पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य - 2 Praveen kumrawat द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य - 2

अध्याय 2.
जन्म मृत्यु मात्र स्थूल जगत् की घटनाएँ

प्राचीन इतिहास को आध्यात्मिक उपलब्धियों की श्रृंखला कहें तो आध्यात्मिक साहित्य और दर्शन को तत्त्वदर्शी, ऋषियों, योगी और संतों का इतिहास कहना पड़ेगा। आध्यात्मिक जगत की प्रसिद्ध घटना है कि मंडन मिश्र के जगद्गुरु शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने के बाद उनकी धर्मपत्नी विद्योत्तमा ने मोर्चा सँभाला। उसने शंकराचार्य से "काम-विद्या" पर ऐसे जटिल प्रश्न पूछे, जो उन जैसे ब्रह्मचारी संन्यासी की कल्पना से भी परे थे, किंतु उन्हें मंडन मिश्र जैसे महान पंडित की सेवाओं की अपेक्षा थी, सो उन्होंने महिष्मती नरेश के मृतक शरीर में "परकाया प्रवेश" किया और "काम-विद्या" का गहन अध्ययन किया। उनके द्वारा प्रणीत "कामसूत्र " इस विद्या का अनुपम ग्रंथ माना जाता है।
इतिहास में इस घटना की तरह ही पाटलिपुत्र के सम्राट महापद्मनंद और चाणक्य भी प्रख्यात हैं, पर वे केवल शासकीय दृष्टि से बहुत थोड़े लोग जानते हैं कि महापद्मनंद का शरीर एक था, पर उस शरीर से यात्रायें दो आत्माओं ने की थी। एक स्वयं महापदमनंद ने तो दूसरे तत्कालीन विद्वान आचार्य उपवर्ष के प्रसिद्ध योगी शिष्य इंद्र दत्त' ने।
महर्षि उपवर्ष और उनके अग्रज महर्षि वर्ष का पाटलिपुत्र में ही विशाल तपोवन और गुरुकुल आश्रम था, जिसमें देश-विदेश से आये स्नातक साहित्य, भेषज, व्याकरण और योग विद्या सीखा करते थे। उपवर्ष के शिष्यों में तीन शिष्य ऐसे थे, जिन्हें त्रिवेणी संगम कहा जाता था। प्रथम वररुचि या कात्यायन जो पीछे सम्राट चंद्रगुप्त के महामंत्री बने। इन्होंने पाणिनी के व्याकरण सूत्रों की टीका की थी। दूसरे थे "व्याडी" इन्होंने एक विशाल व्याकरण ग्रंथ लिखा था, जिसमें सवा लाख श्लोक थे। यह ग्रंथ अंग्रेजों के समय जर्मनी में उठा ले गये थे और आज तक फिर उसका पता ही नहीं चल पाया। केवल मात्र कुछ श्लोक ही यत्र-तत्र मिलते हैं। तीसरे देवदत्त थे, जिनकी योग विद्या में इतनी गहन अभिरुचि थी कि उस युग में उनके समान कोई अन्य योगी न रह गया था। उपवर्ष ने उन्हें "परकाया प्रवेश" तक की गूढ़ विद्या सिखलाई थी।"
तीनों शिष्यों में प्रगाढ़ मैत्री थी। आश्रम से विदा होते समय तीनों साथ ही महर्षि उपवर्ष के पास गये और उनसे गुरु दक्षिणा माँगने का आग्रह किया। आचार्य प्रवर ने समझाया —वत्स आचार्यों की विद्या योग्य शिष्य पाकर स्वतः सार्थक हो जाती है, तुमने अपने-अपने विषयों में दक्षता और प्रवीणता पाकर मेरा यश बढ़ाया है, यही मेरे लिए पर्याप्त है; तो भी मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि तुम्हें जो ज्ञान, जो प्रकाश और मार्गदर्शन यहाँ मिला, उसका तुम सारे देश में प्रचार-प्रसार करना ।
बात पूरी हो गयी थी, किंतु वे तीनों सिद्धि के अहंकार में थे। अतएव कोई न कोई लौकिक वस्तु माँगने के आग्रह पर अड़ गये । गुरु को क्षोभ हुआ, उन्होंने कहा भी हमने तुम्हें सिद्ध बनाया, किंतु सिद्धि को आत्मसात करने वाली सरलता और गंभीरता नहीं सिखाई, उसी का यह प्रतिफल है।
महर्षि बोले, जाइये और हमारे लिये एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का प्रबंध कीजिए ।
तीर धनुष से निकल चुका था। मर्मस्थल तो बीधना ही था। वररुचि और व्याडी दोनों अभी इस चिंता में थे कि इस कठिन समस्या का निराकरण कैसे हो ? तभी देवदत्त ने मुस्कराकर कहा— हे तात! आपने सुना है आज महापद्मनंद ने देह परित्याग कर दिया है। मुझे 'परकाया प्रवेश विद्या' आती है। मैं महापद्मनंद की मृतक देह में प्रवेश कर स्वयं पद्मनंद बनूँगा। इसी खुशी में राजभवन में उत्सव होगा, दान-दक्षिणा बटेगी, उसी में इस धन का प्रबंध वररुचि को कर दूँगा, व्याडी इस बीच मेरे शव की रक्षा करें, ताकि अपना कार्य पूरा करते ही मैं पुनः अपनी देह में आ जाऊँ ।
पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार देवदत्त ने अपने कुटीर में लेटकर प्राणायाम' क्रिया के द्वारा अपने प्राणों को शरीर से अलग कर लिया और महापद्मनंद के शरीर में प्रवेश किया, महापद्मनंद पुनः जीवित हो उठे। यह घटना इतिहास प्रसिद्ध घटना है। सारे राज्य में छाई दुःख की लहर, एकाएक खुशी में बदल गई। चारों ओर उत्सव मनाये जाने लगे।

महापद्मनंद के महामंत्री "शकटार" ने देखा अब पुनर्जीवित महापद्मनंद के संस्कार, गुण, कर्म, स्वभाव, मूल सम्राट के गुणों से बिल्कुल भिन्न हैं। संस्कृत के अल्पज्ञ महापद्मनंद का महान पांडित्य ही संदेह के लिए पर्याप्त था। उधर शकटार को यह भी ज्ञात था कि "देवदत्त" ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें परकाया प्रवेश की विद्या आती थी। अतएव यह अनुमान करते देर न लगी कि महापद्मनंद के शरीर में "देवदत्त" की आत्मा के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकता था।

