इश्क़ ए बिस्मिल - 64 Tasneem Kauser द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ ए बिस्मिल - 64

हदीद के बढ़ते क़दम वही पे थम गए थे। उसे ज़मान ख़ान की तरफ़ मुड़ कर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

“ये नाश्ता अधूरा छोड़ कर क्यों जा रहे हो?” ज़मान खान ने रोबदार आवाज़ में कहा था। उनकी बात सुनते ही हदीद की रुकी हुई साँसे बहाल हुई थी।

“मैच प्रैक्टिस है... मैं लेट हो रहा हूँ।“ उसने बोहत धीमे लहज़े में कहा था।

“कोई लेट नहीं हो रहा... नाश्ता कर के जाओ।“ उन्होंने अपना हुक्म सुनाया था... हदीद को उनकी बात माननी पड़ी थी।

हदीद एक नज़र अज़ीन पर डाल कर वापस से कुर्सी पर बैठ गया था। अरीज भी उसे ही देख रही थी।


एक हफ़्ते बीत गए थे मगर अज़ीन स्कूल जाने का नाम ही नहीं ले रही थी।

इन एक हफ़्तों में हदीद के मन से डर भी निकल गया था की अब उसे कोई कुछ नहीं बोलेगे क्योंकि उसे ये यकीन हो चला था की अज़ीन किसी को कुछ नहीं बताएगी।

हदीद के मन से डर तो ज़रूर निकल गया था मगर उसके दिल में पछतावे ने जड़ पकड़ लिया था और ये गुज़रते दिन के साथ फैलता जा रहा था।

रही सही कसर उसके हिंदी बुक के उस चैप्टर ने निकाल दी थी जिसका टाइटल था “शिक्षा का हक़”। अज़ीन के मिलने के ठीक अगले दिन के बाद ही उसके क्लास में ये चैप्टर पढाई गई थी और हदीद को एहसास हुआ था की उसने गलती नहीं बल्कि गुनाह कर दिया था अज़ीन की तालीम के रास्ते पर रोड़े पत्थर बिछा कर। अगर वह स्कूल नहीं गई तो हदीद खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाएगा।

उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी की वह अज़ीन के पास जाता उस से माफ़ी मांगता या फिर उसे मना कर वापस स्कूल चलने को बोलता, इसलिए वह उसके लौटने का इंतज़ार कर रहा था, लेकिन जब एक हफ़्ते के बाद भी अज़ीन स्कूल नहीं गई तब उसने हिम्मत कर के अरीज से बात करने की कोशिश की।

अरीज की एडमिशन बी.ए. की फ़र्स्ट यर में हो गई थी इसलिए वह तन मन से अपने पढ़ाई में आज कल लगी हुई थी। साथ में उसने अज़ीन को भी संभाला हुआ था। वह ज़मान खान की स्टडी में बैठ कर अपने नोट्स बना रही थी जब हदीद उसे अकेला देख कर उसके पास आ गया था।

अरीज अपने ध्यान में इतनी मग्न थी की उसे हदीद के आने का एहसास तक नहीं हुआ था।

“भाभी...” ये लफ़्ज़ सुनते ही वह चोंक उठी थी... ना जाने क्यों अधूरेपन का एहसास और गहरा हो गया था। कभी कभी विरानियां सिर्फ़ नज़ारों में नहीं ज़ात में भी पाई जाती है। वही विरानियां अरीज को अपने अंदर महसूस हुई थी। उसने नोट बुक से नज़रें उठा कर सामने देखा था। हदीद मासूम सा शक्ल बना कर उसे ही देख रहा था।

“मुझे भाभी मत कहा करो... “ अरीज इतना कह कर वापस से नोट बनाने लगी थी।

हदीद को उसकी बातें चुभी थी मगर आज वह हर कुछ बर्दाश्त करने के लिए खुद को तयार कर के आया था।

“भाभी नहीं कहूँ तब और क्या कहूँ?” ये कहते हुए उसकी आवाज़ भीगी हुई मालूम हो रही थी। अरीज ने जान बुझ कर उसकी तरफ़ नहीं देखा। उसके देखने से कहीं वह अपना ज़ब्त तोड़ कर रो ही ना दे।

“अज़ीन मुझे आपी कहती है.... तुम भी उसकी तरह आपी कहा करो।“ अरीज अभी भी नोट्स बनाते हुए कह रही थी।

