- अरी मारा क्यों उसे?
छोटू की मां की सहेली ने तो पूछ भी लिया, बाकी ये सवाल तो सभी के मन में था। ऐसा क्या हुआ जो अचानक छोटू की मां ने उसके गाल पर ऐसा करारा झापड़ रसीद कर दिया? बेचारा चुपचाप बैठा खेल ही तो रहा था और वो ही तो बुला कर लाया था सबको कचरे की मिल्कियत में से माल छांटने को। सब छोटू की मां की तरफ़ देखते रह गए पर उसने किसी की तरफ़ न देखा। बस, अपने साथ चल रही अपनी सहेली के कान के पास मुंह ले जाकर धीरे से फुसफुसाई - देख तो, मुंह लगा कर गुब्बारे की तरह फुला रहा है!
सहेली ने देखा तो मुंह बिचका कर हंस पड़ी। छोटू नीची गर्दन करके झाड़ी के पास खड़ा था और पास ही पड़ा था वो छोटा सा, धूल - मिट्टी में लिथड़ा मटमैला कंडोम जिसे फुलाने के चक्कर में उसने थप्पड़ खाया।
सबको जवाब मिल गया और सब अपने - अपने काम में लग गए।
शाम को ही गज़ब हो गया। करण दोपहर को रोटी खाकर चौबारे में सो गया था। चाय के प्यालों की खड़खड़ाहट भरी आवाज़ सुन कर उठा तो दौड़ते हुए एक लड़के ने आकर सूचना दी कि ट्रैक्टर चला गया।
- चला गया? कहां चला गया? ट्रैक्टर कोई गाय- भैंस है जो चरता- चरता कहीं चल देगा?
- अरे नहीं, चोरी चला गया।
- कौन बोला, कहता हुआ करण उठ कर बाहर की ओर भागा। सूचना देने वाला लड़का उसके पीछे- पीछे भागा।
आर्यन भी वहीं खड़ा था और सिर खुजा रहा था। करण को देखते ही बोल पड़ा - यार, शाहरुख तो कह रहा है कि उसे कुछ नहीं मालूम, उसने किसी को नहीं भेजा। मैंने फ़ोन किया था उसे!
करण की समझ में नहीं आया कि अब क्या करें। बोला - शाहरुख आ रहा है क्या?
आर्यन उसकी बात का जवाब भी नहीं दे पाया था कि सामने से एक बाइक पर सवार दो पुलिस वाले आते दिखाई दिए।
इधर - उधर देख कर उन्होंने मौके का मुआइना किया और आर्यन व करण से कुछ बातें करके चले गए।
शायद रपट लिखाने का काम शाहरुख ने ही कराया था।
करण घर पहुंचा तो चौक में उसके बूढ़े पिता के पास दो- तीन आदमी बैठे थे। करण सीधा भीतर चला गया।
आदमियों के लौट जाने के बाद धीरे- धीरे लंगड़ाते हुए पिता जब भीतर आए तब करण को पता चला कि ये लोग कुछ रुपया लेने आए थे।
- रुपया? कैसा रुपया? काहे का रुपया? क्यों?
बूढ़े पिता कुछ खखारते हुए मुस्कुराए और बोले - बावला मत बन। तू नहीं जानता कैसा रुपया, काहे का रुपया! अरे कागज़ का रुपया। गांधी के सिर वाला रुपया... कह कर वो ज़ोर से हंसे।
करण उनकी शक्ल देखता रहा और सिर खुजाता रहा।
पिता नाटकीयता छोड़ कर बोले - बेटा, कर्ज़ लेने आए थे।
- क्यों?
- कह रहे थे कि उनके तीन आदमी काम छोड़ गए, उनका हिसाब करना है।
- काम क्यों छोड़ गए?
करण के इस सवाल के रूखेपन और उसके सुर की तल्खी से पिता तिलमिला गए। आवाज़ कुछ ऊंची करके बोले - मुझे क्या मालूम?
फिर अपने आप ही अपना सुर साधते हुए समझाने की सी मुद्रा में आ गए और कहने लगे - बेटा मैं किसी की ज़रूरत पर बेकार की नुक्ता- चीनी नहीं करता, कोई क्यों आया, क्यों गया, मुझे क्या। मैंने तो उसका पट्टा देखा, संभाला और कर्जा दे दिया। काम खतम!
करण को तसल्ली नहीं हुई। वह मानो किसी उधेड़बुन में लगा ही रहा।
बात दरअसल ये थी कि ये शहर के नाइयों, बारबर्स की बस्ती थी। यहां ज़्यादातर वही लोग रहते थे जिनका शहर में कहीं भी हेयर- कटिंग सैलून का धंधा था। चाहे दुकान के मालिक हों या मजदूर, यहां रहते थे। किसी का अपना पुराना मकान, दुकान या पुश्तैनी ठिकाना था तो कोई किराएदार की हैसियत से रहता था। परिवार वाले, अकेले, शादी- शुदा, कुंवारे...सब थे।
कहते हैं ये पूरी की पूरी बस्ती अवैध तरीके से ही बसी हुई थी। पास ही और भी झुग्गी बस्तियां थीं जिनमें सब तबकों के लोग रहते थे।
लेकिन फिर भी इमरान के यहां का पार्षद बनने के बाद कभी- कभी बीच में बस्ती के नियमन की कोशिशें भी हुई थीं और मौके - बेमौके लोगों को पट्टे भी बांटे गए थे। हां, ये वही लोग थे जो रसूख वाले असरदार लोग थे।
इसमें नई बात क्या। ये तो दुनिया का दस्तूर ठहरा। पंजा लड़ाके ही पंजीरी मिलती है।
तो करण के लिए हैरानी की बात ये थी कि पिछले कुछ दिनों से इस बस्ती में दो तरह की खबरें बड़े पैमाने पर आ रही थीं। एक तो इलाके में चोरियां खूब हो रही थीं और दूसरे जगह- जगह से लोग काम खूब छोड़ कर जा रहे थे।
हैरानी की बात है न? एक तरफ़ तो भयंकर बेरोजगारी, दूसरी तरफ लोगों का काम छोड़ कर जाना।
इसके पीछे कुछ न कुछ जरूर था।
करण कई लोगों के बारे में ऐसा सुन रहा था कि चले गए या फिर जाने वाले हैं।
और चोरी का आलम तो ये था कि खुद की नाक के नीचे से ट्रैक्टर दिन दहाड़े गायब हो गया।
आर्यन उसका जिगरी दोस्त था। दोनों बचपन से साथ थे। नज़दीक के सरकारी स्कूल में जितने भी दिन कटे, जैसे भी दिन कटे, दोनों के साथ - साथ ही कटे। दोनों ही दसवीं की परीक्षा में फेल होने के बाद से मटरगश्ती के धंधे में थे। न दोबारा स्कूल का मुंह देखा और न जीवन में फिर कभी कॉपी - किताब से कोई वास्ता रखा।
ये बस्ती नाइयों की बस्ती कहलाती थी। इसके पुराने वाशिंदों में से एक होने पर भी करण के पिता ने ख़ुद कभी ये काम नहीं किया। वो तो जेब से थोड़े मजबूत होने के चलते लोगों को पैसा- रुपया उधार देने का काम करते थे। उनकी आमदनी ब्याज की आमदनी ही थी। पुराने आदमी होने के नाते बस्ती में सब उनकी इज्ज़त करते थे और इसीलिए उन्हें रुपए के लेन- देन की दुनिया में भी गुंडों या आधुनिक युग के बाउंसर्स की ज़रूरत कभी नहीं पड़ी।
वैसे भी उनके तीन बेटों में से सबसे छोटा करण इतना दुनियादार और मिलनसार था कि उसके साथ बस्ती के लड़कों का जमघट- जमावड़ा लगा ही रहता था। बाकी दो तो कहीं काम करते थे और अपने काम से काम रखते थे।
शायद ये ज़िंदगी में पहला मौका था जब करण के पिता ने ये दृश्य ख़ुद अपनी आंखों से देखा।
एक बड़ी सी काली कार में आई लड़की ने जब दरवाज़े पर कार रोक कर करण का पता पूछा। लड़की का चश्मा, कार, रुतबा सब कुछ बड़ा था सिवा ड्रेस के!