शकटार कुशाग्र बुद्धि थे। परिस्थितियों के सूक्ष्म विश्लेषण के साथ वे प्रख्यात प्रत्युत्पन्नमति महामंत्री थे। यह वह समय था जब सिकंदर झेलम तक आ पहुँचा था और उसने सम्राट पुरु को भी पराजित कर लिया था। अगली टक्कर महापद्मनंद से ही होने वाली थी, यदि उसके निधन की बात सिकंदर तक पहुँच जाती तो उसका तथा उसके सिपाहियों का मनोबल बढ़ जाता, अतएव शकटार ने निश्चय किया कि महापद्मनंद को चाहे जो हों, पुनः मरने नहीं दिया जाना चाहिए। शकटार को कई दिनों से व्याडी का पता नहीं चल रहा था जबकि वररुचि इन दिनों व्यर्थ ही राजभवन के आसपास घूमते दिखाई देते थे, अतएव उसे यह अनुमान करते देर न लगी कि व्याडी और कहीं नहीं देवदत्त के शव की रक्षा में ही होगा। शकटार ने विश्वास पात्र सैनिकों को भेजकर व्याडी के विरोध के बावजूद देवदत्त के पूर्ववर्ती शरीर का "शवदाह" करा दिया। महापद्मनंद के शरीर में निर्वासित देवदत्त को इस बात का पता चला तो वे माथा पीटते रह गये, पर अब बाजी हाथ से निकल चुकी थी, अतएव रहे तो महापद्मनंद ही पर अब वह पद्मनंद नहीं थे, जो कभी पहले थे, बदले की भावना से उन्होंने जीवन भर स्वामिभक्त सेवक की तरह काम करने वाले महामंत्री शकटार को भी बंदी बना लिया। राजकाज से सर्वथा शून्य देवदत्त (अब महापद्मनंद) ने सर्वत्र अस्त-व्यस्तता फैलाई उसी का प्रतिफल यह हुआ कि उसे एक दिन चाणक्य के हाथों पराजय का मुँह देखना पड़ा।

इस घटना के पीछे किसी राजतंत्र के इतिहास की व्याख्या करना उद्देश्य नहीं वरन् एक बड़े इतिहास—आत्मा के इतिहास की ओर मानव जाति का ध्यान मोड़ना है, सांसारिकता में पड़कर जिसकी नितांत उपेक्षा की जाती है। एक शरीर के प्राण किसी अन्य शरीर में रहें, यह इस बात का साक्षी और प्रमाण है कि आत्मा का शरीर से भिन्न और स्वतंत्र अस्तित्व है। इस शाश्वत सत्ता को न समझने की अज्ञान दृष्टि ही मनुष्य को भौतिकवादी बनाती है, स्वार्थी बनाती है, ऐसे अज्ञानग्रस्त मनुष्य अपने पीछे अंधकार की एक लंबी परंपरा छोड़ते हुए जाते हैं और प्रकाश पथ का पथिक, आनंद-मूर्ति, आत्मा, अंधकार और सांसारिक बाधाओं में मारा-मारा फिरता रहता है।
योग मार्ग उस सत्ता संबंध जोड़ने, आत्मानुभूति कराने का सुनिश्चित साधन है। यह राह भले ही कठिनाईयों की, आत्म नियंत्रण, आत्म-सुधार की हो पर एक वैज्ञानिक पद्धति है, जिसके परिणाम सुनिश्चित होते हैं। उस कठिन मार्ग पर चलाने वाली आस्था को ऐसी परिस्थितियाँ निःसंदेह परिपुष्ट करती हैं, इस तरह की घटनाएँ उसी युग में ही होती रही हों ऐसी बात नहीं, आज भी इस देश में ऐसे योगी हैं जो इस विद्या को जानते हैं। बात उन दिनों की है जब भारतवर्ष में अंग्रेजों का राज्य था। उन दिनों पश्चिमी कमांड के मिलिटरी कमांडर एल० पी० फैरेल थे। उन्होंने अपनी आत्म कथा में एक मार्मिक घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया है

"मेरा कैंप आसाम में ब्रह्मपुत्र के किनारे लगा हुआ था। उस दिन मोर्चे पर शांति थी। मैं जिस स्थान पर बैठा था उसके आगे एक पहाड़ी ढलान थी, ढाल पर एक वृद्ध साधु को मैंने चहलकदमी करते देखा। थोड़ी देर में वह नदी के पानी में घुसा और एक नवयुवक के बहते हुए शव को बाहर निकाल लाया। वृद्ध साधु अत्यंत कृशकाय थे, शव को सुरक्षित स्थान तक ले जाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी तथापि, वे यह सब इतनी सावधानी से कर रहे थे कि शव को खरोंच न लगे, यह सारा दृश्य मैंने दूरबीन की सहायता से बहुत अच्छी तरह देखा ।"

"इस बीच अपने सिपाहियों को आदेश देकर मैंने उस स्थान को घिरवा दिया। वृद्ध वृक्ष के नीचे जल रही आग के किनारे पालथी मारकर बैठे। दूर से ऐसा लगा वे कोई क्रिया कर रहे हों। थोड़ी देर यह स्थिति रही, फिर एकाएक वृद्ध का शरीर एक ओर लुढ़क गया, अभी तक जो शव पड़ा था, वह युवक उठ बैठा और अब वह उस वृद्ध के शरीर को निर्ममता से घसीटकर नदी की ओर ले चला। इसी बीच मेरे सैनिकों ने उसे बंदी बना लिया, तब तक कौतूहलवश मैं स्वयं भी वहाँ पहुँच गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया – महाशय! वह वृद्ध मैं ही हूँ। यह विद्या हम भारतीय योगी ही जानते हैं। आत्मा के लिए आवश्यक और समीपवर्ती शरीर, प्राण होते हैं, मनुष्य देह तो उसका वाहन मात्र है। इस शरीर पर बैठकर वह थोड़े समय की जिंदगी की यात्रा करता है, किंतु प्राप्य शरीर तो उसके लिए तब तक साक्षी है, जब तक कि वह परम तत्त्व में विलीन न हो जाये।"
"हम जिसे जीवन कहते हैं– प्राण, शरीर और आत्मा की शाश्वत यात्रा की रात उसका एक पड़ाव मात्र है, जहाँ वह कुछ क्षण (कुछ दिन) विश्राम करके आगे बढ़ता है। यह क्रम अनंत काल तक चलना है। जीव उसे समझ न पाने के कारण ही अपने को पार्थिव मान बैठता है, इसी कारण वह अधोगामी प्रवृत्तियाँ अपनाता, कष्ट भोगता है और अंतिम समय अपनी इच्छा शक्ति के पतित हो जाने के कारण मानवेतर योनियों में जाने को विवश होता है। मुक्ति और स्वर्ग प्राप्ति के लिए प्राण शरीर को समझना, उस पर नियंत्रण आवश्यक होता है। यह योगाभ्यास से संभव है। अभी मुझे इस संसार में रहकर कुछ कार्य करना है, जबकि मेरा अपना शरीर अत्यंत जीर्ण हो गया था, इसी से यह शरीर बदल लिया।"

उस व्यक्ति की बातें बड़ी मार्मिक लग रही थीं। मन तो करता था कि और अधिक बातें की जायें, किंतु हमारे आगे बढ़ने का समय हो गया था, अतएव इस प्रसंग को यहीं रोकना पड़ा, पर मुझे न तो वह घटना भूलती है और न यह तथ्य कि हम पश्चिमवासी रात को दिन और अंधकार को ही प्रकाश मान बैठे हैं, इससे अवांतर जीवन के प्रति हमारी प्रगति एकदम रुकी है। यह मरण का वीभत्स रास्ता है, उससे बचने के लिए एक दिन पूर्व का अनुसरण करना पड़ेगा ।
ऊपर की दो घटनाएँ परकाया प्रवेश की यह सिद्ध करती हैं। कि शरीरों और शारीरिक सुखों के लिए मानवीय मोह, माया मिथ्या हैं शरीर को, आत्मा का देवमंदिर समझकर उसकी पवित्रता तो रखी जाये, पर उसे विषय वासनाओं के द्वारा इस तरह गंदा गलीज और घृणास्पद न बनाया जाये कि अपना अंतःकरण ही धिक्कार उठे। पश्चिम की एक ऐसी ही घटना यह सिद्ध करती है कि शारीरिक विषय वासनाओं की आसक्ति किस तरह बार-बार शरीरों में आने को विवश होती हैं, यहाँ तो प्राण सबल था, अतएव दो आत्माएँ एक शरीर के लिए झगड़ती रहीं; किंतु जब प्राण निर्बल हो तो कीड़े-मकोड़ों की अभावग्रस्त जिंदगी ही मिलना स्वाभाविक है।

मिशिगन (अमेरिका) के एक छोटे से गाँव वैटल कीक में चाल्टर सोडरस्ट्रास नामक एक व्यक्ति रहता था। वह एक ऊन की फैक्ट्री में काम करता था। आगे प्रस्तुत घटना 13 सितम्बर, 1851 में 'न्यूयार्क मरकरी' अंक में इन्हीं सोडर स्ट्राम ने छपाई ।
वाल्टर को समुद्री नौकायन का शौक था। वे जिस टापू पर नौका विहार और मछलियाँ पकड़ने जाया करते, उस पर एक कुटिया थी, जिस पर एक अधेड़ आयु का व्यक्ति रहता था। अक्सर आते-जाते वाल्टर की उनसे जान-पहचान हो गई थी। एक दिन तूफान और आकस्मिक वर्षा के कारण वाल्टर ने रात उस कुटिया में ही बिताई। जिस समय तूफान का दौर चल रहा था, स्ट्रैंड नामक उस व्यक्ति की स्थिति बड़ी विचित्र रही। वह इस तरह काँपता रहा जैसे कोई पत्ता काँपता हो, यही नहीं बीच-बीच में वह भयंकर चीत्कार भी करता । इस चीत्कार में वह कभी एक भाषा निकालता कभी सर्वथा अनजान दूसरी वाल्टर स्काट ने वह रात बड़ी कठिनाई से बिताई- वे लिखते हैं— उसकी देह बुरी तरह कसमसा कर ऐंठती थी तो लगता था कि दोनों ओर से पकड़कर दो आदमी उसे निचोड़ रहे हों। थोड़ी देर तक शरीर पीला और निढाल रहा पीछे स्ट्रैंड मुस्कराकर उठ बैठा। पूछने में पहले तो वह टालता रहा, पर बहुत आग्रह करने पर उसने बताया कि एक फ्रांसीसी की आत्मा भी इस शरीर पर आकर रहने के लिए अक्सर प्रतिद्वंद्व करती है। उसने बताया कि वास्तव में यह शरीर उसी का है, किंतु शक्तिशाली होने के कारण इस पर मैंने आधिपत्य जमा रखा है। उसने जेब से एक लाइटर और एक डायरी भी दी जो उन फ्रान्सीसी के थे। लाइटर पर जेकब ब्यूमांट लिखा था। वाल्टर उन्हें लेकर चले आये यह घटना मस्तिष्क पर छाई रही।
कुछ दिन बाद वाल्टर को पेरिस जाने का अवसर मिला, कौतूहल वश वह डायरी के अनुसार पता लगाते हुए ब्यूमांट तक पहुँच गये। वहाँ जाकर उसने पाया कि वही स्ट्रैंड जो टापू में रहता था, वहाँ विद्यमान था । वाल्टर को उसने पहचाना तक नहीं, पर उसने अपनी जेब से वाल्टर का फोटो निकालकर बताया कि आपका यह फोटो मेरे पास कैसे आया मुझे ज्ञात नहीं । वाल्टर के स्मरण कराने पर वह अपने को ब्यूमांट ही बताता रहा - अलबत्ता उसने यह बात स्वीकार की कि उसका एक अमेरिकी आत्मा से लंबे समय तक शरीर के लिए संघर्ष हुआ है और उसमें अंतिम विजय उसकी रही ।

एक तीसरी घटना का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक है, जिसमें एक ही आत्मा द्वारा विभिन्न शरीर उसी तरह बदलने का जिक्र है। जिस तरह एक शहर से ट्रांसफर के बाद दूसरे शहर में आवास किराये पर लेना पड़ता है। वह घटना थोड़े ही समय पूर्व की है।

१९५५ में लंदन में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। जिसका नाम है "द थर्ड आई।" यह पुस्तक एक अंग्रेज ने लिखी, पर उसने अपना नाम उसमें टी० लोवसंग' (तिब्बती नाम) लिखा है । १६५८ के मार्च की 'नवनीत' में उसका विस्तृत विवरण छपा है, जिसमें यह बताया गया है कि जिस अंग्रेज को तिब्बत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, जिसने इंग्लैंड से बाहर कभी कदम नहीं रखा, उसने न केवल तिब्बत की भौगोलिक जलवायु संबंधी, अपितु वहाँ के मंदिरों, मठों, लामाओं तथा दलाई लामा के वह सूक्ष्म विवेचन और संस्मरण लिखे हैं, जिनकी जानकारी उसे कभी संभव ही नहीं हो सकती थी ।

अपनी पुस्तक में लेखक ने अपने लामा गुरु मिंग्यार का वर्णन करते हुए लिखा है कि परकाया प्रवेश की विद्या मैंने उन्हीं से सीखी और उन्हीं के आदेश से अब तक मैंने तीन शरीर बदले हैं। यह ग्रंथ पूरा करने के बाद ही मैं यह अंग्रेज शरीर भी छोड़ दूँगा और सचमुच ही पुस्तक लिखने के बाद यह अंग्रेज मृत पाये गये। मृतक की देह पर न तो किसी आघात के लक्षण थे न ही वह कृत्रिम मृत्यु थी । शरीर के प्रत्येक अंग को व्यवस्थित करके इस तरह प्राण निकले मानो सचमुच किसी यात्रा की तैयारी में रहे हों । इस घटना के बाद जहाँ एक ओर इसके बारे में तहलका मचा, खोज करने पर वह स्थान, वह परिस्थितियाँ सच निकलीं, दूसरी ओर लोग आत्म-सत्ता की सामर्थ्य, शरीर के माध्यम मात्र होने तथा जन्म-जन्मांतर तक चेतना प्रवाह के अविच्छिन्न रहने की प्रामाणिकता और उसकी उपयोगिता स्वीकारने और समझने को विवश हो रहे हैं।

परामनोविज्ञान के आधुनिक अनुसंधानों के क्रम में ऐसे अनेक प्रमाण एकत्रित किये गये हैं, जिनसे मनुष्यों का पूर्व जन्म होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे अन्वेषणों में प्रो० राइन की खोजें बहुत विस्तृत और प्रामाणिक मानी गयी हैं। उनके आधार पर अन्यत्र इस दिशा में बहुत सी जाँच-पड़ताल हुई है। इस खोजबीन के निष्कर्ष इस मान्यता का पलड़ा भारी करते हैं कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करती है। हिंदू धर्म में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को आरंभ से ही मान्यता प्राप्त है, किंतु संसार में दो प्रमुख धर्मों - ईसाई और इस्लामी धर्मो के बारे में ऐसी बात नहीं है; उनमें मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व तो माना जाता है, पर कहा जाता है कि वह प्रसुप्त स्थिति में बना रहता है। महा प्रलय होने के उपरांत फिर कहीं नया जन्म मिलता है। इतने विलंब से पुनर्जन्म होने की बात, न होने जैसा ही बन जाती है। ऐसी दशा में इन धर्मों के अनुयायियों के बारे में पुनर्जन्म न मानने जैसी ही मान्यताएँ हैं। ऐसी दशा में उस प्रकार की घटनाओं एवं प्रमाणों को न तो खोजा ही जाता है और न वैसा कोई प्रमाण मिलने से उन पर ध्यान ही दिया जाता है। पर अब धार्मिक कट्टरता घट जाने और तथ्यों पर ध्यान देने की चल पड़ी है। विज्ञान और बुद्धिवाद के समन्वय ने यह नयी दृष्टि दी है। अस्तु, पाश्चात्य देशों में तथ्यों पर ध्यान देने की प्रवृत्ति नेत्र पुनर्जन्म के संबंध में भी जाँच-पड़ताल करने पर जो तथ्य सामने आये, उन पर विचार करने के संबंध में उत्साह उत्पन्न किया है।

विगत शताब्दी में योरोप में सबसे पहली किताब फ्रेडरिक स्पेन्सर ओलीवर द्वारा लिखित 'एन अर्थ डवेलर्स रिटर्न' थी जिसमें उसने अपने पिछले ३२ जन्मों का हाल लिखा था। उसका कथन था यह पुस्तक उसने नहीं लिखी, किंतु किसी दिव्यात्मा ने उसके शरीर में प्रवेश करके लिखाई है। इस पुस्तक के पीछे तर्क और प्रमाण न होने से उसे विश्वस्त तो नहीं माना गया, पर जब उसमें की गई भविष्यवाणियों में से कितनी ही सही सिद्ध हुई तो वह बहुचर्चित अवश्य बन गई।

इसके बाद मनोविज्ञान और चिकित्साशास्त्र में समान रूप से ख्याति प्राप्त डॉ० जीना सरमी नारा द्वारा लिखित मैंनौ मेन्शन' का नंबर आता है, जिसमें ऐसे कितने ही आधार प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे शरीर न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहने तथा फिर से जन्म होने की बात पर विश्वास जमता है।

उन्नीसवीं सदी में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रमाण एक जीवित व्यक्ति का सामने आया, जिसने पुनर्जन्म की मान्यता को वैज्ञानिकों और मनीषियों की गहरी खोज का विषय बनाने के लिए विवश किया, उस व्यक्ति का नाम था एडगर कैसी । उसमें ऐसी चेतना उभरी, जो कितने ही व्यक्तियों के पूर्व जन्मों के हाल बताती थी । ऐसे तो इस प्रकार की बातें ढोंगी और अर्ध-विक्षिप्त लोग भी करते रहते हैं, पर कैसी के कथनों में यह विशेषता होती थी कि वह जो कुछ बताता था तलाश करने पर उसके सारे प्रमाण यथावत मिल जाते थे। वर्णन इतने पुराने, इतनी दूर के और इतने महत्त्वहीन होते थे कि उन्हें किसी प्रकार पूर्व संग्रह करके तब कहीं बताने जैसी न तो आशंका की जा सकती थी और न वैसी संभावना ही थी। टेढ़े-मेढ़े परीक्षणों पर जब उसके कथन को बुद्धिजीवियों द्वारा जाँचा और सही पाया गया तो उसके कथन को महत्त्व दिया गया और पुनर्जन्म के संबंध में नये सिरे नये उत्साहपूर्वक शोध प्रयास आरंभ हुए।

अमेरिका के कैंटकी प्रांत में होपकिन्स विले नामक व्यक्ति देहात में हुआ। वह अपने अन्य परिवारियों की भाँति नाम मात्र को ही शिक्षित था। उसे सम्मोहन विद्या से वास्ता पड़ा। वह उस तंद्रा में ऐसी बातें करने लगा, जिन्हें अतींद्रिय अनुभूतियों की संज्ञा मिलने लगी। आरंभिक दिनों में वह रोगियों के कष्ट, निदान एवं उपचार के संबंध में तंद्रित स्थिति में परामर्श देता था, जो लाभदायक सिद्ध होते थे। फिर उसमें पिछले जन्मों का हाल बताने की नई क्षमता जागी । उसने सैकड़ों के पूर्व जन्मों के विवरण बताये और वे सभी ऐसे थे, जो तलाश करने पर सही प्रमाणित हुए। इन प्रमाणों की साक्षी कहाँ से प्राप्त की जाए ? इस संदर्भ में उसने अनेकों सरकारी और गैर-सरकारी कागजों में दर्ज ऐसे पुराने विवरण बताये, जिनका साधारण रीति से पता लगाना अति कठिन था। साक्षी रूप में वे ढूँढ़े गये तो जैसा कि उल्लेख बताया गया था, ठीक उसी रूप में उसी तरह वह सब मिल गया।

इसी प्रकार कैसी ने ऐसे विवरण भी बताये, जिनमें पुराने जन्मों के दुष्कर्मों का फल इस जन्म में मिलने के सिद्धांत की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। इन कष्ट- पीड़ितों में अधिकांश विकलांग एवं रोगी थे। उन्हें यह विपत्ति किस कारण उठानी पड़ रही है, इसके संदर्भ में विवरण बताये गये, वे भी उस कथन की पुष्टि के लिए सबल साक्षी थे। इनकी प्रामाणिकता भी बताये घटनाक्रम के साथ भली प्रकार खोजी गई और जो बताया गया था वह सही मिला। इस प्रकार कैसी रोग चिकित्सा - पूर्व जन्म और कर्मफल के तीन तथ्यों पर ऐसे रहस्यमय प्रकाश डालता रहा जो इससे पूर्व इतनी अच्छी तरह कभी भी सामने नहीं आये थे। सम्मोहन विद्या के उपयोग द्वारा पुनर्जन्म - सिद्धांत की प्रामाणिकता को पुष्ट करने वाले ऐसे ही एक व्यक्ति और हुए हैं। उनका नाम था कर्नल डिरोचाज ।
दिसम्बर १९०४ का एक दिन । एक फ्रांसीसी इंजीनियर के घर खचाखच भीड़ से भरे वातावरण में अधेड़ आयु के व्यक्ति कर्नल डिरोचाज ने प्रवेश किया। कर्नल को देखते ही लोगों में खामोशी छा गई। एक सर्वथा विचित्र प्रयोग था, भीड़ पुनर्जन्म के प्रमाण देखने उपस्थित हुए थे। कर्नल ने इंजीनियर की लड़की मेरी को स्वच्छ आसन पर बैठाया, उसकी दृष्टि में अपनी दृष्टि डालकर वे कुछ क्षणों तक एकटक देखते रहे, थोड़ी ही देर में लड़की की बाह्य चेतना शून्य हो चली, कर्नल ने उसे आहिस्ता से लिटा दिया और उसकी देह को हल्की काली चादर से ढक दिया।

दैवयोग से कर्नल डिरोचाज ने भारतीय दर्शन की इस मीमांसा की अनुभूति कर ली थी। वे मेस्मरेजम के सिद्ध थे और इस विद्या द्वारा जीवन के गूढ़ रहस्यों का पता लगाने में सफल हुए थे। उन्होंने न केवल फ्रांस वरन् सारे योरोप को यह बताया था कि जीवन के बारे में पाश्चात्य मान्यता भ्रामक और त्रुटि पूर्ण है, हमें इस संबंध में अंततः भारतीय दर्शन की ही शरण लेनी पड़ेगी। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ही वे यह प्रयोग कर रहे थे। उस प्रयोग को देखने के लिए फ्रांस के बड़े शिक्षाविद् और वैज्ञानिक भी उपस्थित थे।

मेरी मेद के पिता सीरिया में इंजीनियर थे। मेरी स्वयं भी प्रतिभाशाली लड़की थी । मेस्मरेजम द्वारा उसे अचेत कर लिटा देने के बाद कर्नल साहब ने उपस्थित लोगों की ओर देखकर कहा- अब मेरा इस लड़की के सूक्ष्म शरीर पर अधिकार है, मैं इसे काल और ब्रह्मांड की गहराइयों तक ले जाने और वहाँ के सूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान करा लाने में समर्थ हूँ ।

किसी जमाने में भारत में प्राण-विद्या के आधार पर प्राणों द्वारा आरोग्य प्रदान करने, गुप्त रहस्य ढूँढ़ने के प्रयोग हुआ करते थे। कर्नल डिरोचाज का यह प्रयोग भारतीय सिद्धांतों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह अनेक विलायती पत्रों में छपा था। पीछे इसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मासिक 'सरस्वती' में छपाया था। उसी से यह घटना "आध्यात्मिकी" पुस्तक के लिए उद्धृत की गई। यह पुस्तक इंडियन प्रेस लि० प्रयाग से प्रकाशित हुई।

कर्नल डिरोचाज अब प्रयोग के लिए तैयार थे। उन्होंने मेरी मेव को संबोधित कर पहला प्रश्न किया अब तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है, क्या दिख रहा है ? प्राण पाश में बद्ध अचेतन कन्या ने उत्तर दिया- मैं नीले और लाल रंग की छाया देख रही हूँ। यह प्रकाश मेरे भौतिक शरीर से अलग हो रहा है और मैं अनुभव कर रही हूँ कि मैं शरीर नहीं प्रकाश जैसी कोई वस्तु हूँ, अब मैं अपने शरीर से एक गज के फासले पर स्थित हूँ, पर जिस तरह विद्युत कण एक रेडियो को रेडियो स्टेशन से संबंध किए रहते हैं उसी प्रकार मेरा यह शरीर एक रस्सी की तरह पार्थिव शरीर से बँधा हुआ है। मेरे इस रंगीन प्रकाश शरीर के भीतर दिव्य ज्योति परिलक्षित हो रही है, मैं यही तो आत्मा हूँ।
कर्नल ध्यानावस्थित हो गये। उन्होंने कहा "मेव! अब तुम अपनी वर्तमान आयु से कम आयु की ओर चलो और क्रमशः छोटी आयु की ओर चलते हुए यह बताओ कि तुम इस शरीर में आने के पूर्व कहाँ थी ? कौन थीं ?"

कर्नल के प्रश्न बड़े विचित्र लग रहे थे, पर उनमें एक अदृश्य सत्य झाँक रहा था। उपस्थित जन समुदाय स्तब्ध बैठा सारी गतिविधियों को देख, सुन रहा था। जब यह प्रयोग हो रहा था, मेरी मेव १८ वर्ष की थी। अब वह बोली- मैं १६ वर्ष की आयु के दृश्य देख रही हूँ अब १४, अब १२ और अब १० की आयु के चित्र मेरे सामने हैं इस समय मैं मारसेल्स में हूँ अपने पिता के साथ, एक विस्तृत जीवन के दृश्य मेरे सामने हैं। अब मैं क्रमशः छोटी हुई जा रही हूँ। फिर वह कुछ देर तक चुप रही।
फिर बताना प्रारंभ किया अभी-अभी मैं १ वर्ष की थी। बोल नहीं पाई अब मैं अपने पूर्व जन्म के शरीर में हूँ। इस शरीर से निकलने के बाद मुझे किसी अज्ञात प्रेरणा ने "मेरी मेव" के शरीर में पहुँचा दिया था। अब मैं पहले जन्म के शरीर में छोटी हो रही हूँ और देख रही हूँ कि यह ग्रेट ब्रिटेन का समुद्री तट है, मैं एक मछुये की लड़की हूँ। मेरा नाम 'लीना' है। २० वर्ष की आयु में मेरी शादी हुई। मेरी एक कन्या हुई। वह दो वर्ष की आयु में मर गई। मेरा पति मछलियाँ मारता है। उसके पास एक छोटा-सा जहाज है, वह समुद्री तूफान में नष्ट हो गया, उसी में मेरे पति की मृत्यु हो गई, मैं बहुत दुःखी हूँ, मैं भी समुद्र में डूबकर मर गई हूँ; मछलियों ने मेरा शरीर खाया मैं वह सब देख रही हूँ। इस सूक्ष्म शरीर में मैंने वैसी ही अनेकों आत्माएँ देख, मैंने कुछ बात भी करनी चाही, पर मेरी बात ही किसी ने नहीं सुनी, मैं भटकती फिरी पति और बच्चे की याद में। वे मुझे मिले नहीं। हाँ, एक नया शरीर अवश्य मिल गया।
यहाँ तक जो कुछ मेरी मेव ने बताया। पीछे जाँच करने पर वह प्रामाणिक तथ्य निकला।

ऐसी ही एक घटना का विवरण एक रूसी विचारक ने दिया है। बात उन दिनों की है जब रूस में क्रांति मच रही थी । वहाँ के डेनियल बेवर नामक प्रसिद्ध विचारक उन दिनों चीन में एक लामा के बारे में उत्सुक थे। उन्होंने सुन रखा था कि वह किसी भी भूतकालीन घटनाओं को स्वप्न में दिखा देने की क्षमता रखता है। श्री बेवर उस तांत्रिक से एक बौद्ध मंदिर में मिले और उस तरह का प्रयोग देखने की इच्छा प्रकट की । लामा ने एक नवयुवक पर प्रयोग करके दिखाया। योग निद्रा द्वारा स्वप्न की अनुभूति कराने के बाद लामा ने पाल नामक इस युवक से पूछा- तुमने क्या देखा ? उसने बताया मैंने देखा कि मैं रूस के सेंटपीटवर्ग नगर में हूँ। मेरी प्रेमिका एक बड़े शीशे के सामने खड़ी श्रृंगार कर रही है। उसे उसकी दासियाँ "क्रॉस ऑफ अलेक्जेंडर" हीरे की अंगूठियाँ पहना रही हैं, मैंने मना किया कि तुम यह अँगूठी मत पहनो । मैंने सारी बातचीत रूसी भाषा में ही की। अपनी प्रेमिका से मिलन का यह स्वप्न बड़ा ही मधुर रहा । "तभी एक दूसरा स्वप्न भी दिखाई दिया। मैंने अपने आप को एक परिवर्तित दृश्य में निर्जन रेगिस्तान में पाया। मेरे दो बच्चे भूख से तड़प रहे हैं, पर मैं उनके लिए भोजन नहीं जुटा पाया। मुझे एक ऊँट ने हाथ में काट लिया, मेरा अंत बड़ी दुःखद स्थिति में हुआ। "
अपने सम्मुख यह घटना देखने के बाद डॉ० बेवर रूस लौटे। देवयोग से एक बार सेंट पीटर्स में उनकी भेंट एक स्त्री से हुई । उससे इस बात का क्रम चल पड़ा तो वह एकाएक चौंकी और बोली- 'आप जिस महल की बातें बता रहे हैं, वह मेरा ही मकान है मेरे पास 'क्रॉस ऑफ एलेक्जेंडर' हीरे की अंगूठी भी थी। मैंने उसे कई बार पहनना चाहा किंतु मेरा प्रेमी रास्पुटिन इसे पसंद नहीं करता था। ठीक जिस प्रकार आपने पाल की घटना सुनाई वह मुझे यह अँगूठी पहनने से रोकता था ।
डॉ० बेवर उस स्त्री के साथ उसके घर गये । हू-ब-हू वही दृश्य जो स्वप्न में देखकर पाल ने बताये थे। डॉ० बेवर आश्चर्य चकित रह गये और माना कि स्वप्न सत्य था और यह भी कि जीवात्मा के पुनर्जन्म का सिद्धांत मिथ्या नहीं है; वे सहारा जाकर दूसरी घटना की भी जाँच करना चाहते थे पर कोई सूत्र न मिल पाने से वे निराश रह गये। लेकिन यह सत्य था कि उनको जितनी भी जानकारियाँ मिलीं, उन्होंने इन मान्यताओं का समर्थन ही किया । इन घटनाओं का उल्लेख प्रो० बेवर ने अपनी पुस्तक 'द मेकर ऑफ द बेनली ट्राउजर्स' में किया है।

अमेरिका के कोलोराडी प्यूएली नामक नगर में रूथ सीमेन्स नामक लड़की ने अपने पूर्वजन्म का सही हाल बताकर ईसाई धर्म के उन अनुयायियों को आश्चर्य में डाल दिया है, जो पुनर्जन्म के सिद्धांत को नहीं मानते। उपरोक्त लड़की को 'मोरे बर्नस्टाइन' नामक आत्म विद्या विशारद ने अपने प्रयोग से अर्धमूर्च्छित करके उसके पूर्व जन्म की बहुत सी जानकारियाँ प्राप्त की। उसने बताया कि १०० वर्ष पूर्व आयरलैंड के कार्क नामक नगर में पहले उसका जन्म हुआ था, तब उसका नाम ब्राइडी मर्फी और उसके पति का नाम मेकार्थी था। जो बात लड़की ने बताई थी उनकी जाँच करने अमेरिका के कुछ पत्रकार आयरलैंड गये और लड़की के बताये विवरणों को सही पाया।

((कालातीत चेतना प्रवाह))
मंगोलिया से अरब तक पहुँचने के लिए अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, जोर्डन आदि देश पार करके जाया जा सकता है। कई दिनों की हवाई यात्रा क्या एक क्षण में संभव है ? अपने जीवन की एक अद्भुत घटना का वर्णन करते हुए इस प्रश्न का उत्तर और भारतीय दर्शन के कालातीत आत्मा के सिद्धांत की पुष्टि का प्रमाण प्रस्तुत किया है, अरब के सुप्रसिद्ध दार्शनिक और योगी श्री सुग-अल- जहीर ने।

श्री जहीर योग की उच्च–भूमिका में प्रवेश के इच्छुक थे—तब वे एक गृहस्थ का जीवन जी रहे थे। सांसारिक सुखोपभोग के बीच कभी-कभी वे अपनी वृद्धावस्था और मृत्यु की कल्पना करते तो चित्त डोल जाता, वैराग्य उत्पन्न होता और वे सोचने लगते, क्या संसार के अंतिम — सत्य के दर्शन नहीं हो सकते ? इस जिज्ञासा ने ही उन्हें बौद्ध योगियों की शरण लेने और साधना जन्य जीवन जीने की प्रेरणा दी थी। तभी उन्होंने गृहस्थ का परित्याग कर दिया। एक लामा योगी को अपना मार्गदर्शक उन्होंने चुना और योगाभ्यास प्रारंभ कर दिया।
उन्हीं दिनों की घटना है श्री जहीर अपने गुरु और कुछ अन्य लामाओं के साथ वन विहार के लिए निकले थे। योग और उच्चस्तरीय साधनाओं में जहाँ शारीरिक चेतना और मन में तीव्र परिवर्तन तथा विचार मंथन प्रारंभ हो जाता है, वहाँ सांसारिक विषय-वासनाओं तथा पूर्व जन्मों के अशुभ प्रारब्ध-योग भी पूरा जोर आजमाते हैं। साधक पथ भ्रष्ट न हो जाये, उसकी आत्म-निष्ठा प्रगाढ़ बनी रहे ताकि वह योग की कठिनाइयों को पार करने का साहस स्थिर रख सके, विज्ञ योगी और मार्गदर्शक साधक को शक्ति भी देते हैं और अपनी सिद्धि का लाभ भी। वन में घूम रहे अल जहीर के मस्तिष्क में आत्मा के अस्तित्व और उसकी प्राप्ति के संदर्भ में तर्क-वितर्क उठ रहे थे। मन की बात जान लेने वाले सूक्ष्मदर्शी लामा - गुरु ने उनके अंतःकरण को पढ़ा। पास में पड़े एक प्रस्तर खंड पर बैठते हुए उन्होंने कहा- तुम लोग थक गये होगे, वह देखो ! वह रहा जलकुंड, वहाँ से पानी पीकर आ जाओ और थोड़ा विश्राम कर लो तब चलेंगे।
अल-जहीर और अन्य लामा जब तक लौटे, मार्गदर्शक – लामा ने एक श्वेत पत्थर का तस्तरीनुमा टुकड़ा कहीं से प्राप्त कर लिया । जहीर के वापस आते ही बोले–जो-जो आत्मा सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, वही विराट ब्रह्मांड में, तुम चाहो तो कालातीत आत्मा की अनुभूति इसी पत्थर में ही कर सकते हो।
सो कैसे ? जिज्ञासु जहीर ने प्रश्न किया । लामा ने बताया - योगी में जब तक आत्मानुभूति की क्षमता का स्वतः विकास नहीं हो जाता, तब तक उसकी चेतना को सम्मोहित कर सुषुप्ति अवस्था में यत्नपूर्वक ले जाया जा सकता है—और उसके अनेक पिछले जन्मों का– दृश्यों का ज्ञान कराया जा सकता है। आत्मा चूँकि काल से अतीत है, इसलिए उसकी गहराई तक पहुँच कर स्वयं को आत्म-स्वरूप में परिणत करना तो समय और साधना साध्य प्रक्रिया है, किंतु कुछ एक जन्मों का पूर्वाभास कराया जाना नितांत संभव है। लो अब तुम इस पत्थर पर अपनी दृष्टि जमाना और मैं तुम्हें उसकी अनुभूति कराऊँगा ।
जहीर ने पत्थर में दृष्टि जमाते ही अनुभव किया कि उनकी बाह्य चेतना ज्ञान शून्य हो चली और अब वे धीरे-धीरे प्रगाढ निद्रा की ओर बढ़ चले । अब जैसे कोई स्वप्न देखता है, स्वप्न में कुआँ, बावड़ी, जानवर देखता है वैसे ही श्री जहीर ने देखा कि एक अत्यंत तेजस्वी दिव्य आत्मा उनके सम्मुख खड़ी कह रही है—लो अब तुम तैयार हो जाओ मैं तुम्हें उस निविड़ की ओर ले चलता हूँ जहाँ सब कुछ आत्मा ही आत्मा चेतना ही चेतना है, अचेतन और अनात्म कुछ भी नहीं है। श्री जहीर आगे लिखते हैं—
"अभी तक सामने घिरा अंधकार दूर हो गया और मुझे लगा कि मैं समय की सीमाओं को छोड़ता हुआ अपने भूतकाल की ओर बढ़ रहा हूँ। जैसे कल्पना के साथ विचार ही नहीं उठते, दृश्य भी मानस पटल पर बनते जाते हैं। उसी प्रकार भूतकाल में विगत जीवन की स्मृतियाँ भी सजीव हो चलीं। मैंने देखा मैं पूर्व जन्म में एक सामान्य व्यक्ति था और भौतिक आकर्षणों से घिरा जीवन जीकर नष्ट हो गया। उससे भी पूर्व लगता था मैं कोई पक्षी रहा होऊँ, हवा में उड़ने और पृथ्वी के ऊपर विचरण के वह दृश्य कभी साँस को तेज कर देते कभी मद्धिम और मैं अपने विचारों की धड़कन भी स्पष्ट सुन रहा था। अतींद्रिय अवस्था में विचार ही वाणी का काम करते हैं।"

"अब मैंने अपने आपके चार जन्म पूर्व के जीवन बासठवें वर्ष में प्रवेश किया। रेल में बैठा यात्री जिस प्रकार रेलवे लाइन के किनारे-किनारे के दृश्य देखता है– वृक्ष, मकान, दुकानें, खेत, नहरें वैसे ही आत्म-चेतना के प्रवाह में अतीत दृष्टिगोचर होता चल रहा था। प्रभावी दृश्यों की तरह उस समय की प्रभावी अनुभूतियाँ आज भी भूलती नहीं। मैं तब काली आँखों वाला एक योगी था और मैंने देखा कि मेरा मठ भी यहीं मंगोलिया में ही था जहाँ इन दिनों मैं विचरण कर रहा हूँ, आश्चर्य है कि पूर्व जन्मों के संस्कार किस प्रकार मनुष्य को खींच-खींच ले जाते हैं। मैंने देखा एक दिन मेरे पास एक सुंदर युवती आई उसे देखते ही मैं अपनी सारी साधना, सारा ज्ञान, भूल बैठा। वह स्त्री मेरे योगच्युत होने का कारण बनी। जहाँ मैं आत्मा के साक्षात्कार की दिशा में बढ़ रहा था, वहाँ कामग्रस्त मुझ योगी को रोग और शोक, आधि-व्याधि और पतन ने आ घेरा । कर्म की प्रतिक्रिया से भला संसार में कौन बचा है ? मेरे इस शरीर का अंत भी बड़ा दुःखद हुआ और इसके बाद का तो बड़ा घृणित जन्म जीना पड़ा मुझे।"

यह विवरण किसी कल्पना लोक की अतिरंजना नहीं वरन् एक उस धर्म और देश के प्रख्यात दार्शनिक श्री सुगअल-जहीर की आप-बीती और अपनी लेखनी से लिखी यथार्थ घटना है, जिसमें आत्मा के आवागमन – पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं किया जाता । अरब देश और इस्लाम धर्म में जन्मे श्री जहीर ने स्वीकार किया है कि आत्मा के अस्तित्व और विज्ञान संबंधी इस्लामी मान्यताएँ गलत हैं। योग साधनाओं द्वारा प्राप्त यथार्थ के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि भारतीय आत्म विद्या जैसा सच्चा और महान विज्ञान दुनिया में अन्यत्र नहीं। एक दिन सारे विश्व को इन तथ्यों को स्वीकार करने को विवश होना पड़ेगा — यह घटना उन्हीं की सुप्रसिद्ध पुस्तक "मंगोलिया मठभूमि की आध्यात्मिक यात्रा" से उद्घृत की जा रही है।
"मैं जितनी गहराई में गया मुझे विराट विश्व की उतनी प्रगाढ़ अनुभूति होती गई और मैं अनुभव करता गया कि व्यक्ति सचेतन जीव है और उसी चेतना का समष्टि रूप परमात्मा —यद्यपि मैं उस छोर तक नहीं पहुँच सका। चार दिन तक लगातार वैसी ही योग निद्रा में प्रकाश की गति से ब्रह्मांड की जिस सीमा तक जा सकता था, उससे विराट की अनुभूति हुई पर संसार का विस्तार तो करोड़ों प्रकाश वर्षों का है उसे इस स्थूल देह से प्राप्त कर सकना कहाँ संभव था? मैंने मृत्यु की वह विकराल नदी देखी, जिसमें संसार में जन्मे जीव डूबते-उतराते रहते हैं। जैसे-जैसे गहराई बढ़ी गतियाँ निश्चेष्ट और ध्वनियाँ शांत होती जा रही थीं, नीरवता और नीलेपन की ओर बढ़ते हुए मुझे अलौकिक अनुभूतियाँ हुईं, जिनका शब्दों में वर्णन कर सकना कठिन है, क्योंकि वह उपमाएँ धरती पर हैं नहीं, जो वस्तुएँ अदृश्य हों उनका परिचय उपमाओं से ही दिया जा सकता है, उपमाएँ न हों तो वह विराट कैसे समझाया जा सकता है?"
"अब मैं वापस लौटता हूँ तो उसी क्रम से अनेक चित्र और दृश्य देखते-देखते फिर एक बार अपनी जन्मभूमि अरब के उस मकान में आकर विचार ठहर जाता हूँ, जहाँ कुछ दिन पूर्व में अपनी माँ, पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। उसकी एक-एक घटना को मैंने देखा । यह घटनाएँ ही मेरे द्वारा देखे गये अब तक के सभी दृश्यों की सत्यता का प्रमाण हैं, क्योंकि इस जीवन की घटनाओं की सत्यता असत्यता पर तो कोई शंका नहीं ही हो सकती मैंने आज की स्थिति में भी अपनी पत्नी को देखा और अनुभव किया— मनुष्य की उस दुर्बलता को जो वह यह मानकर किया करता है कि मुझे तो कोई देख नहीं रहा। पर अनुभव करता हूँ कि मनुष्य हजार कोठरियों के अंदर छिपा हो तो भी वह हजार आत्माओं द्वारा और परमात्मा द्वारा देखा जाता रहता है।"

"धीरे-धीरे मेरी निद्रा समाप्त हुई तब मालूम पड़ा कि चार दिन में कितने विस्तृत जीवन के दृश्य देख आया, अब तो यही लगता है कि संसार में काल से अतीत, ब्रह्मांडों से भी— अतीत यह विज्ञानमय आत्मा ही सत्य है; इसीलिए अब सांसारिक भोगों की आकांक्षा को त्यागकर आत्म-साक्षात्कार के प्रयत्न में जुट गया हूँ।"
ये घटनाएँ पुनर्जन्म की मान्यता को स्पष्टतः प्रमाणित करती हैं। भारतीय धर्म शास्त्रों में पग-पग पर मरणोत्तर जीवन के तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। गीता में बार-बार इस बात का उल्लेख किया गया है कि शरीर छोड़ना वस्त्र बदलने की तरह है। प्राणी को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। शुभ कर्म करने वाले श्रेष्ठलोक को– सद्गति को प्राप्त करते हैं और दुष्कर्म करने वालों को नरक की दुर्गति भुगतनी पड़ती है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय-
नवानि गृहणाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय-
जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। — गीता २२२

"जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग करके नया वस्त्र धारण करता है, इससे वस्त्र बदलता है, कहीं मनुष्य नहीं बदलता, इसी प्रकार देहधारी आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करती है।"

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।। —गीता ४/५

"अर्जुन! मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत गये हैं। ईश्वर होकर मैं उन सबको जानता हूँ, परंतु हे परंतप! तू उसे नहीं जान सकता।"
थियासफी के जन्मदाताओं में से एक सर ओलिवर लाज ने लिखा है "जीवित और मृत भेद स्थूल जगत तक ही सीमित है। सूक्ष्म जगत में सभी जीवित हैं। मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। जिस प्रकार हम जीवित लोग परस्पर विचार विनिमय करते हैं, उसी प्रकार जीवित और मृतकों के बीच में आदान-प्रदान हो सकना संभव है। हमें विज्ञान के इस नये क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए और एक ऐसी दुनिया के साथ संपर्क बनाना चाहिए, जो हम मानवी परिवार को कहीं अधिक सुविस्तृत सुखी और प्रगतिशील बना सकेंगे।
सर ऑर्थर कानन डायल भी इसी विचार के थे। वे कहते थे अपनी दुनिया की ही तरह एक और सचेतन दुनिया है, जिसके निवासी न केवल हमसे अधिक बुद्धिमान हैं वरन् शुभचिंतक भी हैं। इन दोनों संसारों के बीच यदि आदान-प्रदान का मार्ग खुल सके तो इसमें स्नेह - संवेदनाओं का, सुखद सहयोग का एक नया अध्याय प्रारंभ होगा। मृतकों और जीवितों के बीच संपर्क स्थापना का प्रयास यदि अधिक सच्चे मन से किया जा सके, तो अब तक की प्राप्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से कम नहीं वरन् बड़ी सफलता ही मानी जायेगी तथा यह भारतीय प्रतिपादन पुष्ट हो जायेगा कि जन्म और मृत्यु मात्र स्थूल जगत की घटनाएँ हैं। आत्मा "न जायते म्रियते वा कदाचिन" आत्मा न कभी जन्म लेती है न कभी मरती है।