पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य - 4 Praveen kumrawat द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य - 4

अध्याय ४.
विदेशों में पुनर्जन्म की घटनाएँ एवं मान्यताएँ।

मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म की मान्यता हमें चिंतन के कितने ही उत्कृष्ट आधार प्रदान करती है। आज हम हिंदू भारतीय एवं पुरुष हैं। कल के जन्म में ईसाई, योरोपियन या स्त्री हो सकते हैं। ऐसी दशा में क्यों ऐसे कलह बीज बोयें, क्यों ऐसी अनैतिक परंपराएँ प्रस्तुत करें, जो अगले जन्म में अपने लिये ही विपत्ति खड़ी कर दें। आज के सत्ताधीश, कुलीन, मनुष्य को कल प्रजाजन, अछूत एवं पशु बनना पड़ सकता है। उस स्थिति में उच्च स्थिति वालों का स्वेच्छाचार उनके लिए कितना कष्टकारक होगा? इस तरह के विचार दूसरों की स्थिति में अपने को रखने और उदात्त दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देते हैं।
मृतात्माओं की हलचलों के जो प्रामाणिक विवरण समय-समय पर मिलते रहते हैं और पिछले जन्मों की सही स्मृति के प्रमाण देने वाले घटनाक्रमों के प्रत्यक्ष परिचय अब इतनी अधिक संख्या में सामने आ गये हैं कि उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसी दशा में पिछली पीढ़ी के वैज्ञानिकों की आत्मा का अस्तित्व न होने की बात सहज ही निरस्त हो जाती है।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आत्मा के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं। हमारा अस्तित्व मुक्ति में, मृत्यु के साथ अथवा अन्य किसी स्थिति में किसी समय समाप्त हो जायेगा, इस कल्पना को कितना ही श्रम करने पर भी स्वीकार नहीं कर सकते। चेतना इस तथ्य को कभी भी स्वीकार न करेगी। यह स्वतः प्रमाण मनः शास्त्र के आधार पर इस स्तर के समझे जा सकते हैं कि जीव चेतना की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करने के लिए संतोषजनक माना जा सके।
पदार्थ विज्ञानी यह जानते हैं कि तत्त्वों के मूलभूत गुण-धर्म को नहीं बदला जा सकता है। उनके सम्मिश्रण से पदार्थों की शकल बदल सकती है। रंग को गंध से, गंध को स्वाद में, स्वाद को रूप में, रूप को स्पर्श में नहीं बदला जा सकता है। हाँ, वे अपने मूल रूप में बने रहकर अन्य प्रकार की शकल या स्थिति तो बना सकते हैं, पर रहेंगे सजातीय ही। दो प्रकार की गंध मिलकर तीसरे प्रकार की गंध बन सकती हैं। दो प्रकार के स्वाद मिलकर तीसरे प्रकार का स्वाद बन सकता है, पर वे रहेंगे गंध या स्वाद ही, वे रूप या रंग नहीं बन सकते। विभिन्न प्रकार के परमाणुओं में विभिन्न प्रकार की हलचलें तो हैं, पर उनमें चेतना का कहीं अता-पता नहीं मिलता।
मस्तिष्क को संवेदना का आधार तो माना जा सकता है, पर उसके कण स्वयं संवेदनशील नहीं हैं। यदि होते तो मरण के उपरांत भी अनुभूतियाँ करते रहते । ध्वनि या प्रकाश के कंपन जड़ हैं, मस्तिष्कीय अणु भी जड़ हैं। दोनों के मिलन में जो विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं, उनमें पदार्थ को कारण नहीं माना जा सकता। चेतना की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार किये बिना प्राणी की चेतना सिद्ध करने के लिए जितने तर्क पिछले दिनों प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, वे अब सभी क्रमशः अपनी तेजस्विता खोते जा रहे हैं। अमुक रसायनों या परमाणुओं के मिलने से चेतना की उत्पत्ति होती है और उनके बिछुड़ने से समाप्ति। यह तर्क आरंभ में बहुत आकर्षक प्रतीत हुआ था और नास्तिकवाद में जीव को इसी रूप में बताया था, पर अब उनके अपने ही तर्क अपने प्रतिपादन को