मोहिनी और रागनी की मित्रता बनी रही. अब अधिकाँश समय वे दोनों, एक साथ ही रहतीं. कहीं भी जाती तो साथ ही जातीं. अपनी बातें आपस में एक-दूसरे से साझा करतीं. अपना-अपना दुःख आपस में बांटती. उनकी मित्रता इसी तरह से चलती रही. चलती रही. मगर ऐसा कब तक चलता, दोनों में से कोई भी नहीं जानता था.
नीचे दुनियां का हरेक रिवाज़, हरेक कार्य बदल चुका था. लोग अपने स्वार्थ के लिए आपस में ही एक-दूसरे को खाए जाते थे. इंसान की जान की कोई भी कीमत नहीं रही थी. कोई भी, किसी को, अपने मतलब के लिए, अपने थोड़े से समय के मनोरंजन के लिए, कहीं भी, कभी भी मार देता था. मानव जाति का रक्त बहाना और वह भी बड़ी बेदर्दी, निर्दयता और निरंकुशपन से? जैसे हर किसी के लिए दैनिक कार्य बन चुका था. स्त्रियों और जवान लड़कियों की कोई भी सुरक्षा नहीं रही थी. कहीं भी, कभी भी, उनकी अस्मत दांव पर लगी रहती थी. संसार में पापमय कुकर्मों की अति हो चुकी थी. धार्मिक संस्थान और उनमें लिप्त उनके प्रचारकगण, हर दिन सभाओं में, इंटरनेट कार्यक्रमों में, अपने प्रवचनों की दिन-रात बारिश करते रहते. मेहनत और परिश्रम करते. कोई संसार के अंत की बात करता तो कोई अपने-अपने ईश्वरों और देवी-देवताओं की तारीफों के बड़े-बड़े पुल खड़े किये करता. फिर इन्हीं धार्मिक कार्यक्रमों के सहारे, बड़े-बड़े चढ़ावों और दान की रकम की मांग भी होती. इन्हीं की आड़ में युवतियों के शरीर नीलाम होते. नई उम्र की लड़कियों के बदन के गर्म गोश्त के सौदागर, एजेंट्स और दलाल हर तरफ बिछे हुए थे.
नीचे धरती का संसार बदल रहा था. सारा माहौल पापी बदन का लिबास पहनकर अधर्मी कार्य करने में लिप्त हो चुका था. मानवता का इतिहास और इंसान बदल चुका था. हरेक आदमी, औरत का निजी स्वभाव केवल अपने तक ही सीमित हो चुका था. भूखे, नंगे बच्चे गली-गली फिरते थे, भीख मांगते थे. खोमचों के पास खड़े होकर झूठी पत्तलें चाटते थे और दूसरी तरफ, गली, मुहल्ले, समाज और देश में धार्मिक अनुष्ठान भी होते थे. धार्मिक इमारतों को खड़ा करने के लिए पैसा दान के रूप में माँगा जाता था और फिर पानी के समान दूध, दही और घी में बहा दिया जाता था. कहने का आशय है कि, जितने भी काम मनुष्य कर सकता था, उन्हें करने में आज के मनुष्य को कोई भी भय ना तो भगवान का था और न ही मनुष्य का था. ईश्वर, अल्लाह, गॉड और देवी-देवताओं के इस संसार में, मनुष्य आपस में तो एक-दूसरे को मार-खाने के लिए तो तैयार रहता था, परन्तु अपने-अपने भगवानों और ईश्वरों से डरता कोई भी नहीं था.
