ममता की परीक्षा - 122 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 122



मेज के इस पार रखी हुई कुर्सियों में से एक पर बैठते हुए सेठ जमनादास काफी भावुक नजर आ रहे थे।
उनकी अवस्था को महसूस करते हुए साधना ने मेज पर रखी हुई पानी की बोतल को उनकी तरफ सरका दिया।
बोतल से पानी पीने के बाद जेब से रुमाल निकालकर आँखों से छलक कर चेहरे पर आधिपत्य जमा चुके आँसुओं को साफ करके जमनादास ने आगे कहना शुरू किया, "लगभग पाँच साल पूरे हो गए थे गोपाल को देखे हुए। अपने कामकाज में व्यस्त हो चुका मैं लगभग उसे भूल भी चुका था कि तभी एक दिन दफ्तर से वापस आते हुए देखा, सेठ शोभालाल की कोठी को दुल्हन की तरह सजाया गया था।

पहली नजर में ही अंदाजा लग गया था कि कोठी में किसी बड़े सेलिब्रेशन की तैयारी हो रही है। दरबान से पूछने पर पता चला कि आज गोपाल अपनी पत्नी सुशीलादेवी के साथ अमेरिका से वापस आ रहा है।
अगले ही दिन गोपाल से मिलने उसकी कोठी पर गया।
बड़ा ही बुझा बुझा सा कुछ परेशान सा लग रहा था गोपाल। तुम्हारा जिक्र करते ही वह बेबसी से फफक पड़ा।

उसकी मजबूरी मेरे समझ में आ रही थी। अपने पिता सेठ शोभालाल की लालच की बलि वह चढ़ चुका था। वह पूरी तरह से चरित्रहीन औरत सुशीलादेवी की गिरफ्त में आ गया था। हाँ, एक रईस बाप की बिगड़ैल चरित्रहीन बेटी थी सुशीलादेवी जिसके लिए उसके बाप सेठ अंबादास ने दौलत की लालच में अंधे गोपाल के पिताजी को फांसकर अपनी दौलत का लालच देकर पहले तो अपनी बेटी गोपाल के गले मढ दिया और फिर धीरे धीरे शोभालाल की संपत्ति भी सुशीलादेवी के नाम करा लिया। अब वह चरित्रहीन औरत और ताकतवर हो गई थी और गोपाल बेबस और बेचारा।
कई बार विदेश में रहते हुए भी उसने बगावत की सोची, लेकिन विदेशी भूमि पर वह हिम्मत न जुटा सका था। अब यहाँ आकर उसने फैसला कर लिया था कि पहले तुम्हारा पता लगाएगा और फिर एक दिन सब छोड़कर आ जायेगा तुम्हारे पास।
उसके कहने पर मैं तुम्हें खोजने एक दिन सुजानपुर भी गया था जहाँ जाकर तुम्हारे बारे में पता चला कि तुम भी गाँव छोड़कर पता नहीं कहाँ चली गई हो।
गोपाल के मन में जो उम्मीद की डोर बँधी थी तुम्हें लेकर, वह एक झटके में टूट गई थी।

मेरी बात का यकीन गोपाल को नहीं हुआ। उसने खुद भी सुजानपुर जाकर पता लगाया, लेकिन तुम वहाँ होती तो मिलती न ?

समय अपनी गति से गुजरता रहा।
ब्रेस्ट कैंसर से जूझ रही अपनी पत्नी संध्या को खोकर मैं और निरंकुश हो गया था। ऐसा लग रहा था मेरी संवेदनाए लगभग समाप्त हो चली हैं कि तभी नियति ने मुझे फिर से संवेदनाओं से परिचित करा दिया, लेकिन इस बार एक अलग ही रूप में।