स्वयं काट रहे हैं कि मूलतत्त्व अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता। विचार हीन परमाणु- संवेदनशील बन सकें, ऐसा कोई आधार अभी तक नहीं खोजा जा सका है। जड़ के साथ चेतना घुली हुई हो तो उसके साथ-साथ जड़ में भी परिवर्तन हो सकते हैं। अभी इतना ही सिद्ध हो सका है। किसी परखनली में बिना चेतना जीवाणुओं की सहायता के मात्र रासायनिक पदार्थों की सहायता से जीवन उत्पन्न कर सकना संभव नहीं हुआ है। परखनली के सहारे चल रहे सारे प्रयोग अभी इस दिशा में एक भी सफलता की किरण नहीं पा सके हैं कि रासायनिक संयोग से जीवन का निर्माण संभव किया जा सके।
लोह खंडों के घर्षण से बिजली पैदा होती है तो भी बिजली लोहा नहीं है। स्नायु संचालन से संवेदना उत्पन्न होती है, किंतु संवेदना स्नायु नहीं हो सकते। अमुक रासायनिक पदार्थों के संयोग से जीवन उत्पन्न होता है तो भी वे पदार्थ जीवित नहीं हैं, चेतना का अवतरण कर सकने के माध्यम मात्र हैं। हर्ष, शोक, क्रोध, प्रेम, आशा, निराशा, सुख-दुःख, पाप, पुण्य आदि विभिन्न संवेदनाएँ किन परमाणुओं के मिलने से? किस प्रकार उत्पन्न हो सकती हैं, इस संदर्भ में विज्ञान सर्वथा निरुत्तर है।
भौतिक विज्ञानी यह कहते रहे हैं कि प्राणी एक प्रकार का रासायनिक संयोग है। जब तक पंचतत्त्वों का संतुलन क्रम शरीर को जीवित रखता है, तभी तक जीवधारी की सत्ता है। जब शरीर मरता है तो उसके साथ ही जीव भी मर जाता है। शरीर से भिन्न जीव की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।

यह मान्यता मनुष्य को निराश ही नहीं, अनैतिक भी बनाती है । जब शरीर के साथ ही मरना है, तो फिर जितना मौज-मजा करना है वह क्यों न कर लिया जाय? यदि राजदंड या समाज दंड से बचा जा सकता है, तो पाप अपराधों के द्वारा अधिक जल्दी, अधिक मात्रा में, अधिक सुख-साधन क्यों न जुटाए जायें ? पुण्य-परमार्थ का जब हाथों-हाथ कोई लाभ नहीं मिलता तो उस झंझट में पड़कर धन तथा समय की बर्बादी क्यों की जाये ?
आस्तिकता के विचार अगले जन्म में पुण्यफलों की प्राप्ति पर विश्वास करते हैं। इस जन्म में कमाई हुई योग्यता का लाभ अगले जन्म में मिलने की बात सोचते हैं। अस्तु उनके सत्प्रयत्न इसलिए नहीं रुकते कि मरने के बाद इनकी क्या उपयोगिता रहेगी। यह मान्यताएँ मनुष्य को नैतिक, परोपकारी एवं पुरुषार्थी बनाये रखने में बहुत सहायता करती हैं। नास्तिक की दृष्टि में यह सब बेकार हैं। आज का सुख ही उसके लिए जीवन की सफलता का केंद्र बिंदु हैं। 'भले ही वह किसी भी प्रकार अनैतिक उपयोग से ही क्यों न कमाया गया हो । यह मान्यता व्यक्ति की गरिमा और समाज की सुरक्षा दोनों ही दृष्टि से घातक है।
व्यक्ति की आदर्शवादिता और समाज की स्वस्थ परंपरा बनी रहने के लिए आस्तिकवादी दर्शन के प्रति जनसाधारण की निष्ठा बनाये रहना आवश्यक है। आस्तिकता का एक महत्त्वपूर्ण अंग है— मरणोत्तर जीवन। जो इस जन्म में नहीं पाया जा सका वह अगले जन्म में मिल जायेगा, यह सोचकर मनुष्य बुरे कर्मों से बचा रहता है और सत्कर्म करने के उत्साह को बनाये रहता है। तत्काल भले-बुरे कर्मों का फल न मिलने के कारण जो निराशा उत्पन्न होती है, उसका समाधान पुनर्जन्म की मान्यता सँजोये रहने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं हो सकता। समाज संगठन और शासन सत्ता में इतने छिद्र हैं कि भले कर्मों का सत्परिणाम मिलना तो दूर, बुरे कर्मों का दंड भी उनके द्वारा दे सकना संभव नहीं होता। अपराधी खुलकर खेलते रहते हैं और अपनी चतुरता के आधार पर बिना किसी प्रकार का दंड पाये मौज करते रहते हैं। इस स्थिति को देखकर सामान्य मनुष्यों का मन अनीति बरतने और अधिक लाभ उठाने के लिए लालायित होता है। इस पापलिप्सा पर अंकुश रखने के लिए ईश्वर के न्याय पर आस्था रखना आवश्यक हो जाता है और उस आस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए मरणोत्तर जीवन की मान्यता के बिना काम नहीं चल सकता।
