एक रूह की आत्मकथा - 3 Ranjana Jaiswal द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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एक रूह की आत्मकथा - 3

मैं अंधविश्वासी नहीं थी फिर भी सिंदूर गिरने से मेरा मन किसी भावी आशंका से कांप उठा था ।मैं दौड़ती हुई अपने कमरे में आई। मेरे पति रौनक अभी तक सुख की नींद में सोए पड़े थे।मैंने उनके माथे पर बिखरे बालों को प्यार से उनके सिर के पीछे समेटा तो चौंक पड़ी।उनका माथा बर्फ़ की तरह ठंडा था।मेरे मुँह से जोर की चीख निकली और फिर जैसे मुझे काठ मार गया।मेरी चीख सुनकर सबसे पहले मेरी सास दौड़ती हुई आई। उनके पीछे घर के अन्य सदस्य थे।वे मुझे जमीन पर शून्य पड़ी देखकर सब कुछ समझ गए थे। फिर भी अपने इत्मीनान के लिए वे रौनक को हिला-डुलाकर देख रहे थे ।थोड़ी देर बाद ही रोने -पीटने के स्वर से मेरा घर भर गया।मैं अभी तक उसी दशा में बैठी थी।अचानक मेरी सास ने मुझे झकझोर दिया और जोर से चिल्लाई-- "डायन,मेरे फूल से बेटे को खा गई।अरे,ऐसी क्या आग लगी थी तुझे कि मेरे अधमरे बेटे से अपनी हवस पूरी करने पर तुल गई।"
वे छाती पीट- पीटकर रो रही थीं और अनाप -शनाप कुछ भी बके जा रही थीं।उनका टारगेट मैं थी।उनकी बात मैं सुन रही थी,पर मेरी देह में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।न तो मेरी आँखों में आँसू थे, न मैं कुछ बोल रही थी ।मैं गहरे सदमें में थी।मेरी सास सबसे मेरी शिकायत कर रही थीं ।मुझे कोस रही थीं.. शाप दे रही थीं ।
"जाने इस टोनहीन ने कौन -सा टोना- टोटका किया था कि मेरे बेटे को अपनी सुध ही नहीं रहती थी।बस इसी
के लिए जीता था और इसी के लिए मर गया।हाय,मेरा होनहार बेटा!"
घर के बाकी सदस्य सास को संभाल रहे थे।मेरे प्रति सबकी नजरों में हिकारत के भाव थे ।उनकी नजरें कह रही थीं कि देखो,पति मर गया पर रो तक नहीं रही।धीरे-धीरे कॉलोनी के लोग जमा हो गए फिर रिश्तेदार-नातेदार आने लगे। रौनक को बेड से उतारकर जमीन पर लिटाया जा चुका था। मैं अपने कमरे के उसी कोने में जमीन पर बेसुध -सी बैठी थी।नई दुल्हन- सी ,सजी-संवरी।कपड़े बदलने या मेकअप उतारने का मुझे होश ही कहाँ था!
किसी का ध्यान मेरी तरफ नहीं था।कोई मुझे सांत्वना नहीं दे रहा था। सभी ने मुझ पर एक नज़र जरूर डाली पर उन नजरों में मेरे प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी।किसी को मेरे दुःख का अनुमान तक नहीं था।सबको लग रहा था कि ये तो हीरोइन है,इसका क्या,कल किसी और को पकड़ लेगी पर माँ को तो दूसरा बेटा नहीं मिलेगा।भाई -बहन को तो उनका भाई नहीं मिलेगा।
समाचार सुनकर मेरे मायके वाले आए।मेरी माँ का ध्यान मेरी तरफ गया।वे रोती -बिलखती मेरे पास आईं और मुझे सीने से लगाकर रोने लगीं।मेरे भाई -बहन भी मेरे पास ही बने रहे।माँ उनसे कह रही थी कि इसे रूलाना जरूरी है वरना इसका दुःख कलेजे में जम जाएगा ,फिर तो यह भी नहीं बचेगी।सभी मुझे झकझोर रहे थे ।मेरे पति रौनक के मर जाने का जिक्र कर रहे थे।उसकी अच्छाइयों का गुणगान कर रहे थे,पर मुझ पर जैसे कोई असर ही नहीं था।
बाहर काफी भीड़ इकट्ठा हो गई थी।वे अपनी पार्टी के लोकप्रिय नेता ही नहीं बेहद अच्छे इंसान भी थे।भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस भी आ गई थी।
उनकी शवयात्रा में हजारों की भीड़ थी।जो भी सुनता भागता हुआ चला आता।भरी -पूरी जवानी में उनका यूँ चला जाना सबको रूला रहा था बस मुझ पापिन की आंखों में आंसू नहीं थे। मेरी आँखों में दूर -दूर तक रेगिस्तान फैला हुआ था।कब मेरे हाथों से चूड़ियां तोड़ी गईं।कब माथे से टीका- सिंदूर पोंछा गया ,मुझे पता ही नहीं चला।सास ने मेरी माँ से स्पष्ट कह दिया कि अब यह मेरे घर में नहीं रह सकती।बेटे की चिता के साथ इससे हमारे रिश्ते भी जल जाएंगे।सारी औपचारिकता के बाद आप इसे मेरी आँखों के सामने से ले जाएं।मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहती।
माँ उनकी बात को बेटे की मौत से टूटी माँ का प्रलाप समझकर चुप थी।उनकी चिन्ता मेरी हालत को लेकर थी।शाम को मेरा भाई डॉक्टर को बुलाकर लाया।डॉक्टर ने मुझे देखते ही चिंतित स्वर में कहा--इन्हें गहरा सदमा लगा है।किसी तरह इन्हें रूला दीजिएगा।वैसे अभी मैं इन्हें नींद का इंजेक्शन दे रहा हूँ ताकि ये कुछ देर सो लें।
ससुराल पक्ष मेरी स्थिति को मेरे अभिनय का ही पार्ट समझ रहा था।बीच- बीच में उनकी तरफ से कुछ विष- बुझे जुमले उछाले जाते ,जो विष बुझे तीर की तरह सीधे मेरे दिल पर लगते थे ,फिर भी मेरी आंखें सूखी थीं।नींद के इंजेक्शन के बाद भी मेरी पलकें नहीं झपकीं।आखिरकार मुझे हॉस्पिटल ले जाया गया।मैं पथराई आँखों से सब कुछ देख रही थी ,जैसे कुछ भी समझ में न आ रहा हो।मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि रौनक इस दुनिया में नहीं रहे।उन्होंने मुझे इस बेरहम दुनिया में अकेला छोड़ दिया है।मुझे समझने वाला एक ही तो शख्स था,वो भी नहीं रहा।ईश्वर ने मेरे साथ बहुत बुरा किया है... बहुत बुरा।अब मैं क्या करूंगी?अकेले कैसे जीऊँगी?मुझे मर जाना चाहिए।दिमाग में ये सब बातें चल रही थी,पर देह निष्क्रिय था।डॉक्टर को डर था कि कहीं मैं कोमा में न चली जाऊँ।मुझे रुलाने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं।
समर उन दिनों देश से बाहर था।वहां से लौटते ही उसे रौनक की मृत्यु की खबर मिली।वह शॉक्ड था।वह पहले रौनक के घर गया और उसके घर वालों को सांत्वना दी।मुझे घर में न देखकर वह और परेशान हुआ।मेरे हॉस्पिटल में होने की खबर ने उसे चिंतित कर दिया।वह भागा हुआ हॉस्पीटल पहुँचा। वह मेरे बेड के पास वाली स्टूल पर बैठकर रोने लगा ।फिर उसने मेरे तपते हुए माथे पर अपना एक हाथ रख दिया और दूसरे हाथ से मेरी हथेली को सहलाते हुए रुआंसे स्वर में बोला--'कामिनी भाभी,ये क्या हो गया?भरी जवानी में ही मेरा दोस्त मुझे और आपको अकेला छोड़ गया।मैं अभागा आखिरी वक्त उससे मिल भी न पाया।जीवन भर का साथ एक पल में ही छूट गया।'
मेरे माथे पर उसके आंसुओं की बूंदें गिर रही थीं।एकाएक लगा कि मेरी तनी हुई शिराओं में ख़ून दौड़ने लगा है। मेरे शरीर में हरकत हुई।अब मुझे सब कुछ साफ -साफ समझ में आ रहा था।मैं जोर से चीखी और रौनक -रौनक कहते समीर से लिपट गई और फूट -फूटकर रो पड़ी।घण्टों रोती रही और समर मुझे सान्त्वना देता रहा ...समझाता रहा--'भाभी मत रोओ,मैं हूँ न।भैया के किए वादों को मैं पूरा करूंगा।उनकी जगह तो नहीं ले सकता ,पर उनकी सारी जिम्मेदारी निभाउंगा।आप चिंता मत करिए। जल्दी से स्वस्थ हो जाइए।मृत्यु आने से पहले मरने की बात करना जिंदगी से पलायन है।कायरता है। जिंदगी बार -बार नहीं मिलती।'
--मगर समर,रौनक के घर वाले उसकी मृत्यु का जिम्मेदार मुझे ठहरा रहे हैं।सब मुझे कोस रहे हैं।आखिर मेरा अपराध क्या है?रौनक मेरी जान था ..प्यार था ..सुहाग था।इससे भी ज्यादा हमदर्द दोस्त और पति था।उसने मुझे कोयले से हीरा बनाया,जीना सिखाया ...लड़ना सिखाया और खुद चला गया।मैं कैसे जीऊं समर.....?
हम दोनों के बीच की बातचीत को मेरी माँ और भाई सुन रहे थे और उन्हें इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लग रहा था।
एकाएक मेरी नजर दरवाजे पर खड़ी सास पर पड़ी।सास की आँखों में हम दोनों के लिए अजीब -सी हिकारत के भाव थे।उनके पीछे खड़े उनके बेटे और बेटी भी हमें घूर रहे थे।मेरा जिस्म जोर से काँपा और मैं बेसुध हो गई।