तुम दूर चले जाना - भाग 4 Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम दूर चले जाना - भाग 4

प्लूटो के जाने के पश्चात किरण उदास हो गयी, गम्भीर भी- स्वाभाविक ही था। दिल का प्यार ही जब दिल के आँगन से दूर हो। मिलन की आस और उम्मीद में जब वियोग से वास्ता आ पड़ा हो, तो मन का उदास होना बहुत निश्चित ही था। प्लूटो की अनुपस्थिति के कारण किरण का तो सारा संसार ही व्यर्थ प्रतीत होने लगा। दुनिया नष्ट हो गयी। स्वत: ही उसके चेहरे की सारी रंगत फीकी पड़ गयी। आशा मलिन हो गयी। आँखों में कभी भी न बोलनेवाली एक खामोशी ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। दृष्टि मानो थक सी गयी थी। किसी की प्रतीक्षा में वह वियोगिन बन बैठी। घर में किसी भी कार्य में उसका मन ही नहीं लगता। बाहर भी उसका दिल बेचैन रहता। दिन होता अथवा रात, बारिश होती अथवा धूप। समय चाहे कोई भी होता, प्रत्येक समय उसके दिल में प्लूटो ही छाया रहता। उसकी बातों की स्मृतियाँ होतीं- बार-बार उसका खयाल आता। वह सदा उसी के ही लिए सोचती रहती थी।

इस प्रकार किरण जब भी अकेली होती, जब भी वह घर के कार्यों से फुरसत पाती अथवा उसके काँलेज की छुटूटी होती, तो वह कहीं भी नहीं जाती। कहीं जाने का उसका मन ही नहीं करता। काँलेज में भी वह अपनी सहेलियों से तुरन्त छुटकारा पाकर सीधी घर आ जाती- आ जाती तो वह बिना किसी को कुछ भी बताये, अपने कमरे में चली आती। बिस्तर पर खामोश लेट जाती और फिर कमरे की निस्तब्धता का सहारा लेकर प्लूटो के लिए सोचने लगती. बार-बार उसको याद करती। उसके चित्र को देखती रहती- बडी देर तक। घंटों बीत जाते और वह प्लूटो की तस्वीर को ही देखती रहती। सारा दिन वह उसके छायाचित्र से ही बातें करके गुजार देती और जब भी वह अधिक भाव-विभोर हो जाती, प्यार का जुनून उसके सिर पर सवार हो जाता तो वह प्लूटो की तस्वीर को चूम भी लेती- बहुत खामोशी से-चुपचाप- उसके होंठों पर अपने होंठ रख देती। पलकों पर अपनी पलकें बिछाकर बन्द कर लेती। ऐसा था उसका प्यार! प्यार का एहसास! उसके जीवन के पहले-पहले प्यार का साथी। प्रथम आस, जिसके ऊपर वह हर दृष्टिकोण से निछावर हो चुकी थीं।

फिर जब रात आती, संध्या डूब जाती, वृक्षों के ऊपर सूर्य दिन का उजाला समाप्त करके लौट जाता और जब वह अपने बिस्तर पर होती तो प्लूटो सबसे बचता-बचाता, उसके खयालों में आ जाता- बहुत खामोशी से वह तब उसके नैनों की खिड़की खोलकर उसके दिल के द्वार में प्रवेश कर जाता- कर जाता तो किरण का दिल बल्लियों समान उछलने लगता। दिल की धड़कनें बढ़ जातीं। वह फिर दीवानगी की दशा में आ जाती। प्लूटो तब उसे रह-रहकर याद आने लगता। उसकी प्रत्येक याद पर वह तड़प जाती। हर बात पर वह करवटें बदलने लगती। अपने आपको परेशान कर डालती।