भौतिक विज्ञान ने शरीर के साथ जीव की सत्ता का अंत हो जाने का जो नास्तिकवादी प्रतिपादन किया हैं, उसका परिणाम नैतिकता की, परोपकार की सत्प्रवृत्तियों का बाँध तोड़ देने वाली विभीषिका के रूप में सामने आया है। आवश्यकता इस बात की है कि उस भ्रांत मान्यता को निरस्त किया जाय ।

मरणोत्तर जीवन के दो प्रमाण ऐसे हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष रूप में देखा, समझा और परखा जा सकता है।
(१) पुनर्जन्म की स्मृतियाँ (२) प्रेत जीवन का अस्तित्व।
समय-समय पर इस प्रकार के प्रमाण मिलते रहते हैं, जिनसे इन दोनों ही तथ्यों की सिद्धि भली प्रकार हो जाती है। मिथ्या कल्पना, अंध-विश्वास और किंवदंतियों की सीमाओं को तोड़ कर प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा किये गये अन्वेषणों से ऐसी घटनाएँ सामने आती रहती हैं, जिनसे उपरोक्त दोनों तथ्य भली प्रकार सिद्ध होते रहते हैं।
"आत्मा की खोज" विषय को लेकर विश्व भ्रमण करने वाले अमेरिका के एक विज्ञानवेत्ता डॉ० स्टीवेंसन कुछ समय पूर्व भारत भी आये थे । पुनर्जन्म को आत्मा के चिरस्थायी अस्तित्व का अच्छा प्रमाण मानते थे । अस्तु उन्होंने भारत को इस शोधकार्य के लिए विशेष रूप से उपयुक्त समझा। भारत की धार्मिक मान्यता में पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया है, इसलिए पिछले जन्म की स्मृतियाँ बताने वाले बालकों की बात यहाँ दिलचस्पी से सुनी जाती है और उससे प्रामाणिक तथ्य उभरकर सामने आते रहते हैं। अन्य देशों में यह स्थिति नहीं है। ईसाई और इस्लाम धर्मों में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है, इसलिए यदि कोई बालक उस तरह की बात करे तो उसे शैतान का प्रकोप समझकर डरा-धमका दिया जाता है जिससे उभरते तथ्य समाप्त हो जाते हैं।
डॉ० स्टीवेंसन ने संसार भर से लगभग ६०० ऐसी घटनाएँ एकत्रित की हैं, जिनमें किन्हीं व्यक्तियों द्वारा बताये गये उनके पूर्वजन्मों के अनुभव प्रामाणिक सिद्ध हुए हैं। इनमें बड़ी आयु के लोग बहुत कम हैं। अधिकांश तीन से लेकर पाँच वर्ष तक के बालक हैं। नवोदित-कोमल मस्तिष्क पर पूर्वजन्म की छाया अधिक स्पष्ट रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ वर्तमान जन्म की जानकारियाँ इतनी अधिक लद जाती हैं कि उस दबाव से पिछले स्मरण, विस्मृति के गर्त में गिरते चले जाते हैं।
पूर्वजन्म का स्मरण किस प्रकार के लोगों को रहता है, इस संबंध में डॉ० स्टीफेंसन का मत है कि जिनकी मृत्यु किसी उत्तेजनात्मक आवेशग्रस्त मनःस्थिति में हुई हो, उन्हें पिछली स्मृति अधिक याद रहती है। दुर्घटना, हत्या, आत्म-हत्या, प्रतिशोध, कातरता, अतृप्ति, मोहग्रस्तता के विक्षुब्ध घटनाक्रम प्राणी की चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं और वे उद्वेग नये जन्म में भी स्मृतिपटल पर उभरते रहते हैं। अधिक प्यार या अधिक द्वेष जिनसे रहा है, वे लोग विशेष रूप से याद रहते हैं।
