वह रात Ruchi Dixit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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वह रात

कई बार हम पूर्वाग्रह से प्रेरित भयवस कुछ ऐसा कर जाते है कि जीवन भर के लिए एक घाव जो हृदय के एक कोने मे नासूर बन कर स्थान पा लेता है | सामान्यत: सुसुप्तावस्था मे आभासशून्य होने के बावजूद भी एकान्त चिन्तन का स्पर्श पीड़ा की अनुभूति कराता रहता है| शर्दियो का मौसम था ,
और उसपर दिल्ली जैसे शहर की निकटता का असर |हाल कुछ यूँ था कि एक घण्टा पहले रख्खा पानी भी तलवार का रूप ले लेता था, अर्थात पानी मे हाथ डालते ही लगता कटकर गिर ही जायेगा | हाथ बाहर निकाल लेने के पश्चात भी कुछ देर तक तो लगता मानो किसी ने उंगलियों पर नाईट्रोजन गैस डाल दी हो| हर कार्य गर्म पानी मे करना एक मजबूरी सी बन गई थी| किन्तु फिर भी कई कार्यो के लिए यथा स्थिति जल ही उपयोग मे लाना पड़ता| कमरे का तापमान बना रहे इसलिए हीटर का उपयोग भी कर लिया जाता | यह दिन भी मौसम द्वारा घोषित एक आपतकाल से कम न था| ट्रान्सफार्रमर मे बड़ी फाल्ट होने की वजह से लगभग दो दिनो से बिजली की सप्लाई भी बन्द थी| हम जिस इलाके मे रहते थे वह कभी गाँव हुआ करता था, जहाँ भुखमरी का निवास था ,जिसका फायदा उठा बिल्डरो ने उनके पेट को सहलाते हुए ,उनकी सारी जमीने खरीद ली|
जो किसान फटे -चिथड़े कपड़े मे घूमते थे ,जिनके पास दो जून रोटी तक का जुगाड़ न था , अचानक कारो मे घूमने लगे| उनकी स्थिति ऐसी ही थी, जैसे एक छोटा सा तालाब वर्षो से सूखा पड़ा हो ,और वर्षा के जल ने उसे भर दिया ,
किन्तु वह तलाब खुद को नदी ही समझने लगा| रईसो मे भी इतना रौब कहाँ| इतना सब होने के बावजूद बिजली की व्यवस्था ग्रामीण ही थी| शायद यही वजह थी कि लाइट की समस्या का निस्तारण दो दिनों के पश्चात भी न हो पाया था|
हमारी कालोनी भी पूरी तरह से विकसित न थी ,अर्थात फ्री होल्ड एरिया मे प्लॉट सबको एलोट थे, किन्तु अभी घरो के निर्माण का कार्य चल ही रहा था | कालोनी मे घुसते ही सबसे पहला घर हमारा ही था, और हमारे घर के ठीक सामने आखिरी मकान| दो मंजिले मकान मे नीचे प्रथमतल अन्दर घुसते ही ड्राइंगरूम जिसे मैने बेडरूम बना लिया था , वैसे यह व्यवस्था गर्मियों की थी , किन्तु इस बार सर्दियों मे परिवर्तन नही किया गया था| आज रोज की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही ठण्ड का अनुभव हो रहा था | खा-पीकर शाम सात बजे ही रजाई पकड़ ली , रजाई की गरमाहट पाते ही नींद कब आ गई इसका पता ही न चला| तभी अचानक शान्त वातावरण को चीरती ,करूण क्रन्दन,पीड़ा मे डूबी एक आवाज सुनाई देती है| " हायय मुझे अन्दर बुला लै तेरै बेट्टे जिये तैरा परिवार सुखी रहै, हे बेटा ,हे बेबी , मुझै अन्दर बुला लै , हाईइ मै मर गई ठण्ड सी, ऐ बेट्टा मुझै अन्दर बुला लै, मेरे बेट्टा बहु नै मुझै घर से निकाल दई ,हाईइ मै मर जाउंगी ठण्ड सी , मुझै अन्दर बुला लै, ऐ बैट्टा ,ऐ बीबी तेरा परिवार बढ़ै बरक्कत होवै|" लगातार आ रही इस ध्वनि ने अन्तरात्मा के सारे तार हिलाकर रख दिये हो जैसे | रजाई के अन्दर जहाँ अभी तक साँस लेने के लिए मुँह तक निकालना दूभर था , वही इस आवाज की गर्मी से सारी रजाई पसीने से तर -ब -तर हो गई|
दो घटनाओं ने मुझे ऐसे भयभीत कर रख्खा था ,कि यह आवज हकीकत है ,या छलावा मन अन्तर ही नही कर पा रहा था| बात गर्मियों की है, रात्री भोजन कर मै सो गई |अचानक घर के बाहर लगे हमारे नल पर ,बहुत से लोगो की बाते और बर्तन माँजने की आवाजे आने लगी , मैने सोचा हमारे घर के पीछे रहने वाले किरायेदार होंगे ,जो देर रात मजदूरी कर आये होंगे | सारी रात यह सिलसिला चलता रहा आँखे केवल नींद का अभिनय ही करती रह गईं, दूसरे दिन ,तीसरे दिन,चौथे और पाँचवे दिन भी यही सबकुछ चलता रहा , कई बार तो उठने का मन भी किया ,न जाने क्या सोचकर रह गई| आज सप्ताह भर की अनिद्रा के अनुभव ने मन को क्रोध से भर दिया था| बिस्तर पर लेटने से पहले सोच रख्खा था ,आज सोउँगी नही आज यदि रात मे शोर किया तो जोर का डाटूँगी|
यही सोचते कब नींद आ गई पता ही न चला| तभी रोज की तरह फिर वही आवजे, आज बिना सेकेण्ड गवाये झट से उठ जैसे ही दरवाजा खोला बिल्कुल सन्नाटा, वहाँ कोई न था ,
अपितु नल भी सूखा पड़ा था | मुझे यकीन नही हो रहा था कि यह भ्रम था ,किन्तु यथा स्थिति देख ,आखीर मे मान ही लिया, कि यह सपना था | पर बहुत प्रयासो के बाद भी दुबारा नींद न लगी| अगले दिन फिर रात को यही सब ,मै कुछ देर बिस्तर पर ही बिता अपने आपको जगा हुआ अनुभव करा रही थी , यह बात स्पष्ट हो जाने पर फिर से दरवाजा खोलकर बाहर देखा वहाँ कोई न था, और नल के पास एक भी पानी की बूँद न गिरी थी| मन को अन्जान भय ने व्याप्त कर लिया | उस दिन के बाद मैने कभी दरवाजा न खोला| उस दिन की घटना के बाद आज जो आवजे आ रही थी, वह और भी ज्यादा भयभीत करने वाली थी | वो आवज एक बूढ़ी औरत की लग रही थी | दो घण्टे उस बुढ़िया के चिल्लाने के पश्चात ,सामने पड़ोस का गेट खुलने की आवज आती है | शायद उस बुढ़िया की पीड़ा उनसे न देखी गई होगी | यह सब मुझे बिस्तर पर लेटे हुए कानो मे पड़ती आवजो के माध्यम से ही पता चल रहा था| कभी लगता यह सच है ,उठ कर उस बुढ़िया की मदद करूं ,तभी पूर्व घटित उस घटना का स्मर्ण हो आता| और बिस्तर पर ही लेटे रहने का आग्रह करता , पूरी रात यह सब चलता रहा ,उसकी पीड़ा ने मेरी नींद को परास्त कर दिया था | किन्तु "सुबह" आँचल फैलाये कुछ क्षण के लिए नींद का आभास करा गई| सुबह उठते ही दरवाजा खोल बाहर झाँका, उसी बुढ़िया को देखने के इरादे से ,मगर बाहर कोई न था| मन हल्का हो गया | वह सब भ्रम ही था | एक अपराधी होने से बच गई मै | लगभग एक सप्ताह बाद किसी काम से पड़ोस मे मेरा जाना हुआ |वहाँ पहुँच मैने देखा ,कि कई लोग पहले से ही वहाँ उपस्थित हैं | उस रात वाली बुढ़िया की वार्तालाप चल रही थी| मन मे उथल -पुथल मचने लगी, मै किस काम से गई थी ,यह भी भूल गई और उल्टे पांव घर वापस आ गई| मन और बुद्धि के बीच खुद को सही साबित करने का युद्ध सा चल रहा था, आज इस बात का अहसास हुआ, की हम कितनी जल्दी मानवीय कर्तव्यो से विमुख हो जाते है , किन्तु यथा अवसर अपने अधिकारों के लिए मानवता की दुहाई देते नही थकते वहीं जब बात कर्तव्यो की आती है, तो कोई न कोई बहाना लेकर पीछे हट जाते है, या फिर एक दूसरे का मुँह ताकने लग जाते है| आज मुझे खुद मे एक अपराधी नजर आ रहा था , खुद मे कबूल करने के पश्चात ,केवल पश्चाताप ही सजा रह जाती है, उसी अग्नि मे आज तक मै जल रही हूँ, हो सकता है ,अवसर उसकी आँच को थोड़ा कम कर सके, किन्तु यह भी परिस्थितियों पर ही निर्भर है |अपनी प्राथमिकताओ को अन्देखा कर मानवीय मूल्यो का मान कहाँ तक रख पाऊंगी इसका जवाब तो केवल समय के पास ही है , हमारे पास यदि कुछ है तो वह है पश्चाताप| इति