आज मेरा जन्मदिवस (अक्टूबर - 2) Ruchi Dixit द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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आज मेरा जन्मदिवस (अक्टूबर - 2)

आज मेरा जन्मदिवस है |
2 अक्टूबर ,
हाँ ! आज के विचार रूपी विचित्र पुष्प
इसी पौधे से गिरे है , विचित्र ही कहेंगे इसे
जो गंधहीन कटीले होने के बावजूद पुष्प की
संज्ञा से परिभाषित हैं | यह नामकरण वास्तविकता
की स्वीकारोक्ति रूपी हवन कुण्ड से निकला है |
आज विचार रुपी घोड़े बधाई रुपी दाने पाकर टहल
कदमी पर उतरे तो पाया |
कितने सहृदयी है जो अपना
जन्मदिवस मनाते है , ऐसे ही
लोग औरो मे प्राण फूँक जाते है,
कितने साहसी होते है | हाँ साहस
ही है , मिटती रेखाओं पर पुष्प खिलाना |
या शायद अंतिम समय का विस्मरण !
जो भी हो मगर परिणाम से पृथक,
साहस तो सर्वथा पूजनीय होता है |
एक छोर को पकड़ के रखने का |
हाँ याद है, मुझे ! अपनी ही बात लिख रही हूँ मै !
था उत्साह मुझमे भी जन्मदिवस को लेकर , कुछ आन्नन्द सा प्रतीत होता था , अपने लिए आर्शीवचन सुनकर | और किसी आत्मीय की प्रतीक्षा भी , शायद ! कही से निकल कर एक बूँद सूखती भावना पर गिरा उसे हरा भरा कर दे | कुछ वस्तुओं का भी लोभ था | हाँ केवल वस्तु उसके मूल्य से नही शायद यह परिवेशात्मक धारणा ही थी कि वस्तुओं मे लपेटकर दिया स्नेह अधिक मूल्यवान होता है | आखिर ! मुँह से तो चलते - फिरते हर कोई बधाई दे देता है | इसमे भी भला क्या खर्च हुआ | वास्तविक बधाई का मतलब ही है आर्थिक वहन को प्रसन्नतापूर्वक सहन करना | बड़ी पीड़ा रात भर आँखों से नींद गायब फला व्यक्ति ने आज मुझे बधाई नही दी | सुबह शरीर शिथिल अवस्था मे चिन्ताग्रस्त दिनचर्या को प्राप्त | खैर ! यह कहानी मेरी ही नही आमजन मानस की कथा -व्यथा है | हमने स्वंय को एक दिवस मे इस प्रकार अपेक्षित कर लिया है कि वास्तविकता से परे होने लगे , और तो और यह अपेक्षायें भी स्वंय से अधिक दूसरो पर निर्भर | आज जन्मदिवस मनाने से
से अधिक दिखाना भाता है | बधाई के
के पर्याप्त लड्डू न मिले तब तक मन भरता
ही नही | पर्याप्त का अर्थ भी व्यक्तित्व और स्वभाव पर निर्भर है | किसी के लिए कुछ विशेष
लोगो का संग्रह तो कुछ के लिए एक वृहद जन समूह | यहाँ भी महत्नवपूर्ण यह है कि आप कितना प्रसिद्ध या मिलनसार हैं | खैर ! यहाँ बात शुरुआत आत्मकेन्द्रत थी सो उसी पर ही पुनः पहुचती हूँ ,वैसे विचार रुपी घोड़ा जब चलता है तो स्वंय की गतिचाल से ज्यादा पड़ोसियों पर नजर रखता है , आखिर हो भी क्यों न मनुष्यों का नमक जो खाया है तो, स्वभाव आना स्वभाविक है | खैर! चलिये फिर से आत्म विवेचन पर आते हैं | जाने क्यों अब,
सब छल सा लग रहा है | इस आदान-प्रदान
की दुनिया से मोह भंग सा लग रहा है |
जन्म- मृत्यु के बीच यह उत्सव भी एक प्रश्न है |
वास्तविकता तो यह है कि हम मनाते उत्सव
सदैव मृत्यु का ही हैं , उस दिन कोई नाम ले ले
तो लोग क्रोध मे उत्तेजित हो जाते है | अरे भाई !
जरा गम्भीरतापूर्ण विचार तो करो आखिर हम उत्सव किस चीज का मना रहे है , उस जीवन का जिसकी अवसत सीमा तय है , उसका प्रतिवर्ष कम हो जाना,
अर्थात मृत्यु से निकटता का बढ़ना ही तो है |