मोहिनी को आत्माओं के संसार में रहते-विचरते हुए लगभग तीन वर्ष व्यतीत हो गये. जीवन के इतने लम्बे समय के बीत जाने पर और मोहिनी के अचानक उसके सामने से गायब होने और फिर कभी भी दर्शन नहीं दिए जाने पर संसार में अकेला और तन्हा मोहित हताश ही नहीं बल्कि निराश भी हो गया. इन तीन वर्षों के लम्बे अंतराल में तो मोहित का संसार ही बदल चुका था. मोहिनी और उसकी आत्मा के मिलन की बात को वह एक सपना समझ कर भूलने लगा. अब उसने अपने खेतों और जमींदारी से सम्बन्धित तमाम कार्यों में ध्यान देना और मन लगाना आरम्भ कर दिया था. कहते हैं कि, ईश्वर के लिए तो एक दिन एक हजार वर्ष के बराबर और एक हजार वर्ष एक दिन के समान होता है. वह चाहे तो एक दिन का काम हजार वर्षों में करे और एक पल में हजार वर्षों का काम कर दे. जिसे मरना नहीं, जो सदा ही जीवित रहेगा, उस ईश्वर के लिए उम्र के दिन गिनना एक उपहास ही कहा जाएगा. मगर धरती के इंसान के लिए यह बात बहुत फर्क रहती है. उसे अपने काम अपनी उम्र के हिसाब से करने पड़ते हैं. वह मरते-मरते ही मरता है और एक दिन फिर से धूल में मिल जाता है. जिस दिन से इंसान इस धरती पर अपना जन्म लेता है, उसी दिन से हर पल उसकी उम्र का हिस्सा कम होता जाता है. जैसे-जैसे समय बढ़ता जाता है, हर दिन समय की एक नई परत उसके अतीत को ढांकती जाती है. यही हाल मोहित का भी हुआ था. मोहिनी चली गई, उसकी आत्मा भी लोप हो गई तो वह बहुत चुप और खामोश तो हो ही गया साथ ही अपनों से बहुत दूर और अलग भी. इस अलगाव का कारण भी बहुत ठोस और सही था. उसके अपनों ही ने, मात्र अपनी उस खोखली प्रतिष्ठा को बचाने के लिए, मोहिनी की हत्या करके उसके जीवन में अन्धकार के बादल भर दिए थे, भला वह उनसे अब क्यों और किस आधार पर किसी तरह का सम्बन्ध रखता?
इसलिए, उसने अपने हिस्से की जमीनों को बेचा और उनके स्थान पर बड़े व्यापक स्तर पर निगमित (Corporate) रूप से व्यापार दूसरे शहरों में करना आरम्भ कर दिया था. उसने गाँव छोड़ा, शहर छोड़ा और इस तरह से अपने चाचा के लड़कों से भी किनारा कर लिया था. अब वह मोहिनी को याद तो करता था लेकिन उसके वियोग में परेशान नहीं होता था. रोता भी नहीं था. सचमुच उसके आंसू किसी ने भी पोंछने की जरूरत नहीं समझी थी. फिर भी वक्त ने उसका साथ दिया था और हर रोज़ की चलने वाली दैनिक व्यस्तता जैसी हवाओं ने उन्हें सुखा अवश्य ही दिया था.
उधर आकाश में, आत्माओं के संसार में, एक दिन उजाले के समान श्वेत वस्त्र पहने हुए सिपाहियों के साथ उनका सिपहसालार, अपने हाथ में एक सफेद कागज़ लिए हुए आया और उसने जैसे तुगलकी फरमान मोहिनी को सुनाया और फिर उसे नीचे धकेल दिया. बेचारी रागनी, अपनी आँखों के सामने ही मोहिनी को नीचे सांसारिक मार्ग पर गिरते हुए देख कर ही रह गई. वह यह सोचकर ही रह गई कि, कितने दिनों के बाद उसे एक प्यारी-सी सहेली मिली थी और वह भी लुप्त हो चुकी थी. आसमान राज्य से 'मनुष्य के पुत्र' नामक राजा का फरमान मोहिनी की आत्मा को दोबारा धरती पर भेजने का जैसे सरकारी नोटिस था. सो मोहिनी अपनी ही धुन में, किसी वायु वाहक के साथ, उसके प्रवाह में बहती हुई नीचे जैसे किसी सुरंग में समाती चली जा रही थी.
