ज़िंदगी भी किसी किराये के मकान की तरह लगतीं हैं । कभी जिंदगी में ढ़ेर सारी खुशियाँ दबे पाँव दस्तक दे देतीं हैं तो कभी बिन बुलाए मेहमान की तरह गम आ जाता हैं । जिंदगी के इस मकान में रहने वाले ये किराएदार ख़ुशी और गम क़भी स्थायी नहीं रहतें ।
आनंद की आँखों के द्वार से होकर मैं उसके मन के उस कमर्रे तक पहुँच जाना चाहतीं थीं जहाँ उसने अपने गम दफ़न किए हुए थें । आनंद की आँखे अक्सर उसके मन की बात बयाँ कर देतीं थीं । जिन्हें पढ़कर मैं उसके दर्द बाँट लिया करती थीं।
स्कूल-कॉलेज के समय आनंद कितना बातुनी हुआ करता था। अब उसके चेहरे पर गहन मौन उसे समुंद्र सा शांत बना रहा था। आनंद की खामोशी मेरे मन को विकल कर रहीं थीं। मेरे अंदर प्रश्नों का सैलाब मुझें परेशान कर रहा था।
तभी मयंक औऱ संजना आए। उनको देखकर फीकी सी मुस्कान मेरे चेहरे पर तैर गई। संजना कुर्सी पर बैठते हुए बोली - फाइनली तुम दोनों में सुलह हो गई। इस बात पर मयंक बोला - होनी ही थीं , दोस्त कभी बिछड़ा नहीं करतें , जो बिछड़ जाएं वो दोस्त हुआ नहीं करतें । मैंने कहा - इरशाद - इरशाद ...
तभी इरशाद मेरी तऱफ आया औऱ कहने लगा - जी आपने मुझें बुलाया ? इरशाद की इस बात पर हम चारों हँस दिए। इरशाद ने भी हम लोगों को जॉइन कर लिया। हँसी ठिठौली से मन कुछ ठीक हुआ। फिर चला फोटोसेशन का दौर। तस्वीरों में ही यह ताकत होतीं हैं कि वह समय को कैद कर लेतीं हैं। फिर भी मुझें फ़ोटो क्लिक करवाने का शौक कम ही था। मैं ग्रुप से हटकर खिड़की की औऱ चली गई औऱ बाहर देखने लगीं । हवा में उड़ते बादल ऐसे जान पड़ रहें थे जैसे बूंदों को पीठ पर लादे हुए आ रहें हैं औऱ सारी बूंदे धरती पर उड़ेल देंगे। हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई। पार्टी भी लगभग समाप्ति की औऱ थीं । 2004 आकार का बना हुआ केक लाया गया , जिसे अमित सर ने काटा।
सबसे अलविदा लेकर हम अपने घरों की औऱ लौटने लगें। बारिश की हल्की बूंदे अब तेज़ धार हो गई थीं। मैं भीगते हुए अपनी स्कूटी की औऱ गई। मुझें भीगना अच्छा लग रहा था । बारिश की हर एक बूंद को मैं खुद में समेट लेना चाहती थीं। बूंदे भी टप-टप करके बरसती रहीं। तभी छाता ताने हुए आनंद वहाँ आया औऱ डाँटते हुए मुझसे बोला - मैं कार से तुम्हें घर छोड़ दूँगा। ऐसे भीगकर जाओगी तो बीमार पड़ना तय हैं। आनंद के लहजे में डांट कम फिक्र ज़्यादा थीं।
" कुछ नहीं होगा , मैं चली जाऊंगी तुम तकल्लुफ़ न करों " - मैंने औपचारिक लहज़े में कहा।
इस बात पर आनंद इतना नाराज़ हुआ कि वह फुर्ती से मेरी औऱ आया औऱ उसने झुककर मेरी स्कूटी को लॉक किया औऱ चाबी अपनी जेब में रख लीं। औऱ वहाँ से जाने लगा। मैं आनंद को जाते हुए देखती रहीं। वह बिल्कुल नहीं बदला था। मैं भी चुपचाप कीचड़ में बने आनंद के कदमों के निशान पर अपने पैर रखते हुए चलने लगीं।
'किआ सॉनेट' आनंद की गाड़ी को देखकर मैं अचंभित हो गई। उसने कहा - हाँ कुछ समय पहले ही ली हैं । मैंने कहा - मैंने भी किआ सेल्टोस ली हैं। आनंद बोला - वन्डरफुल , वी बोथ लाइक सैम! आनंद ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। मैं असहज औऱ अनमनी सी हो रहीं थीं। बहुत समय बाद मैं आनंद के साथ जा रहीं थीं।
रास्ते में जायका चाट भंडार की दुकान देखकर आनंद ने बिना मुझसें पूछे गाड़ी दुकान के सामने रोक दी । गाड़ी के शीशें को नीचे करके आनंद ने दुकान पर खड़े लड़के को आवाज लगाई - छोटू छोले टिकिया पैक कर दे।
छोटू बोला आनंद भैया थोड़ा टाइम लगेगा। आनंद ने मेरी औऱ देखा फिर छोटू की औऱ मुखातिब हो कहने लगा - अच्छा ठीक हैं , बनाकर रखना मैं थोड़ी देर बाद आता हूँ।
" ठीक हैं भैया " - कहकर छोटू अपने पिताजी की मदद करवाने लगा।
आनंद चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा। गाड़ी में पसरी शांति को आनंद ने म्यूजिक ऑन करके संगीत लहरियों में बदल दिया। " रिमझिम गिरे सावन सुलग - सुलग जाए मन " यह गीत मौसम को और भी सुहावना बना रहा था। बरसात से गाड़ी के शीशो पर मानो कोहरा सा छा गया हो। मैंने आदतन शीशे पर पहले स्माइली फेस बनाया औऱ फिर उसे मिटा दिया। मैं बाहर बारिश को देखने लगीं। मेरी आँखें जुगनुओं सी चमक उठीं।सड़क पर गिरती बारिश की बूंदे ऐसी लग रहीं थीं जैसे जल तरंग बज रहें हो । बारिश न सिर्फ तपती धरती को शीतल कर रहीं , बल्कि मेरे मन को भी ठंडक पहुँचा रहीं थीं। मेरे मन का मयुर नाच उठा था। तभी आनंद ने एक कागज का टुकड़ा मेरी औऱ बढ़ाते हुए कहा - लो इसकी नाव बना लों ।
मैंने अचंभित होकर आनंद को देखा । क्या आनंद को अब भी वो सारी बाते याद हैं जो मैंने स्कूल औऱ कॉलेज के समय शेयर की थीं ? मैंने आनंद से कागज लिया औऱ नाव बनाने लगीं।
आनंद ने गाड़ी अपने घर के सामने रोक दी।
मैंने सवालियां निग़ाहों से आनंद को देखा तो वो बोला - तुम चलों मैं छोटू की दुकान से छोले - टिकिया लेकर आता हूँ। मेरी कबर्ड से नया टॉवल ले लेना। तुम्हारे बाल ज़्यादा समय तक भीगे रहें तो तुम्हें सर्दी लग जायेगी। मुझें घर की चाबी थमाकर आनंद छोटू की दुकान की औऱ चला गया। मैं वहीं खड़ी आनंद की गाड़ी को तब तक देखती रहीं जब तक कि वह मेरी आँखों से औझल न हुई ।
शेष अगले भाग में.....