इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 9

अब अगर कोई गुस्से से किसी को पीटे और मार खाने वाला हंसता जाए तो पीटने वाले को और गुस्सा तथा देखने वालों को और हंसी आयेगी ही न! इसी तरह कक्षा में शाहरुख को लड़के पहचानने लगे।
फिर कुछ दिन बाद लड़कों को ये भी पता चला कि शाहरुख केवल दिखता छोटा है पर वो उम्र में उन सभी क्लास के साथियों से दो - तीन साल बड़ा है।
मास्टर के जाने के बाद लड़के शाहरुख को घेर लेते और उससे तरह- तरह के सवाल पूछते, जैसे - क्या वो कई साल फेल हो गया, पीछे कैसे रह गया? अगर उम्र ज़्यादा है तो दिखने में इतना छोटा कैसे रह गया, बौना है क्या? जब पता है कि देर से आने पर क्लास में मार पड़ती है तो रोज़ लेट क्यों हो जाता है? और अगर किसी वजह से लेट हो भी जाता है तो मार खाने पर हंसता क्यों है?
बस, इन सभी सवालों का सबको जवाब देने में उसकी सब साथियों से दोस्ती होती जाती और वो क्लास में खूब लोकप्रिय होता जाता।
एक दिन स्कूल में छुट्टी थी पर वो करण के घर आ गया। किसी दोस्त से उसकी साइकिल मांग कर लाया था। करण ने उससे आने का कारण पूछा तो बोला, मुझे एक कुत्ता पालना है, मैं ढूंढने आया हूं, तू कुत्ता ढूंढने में मेरी मदद करवा दे?
करण बोला - तू कुत्ते को लेकर कैसे जाएगा?
शाहरुख बोला - मैं तुझे ले चलूंगा, तू कुत्ते को लेकर साइकिल पर पीछे बैठ जाना।
करण ने कहा - फिर मैं वापस घर कैसे आऊंगा, तेरा घर तो यहां से बहुत दूर बताया।
- मैं तुझे साइकिल से वापस छोड़ जाऊंगा। शाहरुख बोला।
- लेकिन मुझे तो कोई कुत्ते की दुकान मालूम ही नहीं है। करण ने सफाई दी।
शाहरुख झट से बोला - ओए, मुझे कुत्ता खरीदना थोड़े ही है, मेरे पास कुत्ता खरीदने के लिए पैसे नहीं होते।
- फिर?
- अपन गली का कोई कुत्ता पकड़ेंगे। शाहरुख ने सुझाया।
- यार गली का कुत्ता हाथ में लेकर मैं साइकिल पर कैसे बैठूंगा? काट खायेगा। करण ने चिंता जताई।
शाहरुख के पास जैसे हर समस्या का समाधान था, झट बोला - हम कोई बड़ा कुत्ता थोड़े ही पकड़ेंगे, छोटा पिल्ला पकड़ेंगे।
- अच्छा! ये सुनते ही करण जल्दी से चप्पल पहन कर शाहरुख के साथ बाहर आ गया और दोनों आसपास की गलियों में गली के कुत्ते तलाशते- ढूंढते घूमने लगे।
काफ़ी देर तक भटकने के बाद एक कुछ छोटा कुत्ता उन्हें दिखाई दिया।
- इसका पीछा करें? करण ने कहा।
- नहीं यार, मुझे ऐसा कुत्ता चाहिए जिसके कान खड़े रहते हों। शाहरुख ने सुझाया।
लगभग आधे घंटे तक भटकते हुए दोनों सड़क के उस पार दूसरी कॉलोनी में पहुंच गए।
भूख भी लग आई थी करण को। वह शाहरुख से बोला - यार अभी जाने दे, मैं ढूंढ कर पता करके रख लूंगा और तुझे बता दूंगा, फिर तू बाद में आकर ले जाना। करण ने जैसे बला टालने की कोशिश की।
शाहरुख बोला - बाद में मुझे अगले रविवार को ही आना पड़ेगा, उससे पहले आना नहीं मिलेगा?
- क्यों?
- साइकिल रविवार को ही मिलती है न, मेरे चाचू की है वो संडे को ही देते हैं। संडे को उनकी छुट्टी रहती है न।
- तो तू रविवार को ही ले जाना। मैं तभी ढूंढूंगा। चल, अभी घर जाता हूं। करण उससे बोला।
- मैं भी तो चलूंगा तेरे घर।
- क्यों?
- मुझे पानी पीना है, प्यास लगी है। शाहरुख बोला।
- चल... करण घर की ओर चल दिया। शाहरुख भी उसके साथ - साथ साइकिल को पकड़े - पकड़े पीछे आया।
घर पहुंच कर करण ने देखा कि उसकी मां खाना खाने के लिए उसका इंतज़ार कर रही है। मां ने उसे देखते ही झटपट एक थाली में खाना निकाला और उसे देते हुए बोली - तेरे दोस्त को भी बुला ले।
ये सुनते ही शाहरुख ने झटपट साइकिल को स्टैंड पर खड़ा किया और करण के पास आ बैठा। मां ने एक लोटे से दोनों के हाथ धुलाए और थाली उनके आगे खिसका कर और रोटी लेने भीतर रसोई घर में चली गई।
खाना खाकर शाहरुख जब जाने लगा तो करण उसकी साइकिल को पास आकर ध्यान से देखने लगा। तभी शाहरुख उससे बोला - तू मेरा सबसे खास दोस्त है। कह कर शाहरुख साइकिल पर सवार होकर चल दिया। करण दो - चार कदम तेज़ी से उसके पीछे दौड़ा और लपक कर उसने साइकिल का कैरियर पीछे से ज़ोर से पकड़ लिया।
शाहरुख ने डगमगा कर साइकिल रोकी और पैर को नीचे टिका लिया। फिर पीछे मुड़ कर करण की ओर देखने लगा।
- क्यों? करण बोला। शाहरुख की समझ में कुछ नहीं आया। वह फिर बोला - मैं पूछ रहा हूं कि तूने मुझे अपना सबसे खास दोस्त क्यों बोला?
- क्योंकि मैंने कभी किसी और के साथ उसकी थाली में खाना नहीं खाया।
- क्यों? करण ने लापरवाही से कहा।
- कोई खाने ही नहीं देता। अपने घर के अलावा तो कहीं खाना मिलता भी नहीं। मेरे दूसरे दोस्तों की मम्मी तो मुझे पानी भी अलग बर्तन में देती हैं। दूर से।
- क्यों?
- मैं क्या जानूं? उनसे पूछ।
- मैं क्यों पूछूं? करण ने कहा।
- तभी तो मैंने तुझे सबसे खास दोस्त बोला। कह कर शाहरुख ने कुछ मुस्कुराते हुए करण को देखा।
करण ने साइकिल छोड़ दी और बोला - जा।
...ये थी करण और शाहरुख की दोस्ती की पहली शुरुआत। याद करते - करते करण ने अपनी आंखों की कोर में आई पानी की बूंदें साफ़ कीं और दरवाज़े की तरफ़ देखने लगा। उसे चाय पीने की इच्छा हो रही थी। उसकी मां अभी थोड़ी ही देर पहले उसे खाना खिला कर घर गई थी और जाते- जाते कह गई थी कि थोड़ी देर में चाय लेकर मझले को भेजूंगी।
शायद उन्हीं मझले भैया के इंतज़ार में था करण। चाय की तलब लगी थी।
उसके घुटने पर बंधी पट्टी न जाने क्यों इस समय कुछ ज्यादा ही टीस रही थी।
करण को ध्यान आया कि मां कहती थी जब कोई चोट ठीक होने लगे तो वो ऐसे ही टीसती है। शायद ये घायल ज़ख्म का बदन को आखिरी सलाम होता है।
करण को जब भाई सामने से आता हुआ दिखाई दिया तब उसका ध्यान भाई पर नहीं बल्कि भाई के हाथ में पकड़ी हुई चाय की केतली पर था।
प्याला हाथ में पकड़ कर उसने भैया से एक बार भी नहीं कहा कि आप भी पियो भैया, वो प्याला होठों से लगा कर चाय सुड़कने लगा।