भय, आशंका, अभिरुचि, बुद्धिमत्ता, कला-कौशल आदि की भी पिछली छाप बनी रहती है। जिस प्रकार की दुर्घटना हुई हो उस स्तर का वातावरण देखते ही अकारण डर लगता है। जैसे किसी की मृत्यु पानी में डूबने से हुई हो तो उसे जलाशयों को देखकर अकारण ही डर लगने लगेगा। जो बिजली कड़कने और गिरने से मरा है, उसे साधारण पटाखों की आवाज भी डराती रहेगी। आकृति की बनावट और शरीर पर जहाँ-तहाँ पाये जाने वाले विशेष चिन्ह भी अगले जन्म में उसी प्रकार के पाये जाते हैं। एक स्मृति में पिछले जन्म में पेट का आपरेशन चिह्न अगले जन्म में भी उसी स्थान पर एक विशेष लकीर के रूप में पाया गया । पूर्वजन्म की स्मृति सँजोये रहने वालों में आधे से अधिक ऐसे थे, जिनकी मृत्यु पिछले जन्म में बीस वर्ष से कम में हुई थी। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भावुक संवेदनाएँ समाप्त होती जाती हैं और मनुष्य बहुधंधी, कामकाजी तथा दुनियादार बनता जाता है। भावनात्मक कोमलता जितनी कठोर होती जायेगी, उतनी ही उसकी संवेदनाएँ झीनी पड़ेंगी और स्मृतियाँ धुँधली पड़ जायेंगी। डॉ० स्टीवेन्सन की यह टिप्पणी मुख्यतः पश्चिम की पुनर्जन्म स्मृतियों के विश्लेषण पर आधारित है। निर्मल, सरस, सात्विक, आत्माओं को भी ऐसी स्मृतियाँ रहा करती हैं।
सामान्यतया यह कहा जाता है कि ईसाई और मुसलमान धर्मों में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है, पर उनके धर्मग्रंथों एवं मान्यताओं पर बारीक दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि प्रकारांतर से वे भी पुनर्जन्म की वास्तविकता को मान्यता देते हैं और परोक्ष रूप से उसे स्वीकार करते हैं।
प्रो० मैक्समूलर ने अपने ग्रंथ 'सिक्स सिस्टम्स ऑफ इंडियन फिलासफी' में ऐसे अनेक आधार एवं उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जो बताते हैं कि ईसाई धर्म पुनर्जन्म की आस्था से सर्वथा मुक्त नहीं है। प्लेटो और पायथागोरस के दार्शनिक ग्रंथों में इस मान्यता को स्वीकारा गया है। जौजेक्स ने अपनी पुस्तक में उन यहूदी सेनापतियों का हवाला दिया है, जो अपने सैनिकों को मरने के बाद भी फिर पृथ्वी पर जन्म मिलने का आश्वासन देकर उत्साहपूर्वक लड़ने के लिए उभारते थे। 'विजडम ऑफ सोलेमन ग्रंथ' में महाप्रभु ईसा के वे कथन उद्धृत हैं, जिसमें उन्होंने पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया है। उन्होंने अपने शिष्यों से एक दिन कहा था "पिछले जन्म का एलिजा ही अब जॉन बैपटिस्ट के रूप में जन्मा था।" बाइबिल के चैप्टर ३ पैरा ३७ में ईसा कहते हैं— 'मेरे इस कथन पर आश्चर्य मत करो कि तुम्हें निश्चित रूप से पुनर्जन्म लेना पड़ेगा।' ईसाई धर्म के प्राचीन आचार्य फादर ओरिजिन कहते थे "प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार अगला जन्म धारण करना पड़ता है।"
दार्शनिक गेटे, फिश, शोलिंग, लेसिंग आदि ने पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया है। अंग्रेज दार्शनिक ह्यूम तो दार्शनिक की तात्त्विक दृष्टि की गहराई इस बात में परखते थे कि वह पुनर्जन्म को मान्यता देता है या नहीं।
सूफी संत, मौलाना रूम ने लिखा है, मैं पेड़-पौधे, कीट-पतंग, पशु-पक्षी योनियों में होकर मनुष्य वर्ग में प्रवेश हुआ हूँ और अब देव वर्ग में स्थान प्राप्त करने की तैयारी कर रहा हूँ।"
इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स के बारहवें खंड में अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और अमरीका के आदिवासियों के संबंध में यह अभिलेख है कि वे सभी समान रूप से पुनर्जन्म को मानते हैं। मरने से लेकर जन्मने तक की विधि-व्यवस्था में मतभेद होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि इन महाद्वीपों के आदिवासी आत्मा की सत्ता को मानते हैं और पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। यहाँ विदेशों से संबंधित कुछ पुनर्जन्म प्रतिपादक घटनाएँ दी जा रही हैं।

