धर्म युद्ध Dinesh Tripathi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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धर्म युद्ध

विजया दशमी का शुभ दिन, सभी लोग जवारा निकालने की तैयारी में जुटने लगे।ढोल,नगारे, शंख,घण्टा आदि सभी संगीत के आयाम मौजूद थे।
माँ दुर्गे की प्रतिमा सुसज्जित रथ पर खड़ी जैसे अपने भक्तों पर आशीर्वाद बरसा रही हो।
वातावरण ट्रांजिस्टर की ध्वनि से संगीतमय हो रहा था।भक्तियुक्त गीत उस समय और रोमांच भर रहा था,कोई नाच रहा था,कोई गीत में स्वरबद्ध होकर गा रहा था।मंडली के सदस्यगण योजना बना रहे थे की रथ किस गली से होकर माँ की प्रतिमा को विसर्जन के लिए ले जायें।तभी पंडितजी योजना के बीच में माहौल गरम करते हुए कहा कि सुना है मुल्लाजी कह रहे थे कि अगर दुर्गे की प्रतिमा हमारे गली से निकली तो हम खून की नदियां बहा देंगे।
थोड़ी देर सन्नाटा छा गया, भक्तिरस से सराबोर माहौल हो और वीर रस का उस पर प्रहार हो तो सन्नाटा लाजमी था।सन्नाटे का सीना चीरते हुए कमेटी अध्यक्ष ने हुंकार भरते हुए प्रतिज्ञ होते हुए बोले, अब तो विसर्जन के लिए हम मुल्ला की गली से ही निकलेगें। खून की नदियां बहती है तो बह जाये ,तलवारे निकली तो शीश उनके भी कटेंगें।धीरे धीरे यह बात सभी के कानों में दस्तक देती हुई गांव के इस छोर से उस छोर तक पहुँच गई।
मुस्लिम टोला में भी इस बात की हवा लग गई, दोनों तरफ गर्मजोशी का माहौल छा गया।अब दोनों वर्गों में शीत युद्ध छिड़ गया।
इधर प्रतिमा विसर्जन की तैयारी शुरू हो गयी।पंडित जी ने मंत्रोच्चारण कर हवन कार्य शुरू किया,हवन कुंड से निकली भस्मित खुशबू सभी को आनंदित कर रही थी।
सभी ने एकसाथ स्वरबद्ध होकर ,अम्बेमाताकी जय का जयघोष किया और प्रतिमा विसर्जन के लिए निकल पड़ी। जैसे ही प्रतिमा मुस्लिम टोला के पास पहुंची, मुस्लिम दल जैसे पहले से ही तक पर थे जैसे सभी योजनाबद्ध तरीके से चक्रव्यूह बद्ध थे।सभी के हाथों पर नंगी तलवारें,बरछी, भाले आदि चमक रहे थे। अचानक एक ने बोला देखते क्या हो एक भी बचने न पाए आज पूरा हिसाब करेंगे। अब दोनो दलों में तलवारे लहराने लगी। आंखों में खून उतर आया और हिंसक ज्वाला भड़क उठी। मारो मारो मारो शब्द के बीच चीखे सुनाई देने लगीं। थी तो विजया दशमी लेकिन खून की होली खेली जाने लगी । किसी का शीश कटा तो किसी के हाथ पाव, किसी का सुहाग उजड़ रहा था, कोई अनाथ हो रहा था, तो किसी की गोद सूनी हो रही थी। हर जाति, हर वर्ग, हर समुदाय के लोगों ने अपनी बलि दी। लाशों के ढेर के बीच मां दुर्गे की प्रतिमा अकेली खड़ी थी, न कोई जयकारा वाला बचा न ही विरोधी।सभी धर्मयुद्ध की भेंट चढ़ गए।
