Nafrat ka chabuk prem ki poshak - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 10


"जब मैंने रुखसार को दादी के सीने से अलग करने की कोशिश की तो वो जोर-जोर से रोने लगी उसका रोना सुनकर मेरे जेठ भागकर अपने कमरे से बाहर आए। वो सुबह छह बजे ही घर से बाहर चले जाया करते थे इसलिए उनके यहाँ होने का अंदाजा भी मुझे नहीं था।
जैसे ही जैठ रुखसार को गोदी में लेने लगे मेरी जेठानी चिल्लाई - ‘‘खबरदार जो इसे हाथ लगाया, ये लो अपनी बानो के बेटे को संभालो।’’ जेठानी के रोकने पर मेरे जैठ के तो जैसे पंख कट गए हो वो घायल परिंदे की भाँति तड़प उठे और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- ‘‘मुझे माफ कर देना मेरी बच्ची। अल्लाह तुम्हे सलामत रखे। मेरी रुखसार.... कहते हुए वो फूट- फूट कर रो पड़े और बोले - ‘‘अल्लाह! तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा फिरदौस।"
अभी तक तो मेरे मन में राशिद और बनो के निकाह को लेकर कई प्रश्न थे अब ये बच्चा!
उफ्फ! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था आखिर मेरी जेठानी ने क्या और कैसे किया। हो सकता है जेठानी ने अपने लाड़, प्यार का गलत फायदा उठाकर राशिद को बानो से निकाह करने के लिए मजबूर किया हो?
पर बानो से निकाह तो राशिद ने किया, और बच्चा भी राशिद का ही है!
अगर राशिद ना चाहते तो ये निकाह कभी ना होता और निकाह हो भी जाता तो बच्चा... बच्चा राशिद की मर्जी और बिना और बिना प्यार के कैसे हो सकता है?
मैंने बड़ी मुश्किल से रुखसार को दादी से अलग किया और बहुत से प्रश्न मन में लेकर आ गई अपने अब्बू के घर। घर आते ही सबसे पहले मैंने राशिद के कहने पर पहनी लाल पोशाक उतारी और सलवार कमीज पहना। अब मुझे पोशाक से नफरत हो गई थी। मेरे अब्बू पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़। मैं फिर से दोनों बड़ी आपाओं के सिर पर बोझ बनकर आकर बैठ गई।
दुख और प्यार में धोखे ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया था। इसी ग़म के कारण सातवें महीने में ही बाबू पैदा हो गया था। ये बहुत कमजोर था इसका बचना भी मुश्किल था। पर भंवर बाबोसा की दवाईयाँ और अल्लाताला की मेहरबानी से यह बच गया।
एक तो अब्बू पहले ही बीमार रहते थे दूसरे मेरे साथ हुए धोखे ने उन्हें तोड़ दिया था। अब उनकी तबियत दिनों - दिन ख़राब रहने लगी और लगभग दो महीने बाद ही अब्बू अल्लाह को प्यारे हो गये। अब तो हमारे घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा।
मैं अपने ही ग़मों में डूबी ये नहीं समझ पाई कि बड़ी आपा घर के साथ ही दोनों छोटे बच्चे और बाबा की फूलों की दुकान संभालती हैं और छोटी बहनें अपनी पढ़ाई करती थी।
अब तो घर का गुजारा भी नहीं होता था । ऊपर से मैं मेरे दो बच्चे और घोड़ा..यह बात मुझे भी समझ आ गई थी कि इतना खर्चा उठाना बहनों के बस की बात नहीं थी पर बेचारी कुछ नहीं कहती ।
अब्बू के इंतकाल के एक महीने बाद ही लगने लगा था कि या तो मुझे किसी ना किसी तरह घर खर्च में बहनों की मदद करनी चाहिए या मुझे कहीं और रहना चाहिए। पर करूँ क्या ये समझ नही आ रहा था ऊपर से छोटे बच्चे।
क्रमशः...
सुनीता बिश्नोलिया

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