कहते हैं न कभी कभी इतिहास खुद को दुहराता है। अब मुझे भी यह बात सही लग रही है और इसीलिए मुझे अब अपने गुनाह का अहसास हो रहा है जो अंजाने में ही सही मुझसे हुआ है।
मेरी बेटी तुम्हारे बेटे अमर से बेइंतहा प्यार करती है और जानबूझकर मैंने इनके बीच में दौलत की दीवार खड़ी करनी चाही। मैं नहीं चाहता था कि एक बार फिर गोपाल और साधना की कहानी दुहराई जाए, लेकिन मैं फिर एक बार गलत साबित हो गया।
मैं भूल गया था कि एक परमशक्ति भी है इस संसार में जो सभी के कर्मों का लेखाजोखा रखती है और उनका इंसाफ करती है जिसके साथ ये दुनियावाले अपनी रईसी के घमंड में चूर होकर नाइंसाफी करते हैं।

मेरी नजरों में पैसे के आगे सब बेकार था लेकिन यह मेरी गलतफहमी ही साबित हुई जब भारी भरकम रकम को ठुकराकर मेरे कुछ कहने या करने से पहले ही अमर ने खुद को मेरी बेटी से दूर कर लिया और मुझे गलत साबित कर दिया।

अब मेरी बेटी रजनी की हालत ऐसी है मानों उसके जिस्म में जान ही न हो। मुझसे मेरी बेटी की हालत देखी नहीं जाती। बड़ी मुश्किल से किसी तरह उसकी जान बचा पाया था मैं। तड़प उठता है मेरा दिल जब उसकी उदास सूरत देखता हूँ।"
कहते कहते अचानक दोनों हाथ जोड़ते हुए जमनादास साधना के सम्मुख फफक पड़े, "मुझे माफ़ कर दो साधना और मेरी बेटी रजनी को अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लो। मेरे गुनाहों की सजा मेरी बेटी को न मिले, मेरा तुमसे यही अनुरोध है। तुम्हारा गुनाहगार मैं हूँ और मैं प्रस्तुत हूँ तुम्हारे सामने कोई भी सजा भुगतने के लिए ..!"
कहने के बाद जमनादास बड़ी देर तक इन्हीं शब्दों के साथ बार बार साधना के आगे हाथ जोड़ते रहे, गिड़गिड़ाते रहे लेकिन साधना तो जैसे मूरत बन चुकी थी। एकटक शून्य में घूरती हुई वह पता नहीं कहाँ खोई हुई थी। पता नहीं उसने जमनादास की पूरी बातें सुनी भी थी या नहीं।

अमर और बिरजू भी बुत से बने खड़े हुए थे। कभी साधना को तो कभी जमनादास की तरफ देखते। अचानक जैसे साधना की तंद्रा भंग हुई हो, शायद जमनादास के बिलखने का स्वर उसके कानों तक पहुँच गया हो। जमनादास के दोनों हाथों को थामते हुए वह बोली, "अब बस भी करो भैया ! मैं समझती हूँ दोष किसी का भी नहीं होता, सो दोष आपका भी नहीं है। हम कौन हैं ? हम सब एक कठपुतली हैं जिनकी डोर परमपिता परमेश्वर के हाथों में होती है और वह हमें जब चाहे जैसे चाहे नचाता है। यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सब उस रंगमंच पर अभिनय करनेवाले कलाकार। हम सबका रोल जन्म से पहले ही लिखा जा चुका होता है। तय समय पर इस रंगमंच पर हमआते हैं, अपनी भूमिका निभाते हैं और फिर वह अपने पास बुला लेता है । जीवन की यही सच्चाई है, जो अब तक मैंने जाना और समझा है। उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा के मुताबिक कई बार इंसान न चाहते हुए भी वह काम करने पर मजबूर हो जाता है जो वह नहीं करना चाहता।.. क्यों ?.. क्योंकि इस विराट रंगमंच के निर्देशक ने उसके लिए वही भूमिका तय की है और आपकी मर्जी हो या ना हो आपको वह भूमिका निभानी ही पड़ेगी। नहीं तो कौन नहीं चाहता ऐशो आराम और इज्जत की जिंदगी ? कौन अपनी मर्जी से भीख माँगना चाहता है ? कौन अपराध करना चाहता है यह जानते हुए भी कि इसका नतीजा बुरा ही होनेवाला है ? लेकिन फिर भी लोग करते हैं तो बस इसलिए कि उसने उनके लिए यही भूमिका तय किया हुआ है। उनकी मर्जी हो या न हो भीख माँगना ही है, अपराध करना ही है, गुनाह बेईमानी के साथ ईमानदारी सदाचार सब किस्से पटकथा में शामिल होते हैं इस दुनिया में आनेवाले के लिए। अपने चरित्र के मुताबिक ही उसकी शिक्षा दीक्षा, पालन पोषण व परवरिश होती है।"
जमनादास को बड़ी राहत मिली थी साधना के शब्दों को सुनकर लेकिन अमर के दिमाग में अभी भी बवंडर सा घूम रहा था। वह अभी भी जमनादास को अपनी माँ के साथ हुए नाइंसाफी का जिम्मेदार समझ रहा था। उसके दिल ने उसे समझाया, 'अब तुझे भी जमनादास को माफ करके रजनी को अपना लेना चाहिए। जब माँ ने ही उन्हें माफ कर दिया है जिनका वह इतना बड़ा गुनहगार है तो अब जमनादास से तेरे इंतकाम लेने के मंसूबे का कोई औचित्य नहीं बचा है। और फिर यदि गुनाह बाप ने किया है तो सजा उसकी बेटी को क्यों ? उसका क्या कसूर है ? क्या यही कि उसने अमीर गरीब, ऊँच नीच व सामाजिक हैसियत की परवाह किये बिना सच्चे दिल से तुझे प्यार किया है ? अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया ?.. अरे इतना ही नहीं वह तो अपना सब कुछ छोड़कर तेरे पास आने के लिए भी तैयार है।'

तभी उसके दिमाग ने सरगोशी की, 'हाँ, यही तो मैं नहीं चाहता कि वह सब कुछ छोड़कर मेरे पास आए। क्या मिलेगा उसे मेरे पास ? कुछ दिन तो प्यार के सहारे वह अभावों में भी खुश रहेगी लेकिन बाद में ? ..क्या होगा तब जब प्यार का खुमार उतर जाएगा ? तब उसे मेरा प्यार नहीं मेरी गरीबी काटने को दौड़ेगी। याद आएगी उसे हर घड़ी हर पल अपनी वह शानोशौकत, वह रईसी और वह आलीशान जिंदगी जिसकी वह अभ्यस्त रही है। तब वह मुझसे छुटकारा पाने के लिए पिंजरे में कैद किसी परिंदे की तरह फड़फड़ाने लगेगी, पछताएगी अपने फैसले पर और मान लो अगर उसने ऐसा कुछ नहीं किया तो उसका एकमात्र कारण होगा कि वह मुझपे तरस खा कर किसी तरह खुद को मेरे अनुसार ढाल लेगी और समझौता कर लेगी मेरी हैसियत के अनुसार जिंदगी जीने की।... और मैं यही सब नहीं चाहता। मैं नहीं चाहता कि इनमें से मेरा कोई भी कयास कल हकीकत बनकर मेरे सामने आ खड़ा हो। भविष्य में मुझे ऐसी किसी भी स्थिति का सामना न करना पड़े उसके लिए आवश्यक है कि रजनी से दूर ही रहा जाए।'

अनायास ही आँखों से छलक आये आँसू को रुमाल से पोंछते हुए अमर ने चौंककर बिरजू की तरफ देखा जो उसे झकझोरते हुए कह रहा था, "भैया, कहाँ खो गए थे ? देर हो रही है। अब हमें शहर की तरफ भी चलना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हम देर से पहुँचे और वकील का दफ्तर बंद मिले।"

क्रमश :