Mamta ki Pariksha - 124 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 124



"जी सेठ जी, सही कहा आपने ! दरअसल उन लड़कों के बचने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। वारदात के कुछ ही देर बाद तीनों लड़के उसी इलाके से पकड़े गए थे और सबसे बड़ी बात जो इस केस को और कमजोर कर रही थी वो ये थी कि जो पीड़ित लड़की थी उसने उनकी पहचान भी कर ली थी। इंसाफ के लिए पीड़ित पक्ष को अब जरूरत थी सिर्फ सबूत जुटाकर केस फाइल करने की जो कि वहाँ का दरोगा करनेवाला भी था। बेहद काइंया था वह दरोगा भी। जब उसने भारी भरकम धनराशि के ऑफर के बावजूद हमारी बात मानकर हमसे सहयोग करने से इंकार कर दिया तब आखिर हमें उसकी काट निकालने के लिए उसके वरिष्ठ का सहारा लेना ही पड़ा। कह सकते हैं आप कि ऐसा करना हमारी मजबूरी भी थी।
संयोग से हमें अधिक प्रयास नहीं करना पड़ा, क्योंकि हमें खुद अग्रवाल इंडस्ट्रीज की मालकिन व मुख्य अभियुक्त की माँ सुशीलादेवी ने खुद बताया था कि कमिश्नर श्रीवास्तव जी से उनके खास संबंध हैं।
बस यहीं हमारा सारा काम आसान हो गया था, लेकिन इतना ही नहीं बातों बातों में ही हमें यह भी पता चल गया कि राज्य में मंत्री रहे एक नेताजी से भी उनके गहरे रिश्ते थे। होशियारी से हमने उनका भी सदुपयोग कर लिया। जब ऐसे लोग मददगार हो जाएं तो अब हमारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था।

लाख ईमानदारी के बावजूद वह बिगड़ैल दरोगा चाहकर भी कुछ साबित नहीं कर सका। कमिश्नर के फोन से वह काफी डरा हुआ लग रहा था और शायद मन मारकर ही उसने यह जानते हुए भी कि हमने लड़की की जाँच रिपोर्ट नेता जी से फोन करवा के अपने मनमाफिक बनवा लिया है वह खामोश रहा और वही गलत रिपोर्ट उसने अदालत में पेश किया था जो हमारे कहने पर बनवाई गई थी। दरअसल अपने रसूख का फायदा उठाकर सुशीलादेवी ने नेताजी से अस्पताल के प्रमुख डॉक्टर रस्तोगी को फोन करवा दिया था। एक मंत्री के फोन की ताकत को तो आप समझ ही सकते हैं सेठजी ! फिर क्या था, अपने मनमाफिक रिपोर्ट के सहारे कानून को संदेह दिलाने में हम कामयाब रहे। आप जानते हैं हमारे कानून का सूत्रवाक्य है 'चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, एक निरपराधी को सजा नहीं होनी चाहिए ! ' और यही वजह है कि किसी भी मुकदमे में अगर हम संदेह पैदा करवाने में कामयाब हो जाते हैं तो उस संदेह का लाभ सीधे सीधे अपराधी को मिलता है और हमने भी वही किया।
उस रिपोर्ट के आधार पर हमने अदालत को एक मनगढ़ंत कहानी सुनाई और बिना कोई आधार के गढ़ी गई उस कहानी के जरिये हमने फर्जी जाँच रिपोर्ट के सहारे अदालत के मन में घटना के प्रति संदेह पैदा करवा दिया।..बस, हो गया हमारा काम ! फैसला हमारे हक में आना ही था।" कहने के बाद वह मंद मंद मुस्कुराते हुए सेठ जमनादास की तरफ देखने लगा।

इस बीच पूरा वाकया सुनने के दौरान अमर तो शांत बैठा रहा लेकिन बिरजू को संभालने में अमर को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। टेबल की ऊंचाई का फायदा उठाते हुए उसने एक हाथ से बिरजू को पकड़ रखा था और बिरजू भी उसका इशारा समझ कर खुद पर पूरा काबू रखे हुए था। वकील बंसीलाल के चुप होते ही सेठ जमनादास जी उसका उत्साह बढ़ाते हुए बोले, " वाह वाह वकील साहब ! वाह ! कानून को कानून की दवाई से ही आपने क्या खूब मात दिया है। जवाब नहीं आपका। आपने ऐसी सेटिंग कराई कि फरियादी को ही आरोपी बना दिया। वाह, वाह !"

कहने के बाद वह एक पल को रुके थे कि अचानक जैसे बंसीलाल को कुछ याद आ गया हो, अचानक पूछ बैठा, "वो सब तो ठीक है सेठ जी ! आखिर इतना हुनर तो रखना ही पड़ता है। नहीं तो कौन पहचानता इस दुबले पतले मरियल से दिखने वाले शख्स को!" कहते हुए उसकी एक भद्दी सी हँसी कुछ पल के लिए उस कमरे में गूँज उठी थी और फिर स्वतः ही हँसी पर ब्रेक लगाते हुए वह आगे बोला, "अब आप बताइए सेठजी, आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया ?"

सेठ जमनादास को मानो इसी सवाल का इंतजार था। अपने धीर गंभीर स्वर में उन्होंने कहना शुरू किया, "उस फर्जी रिपोर्ट के आधार पर फर्जी कहानी गढ़कर तुमने उन अपराधियों को जेल से छुड़वा तो लिया, लेकिन जानते हो इसका नतीजा क्या हुआ ? इसके बाद क्या हुआ ?"

बेशर्मी से मुस्कुराते हुए बंसीलाल ने जमनादास से कहा, " ठीक ठाक तो नहीं पता, लेकिन इतनी खबर आई थी कि उस लड़की ने बाद में कुएं में कूदकर खुदकशी कर लिया था।"
बेशर्मी और संवेदनहीनता से भरी बातें सुनकर बिरजू की तो मुट्ठियाँ तन गई थीं लेकिन अमर द्वारा पकड़े होने की वजह से वह कसमसा कर रह गया जबकि जमनादास ने अपना जाल डालने का काम बदस्तूर जारी रखने का प्रयास करते हुए बात करना जारी रखा, "हाँ वकील साहब, बहुत सही खबर है तुमको ..और मेरे आने की मकसद भी वही बदनसीब लड़की है जिसने आत्महत्या कर ली थी। अभी पता चला मुझे उस अभागी लड़की के बारे में और मन बेचैन हो गया।
दरअसल उस लड़की का बाप मेरा पूर्व परिचित निकला है और इस नाते मैंने उसे उसकी लड़की को इंसाफ दिलाने का वादा कर लिया है। ...और मेरा आपके पास आने का मकसद भी यही है।"
जमनादास ने प्यार से वकील को समझाने का प्रयास किया, "...और इसीलिए मेरी तुमसे गुजारिश है कि तुम इस केस को फिर से खुलवाओगे मेरे लिए ताकि उन दरिंदों को उनके अंजाम तक पहुंचाया जा सके और उस मरहूम लडक़ी की रूह को इंसाफ दिलाया जा सके। पैसे की कोई परवाह न करना वकील साहब ! तुम सोच भी नहीं सकते मैं तुमको इतना पैसा दूँगा।" जमनादास ने अपना आखरी अस्त्र पैसे की लालच वाला भी लगे हाथ चला दिया और उसका असर देखने के लिए कुछ पल रुककर वकील की तरफ देखने लगे।