कुछेक दिन किरण के इसी ऊहापोह में व्यतीत हो गये. लगभग एक सप्ताह समाप्त हो गया, परन्तु प्लूटो की कोई सूचना उसको नहीं मिल सकी। कोई खबर भी नहीं आयी। ना ही कोई पत्र आया। प्रतीक्षा करते-करते किरण अत्यधिक व्याकुल हो गयी। आँखें दुख गईं। प्रतिदिन ही वह डाकिये को देखती। उससे पत्र के विषय में पूछती, परन्तु हर बार वह निराश भी हो जाती। प्लूटो ने एक भी पत्र उसे नहीं लिखा था। यही सोचकर वह कभी-कभी एक आत्मग्लानि से भी भर जाती थी। स्वयं ही खीझ भी जाती। प्लूटो पर उसे सन्देह होने लगता। वह शंकित हो जाती। अपने प्यार में उसे खोट नजर आने लगती। मगर वह करती भी क्या? फिर कर भी क्या सकती थी? केवल एक आशा और निराशा के समन्वय में उलझकर स्वयं को एक झूठी तसल्ली दिये रहती। सारा दिन वह सोचती। सोच-सोचकर परेशान होती और जब दिन डूब जाता, रात घिर आती, तो उसकी दिनभर की निराशा सुबह की मिलनेवाली आशाओं की प्रतीक्षा करने लगती। यही सोचकर वह सो जाती। कभी वह शीघ्र ही और कभी-कभी वह सारी रात प्लूटो की मधुर यादों में ही गुजार देती। उसके सपने देखती- जागते हुए ही- वह उससे बातें करती रहती…।

फिर ऐसे ही एक दिन किरण को प्लूटो का पत्र मिल गया। पत्र उसने अपने घर से ही लिखा था। साथ ही ये भी सूचित किया था कि भारतीय वायु सेना में उसका चयन हो गया है और शीघ्र ही उसको वायु सैनिक प्रशिक्षण के लिए जाना होगा। इन्हीं कारणों से वह पत्र नहीं लिख सका था।

किरण को पत्र पाकर जहां प्रसंनता हुई थी वहीं वह उसके बारे में पढ़कर दु:खित भी हो गयी थी। दु:खी इसलिए कि अब वह प्लूटो से बार-बार नहीं मिल सकेगी। प्रशिक्षण समाप्त होने के पश्चात् ही उसकी भेंट सम्भव थी- और प्रसन्नता इसलिए हुई थी कि प्लूटो का चयन हो चुका था। उसका भावी पति भारत देश का एक सैनिक होगा। एक देश-रक्षक। इससे अच्छा सौभाग्य उसका और क्या हो सकता था? फिर भी किरण के लिए ये एक छोटा-सा सदमा ही था- खुशी और रंज की मिली-जुली सूचना थी। उसको अपनी जिन्दगी का एक लम्बा अरसा प्लूटो की अनुपस्थिति में व्यतीत करना होगा, जबकि यहाँ प्लूटो के बगैर वह एक दिन भी नहीं काट पा रही थी- पल-पल उसे महँगा पड़ रहा था।

उस दिन किरण खामोश बनी रही। सारे दिन उसने कुछ भी नहीं खाया। कुछ पिया भी नहीं। भूखी-प्यासी ही बनी रही। किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगा। अनमनी सी बनी रही- किसी से अधिक बात भी उसने नहीं की। उसके पिता ने जब उससे पूछा भी तो वह तुरन्त ही टाल भी गयी। उसने कुछ भी नहीं बताया और तब एक दिन उसने अपने दिल के अरमानों पर पत्थर रखकर प्लूटो को पत्र लिखा। पत्र का उत्तर तो देना ही था। पत्र में उसने सब कुछ लिखा। एक-एक बात कही- दिल की मनोस्थिति की एक-एक क्षण की गाथा लिख दी। सेना में चयन होने के लिए अपनी ढेरों-ढेर बधाइयाँ भी भेज दीं। साथ ही प्यार भी लिखा- भविष्य की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ उसने पत्र को समाप्त किया।

इस प्रकार होते-होते कई दिन बीत गये। कई सप्ताह, महीने होने को आये। प्लूटो के पत्र उसके पास आते रहे। वह भी उसको पत्र लिखती रही. प्रशिक्षण की अवधि समाप्त होने की वह प्रतीक्षा करने लगी. और अब इसी प्रतीक्षा में उसका प्यार था। प्यार की आस थी। उसके भविष्य की जिन्दगी की ढेरों-ढेर खुशियाँ और सपने भी सुरक्षित थे। इसीलिए प्लूटो के प्रति उसके दिल में बसा प्यार दीवानगी से समाप्त होकर गंभीर हो गया। गंभीर ही नहीं, परन्तु उसके इस प्यार की जड़े भी प्रबल हो गईं थीं। कहते हैं कि प्यार जितना दूर रहने पर प्रबल और अमिट होता है, उतना पास रहकर नहीं। प्यार की जिन्दगी उसके विश्वास पर आधारित होती है और विश्वास की ये आधारशिला प्यार की बढती हुई दूरियों के साथ-साथ और भी अधिक मजबूत होती जाती है। यही हाल किरण का भी हुआ। प्लूटो से वह दूर थी। वह स्वयं भी उससे दूर था।

इसी कारण किरण के दिल में प्लूटो की अहमियत पहले से भी अधिक बढ़ गयी थी । वह प्लूटो को अब जी-जान से प्यार कर उठी थी। उस पर मरमिटी थी- इतना अधिक कि हर वक्त वह उसके ही खयालों में खोई रहती- गुम हो जाती- चाहे कुछ भी होता। कोई भी समय होता, प्लूटो के विषय में वह बात-बात पर विचारमग्न हो जाती। यहां तक कि काँलेज में भी पढाई के समय उसका दिल प्लूटो से वार्ता करता रहता। उसके दिल की ये जिज्ञासा उस समय और भी अधिक बढ़ जाती, जब काँलेज में वह अपनी साथी-सहेलियों के साथ होती। जब उसकी सहेलियाँ अपनी-अपनी सखियों और प्रेमियों का जिक्र किया करती, उस समय किरण का दिल स्वत: ही धड़क जाता। शरीर में सिहरन-सी होने लगती। मन में खुशियों के ढेर एकत्रित होने लगते। उसे अपने प्यार पर गर्व आ जाता। अपनी पसन्द के विषय में सोचकर वह मन-ही-मन फूली नहीं समाती। ऐसी थी किरण- किरण की मनोवृत्ति। उसका मन तथा मन में बसा हुआ उसका प्यार- अपने इस प्यार के लिए वह कुछ भी करने की स्थिति में आ चुकी थी।

प्यार की बढ़ोतरी तथा दीवानगी के ऐसे ही भीषण दौर में से गुजरते हुए तब एक दिन किरण को हल्का-सा धक्का भी लगा। उसके दिल को चोट पहुँची थी, तब जबकि वह अपनी दिनचर्या के मुताबिक घर के बाहर खड़ी थी। खड़ी-खड़ी वह डाकिये के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। ऐसा वह अक्सर ही करती थी। काँलेज से छुटूटी होकर वह घर आती। आकर कपड़े बदलती। खाना खाती और बाहर आकर डाकिये की राह देखा करती थी, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि समय से पूर्व ही कोई अनहोनी घटना घट जाये। उसके पिता को प्लूटो के विषय में कुछ भी ज्ञात हो अथवा उसके पास आये हुए पत्रों को देखकर उसके पिता उस पर किसी भी तरह का सन्देह करने लगे। जब समय आयेगा और जब वह उचित समझेगी तब ही सब कुछ ठीक भी हो जायेगा। वह ठीक समय पर अपने पिता को अपने और प्लूटो के विषय में अवगत भी करा देगी। ऐसा किरण का अपना विचार था और विश्वास भी, कि उसके पिता कभी भी उसके और प्लूटो के विवाह के मध्य बाधा नहीं बनेंगे- नहीं बनेंगे, तो फिर वह क्यों अभी से उन्हें परेशान होने दे- यही सब सोचकर किरण ने अभी तक अपने पिता को प्लूटो के विषय में कुछ भी नहीं बताया था। ना ही वह किसी भी स्थिति में अभी जाहिर करना चाहती थी। इसी कारण वह घर के बाहर दालान में आकर डाकिये को देखा करती थी, ताकि प्लूटो के भेजे हुए पत्र सर्वप्रथम उसके ही पास आयें और उन्हें वह स्वयं ही प्राप्त कर सके।

उसके घर के दालान में एक कुआँ भी बना हुआ था। आवश्यकता पड़ने पर किरण और उसके घर के पडोसी तथा अन्य लोग भी उस कुएँ का जल उपयोग करते थे। किरण डाकिये की प्रतीक्षा में जब कभी इसी कुएँ की मनि पर आकर बैठ लेती थी।