एम्सटरडम (हालैंड) के एक स्कूल में वहाँ के प्रिंसिपल की लड़की मितगोल के साथ हाला नाम की एक ग्रामीण कन्या के साथ गहरी मित्रता थी। हाला देखने में बड़ी सुंदर थी, मितगोल विद्वान्। दोनों में समीपी संबंध था और परस्पर स्नेह भी। इसलिये वे प्राय: एक दूसरे से मिलती और पिकनिक पार्टियाँ मनाया करतीं।
एक बार की बात है कि दोनों सहेलियाँ कार से कहीं जा रही थीं। सामने से आ रहे किसी भारवाहक से बचाव करते समय कार एक विशालकाय वृक्ष के तने से जा टकराई। भीतर बैठी दोनों सहेलियों में से मितगोल को तो भयंकर चोटें आयी, उसका संपूर्ण शरीर क्षत-विक्षत हो गया और कार से निकालते-निकालते उसका प्राणांत हो गया। हाला के शरीर में यद्यपि बाहर कोई घाव नहीं थे तथापि अंदर कहीं ऐसी चोट लगी कि उसका भी प्राणांत वहीं हो गया। दोनों शव बाहर निकाल कर रखे गये। तभी एकाएक एक विलक्षण घटना घटित हुई—जैसे किसी ने शक्ति लगाकर हाला के शरीर में प्राण प्रविष्ट करा दिये हों, वह एकाएक उठ बैठी और प्रिंसिपल को पिताजी कहकर लिपटकर रोने लगी। सब लोगों ने उसे धैर्य दिलाया, पर सब आश्चर्यचकित थे कि यह किसान की कन्या प्रिंसिपल साहब को अपना पिता कैसे कहती है? उनकी पुत्री मितगोल का शरीर तो अभी भी क्षत-विक्षत अवस्था में पड़ा हुआ था।
उसका नाम हाला कहकर जब उसे संबोधित किया गया तो उसने बताया – "पिताजी! मैं हाला नहीं, मैं तो आपकी कन्या मितगोल हूँ। मैं अभी तक (शव की ओर इशारा करते हुए) इस शरीर में थी। अभी-अभी किसी अज्ञात शक्ति ने मुझे हाला के शरीर में डाल दिया है।"
अनदेखी, अनहोनी इस घटना का जितना विस्तार होता गया लोगों का कौतूहल उतना ही बढ़ता गया। लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछते और कन्या उनका ठीक वही उत्तर देती, जिनकी मितगोल को ही जानकारी हो सकती थी। मितगोल की कई सहेलियाँ, संबंधी आये और उससे बातचीत की उन सब वार्ताओं में हाला के शरीर में प्रविष्ट चेतना ने ऐसी-ऐसी एकांत की और गुप्त बातें तक बता दीं जो केवल मितगोल ही जानती थी ।
एक अंतिम रूप से यह निश्चित करने के लिए कि हाला के शरीर में विद्यमान आत्म चेतना क्या वस्तुतः मितगोल ही है? वहाँ के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, अध्यापकों और प्रिंसिपल सहित सैकड़ों छात्रों के बीच खड़ा कर उस कन्या से स्पिनोजा के 'दर्शन शास्त्र' पर व्याख्यान देने को कहा गया। उल्लेखनीय है कि वह मितगोल ही थी जिसे स्पिनोजा के दर्शन जैसे गूढ़ विषय पर अधिकार प्राप्त था। गाँव की सरल कन्या बेचारी हाला स्पिनोजा तो क्या अच्छी कविता भी बोलना नहीं जानती थी किंतु जब यह बालिका स्टेज पर खड़ी हुई तो उसने स्पिनोजा के तत्त्वज्ञान पर भाषण देकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। प्रिंसिपल साहब ने स्वीकार किया कि उसके शब्द बोलने का ढंग हाव-भाव ज्यों-के-त्यों मितगोल के जैसे ही हैं, इसलिए वह मितगोल ही है, भले ही इस घटना का अद्भुत रहस्य हम लोगों की समझ में न आता हो।
पुनर्जन्म, मृत्यु और उसके कुछ ही समय बाद जीवित होकर कई-कई वर्ष तक जीवित रहने की सैकड़ों घटनायें प्रकाश में आती रहती हैं और उनसे यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि आत्म-चेतना पदार्थ से कोई भिन्न अस्तित्व है, फिर भी मनुष्य सांसारिक मोह - वासनाओं और तरह-तरह की महत्त्वाकांक्षाओं में इतना लिप्त हो चुका है कि उसे इस ओर ध्यान देने और एक अति महत्त्वपूर्ण तथ्य को समझकर आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने की भी प्रेरणा नहीं मिलती। महाराज युधिष्ठिर के शब्दों में इसे संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य ही कहना चाहिए।

