ममता की परीक्षा - 127 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 127



बंगले के नाम पर ध्यान जाते ही अमर का माथा ठनका।
बिजली की सी तेजी से उसके मन में विचार कौंधा, 'अग्रवाल विला ?? उसकी मम्मी ने पापा का नाम भी तो गोपालदास अग्रवाल ही बताया था और यह भी बताया था कि वो भी इसी शहर में रहते हैं तथा बहुत बड़े व्यवसायी हैं। शेठ जमनादास जी के लंगोटिया यार भी हैं।.. तो क्या यह उनका ही बंगला है ? लेकिन जमनादास जी यहाँ क्यों आये हैं ? जरूर कोई विचार उनके मन में चल रहा होगा। खैर.. देखते हैं आगे क्या होता है।'
सोचते हुए अमर जमनादास और बिरजू के साथ बंगले के भव्य मुख्य दरवाजे के सामने तक पहुँच गया।

सफेद संगमरमर के तराशे हुए पत्थरों से बनी सीढियाँ चढ़कर जैसे ही अमर बंगले के मुख्य दरवाजे पर पहुँचा, अंदर बंगले की शानोशौकत और साजसज्जा देखकर दंग रह गया।

मुख्य दरवाजे से नीचे उतरती हुई सीढियाँ एक अति विशाल हॉल में आकर खत्म हो रही थीं। हॉल के बीचोंबीच किमती सोफे करीने से लगे हुए थे। इन सोफों के बीच रखे सेंटर टेबल भी बँगले की भव्यता में इजाफा कर रहे थे। इनके ठीक ऊपर एक बहुत बड़ा आलीशान झूमर हॉल की सुंदरता में चार चाँद लगा रहा था। हॉल के दोनों तरफ से घुमावदार सीढियाँ ऊपर पहली मंजिल की तरफ गई थीं। हॉल के फर्श और सीढ़ियों पर बिछे लाल मखमली कालीन बंगले की भव्यता व संपन्नता बयान कर रहे थे।
मुख्य दरवाजे की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए बिरजू की आँखें हैरत से फटी रह गईं। इस तरह का वैभवसंपन्न बंगला उसने पुरानी फिल्मों में देखा था। गोल हॉल के ऊपर पहली मंजिल पर बड़ी सी बालकनी के पीछे करीने से कमरे बने हुए थे।

उन्हीं कमरों में से किसी कमरे से एक कृषकाय अधेड़ शख्स निकला जो जमनादास को देखते ही उनकी तरफ बढ़ा।

मरियल से बदन पर शानदार सूट झूलता हुआ सा लग रहा था। जिस्म पर सम्पन्नता की कई निशानियों मसलन किमती सूट के साथ ही कलाई पर बंधी महँगी घड़ी, उंगलियों में रत्नजड़ित अंगूठियों के अलावा गले में सोने का मोटा चैन होने के बावजूद उसका चेहरा बिल्कुल कांतिहीन, निस्तेज व प्रभावहीन नजर आ रहा था। सुघड़ चेहरे की हड्डियां उभर गई प्रतीत हो रही थीं। बेतरतीब से बिखरे बाल उनके अस्तव्यस्त जिंदगी व मनोदशा का हाल स्वयं ही बयां कर रहे थे।

जमनादास को देखते ही उनके कदमों में गजब की तेजी आ गई थी। लगभग दौड़ते हुए तेजी से सीढियाँ उतरकर वह जमनादास की तरफ लपका।

नजदीक आकर उसके गले से लिपटते हुए वह शख्स बेहद भावुक नजर आ रहा था। गले लगने के बाद जमनादास का हाथ थामे उसे लेकर सोफे की तरफ बढ़ते हुए उसने कहा, "कहाँ खो गया था मेरे यार ? इतने वर्षों तक तुझे मेरी याद नहीं आई ? अमेरिका से वापस आने के बाद कई बार गया था तुझसे मिलने तेरे बँगले पर, लेकिन तू मिला ही नहीं। कई बार जाने के बाद एक दिन दरबान ने बताया 'साहब ने शहर के बाहर एक दूसरा बंगला बनवाया है और वहीं शिफ्ट हो गए हैं।' और तूने तो मुझे एकदम से भुला ही दिया। जबसे मैं अमेरिका गया तेरी सूरत देखने को तरस गया और अब तू मिला भी है पच्चीस वर्षों के बाद तो अब मेरी आँखों में वह पहले जैसी रोशनी नहीं रही।"

प्यार से जमनादास को सोफे पर बिठाकर वह खुद भी उनकी बगल में बैठ गया। जमनादास ने बिरजू और अमर को बैठने के लिए पहले ही कह दिया था।

"और बता कुछ अपने बारे में ! तू कैसा है ? भाभी कैसी हैं ? और बच्चे कितने हैं ? कैसे हैं ?"
बैठते ही उस शख्स ने जमनादास पर सवालों की बौछार कर दी, "तूने मुझे साधना की भी कोई खबर नहीं दी। न जाने बेचारी कहाँ होगी ? किस हाल में होगी ?"
कहते हुए जमाने भर का दर्द उतर आया था उस शख्स की आवाज में लेकिन खुद को पूरी तरह संभालते हुए जमनादास के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना उसने नजदीक ही हाथ बाँधे खड़े बुजुर्ग नौकर रामू को आदेश दिया, "काका ! खड़े क्यों हो ? देख नहीं रहे मेरा यार आया है इतने दिनों बाद ? जाओ जल्दी से कुछ जलपान की व्यवस्था कराओ।"

