ममता की परीक्षा - 126 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 126



बसंती की पूरी गाथा सुनते सुनते वकील धर्मदास काफी गमगीन नजर आने लगे थे। अंत में उसके कुएँ में कूदने का वृत्तांत सुनकर वह बेहद भावुक हो गए।
आँखों पर से चश्मा हटाकर उसे साफ करने के बहाने अपनी आँखें पोंछते हुए धर्मदास जी ने बसंती की कहानी सुना रहे अमर को टोका, " क्या कहा तुमने ? वो दरोगा आकर बसंती के शव को ले गया ? ..मतलब उसका पोस्टमार्टम अवश्य कराया होगा न ?"

अमर ने स्पष्ट किया, "जी, उस दरोगा ने यही बताया था जब हम उससे मिले थे। साथ ही उसने यह भी बताया कि बसंती का पोस्टमार्टम रिपोर्ट उसने उसकी फाइल में संलग्न कर दिया है। उसी ने बताया कि यदि किसी तरह वह फाइल फिर से खुलवाई जाय तो अपराधियों का बचना मुश्किल हो सकता है। वह अच्छा पुलिसिया है और जब भी हमें जरूरत होगी वह हमारी मदद करने के लिए तैयार है।"

धर्मदास ने हाथ उठाकर उसे टोकते हुए कहा, "हमें उसके मदद की शायद ही जरूरत पड़े क्योंकि हम सही हैं। साँच को आँच नहीं यह हम बखूबी जानते हैं।"

एक पल की खामोशी के बाद धर्मदास ने अपने हाथ में बंधी घड़ी पर नजर डालते हुए कहा, "लगभग तीन बजनेवाले हैं और जैसा कि आपने बताया है वह थाना यहाँ से लगभग एक घंटे की दूरी पर है। आज के कामकाज का समय तो लगभग समाप्त हो ही चुका है।... आप एक काम कीजिये। सुबह लगभग नौ बजे आइये यहीं मेरे दफ्तर में। मैं तैयार रहुँगा।आपके आते ही आपके साथ चल दूँगा। पहले उस पुलिसिये से मिलना होगा और फिर अदालत में जाकर वह केस फाइल फिर से खोलने की अर्जी देनी होगी। ठीक है ? अब आप चाहें तो जा सकते हैं।"
कहते हुए वकील धर्मदास की नजरें जमनादास पर आकर टिक गईं।

जमनादास कुछ सोचते हुए बोल पड़े, "धर्मदास जी ! आप सही कह रहे हैं। अब समय भी काफी हो चला है और जब तक हम वहाँ पहुँचेंगे, अदालत भी बंद हो चुका होगा। तो चलो यह तय रहा कि मैं सुबह आपसे आकर मिलता हूँ और फिर हम साथ ही निकल पड़ेंगे अपने आगे के मिशन के लिए।"
इससे पहले कि वकील धर्मदास जी कुछ जवाब देते, अमर बोल पड़ा, "सही कहा आपने सेठ जी ! अब हमारे लिए यही मुनासिब होगा कि हम सुबह आकर वकील साहब से मिलें और फिर उनकी आज्ञा के अनुसार आगे की कार्रवाई करें।"

अमर निर्विकार भाव से बोले जा रहा था जबकि उसी समय चेहरे पर असीम वेदना और आँखों में बड़ी मुश्किल से संभालने के बावजूद छलक आये आँसुओं पर काबू पाने का असफल प्रयास करते हुए जमनादास की आवाज चैम्बर में गूँज उठी, "बेटा ! मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है, लेकिन मुझे दुःख है कि इतने प्रयास के बाद भी मैं तुम्हारे दिल में अपने लिए जगह नहीं बना पाया, अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाया। ... तुम अभी भी मुझे उस गुनाह के लिए गुनाहगार समझते हो जो अंजाने में हुआ है और जिसके लिए मैं एक पैसा बराबर भी जिम्मेदार नहीं हूँ। साधना के दुःख को महसूस कर मेरा कलेजा फट रहा है और मैं अपनी इस भूल का या कह सकते हैं कि तुम्हारी नजर में गुनाह का प्रायश्चित करना चाहता हूँ और इसीलिए मैं तुम्हारे साथ आया हूँ ताकि तुम्हारे किसी काम आकर कम से कम आईने में अपना चेहरा तो ठीक से देखने की हिम्मत जुटा सकूँ, अपनी नजरों से नजरें तो मिला सकूँ.... और इन्हीं सब बातों को देखते हुए तुम्हारे मुख से अपने लिए यह सेठ जी का संबोधन मुझे किसी गाली से कम नहीं लगता। बेटा, मेरा तुमसे हाथ जोड़कर निवेदन है तुम्हें जब तक मेरी बेगुनाही नजर न आये बेशक मुझसे नफरत करो, लेकिन कम से कम सेठ जी कहकर मुझे गाली तो मत दो।" कहते हुए जमनादास की आवाज भर्रा गई थी।

