उधर आदर्श की बात मानकर श्यामा आपसी समझ के साथ ही अलग-अलग रहने के लिए मान गई।
अगले दिन श्यामा ने करुणा के पास जाकर कहा, “माँ मुझे माफ़ कर देना। मैं अब और आगे आदर्श का साथ ना दे पाऊंगी,” कहते हुए श्यामा ने करुणा के पाँव छुए।
करुणा तो सब कुछ जानती थी। उन्होंने श्यामा को अपने सीने से लगाते हुए कहा, “बेटा क्या यही तुम्हारा अंतिम फ़ैसला है।”
“हाँ माँ मैं जा रही हूँ।”
“लेकिन श्यामा बच्चे …?”
“माँ बच्चे बड़े हो चुके हैं, वह जो चाहे कर सकते हैं। जिसके साथ रहना हो रह सकते हैं।”
“लेकिन श्यामा मैं? मेरी तो कोई ग़लती नहीं है फिर मुझे किस बात की सज़ा मिल रही है,” कहते हुए करुणा रोने लगी।
रोते हुए वह फिर से बोली, “मेरा परिवार टूट गया, हे भगवान अब मैं क्या करूं? श्यामा तुम्हारे बिना इस सूने घर में मैं कैसे रह पाऊंगी।”
श्यामा ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, “सॉरी माँ लेकिन मैं हमेशा आपकी बेटी ही रहूंगी । माँ आपको जब भी मेरी ज़रूरत होगी मैं …”
बीच में ही करुणा कहने लगी, “श्यामा बेटा ज़रूरत तो हर पल ही रहती है तुम्हारी। मैंने अपने होंठों पर अब तक ताला इसलिए लगा कर रखा था कि हमारा परिवार ना टूटे वरना उसकी यह ग़लती माफ़ी के लायक कब थी। बेटा तुमने मुझे धर्म संकट में डाल दिया है। आज यदि मैं यहाँ रुक गई तो इसका मतलब यही होगा ना कि मैं ग़लत का साथ दे रही हूँ। इतने वर्षों में ना जाने कितनी बार सुशीला का चेहरा और दौड़ता हुआ पाँच साल का उसका बेटा मेरी आँखों में दृष्टिगोचर होता रहा है। उसके बाद भी अपने परिवार की ख़ातिर मैं शांत रही लेकिन आज जब तुम अलग हो ही रही हो; परिवार टूट ही रहा है तो फिर मेरा आदर्श के साथ रहने का कोई कारण नहीं। मैं भी तुम्हारे साथ ही चलूंगी बेटा, भोगने दो उसे अकेले उसके पाप की सज़ा।”
श्यामा और करुणा एक दूसरे के गले लग कर रोने लगे। कौन किसको समझाता। दुख दोनों तरफ़ ही बराबरी का था।
जब आदर्श को यह पता चला कि अमित और स्वाति के साथ उसकी माँ भी श्यामा के साथ ही रहना चाहती हैं तब उसके दुख और पछतावे का, उसके पश्चाताप का कोई अंत ही नहीं था। वह सोच रहा था काश उसके जीवन में वह आधा घंटा आया ही ना होता। आज उसके पास दौलत, शौहरत, नाम, इतना बड़ा काम है लेकिन जो होना चाहिए वह है उसका परिवार और वही आज उसके साथ नहीं है। इससे तो उसे फांसी की सज़ा मिल जाती तो वही अच्छा होता। एक बार में ही मर जाता, ऐसे हर पल तिल-तिल करके ना मरना पड़ता। अब उसका आगे का जीवन एक ज़िंदा लाश की तरह ही बीतेगा। काश वह उसकी ग़लती सुधार पाता लेकिन कुछ ग़लतियाँ ऐसी होती हैं, जो चाह कर भी सुधारी नहीं जा सकतीं और वह नासूर बन कर जीवन भर दर्द देती रहती हैं, रुलाती रहती हैं।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
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