अरीज की बात पर हदीद को थोड़ी हिम्मत मिली थी।

“अज़ीन स्कूल क्यों नहीं जा रही है?” उसने अब सीधा अपने मतलब की बात कही थी।

उसकी बात सुनते ही अरीज खुद को उसकी तरफ़ देखने से रोक नहीं पाई थी।

“तुम ने उसे इस लायक छोड़ा है हदीद की वह स्कूल जाए? तुम यही चाहते थे ना... तुम्हें तो खुश होना चाहिए।“ अरीज ने गुस्से में उसे जताते हुए लफ़्ज़ों में कहा था।

उसकी बात सुनते ही हदीद का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था।

“अज़ीन ने सबको सब कुछ बता दिया?” हदीद बस इतना पूछ सका था।

“डरो नही... सबको नहीं सिर्फ़ मुझे बताया है... मैं उसे बार बार स्कूल जाने के लिए कह रही थी और वह हर बार इंकार कर रही थी... मैं वजह जान ने के लिए ज़िद पर उतर आई तो उसे बताना पड़ा।“ अरीज ने उसे देख कर तफ़्सील से सारी बात बताई।

“I’m sorry… I’m sorry भाभी... मैंने बिना कुछ सोचे समझे ये सब कर दिया.... I’m sorry. “ हदीद की बर्दाश्त जवाब दे गई थी वह फूट फूट कर रोने लगा था।

उसे रोते हुए देख कर अरीज को बुरा लग रहा था, मगर वह चुप रही थी उसे चुप होने को नहीं कहा था ना ही कोई दिलासा दिया था।

खुद हदीद ने आगे कहा था।

“I promise… मैं उसका अब बोहत ख़्याल रखूँगा।“ उसने रोते हुए कहा था।

“तुम ने मुझ से पहले भी प्रोमिस् किया था हदीद... “ अरीज उसे याद दिलाए बग़ैर नहीं रह सकी थी।

“मगर इस बार पक्का प्रोमिस्... मैं उसका बोहत ख़्याल रखूंगा... आप देख लेना... बस उसे स्कूल जाने के लिए आप राज़ी कर लो। “ हदीद उसके सामने गिड़गिड़ा रहा था... उसकी गिड़गिड़ाहट से किसी का भी दिल पिघल सकता था फिर तो उसके सामने अरीज थी... एक नर्म दिल और मोहब्बत से भरा हुआ दिल रखने वाली... वह अपने चेयर से उठी थी और हदीद का सर सहलाने लगी थी। उसका सहारा पा कर हदीद उस से लिपट कर फूट फूट कर रोने लगा था।

अपने जज़्बात और परेशानी में हदीद ने उस बड़े से स्टडी रूम की दूसरी तरफ देखा ही नहीं था। अज़ीन खिड़की के पैनल में बने हुए सिटिंग एरिया में बैठ कर कुछ पढ़ रही थी और अब हदीद की सारी बातें सुन चुकी थी।

“थैंक यू सो मच भाभी...” वह बेध्यानी में फिर से उसे भाभी कह गया था इसलिए अपनी ज़ुबान को अपने दांतों तले दबा लिया था।

“Sorry… आपी।“ उसकी बात पर अरीज मुस्कुरा दी थी तभी वह भी मुस्कुराते हुए वहाँ से चला गया था।

उसके जाते ही अरीज ने अज़ीन को देखा था... वह हैरान सी वहीं पर बैठी हुई थी और अरीज को ही देख रही थी।


ज़िंदगी में ये भी देखा गया है की जो बात दूसरों के बार बार समझाने से समझ में नहीं आती वही बात इंसान अगर खुद समझता है तो उसका असर उसकी पूरी ज़िंदगी में अक्स बन कर हर क़दम पर उसके सामने आ खड़ा होता है।

स्कूल शिक्षा का मंदिर होता है... यहाँ अच्छी अच्छी बातें बताई और सिखाई जाती है... मगर यहाँ पर आने वाला ज़्यादा तर बच्चा उसे बस exam होने तक याद रखता है... कुछ बच्चे तो ये भी ज़रूरी नहीं समझते... मगर वह कुछ चुनिंदा बच्चे होते है जो इन्ही सीख को अपनी ज़िंदगी के हर क़दम पर खुद के सामने रख कर आगे बढ़ते है ... वही बच्चे हमारे आने वाले कल को... हमारे समाज को बेहतर बनाते है।

टीचर में ये हुनर होना चाहिए की वह हर सबक को हर एक बच्चे की ज़िंदगी से जोड़ कर पढ़ाए और बच्चों को भी ये होना चाहिए की वह हर सबक को अपने आस पास होने वाली हर घटना से ना सिर्फ़ जोड़कर समझे बल्कि उसे खुद महसूस भी करे।

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