ये भीषण नर संहार का सिलसिला पिछले विजया दशमी से शुरू हुआ था । जब विधान सभा चुनाव नजदीक थे। वोट बैंक बढ़ाना था तो जातिवाद,भेदभाव से बढ़िया कोई उपाय नेताओं को न सूझा। नतीजतन एक गाय बलि कि भेट चढ़ गई,इल्जाम लगा मुस्लिमों पर। फिर क्या था हिंदुस्तान की जनता तो भेड़ जनता है,जो एक कुआं में गिरे तो सब गिरे। धर्मवाद का ठेका लेकर दोनों गुट में भीसड़ मार काट हुई थी।नुकसान जनता का और फायदा नेताओं का।दोनो गुटो के नेताओ ने धर्म की ओट पर खूब सहानुभूति बटोरी।चुनाव खत्म होते ही किसीने कटे नरमुंडो की बात तक नहीं किया।
हमारा देश अब भी अंग्रेजी नीतियों का गुलाम है,"फूट डालो राज करो।"
नेताओं को राजनीतिक रोटियां सेंकने का सबसे बड़ा ईंधन भेदभाव का अचूक अस्त्र था।
वक्त बीतता गया देश में घुसखोरी तो चपरासी से लेकर मंत्रियों तक फैल गई।वही नेता जो जनता को लोकतंत्र का मालिक कहती थी,वही अब जनता का काम बिना कमीशन कोई सुनवाई नहीं। रोजगार के नाम पर सरकार अपनी तिजोरी भरने के लिए मोटी फीस लेकर वेकेंसी तो निकालती लेकिन परीक्षा कैंसिल, भारती कैंसिल।मतलब बेरोजगारी जस की तस। जनता सरकार चुनती है देश चलाने के लिए लेकिन तंत्र सौंपने लगे प्राइवेट कंपनियों को।अगर देश की बागडोर संभालना तुम्हारी औकात के बाहर है तो इस्तीफा देने में शर्म क्यों अति है।लोकतंत्र किसी की बपौती तो नही होती। सरकार व्यापारियों के हाथो लोकतंत्र को गिरवी रख दिया।जनता को कोई उपाय न सूझने लगा।जो सरकार आती विकास के सब्जबाग दिखाकर चली जाती।जनता ठगी की ठगी रह जाती।
ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने नोटा का महा अस्त्र जनता को दिया,जो लाचार,हताश जनता में प्राण फूकने का काम किया।
नोटा का मतलब 'नान ऑफ द एबव' यानी इनमें से कोई नहीं है. अब चुनाव में आपके पास एक विकल्प होता है कि आप 'इनमें से कोई नहीं' का बटन दबा सकते हैं. यह विकल्प है नोटा . इसे दबाने का मतलब यह है कि आपको चुनाव लड़ रहे कैंडिडेट में से कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है।
चुनाव के माध्यम से मतदाता का किसी भी उम्मीदवार के अपात्र, अविश्वसनीय और अयोग्य अथवा नापसन्द होने का यह मत (नोटा ) केवल यह संदेश होता है कि कितने प्रतिशत मतदाता किसी भी प्रत्याशी को नहीं चाहते. लेकिन नोटा का महाअस्त्र भी भ्रष्टाचारी सरकार पर बेअसर रहा क्योंकि उम्मीदवार फिर भी चुनाव लड़ सकता है।असर सिर्फ इतना है कि जनता अपनी नाराजगी दिखा कर ये साबित कर सकती है की तुम नकारा हो।लेकिन इससे बढ़िया तो आंदोलन है जो लोगो में प्राण फूंक कर जनता को जागरूक कर अपना हक लड़ने के लिए प्रेरित करती है।
अब तो संगठनों, पार्टियों की तो भरमार इसे हो गई है जैसे खेतो में खरपतवार और फसल को नुकसान करने वाले की होती है ।जो राष्ट्र रूपी फसल को भेदभाव, जातिवाद रूपी जहरडंकसे देश को खोखला कर रहे है।
पता नही वो वक्त कब आएगा जब देश में सिर्फ विकास मुद्दा होगा और देश हमारा उन्नति की रह पर अग्रसर होगा।
। जय हिंद जय भारत ।