इंडोनेशिया के प्रायः सभी समाचार पत्रों में उस देश की एक मुस्लिम महिला तजुत जहाराफोना का विवरण विस्तारपूर्वक छपा था, जिसके पेट में १८ महीने का बालक है और वह अंग्रेजी, फ्रेंच, जापानी तथा इंडोनेशियाई भाषाएँ बोलता है। उसकी आवाज बाहर सुनी जा सकती है। उसकी डाक्टरी जाँच बारीकी से की गई । यहाँ तक कि इस देश के राष्ट्रपति सुहार्तो स्वयं उस महिला से मिलने और चमत्कारी बालक के संबंध में बताई जाने वाली बातों की यथार्थता जाँचने पहुँचे थे।

लेबनान और तुर्की के मुस्लिम परिवारों में तो पुनर्जन्म की स्मृतियाँ ऐसी सामने आईं जिनकी प्रामाणिकता की जाँच परामनोविज्ञान के शोधकर्ताओं ने स्वयं जाकर की और जो बताया गया था उसे सही पाया ।
लेबनान देश का एक गाँव कोरनाइल। वहाँ के मुसलमान परिवार में जन्मा एक बालक, नाम रखा गया अहमद। बच्चा जब दो वर्ष का था, तभी से अपने पूर्व जन्म की घटनाओं और संबंधियों के बारे में बुदबुदाया करता था। तब उसकी बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। कुछ बड़ा हुआ तो अपना निवास 'खरेबी और नाम बोहमजी बताने लगा।' तब भी किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। एक दिन सड़क पर उसने खरेबी के किसी आदमी को निकलते देखा। उसने उसे पहचानकर पकड़ लिया। विचित्र अचंभे की बात थी।
पता लगने पर पुनर्जन्म के शोधकर्ता वहाँ पहुँचे और बड़ी कठिनाई से बालक को उसके बताये गाँव तक ले जाने की स्वीकृति प्राप्त कर सके। गाँव ४० कि० मी० दूर था। रास्ता बड़ा कठिन और सर्वथा अपरिचित। फिर भी वे लोग वहाँ पहुँचे। लड़के के बताये बयान उस २५ वर्षीय युवक इब्राहीम बोहमजी के साथ बिल्कुल मेल खाते गये, जिसकी मृत्यु रीढ़ की हड्डी के क्षय रोग से हुई थी। तब उसके पैर अशक्त हो गये। पर इस जन्म में जब वह ठीक तरह चलने लगा तो बचपन से ही इस बात को बड़े उत्साह और हर्ष के साथ हर किसी से कहा करता कि वह अब भली प्रकार चल फिर सकता है।
खरेबी में जाकर उसने कुटुंबी, संबंधी और मित्र, परिचितों को पहचाना, उनके नाम बताये और ऐसी घटनाएँ सुनाई जो संबंधित लोगों को ही मालूम थीं और सही थीं। उसने अपनी प्रेयसी का नाम बताया। मित्र के ट्रक दुर्घटना में मरने की बात कही। मरे हुए भाई भाउद का चित्र पहचाना और पर्दा खोलकर बाहर आई लड़की के पूछने पर उसने कहा तुम तो मेरी बहिन 'हुडा' हो ।

तुर्की के अदाना क्षेत्र में जन्मा इस्माइल नामक बालक जब डेढ़ वर्ष का था, तभी वह अपने पूर्व जन्म की बातें सुनाते हुए कहता "मेरा नाम आविद सुजुल्मस है।" अपने सिर पर बने एक निशान को दिखाकर बताया करता कि इस जगह चोट मारकर मेरी हत्या की गई थी। जब बालक पाँच वर्ष का हुआ और अपने पुराने गाँव जाने का अधिक आग्रह करने लगा तो घर वाले इस शर्त पर रजामंद हुए, कि वह आगे-आगे चले और उस गाँव का रास्ता बिना किसी से पूछे स्वयं बताये। लड़का खुशी-खुशी चला गया और सबसे पहले अपनी कब्र पर पहुँचा। पीछे उसने अपनी पत्नी हातिश को पहचाना और प्यार किया। इसके बाद उसने एक आइसक्रीम बेचने वाले मुहम्मद को पहचाना और कहा तुम पहले तरबूज बेचते थे और मेरे इतने पैसे तुम पर उधार हैं। मुहम्मद ने वह बात मंजूर की और बदले में उसे बर्फ खिलाई।
पत्र प्रतिनिधि बच्चे को अदना नगर ले गये। वहाँ वह अपनी पूर्व जन्म की बेटी गुलशरां को देखते हुए पहचान गया और मेरी बेटी, प्यारी बेटी गुलशरां कहकर आँसू बहाने लगा। उसने अपने हत्या के स्थान अस्तबल को दिखाया और बताया कि रमजान ने मुझ पर कुल्हाड़ी से हमला किया और मार डाला। इसके बाद वह अपनी कब्र पर पत्रकारों को ले गया जहाँ उसे दफनाया गया फाँस पुलिस ने भी इस कत्ल की ठीक वैसी ही जाँच की थी जैसी कि बच्चे ने बताई। हत्यारे को उससे पहले ही फाँसी लग चुकी थी। बालक इस्माइल का चाचा उससे एक दिन क्रूर व्यवहार करने लगा तो उसने चिल्लाकर कहा "तुम भूल गये, मेरे ही बाग में काम करते थे और मैंने ही तुम्हें मुद्दतों रोटी खिलाई थीं।" सचमुच आविद के इस जन्म के चचा पर भारी अहसान थे।