जमनादास के एक अलग ही रूप को देखकर वकील धर्मदास के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए। अब तक उसने धीर गंभीर जमनादास को एक सफल उद्योगपति के रूप में ही जाना था, लेकिन आज पहली बार उन्हें किसी बेबस, मजबूर व निरीह इंसान की तरह किसी के सामने हाथ जोड़ने पर मजबूर जानकर उनकी निगाहें कुछ सोचने पर विवश हो गईं। हैरानी व आश्चर्य के मिलेजुले भाव लिए वह कभी जमनादास तो कभी अमर के चेहरे को देखते और उनकी मुखमुद्रा को पढ़कर कुछ समझने का प्रयास करते, लेकिन शायद वह असफल रहे थे उनके भावों को समझने में।

धर्मदास की दुविधा को भाँपते हुए जमनादास ने कहा, "आप अमर बाबू को नहीं जानते धर्मदास जी, लेकिन शीघ्र ही आप इनका परिचय जान जाएँगे और मुझे यकीन है कि तब आपको कोई हैरानी नहीं होगी मेरी हरकत पर।"
कहते हुए जमनादास की नम आँखें भी मुस्कुरा उठी थीं।

हैरान नजरों से उन्हें देखते हुए वकील धर्मदास के मुखड़े पर आश्चर्य के भाव थे।

बिरजू और अमर चलने के लिए उठ खड़े हुए थे।

धर्मदास से विदा लेकर जमनादास भी उनके साथ ही सधे कदमों से दफ्तर से बाहर आये।

कार में ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए जमनादास के मन में कई सवाल उमड़ घुमड़ रहे थे। कई सवालों के जवाब तो खुद ही देकर मन को समझा लेते लेकिन जिन सवालों के जवाब अनिश्चित थे उनको लेकर उनके मन में संशय की अवस्था बनी हुई थी।

अमर और बिरजू के कार में बैठते ही जमनादास जी ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

लगभग दस मिनट तक शहर की भूलभुलैया सी लग रही संकरी गलियों में भटकने के बाद कार एक बार फिर मुख्य सड़क पर आ गई और फिर बाईं तरफ एक छोटी सड़क पर मुड़कर एक आलीशान बंगले के सामने खड़ी हो गई।

बंगले का बड़ा सा शानदार मुख्य दरवाजा बंद था और उसकी बगल में बने छोटे से गेट के पास स्थित एक केबिन से एक गोरखा बाहर झाँक रहा था।

जमनादास की गाड़ी पर नजर पड़ते ही उसने बाहर निकल कर अपने विशेष अंदाज में सलूट किया और हड़बड़ी में मुख्य दरवाजा खोलने लगा।

कार में बैठे बिरजू और अमर आँखें फाड़कर बंगले की सुंदरता निहार रहे थे।
कार मुख्य दरवाजे से अंदर आकर बंगले के शानदार लॉन में खड़ी हो गई।
मन में हैरानी के साथ ही विस्मय के भाव लिए अमर और बिरजू कार से बाहर निकले।
बंगले के मुख्य दरवाजे को निहारते हुए अमर की आँखों के सामने मुख्य दरवाजे के बगल में स्थित शिलापट पर स्वर्णाक्षरों में शानदार कलात्मक अक्षरों में लिखा बंगले का नाम 'अग्रवाल विला ' ही छाया हुआ था।

अग्रवाल विला नाम पर नजर पड़ते ही अमर का माथा चौंका था ! अग्रवाल विला ??.. कम से कम यह जमनादास जी का बंगला तो बिल्कुल भी नहीं है... फिर ये हमें कहाँ लेकर आये हैं ? और क्यों ? जैसे कई सवाल अमर के मन में उठने लगे।

क्रमशः