रामू काका उनका अभिवादन कर चला गया। उसके जाते ही जमनादास भावुक स्वर में बोलने लगे, "क्या बताऊँ यार गोपाल !"
जमनादास के मुँह से गोपाल नाम सुनते ही अमर के कान खड़े हो गए। बिरजू भी चौंक पड़ा था।

जमनादास आगे कह रहे थे,"मुझे बताए बिना ही तू विदेश चला गया और धर्मसंकट में मुझे डाल गया। न जाने वह कौन सी मनहूस घड़ी थी, जब मैं तुझे लेने के लिए साधना के गाँव सुजानपुर गया था। काश, उस दिन मैंने तेरी बात मान ली होती .....!" कहते हुए जमनादास की आवाज भर्रा गई।

अमर ने देखा, आँसू उस शख्स की आँखों के किनारों को तोड़कर बाहर निकलने को बेताब थे जिसे अभी थोड़ी देर पहले जमनादास ने गोपाल कहकर संबोधित किया था।
अमर को समझते देर नहीं लगी कि यह वही गोपाल अग्रवाल हैं जिनका जिक्र वह अक्सर सुनता रहा है, उसके पिता जी !

उसका जी तो चाह रहा था कि अभी दौड़कर लिपट जाए उनके गले से और उनके चरणों की धूल अपने माथे चढ़ा ले लेकिन अपनी माँ साधना का चेहरा उसकी आँखों के सामने नाच गया और एक पिता के रूप में गोपाल की सम्मानित मूर्ति अचानक ही उसके नफरत की हकदार बन गई।
उसे याद आ गया अपनी मम्मी के संघर्ष का हर वो पल जो उसने खुद अपनी आँखों से देखा था, समझा और महसूस किया था। अचानक उसकी भावभंगिमा बदल गई लेकिन उसकी तरफ से लापरवाह दोनों दोस्त आपस में बातें करने में मशगूल हो गए थे।

जमनादास ने आगे कहा, "काश उस दिन साधना ने तुझे मेरे साथ शहर आने के लिए न कहा होता ! ..लेकिन वह भी बेचारी कहाँ जानती थी कि वह तुझे शहर जाने के लिए नहीं कह रही बल्कि तेरे रूप में अपनी खुशियों को ही हमेशा हमेशा के लिए अपने से दूर कर रही है। अपनी जिंदगी को धोखा दे रही है। काश उस दिन उसने तुझे रोक लिया होता !"

कहते हुए एक पल को ही ठहरा था जमनादास। फिर आगे कहना शुरू किया, "खैर तू बता ! मैं तेरा अमेरिका का पता नहीं जानता था लेकिन तू तो मेरा पता जानता था न ? फिर मुझे अपने बारे में कोई ख़बर क्यों नहीं किया ? तेरा पता जानने के लिए एक दो बार शेठ अंबादास और तेरे पिताजी से भी मिला, लेकिन किसीने तेरा पता नहीं बताया और फिर मेरी भी शादी हो गई और मैं अपने कारोबार में व्यस्त हो गया।"

भर आई आँखें पोंछने के लिए जेब से रुमाल निकालने के प्रयास में जमनादास कुछ पल के लिए खामोश हुआ।
तभी गोपाल की भर्राई हुई आवाज आई, "मैं तेरी मुश्किल समझ सकता हूँ यार ! ये भी जानता हूँ कि तूने मेरा पता लगाने की पूरी कोशिश की होगी लेकिन मैं भी क्या करता ? इन लोगों ने मेरे इर्दगिर्द जाल ही इतना मजबूत बुन रखा था , जिसे लाख प्रयास करके भी मैं भेद नहीं सका। कई महीनों तक इलाज के नाम पर मुझे बिल्कुल अकेला रखा गया और फिर एक दिन अपने ही कुछ मित्रों की मौजूदगी में शेठ अंबादास ने अपनी बदचलन आवारा लड़की सुशीला देवी के साथ मेरी शादी करा दी। मेरे लाख मना करने का भी उनपर या किसी पर कोई असर नहीं पड़ा और उनके रसूख की वजह से अपनी मर्जी के बिना ही मैं वहाँ उनकी बेटी का कानूनन पति बन गया। शादी के चार महीने बाद ही उस बदचलन व अय्याश औरत ने अपने पाप को जन्म दिया और उसे नाम दिया गया मेरा बेटा होने का। सोचो ! मुझपर क्या बीती होगी ? बेटे के जन्म के बाद तो वह और आजाद हो गई जिसे मेरी धर्मपत्नी होने का दर्जा प्राप्त था। उसकी अय्याशियाँ दिनोदिन बढ़ती जा रही थीं। मेरी आँखों के सामने ही रोज अलग अलग कार में गोरे आते, हॉर्न बजाते और फिर यह इठलाते हुए बाहर निकलतीं। हालाँकि उस बदचलन औरत को मैंने कभी पत्नी माना ही नहीं लेकिन फिर भी उन गोरों को उसकी कमर में हाथ डालकर उसे किस करते हुए देखकर मेरे तनबदन में आग लग जाती थी, लेकिन मजबूर था मैं उस विदेशी मुल्क में। कुछ भी तो नहीं था मेरे हाथ में। कहने को तो मैं वहाँ का पाँच सौ मिलियन डॉलर वाली कंपनियों का मालिक था लेकिन सब कुछ सुशीला और उसके बाप शेठ अंबादास के हाथों में था, यहाँ तक कि मेरा पासपोर्ट भी। बेबसी में मेरे आँसू निकल जाते थे लेकिन खामोशी के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था, और फिर एक दिन .......! "

क्रमशः