फिर जब नित्य की भाँति किरण दालान में खड़ी-खड़ी डाकिये की राह ताक रही थी- एक आशा में बार-बार उसकी दृष्टि दूर तक उस लम्बी पतली गली समान सड़क पर जाकर थम जाती थी, जिसका मिलाप मुख्य सडक से होता था। डाकिया अभी तक नहीं आया था, जबकि उसके आने का समय भी हो चुका था और जब किरण खड़े-खड़े थक गयी। वह उचाट-सी हो गयी। प्रतीक्षा करना उसके लिए कष्टकर होने लगा, तो वह कुएँ की मनि पर जाकर बैठ गयी। एक आशा से- नजरें थामकर वह डाकिये को देखने लगी। आशा-निराशा के इन्हीं समन्वय में किरण ने अचानक से कुएँ के भीतर झाँककर देखा- झाँका तो वहाँ उसको अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट नज़र आने लगा- कुएँ का जल पूर्णत: शान्त था। एकदम स्थिर- तभी उसका मोहक रूप उसमें स्पष्ट झलक रहा था। फिर किरण को अचानक ही जाने क्या सूझा कि उसने नीचे से एक कंकडी उठा ली- कुएँ के अन्दर फेंकने के लिए। स्वभाव से ऐसा बहुत सम्भव भी था। मानव जब कभी भी कुएँ के भीतर झाँकता है और जब उसको वहां का जल स्थिर-शान्त नजर आता है तो उसमें वह छेड़-छाड़ कर ही देता है। यही किरण ने भी किया। जैसे ही वह कंकडी डालने के लिए कुएँ की मनि पर एक हाथ टिकाकर भीतर झांकने लगी और उसने बाँयें हाथ से भीतर फेंकना चाहा, तभी अचानक से उससे पहले ही एक दूसरा छनाका हो गया। इस प्रकार कि पलभर में ही कुएँ के सारे पानी की शान्ति भंग हो गयी- जैसे किसी और ने उससेपहले ही कोई कंकड़ी फेंक दी थीं। कुएँ का जल काँपने लगा- इस प्रकार कि लहरें मध्य से निकल-निकलकर कुएँ की दीवारों से टकराने लगीं। किरण के हाथ की कंकडी जहाँ-की-तहाँ उसके हाथ में ही थी। उसने अभी तक फेंकी भी नहीं भी। वह इस अजूबे से आश्चर्य करके ही रह गयी- 'फिर क्या गिरा था?' किरण ने एक पल को सोचा, मगर वह कुछ समझ नहीं सकी। शायद किसी ने पीछे से कुछ फेंका हो? ऐसा विचारकर उसने तुरन्त अपने आसपास देखा, परन्तु वहां कोई भी नहीं था। जब वह कुछ समझ नहीं सकी तो आश्चर्यजनक घटित इस अजूबे समान घटना के विषय में सोचने मात्र से ही उसका दिल काँप गया। बचपन में उसने सुन रखा था कि कुएँ में भूत-प्रेतों का निवास भी होता है। शायद यहाँ भी वैसा ही कुछ हो? किसी भी भटकी हुई प्रेतात्मा ने ये हरकत की हो? किरण ने जब ऐसी धारणा दिल में बना ली, तो उसके कदम स्वत: ही कुएँ से पीछे सरकने लगे। वह भयभीत होकर अपने घर की तरफ आ गयी और किवाड़ खोलकर भीतर प्रविष्ट हो गयी।

कमरे में जब आयी तो घड़ी दिन के तीन बजा रही थी। डाकिये के आने का समय समाप्त हो चुका था। अब शायद आयेगा भी नहीं- कोई भी डाक नहीं होगी! सोचकर किरण अपने बिस्तर पर बैठ गयी. फिर थोड़ी देर पश्चात स्वत: ही लेट भी गयी। दीवार से सहारा लेकर वह अधलेटी-सी हो गयी। कुछेक क्षण इसी विचारधारा में बीत गये। कभी वह कमरे के एकान्त के विषय में सोचती। अपने एकाकी जीवन का खयाल आता, तो कभी कुएँ के पास घटित अनहोनी घटना का विचार ही उसके समूचे शरीर में सरसराहट उत्पन्न कर देता था।