लेबनान के कारनाइल नगर से ६७ किलोमीटर दूर खरेबी गाँव के एक अहमद नामक लड़के ने कुछ बड़ा होते ही अपने पूर्व जन्म के अनेक विवरण बताये जिसमें ट्रक दुर्घटना, पैरों का खराब होना, प्रेमिका से विफलता, भाई का चित्र, बहिन का नाम आदि के वे संदर्भ प्रकाश में आये, जिनसे बालक का पूर्व परिचित होना संभव न था। बालक ड्रज वश का इस्लाम धर्मावलंबी है। आमतौर से उस वातावरण में पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है तो भी इस घटना ने उन्हें पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया।

इंग्लैंड की एक विचित्र पुनर्जन्म घटना कुछ समय पूर्व प्रकाश में आई थी। नार्थबरलैंड के एक सज्जन पोलक की लड़कियाँ सड़क पर किसी मोटर की चपेट में आकर मर गई थीं। बड़ी ११ वर्ष की थी 'जोआना।' छोटी छह वर्ष की 'जैकलीन।'
दुर्घटना के कुछ समय बाद श्रीमती पोलक गर्भवती हुई तो उन्हें न जाने क्यों यही लगता रहा कि उनके पेट में दो जुड़वाँ लड़कियाँ हैं। डॉक्टरी जाँच कराई तो वैसा कुछ प्रमाण न मिला। पर पीछे दो जुड़वाँ लड़कियाँ ही जन्मी। एक का नाम, रखा गिलियम, दूसरी का जेनिफर इन दोनों के शरीरों पर वे निशान पाये गये जो उनके पूर्वजन्म में थे। इतना ही नहीं, उनकी आदतें भी वैसी ही थीं, जैसी मृत लड़कियों की। इन लड़कियों को मरी हुई बच्चियों के बारे में कुछ बताया नहीं गया था, पर वे बड़ी होने पर आपस में पूवर्जन्म की घटनाओं की चर्चा करती हुई पाई गईं। समयानुसार उन्होंने पूर्वजन्म के अनेकों संस्मरण बताकर तथा अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं की जानकारी देकर यह सिद्ध किया कि उन दोनों ने पुनर्जन्म लिया है।

पुनर्जन्म होने और पूर्वजन्म की स्मृति बनी रहने वाली घटनाओं की श्रृंखला में एक कड़ी माइकेल शेल्डन की इटली यात्रा की है। इटली में यों प्रत्यक्षतः उसे कुछ आकर्षण नहीं था और न कोई ऐसा कारण था जिसकी वजह से इस यात्रा के बिना उसे चैन ही न पड़े। कोई अज्ञात प्रेरणा उसे इसके लिए एक प्रकार से विवश ही कर रही थी। माइकेल ने यात्रा के कुछ ही दिन पूर्व एक स्वप्न देखा कि वह इटली के किसी पुराने नगर में पहुँचा है और किसी जानी-पहचानी गली में घुसकर एक पुराने मकान में जा पहुँचा है। जीने में चढ़ते हुए वह चिर-परिचित दोमंजिले कमरे में सहज स्वभाव घुस गया और देखा एक लड़की घायल पड़ी है, उसके गले पर छुरे के गहरे घाव हैं और रक्त बह रहा है। अनायास ही उसके मुँह से निकला मारिया! मारिया! घबराना मत, मैं आ गया। सपना टूटा। शेल्डन विचित्र स्वप्न का कुछ मतलब न समझ सका और आतंकित बना रहा। फिर भी यात्रा तो उसने की ही। जब वह जिनोआ की सड़कों पर ऐसे ही चक्कर लगा रहा था तो उसे वही स्वप्न वाली गली दिखाई पड़ी। अनायास ही पैर उधर मुड़े और लगा कि वह किसी पूर्व परिचित घर की ओर चला जा रहा था। स्वप्न में देखी कोठरी यथावत थी, वह सहसा चिल्लाया मारिया ! मारिया !! तुम कहाँ हो ?
जोर की आवाज सुनकर पड़ौस के घर में से एक बुढ़िया निकली, उसने कहा मारिया तो कभी की मर चुकी। अब वहाँ कहाँ है ? पर तुम कौन हो ? बुढ़िया ने शेल्डन को घूर घूर कर देखा और पहचानने के बारे में आश्वस्त होकर बोली 'पर लुइगी ब्रोंदोनो! तुम तो इतने अर्से बाद लौटेअब तक कहाँ रह रहे थे ?'
