तमाचा - 18 (शोर) नन्दलाल सुथार राही द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तमाचा - 18 (शोर)

हाथ में पेंपलेट लिए हुए कॉलेज के कुछ विद्यार्थी कॉलेज के मुख्य गेट पर खड़े थे और सभी आने वाले विद्यार्थियों को पेम्पलेट बाँट रहे थे और साथ ही दिव्या को जिताने का आग्रह कर रहे थे। कॉलेज में चुनावों का माहौल तीव्र गति के साथ आगे बढ़ रहा था।
थोड़ी देर में दिव्या की गाड़ी कॉलेज में प्रवेश करती है। दिव्या को आज पहली बार ऐसे भीड़ के सामने भाषण देना था । जिसके लिए वह बिलकुल भी तैयार नहीं थी। सिर्फ अपने पापा की इच्छा पूर्ति के लिए आज उसे उस चुनाव के दलदल में पैर रखना पड़ेगा। वह कॉरिडोर से होते हुए सीधी अपने क्लासरूम चली गयी और बाहर उसके पिता के नुमाइंदे उसके लिए भीड़ इकट्ठा कर रहे थे।
दिव्या जाकर पीछे वाली बेंच पर जा बैठी और कुछ सोचने में मशगूल हो गयी। क्लासरूम में आज गिनेचुने ही विद्यार्थी थे जिसमे कुछ तो पढ़ाई में रुचि रखने वाले थे और कुछ कॉलेज के बाग में खिले हुए नए-नए फूल और उन पर मंडराते हुए कुछ भ्रमर। दिव्या ने सोचा कि आज राकेश से कुछ बात करेगी और उसे अपनी टीम में शामिल करेगी पर अभी तक राकेश का कुछ अता - पता नहीं था। कभी सोचती कि आज वह क्यों नहीं आया और कभी सोचती हो सकता है वह बाहर भीड़ में शामिल हो।

"दिव्या मैडम ..." अचानक से दिव्या तब चेतन अवस्था में आई, जब किसी ने दो-तीन बार जोर-जोर से उसे पुकारा।
"क्या है?" दिव्या झुंझुलाती हुई बोली।
"मैडम , बाहर सब आपका इंतजार कर रहे है । बहुत भीड़ हो गयी है । " उस व्यक्ति ने अपनी आवाज में डर के थोड़े से प्रतिशत को शामिल करते हुए बोला।
"हाँ! आ रही हूँ , तुम जाओ अभी।"

चारों तरफ़ भीड़, शोर और नारों के बीच दिव्या जाकर एक पत्थर के बेंच पर खड़ी हो जाती है। तभी उसकी नज़र राकेश पर पड़ती है जो अभी ही उस भीड़ का हिस्सा बना था और भीड़ में सबसे पीछे खड़ा था।
कुछ राकेश को देखकर और कुछ अपने आनुवंशिक प्रभाव से वह थोड़ी हिम्मत करके बोल ही पड़ी।
"दोस्तों, सच बात बताऊँ तो मेरी कोई इच्छा नहीं थी इस चुनाव में भाग लेने की। लेकिन जब मैंने यहाँ आकर अपनी कॉलेज की दुर्दशा देखी तो मैंने अपने पिता से इसकी उन्नति के लिए सहयोग करने की बात कही और उन्होंने मुझे जो सबसे बड़ी सीख दी वो ये की हमें हमारी समस्याओं का निदान खुद ही करना पड़ता है। हालांकि वो हमेशा तत्पर है हमारी हर संभव सहायता के लिए ,लेकिन हम हर कार्य के लिए उनके पास तो नहीं जा सकते। हमें खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी और मेरा लक्ष्य सिर्फ सेवा करना है न कि प्रसिद्धि प्राप्त करना। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि कॉलेज के विकास के इस संघर्ष में आप मेरे भागीदार बनेंगे और मुझे जिताएँगे।"
दिव्या के इस स्पीच के बाद चारों ओर तालियों का शोर होने लगा, दिव्या और उसकी पार्टी की विजय के नारों से कॉलेज गूंज उठा।
दूर खड़ा राकेश सोच रहा था कि ये तो अच्छा हुआ हमारा मामला सुलझ गया, वरना पता नहीं मेरा क्या हाल होता।
वो ये सोच ही रहा था कि तभी दिव्या ने पास में खड़े अपने एक आदमी से राकेश को बुलाने को कहा।

"ओ लड़के ! उधर चल मैडम बुला रही है तुमको।" उस व्यक्ति ने राकेश पर हल्का सा रोब झाड़ते हुए बोला।
"क्यों? क्या बात है?" राकेश ने कुछ संदेह और डर के मिलेजुले स्वर में बोला।
"तू चल ना । ज्यादा सवाल-जवाब मत कर, वहाँ जाके अपने आप पता चल जाएगा।"
राकेश फिर सोचने लगा , पता नहीं अब कौनसी मुसीबत आई है, वह मामला तो शांत हो गया था, चलो जाकर ही देखते है।
"हाँ जी ! मैडम "
"मैडम नहीं दिव्या"
"हाँ दिव्या मैडम"
"मैडम नहीं सिर्फ दिव्या"
" जी दिव्या जी बोलों अब क्या गुस्ताखी हो गई हमसे।" राकेश ने थोड़ा सहज होते हुए बोला।
"क्या तुम इस चुनाव में हमें सपोर्ट करोगे?" दिव्या ने कपोल को छूते हुए अपने एक मासूम सी बालों की लट को कान के पीछे रखते हुए बोला।
"हाँ हाँ! क्यों नहीं । जो भी आप बोलो मैं हर समय तैयार हूँ।" राकेश ने कुछ राहत की सांस लेते हुए बोला।
"ओके , फिर आज शाम चार बजे पार्टी ऑफिस में मीटिंग है टाइम पर आ जाना।"

कुछ ही समय में भीड़ तितर-बितर हो जाती है और सब अपने-अपने रास्तों में चल पड़ते है।
राकेश दिव्या के दिये हुए समय से आधे घंटे पहले ही उनके पार्टी ऑफिस पहुँच जाता है। पर दिव्या अभी तक वहाँ नहीं पहुँची थी। कुछ ही देर में जैसे वह वहाँ पहुँचती है और गाड़ी से नीचे उतरती है , वह कुछ ऐसा देख लेती है जिसे देखकर वह दंग रह जाती है । उसको इस बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।

क्रमशः....