* * *
इकरा का पति हामिद, एक कोने में चुपचाप अपना सिर झुकाए हुए बैठा था. बहुत उदास, बहुत चुप और खामोश- अपने किये की अपराधबोधिता के इलज़ाम से ग्रसित- एक पछतावे की मुद्रा में. उसके दोनों हाथों को उसकी पीठ के पीछे लाकर हाथों में हथकड़ियाँ डाल दी गईं थी. दूसरी तरफ हामिद का बाप, एक कोने में पड़ी हुई चारपाई पर बैठा हुआ, अपनी लाल आँखों से अपनी बहु और हामिद की मात्र छः माह पुरानी बीबी इकरा की चादर से ढकी हुई लाश को घूर रहा था. घर में हर कहीं पर तीन के डिब्बे, बकरियों की मेंगनी और उनके निवास की गंध बसी हुई थी. कहीं पर मछली मारने की बंसियां उलझी हुई पड़ी थीं तो कहीं पर कपड़े-लत्ते और रसोई के बर्तन भी अस्त-व्यस्त पड़े हुए थे. एक अलग चारपाई और दो कुर्सियों पर पास की थाना चौकी के सिपाही, अपने कंधे से रायफिलें लटकाए हुए, बीड़ी और सिगरेटों का धुंआ गर्म-गर्म चाय के साथ लील रहे थे. अस्त-व्यस्त घर के बाहर हामिद की आपा जो उसके घर के पास ही में रहती थी, मुहल्ले की तमाम औरतों के साथ बैठी हुई अपने हामिद की तारीफ़ और अपनी बहु इकरा की बुराइयां करने से भी नहीं थक पा रही थी. कहने का आशय है कि, सारा घर ही अस्त-व्यस्त हो चुका था. हामिद की अपनी मां कई वर्ष पहले डेंगू के बुखार में जन्नत पधार गई थी.
हामिद रिक्शा चलाकर, अपना, अपने पिता, अपनी मां और बीबी का पेट पालता था. वह प्राय: रात में ही सवारियां ढोया करता था, क्योंकि उसका मानना था कि, दिन के बजाय रात में कम सवारियों से ही उतनी आमदनी हो जाती थी जितना कि, दिन भर में नहीं हो पाती थी. सो पिछली रात जब हामिद रात में सवारियां ढो रहा था तो, हामिद के पिता, अर्थात इकरा के ससुर ने अपनी बहु के साथ ज़बरदस्ती करनी चाही तो इकरा ने इसका विरोध किया था. उसने पहले तो अपने ससुर को समझाया, उसे उसके बाप के स्थान की गरिमा को याद कराना चाहा, मगर जब वह नहीं माना तो उसने किसी तरह से उसे धक्का देकर बाहर किया और फिर अपने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद करके सो गई थी. फिर जब सुबह को हामिद आया तो उसने उससे अपने ससुर की इस बद-हरकत का ज़िक्र किया और रात की घटना को विस्तार से बता दिया.
तब बाद में हामिद ने जब अपने पिता से इकरा की शिकायत और इस बेहूदा हरकत के बारे में बात की तो उसके पिता ने उलटा इकरा के चरित्र पर दोष लगाकर खूब ही अपने पुत्र के कान भर दिए. इतना ही नहीं उसने अपने पुत्र को उसकी बीबी को तलाक देने की भी सलाह दी. तब हामिद ने अपनी पत्नी इकरा के बजाय अपने पिता की बात पर विश्वास किया और खूब ही, हर तरह से अपनी बीबी को मारा-पीटा. वह क्रोध में यहाँ तक आतंकी हो गया था कि, उसने इकरा के सिर को घर में रखी हुई हाथ से आटा पीसने की पत्थर की चक्की के पाट पर दो-तीन बार इतना मारा कि, इकरा वहीं पर चिल्लाते हुए बेहोश हो गई. मुहल्ले वालों जब सुना तो वे सब हामिद के घर पर आये और इकरा की हालत को नाज़ुक देखते हुए उसे अस्पताल ले गये, जहां पर इकरा को मृत घोषित कर दिया गया.
इकरा की मृत्यु उसे क्रूरता से पीटने के कारण हुई थी. तब पुलिस केस बना और हामिद के साथ उसके पिता को भी हिरासत में ले लिया गया. इकरा के बदन का पोस्टमार्टम हुआ और उस रिपोर्ट में इकरा की मौत का कारण, उसके मस्तिष्क में अंदरूनी घातक चोट बताया गया था. तब दो दिन हामिद और उसके पिता पुलिस की जेल में रहे, मगर इकरा के अंतिम संस्कार के कारण उन दोनों को एक दिन के लिए उसके दफ़न के कार्यक्रम में शामिल होने की इजाजत दी गई थी. यहीं तक की स्थिति तक हामिद और उसका बाप अपना मुंह लटकाए हुए बैठे थे और मुहल्ले तथा आस-पास के सभी जान-पहचान वालों में विभिन्न प्रकार की बातें हो रही थीं.