जमानदास की बात सुनकर वकील मुस्कुराया, " सेठ जी, मैं जानता हूँ पैसे की अहमियत लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं होता, यह भी जानता हूँ। मेरे लिए पैसा अभी इतना कीमती नहीं हुआ है कि मुझसे मेरा ईमान खरीद ले। मेरा ईमान अनमोल है और ये कहते हुए मुझे कोई अफ़सोस नहीं है सेठजी कि आप अपना सारा धन देकर भी मुझसे मेरा ईमान नहीं खरीद सकते। आप कह सकते हैं कि मेरा ईमान बिकाऊ नहीं है। मैं अदालत में लाख झूठी कस्में खाऊँ, लेकिन वकालत के पेशे का मेरा एक उसूल है जिसे मैं किसी भी कीमत पर नहीं बदल सकता। मैं माफी चाहता हूँ सेठजी, मैं आपका प्रस्ताव नहीं मान सकता। कुछ और काम हो तो बताइये, मैं जी जान से आपका काम करूँगा।" कहते हुए बंसीलाल अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

उसके हाथ जोड़ते ही जमानदास जी भी अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। कहना जरूरी नहीं कि उनको खड़े होते देखकर अमर और बिरजू भी हड़बड़ाकर खड़े हो गये।

जमानदास जी वकील की तरफ देखते हुए अर्थपूर्ण निगाहों से मुस्कुराए और बोले, "कोई बात नहीं वकील साहब ! तुम्हारा अपने उसूलों के प्रति इतना प्रेम देखकर मुझे बड़ी खुशी हुई, हालाँकि ये सच्चाई है कि तुम अगर हमारे साथ होते तो हमें दिल से बड़ी खुशी होती।.. लेकिन फिर भी कोई बात नहीं ! तुम्हारा उसूल तुम्हारे पास और मेरा पैसा मेरे पास, लेकिन ये न समझना कि मेरा तुमसे मिलना बेकार गया। तुमसे मिलना मेरे लिए बेहद फ़ायदेमंद रहा सो टेक इट ईजी " कहने के बाद जमानदास जी एक पल को भी नहीं रुके, मुड़े और दरवाजे से बाहर निकल गए।
पिछे पिछे अमर और बिरजू भी उस बंगले से निकल कर सड़क पर पार्क की गई गाड़ी के पास आ गए।

बिरजू और अमर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। बिरजू के मन में आक्रोश तो था लेकिन बंसीलाल की बातें सुनकर वह मायूस भी हो गया था। उसे पता चल गया था कि उसके खिलाफ कितनी बड़ी ताकतें मैदान में थीं तभी उसकी बहन को इंसाफ नहीं मिला था और वो सब अब भी एक साथ रहेंगी। अब दौलत और पहुँच से भरे पूरे लोगों से कैसे लड़ पायेगा अमर यही सोचते हुए वह अमर का मुँह ताके जा रहा था।
अमर शायद उसकी मनोदशा को अच्छी तरह समझ रहा था। आगे बढ़कर वह जमानदास से मुखातिब हुआ, "सेठ जी ! आप मायूस न हों। पूरे शहर में यह अकेला वकील नहीं है, और भी अच्छे अच्छे वकील होंगे। हम उनकी सेवा लेंगे और बसंती को इंसाफ दिलवा कर रहेंगे।"
मुस्कुराते हुए जमानदास ने अमर की तरफ देखा, "बेटा ! क्या तुम यह समझ रहे हो कि मैं इसके पास अपना केस लड़ने की गुजारिश करने के लिए आया था ? नहीं बेटा नहीं ! मुझे पता था कि बंसीलाल एक बार जिसका भी केस हाथ में लेता है फिर उसके साथ कभी गद्दारी नहीं करता। मैं तो यह जानना चाहता था कि आखिर उसने यह सब कैसे किया था और देखो अब हम सबको पता है कि उसने कैसे किया और उसके साथ कौन कौन है ?" कहने के साथ वह कार में बैठते हुए बोले, "चलो, फटाफट बैठ जाओ। अब हम चलते हैं अपने दूसरे ठिकाने पर।"
बिरजू और अमर के बैठते ही जमानदास ने कार आगे बढ़ा दी।

क्रमशः

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