इश्क़ ए बिस्मिल - 65 Tasneem Kauser द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ ए बिस्मिल - 65

दो सालों के बाद.....

वक़्त चाहे कितना भी भारी हो गुज़र ही जाता है।

उमैर को घर छोड़ कर गए हुए लगभग दो साल से ज़्यादा हो गए थे। ये नहीं था की ज़मान ख़ान को कुछ पता नहीं था की वह कहाँ है और क्या कर रहा है।

वह एक बाप थे... उनका बेटा घर छोड़ कर चला गया था तो वह ऐसे कैसे उसे भूल सकते थे। उन्होंने बोहत पहले ही अपने आदमियों से पता लगवाया था की वह कहाँ है और क्या कर रहा है... उसकी ज़िंदगी कैसे गुज़र रही है... उसने सनम से शादी की के नहीं... हर एक ख़बर से वह अगाह थे। शायद इसलिए इत्मीनान भी थे। मगर हाँ वह हर रोज़ उसके लौट आने की दुआएँ मांगते रहते थे।

उमैर पिछले दो सालों से लंदन में था। वहाँ पे अपने एक दोस्त के साथ construction की business में partnership में लगा हुआ था। साल में दो तीन बार इंडिया आ चुका था और सब से ज़रूरी बात उसने अभी तक सनम से शादी नहीं की थी... हाँ इसके पीछे की वजह उन्हें पता नहीं चली थी।

ये था उमैर का हाल....

और यहाँ इंडिया में?

इन दो सालों में आसिफ़ा बेगम और सोनिया पर वक़्त का कोई असर नहीं हुआ था। उनके दिल उनकी सोचें दो सालों के बाद भी वैसी ही थी जैसी के पहले।

हाँ बस इतना ज़रूर हुआ था की वह अब खुद को ज़्यादा तर घर से अलग थलग रखने लगी थी और ऐसा सिर्फ़ इस लिए हुआ था की ज़मान खान उन्हें किसी भी चीज़ में इन्वोल्व नहीं करते थे। वैसे भी घर में करने को था क्या? सारे काम तो नौकर करते थे...वह घर पे टिकती भी कहाँ थी... वह बोहत ज़्यादा socialize हो गई थी। एक NGO से जुड़ जो गई थी। कभी सेमीनार्ज़ कभी पार्टीज़ उनकी लाइफ़ इन्ही चीज़ों से घिरी हुई थी।

जब वो घर पे होतीं तो उनका काम बस इतना होता की वह सिर्फ़ अपने और सोनिया के खाने का मेनू बता देती... बाकी उन्हें किसी से कोई मतलब नहीं था... यहाँ तक के हदीद और ज़मान खान से भी नहीं।

उन सब की ज़िम्मेदरियाँ धीरे धीरे कर के अरीज ने उठा ली थी। सब की ज़रूरतों का ख़्याल रखती। हाँ घर पे लोग कम थे मगर वह तो नौकर चाकर का भी ख़्याल रखती थी। तभी तो इन दो सालों में नसीमा बुआ भी बदल चुकी थी। आज उसे पछतावा होता था की पिछले दिनों में उन्होंने अरीज के साथ कैसा सलूक किया था ये जानते हुए भी की वह उमैर की बीवी थी फिर भी और आज जब अरीज के निगरानी में सब कुछ था तो वह नौकरों से भी हुस्ने सलूक रखती थी। उसने कभी नसीमा बुआ से ऊँची आवाज़ या फिर उखड़े लहज़े में बात तक नहीं किया था।

इन सब से घर का माहौल बोहत अच्छा हो गया था, वरना इस से पहले तो आसिफ़ा बेगम आए दिन किसी नौकर को बेइज़्ज़त करती रहती तो कभी उनकी ऊँची आवाज़ से पूरे घर में तहलका मचा रहता।

अज़ीन क्लास फ़ाइव में चली गई थी और हदीद क्लास एट में। अज़ीन दो साल से क्लास में टॉप कर रही थी इस वजह से अब उसका क्लास में सिक्का चल पड़ा था। दो साल पहले जो उसे अपने साथ बैठाने को तैयार नहीं थे आज वही लोग उसके आगे पीछे होते थे... कभी नोट्स के लिए तो कभी उसे अपने ग्रुप में शामिल करने के लिए... अज़ीन सब से अच्छे से मिलती और बात करती मगर उसने नेहा का साथ नही छोड़ा था... उसे कोई ग्रुप नहीं चाहिए था उसे बस नेहा चाहिए थी। नेहा जिस ग्रुप में होती अज़ीन भी वहीं होती।

वहीं दूसरी तरफ़ हदीद का पढ़ाई लिखाई में ज़्यादा कोई interest नहीं था। पूरे साल खेल कूद में busy रहता और ठीक exam से एक हफ़्ता पहले पढ़ने बैठता और बड़ी आसानी से पास भी हो जाताजाता इसलिए उसकी किसी को ज़्यादा फ़िक्र नहीं थी...हाँ थोड़ी फ़िक्र थी तो उन complaints की जो आए दिन ज़मान खान को उसके स्कूल के चक्कर लगवाया करती थी।

उसकी सब से अहम बात ये थी की उसने अरीज को किया हुआ वादा अभी तक पूरे दिलो जान सी निभा रहा था। अज़ीन की हर छोटी बड़ी ज़रूरतों का ख़्याल रखता और अज़ीन भी अपनी तरफ़ से उसका ख़्याल रखती... उस से तीन साल जूनियर होते हुए भी उसका assignment बना देती.. उसका नोट्स तय्यार कर देती।

हाँ जो चीज़ हदीद को अज़ीन की थोड़ा खलती थी वह था उसका अल्हड़पन... उसकी हद से ज़्यादा नादानी..ना समझी....हदीद को उसे हर एक बात के लिए टोकना और समझाना पड़ता था... कभी कभी प्यार से मगर ज़्यादातर गुस्से से। लेकिन वह खुद कभी कभी खुद को ये कह कर समझा लेता की अज़ीन अभी बोहत छोटी है।

और अरीज वह बी ए के फाइनल यर में थी। सारी छोटी बड़ी ज़िम्मेदारियों के साथ उसने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी थी। उसने अपनी ज़िम्मेदारियों के आगे कभी अपनी पढाई को नहीं लाया था। ज़मान खान के सारे दोस्त और एहबाब उसे इब्राहिम खान की बेटी के हैसियत से जानते थे। जिस रिश्ते में जुड़ कर वह इस घर में आई थी वह पीछे कहीं खो गया था मगर अरीज के दिल की अतह गेहराइयों में वह आज भी वैसे ही अधूरा सा मौजूद था। और अक्सर जब वह तन्हाई में होती तब उसे वह शख़्स बोहत याद आता जिसने पलट कर दोबारा उसे देखा तक नहीं था। वह कभी कभी हैरान होती खुद को देख कर के उस से कोई इतना बेज़ार था। उस से इस क़द्र नफ़रत थी।

उसने तो सुना था के निकाह के बोल में इतनी ताकत होती है की दो लोग एक ना मालूम सी डोर से ऐसे बंध जाते है की एक दूसरे के ख़्याल से निकल ही नही पाते।

ख़्याल?... यही तो मोहब्बत की नींव ... मोहब्बत की बुनियाद होती है।

ख़्यालों का बीज दिल की ज़मीं पे लगते ही कुछ ही दिनों में मोहब्बत का बूटा खिल उठता है।

जिस तरह वह उसे याद करती थी क्या दो सालों में उसने कभी उसे याद किया था?....उसे अरीज का ख़्याल आया था?