इकरा के मृत शरीर को दफ़नकरने के लिए कब्रिस्थान के मनहूस प्राचीर में ले जाया गया. वहां पर उसके दफ़न की जब सारी रीतियाँ पूरी हो गईं और जब उसका बदन बगली बनाई कब्र (बगली बनाई गई कब्र में मृतक के शरीर को ताबूत में नहीं रखा जाता है. उसके लिए कब्र खोदी जाती है और फिर बगल की दीवार में भी मृतक के शरीर को रखने के लिए एक कब्र बनाई जाती है, जिसे 'बगली कब्र' कहते हैं, उसके अंदर कफ़न में लिपटे हुए शरीर को रख दिया जाता है. यह प्रथा यहूदियों में भी आज तक है. उसमें मृतक के शरीर पर मिट्टी न डालकर, उसे कमरेनुमा बनी कब्र में, दफ़न के मसाले लगाकर एक पत्थर पर रख दिया जाता है. बाद में जब शरीर सड़ जाता है तो उसकी हड्डियों को एक छोटे से लाइम-चूने के बने बॉक्स, जिसे ऑसरी भी कहते हैं, में बंद करके दोबारा मिट्टी के अंदर गड़ाह खोदकर दफना दिया जाता है.) में अंदर रखने के लिए चार मनुष्यों ने उठाना चाहा तो इकरा अचानक ही उठ कर बैठ गई. बैठ गई तो कब्रिस्थान में उसके दफ़न में आये सारे लोगों के मुंह पर अचानक ही घबराहट और भय के कारण रात्रि में बसने वाली जैसे अबाबीलें आकर चिपकने लगीं. किसी को भी इकरा की तरफ से इस प्रकार की, हरकत की आशा नहीं थी. सबके मुंह पर एक ही तरह की बात थी.
'अरे, यह तो ज़िंदा है?'
अल्लाह ने इसे वापस भेज दिया है?'
इसकी मौत का दिन अभी नहीं आया है?'
सब अल्लाह की करामात और करिश्मा है?'
'वह जिसको चाहे बुला ले और जिसे चाहे बुलाकर वापस भी भेज दे?'
'अल्लाह है तो सब कुछ मुमकिन है?'
जितने मुंह उतनी ही बातें थीं. तरह-तरह के विचार थे. लोगों में कौतूहल और बे-सब्री के साथ एक अजीब सा भय समाया हुआ था. सारे कब्रिस्थान के प्राचीर में सन्नाटा व्याप्त था.
'अरे, अब देखते क्या हो. लड़की ज़िंदा है. कफन की चादर हटाओ और उसे सांस लेने दो?' हामिद और उसके पिता की निगरानी में आये हुए पुलिस इंस्पेक्टर ने जब आदेश दिया तो भय के मारे कोई भी उसके कफ़न की चादर को हटाने के लिए आगे नहीं आया. तब पुलिस इंस्पेक्टर ने हामिद को सामने लाकर उससे कहा कि,
'चल इधर. तू इस स्त्री का आदमी है. तू ही ने इसे मारा था, अब तू ही इसको खोल.'
तब हामिद भी मारे भय के आगे बढ़ा और इकरा के बदन पर लिपटी हुई चादर को खोलने लगा. फिर जब इकरा ने आँखें खोलकर, अपने चारों तरफ देखा और हामिद को देखा तो वह उसे देखते ही पीछे हट गई. उसे जीवित पाकर हामिद उससे बोला,
'इकरा? तू ठीक तो है?'
'?'- इकरा ने उसे आश्चर्य के साथ एक संशय से देखा. फिर से वह उससे और भी दूर हटनी चाही और अपने-आप को चादर से लपेटती हुई, खुद में ही समेटती हुई हामिद से बोली,
'कौन इकरा? कैसी इकरा?'
'तू मेरी बीबी, मेरी इकरा. चाहे तो इन सबसे पूछ ले?'
हामिद बोला तो, इकरा ने कहा कि,
'क्यों तुम लोग मुझे यहाँ पर ले आये हो? मैं तेरी औरत और तेरी बीबी नहीं, बल्कि मोहिनी हूँ.'
क्रमश: