी तरह से अम्मा पुकारने लगे थे | 

“अरे !आप आ गईं रतनी ?” मैंने कहा | 

“आज देर हो गई न ? मैं अभी आती हूँ | ”कहते हुए मैंने रतनी के चेहरे पर अपनी दृष्टि गड़ा दी| उसका चेहरे बहुत बुझा हुआ और आँखों के चारों ओर सूजन थी | मुझे समझ आ गया, वहीं कुछ हुआ था | वैसे मुझे पहले भी यही लग रहा था | 

पहले अम्मा से मिलना, बात करना जरूरी था, वे बेचारी मुझे कह देने के बावज़ूद भी अकेली ही थीं केंद्र में, वैसे शायद शीला दीदी होंगी उनके साथ |