बुढ़िया हवा में गायब हो गई तो शेल्डन और भी अधिक अकचकाया। उसे ऐसा लगा मानो किसी जादू की नगरी में घूम रहा है। अपरिचित जगह में ऐसे परिचय मानो सब कुछ उसका जाना पहचाना ही हो। बुढ़िया भी उसकी जानी पहचानी हो, घर भी, गली भी ऐसी है मानो वह वहाँ मुदत्तों रहा हो। मारिया मानो उसकी कोई अत्यंत घनिष्ठ परिचित हो।
हतप्रभ शैल्डन को एक बात सूझी, वह सीधा पुलिस ऑफिस गया और आग्रहपूर्वक यह पता लगाने लगा कि क्या कभी कोई मारिया नामक लड़की वहाँ रहती थी— क्या वह कत्ल में मरी ? तलाश कौतूहल की पूर्ति के लिए की गई थी, पर आश्चर्य यह है कि १२२ वर्ष पुरानी एक फाइल ने उस घटना की पुष्टि कर दी।
पुलिस रिकार्ड के कागजों ने बताया कि उसी मकान में मारिया बुइसाकारानेबो नामक एक १६ वर्षीय लड़की रहती थी। उसकी घनिष्ठता एक २५ वर्षीय युवक लुइगी ब्रोंदोनो नामक युवक से थी। दोनों में अनबन हो गई तो युवक ने छुरे से उस लड़की पर हमला कर दिया और कत्ल करने के बाद इटली छोड़कर किसी अन्य देश को भाग गया। तब से अब तक उसका कोई पता नहीं चला।
शेल्डन को यह विश्वास पूरी तरह जम गया कि वही पिछले जन्म में मारिया का प्रेमी और हत्यारा रहा है। यह तथ्य उसे न तो स्वप्न प्रतीत होता था, न भ्रम वरन् जब भी चर्चा होती, उसके कहने का ढंग ऐसा ही होता मानो किसी यथार्थ तथ्य का वर्णन कर रहा है।
इस घटना को परा मनोविज्ञानवेत्ताओं ने अपनी शोध का विषय बनाया। शैल्डन से लंबी पूछताछ की पुलिस - कागजात देखे और निष्कर्ष पर पहुँचे कि जो बताया गया है--उसमें कोई बहकावा या अतिशयोक्ति नहीं है। इस प्रकार की अन्य घटनाओं के विवरणों पर गंभीर विचार करने के बाद शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अतींद्रिय चेतना की प्रस्फुरणा से ऐसी घटनाओं की स्मृति भी सामने आ सकती है, जिनका न तो वर्तमान काल से कोई सीधा संबंध है और न अनुभव करने वाले व्यक्ति को इस तरह की कोई जानकारी या जिज्ञासा। ये स्मृतियाँ पूर्वजन्म की ही हो सकती हैं।

कोपेन हेगन (डेनमार्क) में एक छह-सात वर्षीया बालिका थी उसका नाम था लूनी मार्कोनी। जब वह तीन वर्ष की थी तभी से वह अपने माता-पिता से कहती रहती कि वह फिलीपींन्स की है और वहाँ जाना चाहती है। मेरे पिता एक रेस्टोरेंट के स्वामी हैं, वह अपना नाम मारिया एस्पना बताती। यह बच्ची अपने पूर्वजन्म के संस्मरण इतनी ताजगी से सुनाती, जैसे वह अभी कल - परसों की ही बात हो। उसने यह भी बताया कि उसकी मृत्यु १२ वर्ष की आयु में बुखार आने के कारण हुई थी। लड़की के दाँवों की जाँच करने के लिए परामनोविज्ञान के शोधकर्त्ता श्री प्रो० हेमेंद्रनाथ बनर्जी फिलीपींन्स गये। वहाँ उन्होंने सारी बातें सत्य पाई। यह ६८-६६ के लगभग की बात है।

ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डिक्सन स्मिथ बहुत समय तक मरणोत्तर जीवन के संबंध में अविश्वासी रहे। पीछे उन्होंने प्रामाणिक विवरणों के आधार पर अपनी राय बदली और वे परलोक एवं पुनर्जन्म के समर्थक बन गये। उन्होंने अपनी पुस्तक 'न्यू लाइट आन सरवाइवल' में उन तर्कों और प्रमाणों को प्रस्तुत किया है, जिनके कारण उन्हें अपनी सम्मति बदलने के लिए विवश होना पड़ा।

पैरिस के अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक सम्मेलन में सर आर्थर कानन डायल ने परलोक विज्ञान को प्रामाणिक तथ्यों से परिपूर्ण बताते हुए कहा था उस मान्यता के आधार पर मनुष्य जाति को अधिक नैतिक एवं सामाजिक बनाया जा सकना संभव होगा और मरण वियोग से उत्पन्न शोक संताप का एक आशा भरे आश्वासन के आधार पर शमन किया जा सकेगा।
निस्संदेह मरणोत्तर जीवन की मान्यता के दूरगामी सत्परिणाम हैं। उस मान्यता के आधार पर हमें मृत्यु की विभीषका को सहज, सरल बनाने में भारी सहायता मिलती है। नैतिक मर्यादा की स्थिरता के लिए तो उसे दर्शनशास्त्र का बहुमूल्य सिद्धांत कह सकते हैं।