… और जब अनजाने में किरण का हाथ जैसे ही अपनी गर्दन की ओर गया, तो गले को सूना पाकर उसके दिल में सनाका हो गया। धड़कनें अचानक ही बढ़ गयी। प्लूटो के द्वारा पहनायी हुई, उसके प्यार की वह पीतल की चेन वहां से नदारद थी। गर्दन चेन के बिना पूर्णत: नंगी थी। किरण तुरन्त ही चेन के लिए चिन्तित हो गयी। उसने फौरन चेन को अपने आस-पास ढूंढा- बिस्तर पर देखा- नीचे भी तलाश किया, मगर उसे कुछ भी नहीं मिला- नहीं मिला तो वह उसके प्रति सोचे बगैर नहीं रह सकी। उसका थोड़ा सा समय इसी उधेड़-बुन में समाप्त हो गया. फिर अचानक ही उसे कुछ देर पूर्व कुएँ में हुए अजीबो-गरीब छनाके की आवाज का खयाल आया? तब अन्त में वह समझ सकी कि वह आवाज किसी और वस्तु की ना होकर, उसके गले की चैन की ही थी- वही अकस्मात् टूटकर किसी तरह नीचे पानी में गिर पडी है? तभी छनाके की आवाज़ भी हुई थी। किरण को जब पूर्ण विश्वास हो गया कि प्लूटो के द्वारा प्यार से उसके गले में पहनायी हुई, उसकी चाहत की दी हुई भेंट इस प्रकार नष्ट हो गयी है- उससे छीन ली गयी है, तो सोचकर ही वह उदास हो गयी। उसे चेन के यूं खो जाने का बहुत बुरा लगा- बे-हद- इस प्रकार कि उसका यूं खो जाना उसे अखर गया। वह दु:खित हो गयी और उस सारे दिन वह दु:खित ही रही। दिनभर उसने चेन के खो जाने का शोक मनाया। प्लूटो को बार-बार याद किया। हर बार यही सोचा कि प्लूटो ने कितने प्यार से उसको ये चेन पहनायी थी। उसे अपना समझकर- अपने प्यार, अपने त्याग और अपने बलिदान की एक भेंट समझकर उसको दी थी, मगर वह उसको सँभालकर भी रख नहीं सकी, जबकि इस प्रकार की दी हुई भेंटें लोग कितना अधिक सँभालकर, सँजोकर रखते है- कितनी अधिक हिफाजत करते हैं, परन्तु वह ऐसा नहीं कर सकी। सब कुछ अनजाने में हुआ था। उसकी अनभिज्ञता में, मगर फिर भी उसे दुख था। प्लूटो की दी हुई प्यार की इस निशानी को तो उसे सदा सँभालकर रखना चाहिए था, जबकि वह उसे शीघ्र ही खो भी चुकी थी- ये सब अच्छा नहीं हुआ था- प्यार की दी हुई निशानी का यूं खो जाना अशुभ ही होता है। ईश्वर न करे कि कभी कोई अप्रिय घटना हो! उसके प्यार को कोई आँच भी आये। प्लूटो जहां भी रहे, सदैव सुखी रहे। प्रसन्न, सुरक्षित और उसका ही होकर भी- क्या हुआ जो उसकी दी हुई निशानी खो गयी। उसका प्यार- दुआएँ और तमन्नाएँ सभी कुछ तो उसी के लिऐ सुरक्षित हैं। उसकी दी हुई प्यार की ये अनमोल, अनुपम भेंट खोयी है, जबकि प्लूटो के पास उसकी स्वयं की दी हुई अँगूठी अवश्य सुरक्षित होगी।

किरण इस प्रकार स्वयं को मनाती रही। कभी वह दु:खित होती, तो कभी उदास हो जाती। सारे दिन वह इसी प्रकार सोचती रही- स्वयं से प्रश्न करती रही, और स्वयं ही उनके उत्तर भी देती रही- तो भी उसे कुछ भी तसल्ली नहीं मिल सकी। वह अनमनी ही बनी रही- रूठी रही- किसी भी तरह जब उसे सन्तोष नहीं प्राप्त हुआ तो वह खुद को समझा भी नहीं सकी। प्लूटो की दी हुई चेन का खयाल उसे बार-बार आता रहा। क्षण-क्षण, प्रतिपल ही वह उसके विषय में सोचती रही…।

क्रमश: