अब तक आपने पढ़ा - अपने दोस्त गौरव के बुलाने पर राहुल उससे मिलने चला आता है और फ़िर घने जंगल में भटक जाता है। कुछ देर बाद उसे एक महिला मिलती है जो राहुल को एक जर्जर से मकान तक ले आती है।
अब आगें...
हम्म...हुंकार में उत्तर देकर मैं चुपचाप उस महिला के पीछे चलता रहा। थकान से अब मन ने सोचना भी बंद कर दिया। कुछ ही देर बाद हम एक जर्जर से मकान के सामने पहुंच गये।
सिर से लकड़ियों का गट्ठर गिराकर वह महिला बोली - लो साहब आ गया घर । आप मुंह हाथ धोकर आराम करो तब तक मैं आपके लिए खाना पका देती हूँ।
मैं बूत बना उस खंडहर जैसे घर को देखने लगा।
क्या सच मे गौरव यहाँ रहता है..? कैसी भयानक जगह है..? खिड़कियां टूटी हुई है। दरवाज़े पर दरारे इतनी ज़्यादा है कि दरवाजे का होना न होना एक बराबर है। आसपास सिर्फ़ घना जंगल है। कुछ तो गड़बड़ है।
मुझें विचारों में खोया देख वह महिला रसोईघर से चिल्लाकर बोली - अरे साहब ! कहाँ खो गए..? यहाँ आपके शहर जैसे मकान नहीं मिलेंगे। जंगल मे यह जगह मिल गई वही बहुत है। वरना पहले तो गौरव बाबू तंबू लगाकर रहते थे।
"ये घर किसका है" - मैंने तेज़ आवाज में पूछा।
पता नहीं साहब , बहुत समय से खाली पड़ा हुआ था। मैं जंगल मे लकड़ियां लेने आती हुँ तो अक्सर इधर से ही निकलती हुँ। यह घर गौरव बाबू को मैंने ही बताया था। इसी बात से खुश होकर उन्होंने मुझें काम पर रख लिया।
मैं अब सी.आई.डी. का एसईपी प्रद्युम्न बन गया और उस महिला से सवाल खोद-खोदकर पूछने लगा।
"तुम कहाँ रहती हो ?" मेरे इस सवाल पर वह कुछ देर चुप रही फिर बोली। साहेब मैं तो बस्ती में रहती हूँ।
मैंने घर क़ि ओर कदम बढ़ाते हुए अगला सवाल किया - " तुमने गौरव को अपनी बस्ती में घर क्यो नहीं बताया ? "
बताया था साहब ..पर वो बोले मेरा काम इन जंगलों में ही है इसलिए यही रहता हूँ। उसकी आवाज़ सामान्य ही थी । अब मुझें उसकी बात पर यकीन हो गया। आश्वस्त होकर मैं मकान के अंदर आ गया।
रसोईघर के ठीक सामने एक कमरा था जहाँ से लालटेन की मद्धम रोशनी आ रही थी। मैं उसी कमरे के अंदर चला गया।
कमरा साफ़ सुथरा दिख रहा था। मैंने अपना बैग रखा और सामने दीवार से लगे पलंग पर बैठ गया। अचानक रसोईघर से बर्तन गिरने की आवाज़ आईं । मैंने कमरे में बैठे हुए ही पूछा - सब ठीक तो है न ?
उधर से कोई जवाब नहीं आया। मन फिर आशंका से घिरने लगा। मैं उठा और रसोईघर कि ओर जाने लगा तो कमरे की खिड़की के बाहर लालटेन की मंद रौशनी में एक साया दिखाई दिया। मैं ठिठक गया। साया अचानक पलक झपकते ही औझल हो गया। मेरा दिमाग़ काम करना बंद हो गया। चित्रलिखित सा मैं जस का तस खड़ा रहा। दूर जंगल से सियार के रोने की आवाज़ आने लगी। एक साथ कई सियार के रोने की आवाज़ बड़ी भयंकर लग रहीं थी। चारों तरफ़ घना जंगल ,सांय-सांय करती हवा और झींगुर का शोर मन मे दहशत पैदा कर रहा था। खिड़कियों के टूटे हुए पलड़े हवा के झोंको के साथ चरमराहट की आवाज़ करते हुए कभी बंद हो जाते तो कभी खुल जातें। मैं खिड़की कि ओर गया औऱ टूटी हुई खिड़की से बाहर झांकने लगा। तभी मुझें महसूस हुआ जैसे मेरे पीछे कोई खड़ा हुआ है। मेरी घिग्गी बंध गई। हिम्मत करके मैं जैसे ही पलटा तो चीख़ पड़ा....
शेष अगलें भाग में....